________________
। ६० । कविपरिचय तथा रचनाकाल
आबू आदि स्थानों में भी आपकी चरणपादुकाएं स्थापित ___ अन्य अधिकांश जैन काव्यों की भाँति कीर्तिराज के की गयीं। जयकीर्ति और अभयविलासकृत गीतों से ज्ञान नेमिनाथमहाकाव्य में कवि प्रशस्ति नहीं है। अत: काव्य होता है कि सम्वत् १८७६, वैशाख कृष्ण दशमी को गड़ाले से उनके जीवन तथा स्थितिकाल के विषय में कुछ भी ज्ञात (बोकानेर का समीपवर्ती नालग्नाम ) में उनका प्रासाद नहीं होता। अन्य ऐतिहासिक लेखों के आधार पर उनके बनवाया गया था। कीर्तिरत्नसूरि के ५१ शिष्य थे। जीवनवृत्त का पुनर्निर्माण करने का प्रयास किया गया है। नेमिनाथ काव्य के अतिरिक्त उनके कतिपय स्तवनादि भी उनके अनुसार कीतिराज अपने समय के प्रख्यात तथा उपलब्ध हैं। प्रभावशाली खरतरगच्छीय आचार्य थे । वे संखवालगोत्रीय नेमिनाथ महाकाव्य उपाध्याय कीतिराज की रचना शाह कोचर के वंशज देपा के कनिष्ठ पुत्र थे। उनका है। कोतिराज को उपाध्याय पद संवत् १४८० में प्राप्त जन्म सम्वत् १४४६ में देपा की पत्नी देवलदे की कुक्षि से हुआ और सं० १४६७ में वे आचार्य पद पर आसीन हुआ। उनका जन्म नाम देल्हाकुंवर था। देल्हाकुंवर ने होकर कीर्तिरत्नसूरि बने । अत: नेमिनामकाव्य का रचनाचौदह वर्ष की अल्पावस्था में, सम्वत् १४६३ की आषाढ़ काल संवत् १४८० तथा १४६७ के मध्य मानना सर्वथा बदि एकादशी को दीक्षा ग्रहण की। जिनवर्द्धनसूरि ने आपका न्यायोचित है। सं० १४६५ की लिखी हुई इसकी प्राचीननाम कीर्तिराज रखा । कीतिराज के साहित्यगुरु भी जिन- तम प्रति प्राप्त है और यही इसका रचनाकाल है। वर्द्धनसूरि ही थे। उनकी प्रतिभा तथा विद्वत्ता से प्रभावित कथानक होकर जिनवद्ध नसूरि ने सम्वत् १४७० में वाचनाचार्य पद नेमिनाथ महाकाव्य के बारह सर्गों में तीर्थकर तथा दस वर्ष पश्चात् जिनभद्रसूरि ने उन्हें मेहवे मैं उपाध्याय नेमिनाथ का जीवनचरित निबद्ध करने का उपक्रम किया पद पर प्रतिष्ठित किया। पूर्व देशों का विहार करते समय गया है। कवि ने जिस परिवेश में जिनचरित प्रस्तुत किया जब कीर्तिराज जैसलमेर पधारे, तो गच्छनायक जिनभद्र- है, उसमें उसकी कतिपय प्रमुख घटनाओं का ही निरूपण सूरि ने योग्य जानकर उन्हें सम्वत् १४६७ की माघ शुक्ला सम्भव हो सका है। दशमी को आचार्य पद प्रदान किया। तत्पश्चात् वे च्यवनकल्याणक वर्णन नामक प्रथम सर्ग में यादव राजकीतिरत्नसूरि के नाम से प्रख्यात हुए। आपके अग्नज धानी सूर्यपुर में समुद्रविजय की पत्नी, शिवादेवी के गर्भ लक्खा और केल्हा ने इस अवसर पर पद-महोत्सव का भव्य में बाईसर्वे जिनेश के अवतरण का वर्णन है। अलंकारों के आयोजन किया। कीर्तिराज ७६ वर्ष की प्रौढ़ावस्था में, विवेकपूर्ण योजना तथा बिम्बवैविध्य के द्वारा कवि सूर्यपुर का पच्चीस दिन की अनशन-आराधना के पश्चात् सम्वत् १५२५ रोचक कवित्वपूर्ण चित्र अंकित करने में समर्थ हुआ है। वैशाख बदि पंचमी को वीरमपुर में स्वर्ग सिधारे। संघ ने द्वितीय सर्ग में शिवादेवी परम्परागत चौदह स्वप्न देखती वहां पूर्व दिशा में एक स्तूप का निर्माण कराया जो अब है। समुद्रविजय स्वप्नफल बतलाते हैं कि इन स्वप्नों के भी विद्यमान है। वीरमपुर, महवे के अतिरिक्त जोधपुर, दर्शन से तुम्हें प्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी जो अपने भुजबल १ विस्तृत परिचय के लिये देखिये श्री अगरवन्द नाहटा तथा भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्मादित 'ऐतिहासिक जैन
काव्यसंग्रह', पृ० ३५-४०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org