Book Title: Jinsutra Lecture 59 Rasmayta aur Ekagrata
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां प्रवचन रसमयता और एकाग्रता Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार कुछ दिन ध्यान में जी लगता है, कुछ दिन भजन में; लेकिन एकाग्रता कहीं भी नहीं होती। आकस्मिक रूप से भगवान से मिलन हुआ और संन्यास भी ले लिया। क्या यह ध्यान कायम रहेगा? भगवान श्री कृष्ण के सिरदर्द के लिए ज्ञानियों ने पैर की धूल देने से इनकार किया लेकिन गोपियों ने दे दी—इसका रहस्य क्या है? क्या ध्यान की मृत्यु और प्रेम की मृत्यु भिन्न होती है? 2010_03 www.ainelibrary org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न : कुछ दिन ध्यान में जी लगता है, फिर | जीवन के प्रत्येक पल तुम ऐसा ही पाओगे। कुछ दिन पूजा और भजन चलता है, लेकिन बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी एकाग्रता कहीं भी नहीं होती। अपनी इस स्थिति अब कहां ले जाके बैठे ऐसे दीवाने को हम से परेशान हूं। कृपा कर मुझे साधे। बगीचे में बिठाओ तो लगता नहीं। मरुस्थल में ले जाओ तो घबड़ाता है। मन का स्वभाव ऐसा। न यहां लगता, न वहां लगता। मन का | बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी स्वभाव है द्वंद्व। जो करोगे वहीं से उचटा हुआ लगेगा। जहां हो अब कहां ले जाके बैठे ऐसे दीवाने को हम हेगा। जहां नहीं हो वहां का रस जन्मेगा। मन एक तरह का पागलपन है. एक तरह की विक्षिप्तता है। जो मिला, व्यर्थ हो जाता है। जो नहीं मिला, वे दूर के ढोल बड़े | मन से मुक्त होना ही मुक्ति है। मन के पार होना ही स्वस्थ होना सुहावने लगते हैं। है। तो पहली तो बात, मन के इस स्वभाव को समझने की मन के इस स्वभाव को समझो। न तो ध्यान काम आता, न कोशिश करो। अक्सर लोग समझने की कम कोशिश करते हैं, भजन काम आता; मन के स्वभाव को समझना काम आता है। / छुटकारा पाने की ज्यादा कोशिश करते हैं। और छुटकारा बिना मन की यह प्रक्रिया है। पद मिल जाए तो असंतुष्ट, पद न समझे कभी नहीं है। तो तुम्हारी आकांक्षा यह होती है, कैसे मिले तो असंतुष्ट। पद न मिले तो पीड़ा, पद मिल जाए तो झंझट मिटे। लेकिन बिना समझे झंझट मिटी ही नहीं। नासमझी व्यर्थता का बोध। गरीब रोता, अमीर नहीं है। अमीर रोता कि में झंझट है। अमीर हो गया, अब क्या करूं? तो तुम चाहते हो, कैसे इस मन से छुटकारा हो? लेकिन पहले जो भी तुम्हारे पास है, वह पास होने के कारण ही दो कौड़ी का इस पहचानो तो। इससे दोस्ती तो साधो। इससे परिचय तो हो जाता है। और जो तुमसे बहुत दूर है, दूर होने के कारण ही बनाओ। इसके कोने-कांतर तो खोजो। दीया तो जलाओ कि उसका बुलावा मालूम होता है। इसके सारे स्वभाव को तुम ठीक से देख लो। उस देखने में, उस मन के इस आधारभूत जाल को समझो। इसे पहचानो। यह | दर्शन में, उस साक्षीभाव में ही तुम पाओगे विजय की यात्रा पूरी ध्यान और भजन का ही सवाल नहीं है। भोजन करो तो मन में होने लगी। उपवास का रस उमगता है कि पता नहीं, उपवास करनेवाले न जिस दिन कोई मन को पूरा समझ लेता है, उसी दिन मन मालूम किस गहन शांति और आनंद को उपलब्ध हो रहे हों। | विसर्जित हो जाता है। जैसे सूरज के ऊगने पर ओसकण उपवास करो तो भोजन की याद आती है। तिरोहित हो जाते हैं, ऐसे ही बोध के जगने पर मन तिरोहित हो 569 ___ 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamm mmmmmmmmmmona जिन सूत्र भाग: 2 जाता है। जैसे दीये के जलने पर अंधेरा नहीं पाया जाता, ऐसे शांत भाव से देखना। तुम्हारे देखने में ही तुम पाओगे मन गिरने समझ के, प्रज्ञा के दीये के जलने पर मन नहीं पाया जाता। लगा। तुम पर उसकी पकड़ जाने लगी। तुम पर पकड़ छूट तो मन से लड़ो मत—पहली बात। लड़ने का अर्थ ही | जाए। तुम थोड़े शिथिल हो जाओ मन के पास से। तुम थोड़े नासमझी है। लड़कर कभी कोई जीता? तुमने यही सुना है कि बाहर सरकने लगो। जो लड़े वे जीते। मैं तुमसे कहता हूं, लड़कर कोई कभी जीता? न तो ध्यान से घटती है बात, न भजन से; घटती है समझ से। समझकर जीत होती है। लड़नेवाले तो नासमझ हैं। लड़ोगे इसलिए समस्त धर्मों का सार है जागरूकता। किससे! छायाओं से लड़ रहे हो। __प्रश्नकर्ता पूछता है, एकाग्रता नहीं बनती। एकाग्रता की खोज जैसे कोई अपनी छाया से लड़ने लगे, खींच ले तलवार, करने ही गलत है। जागरूकता खोजो। एकाग्रता की खोज तो फिर लगे हमला। परिणाम क्या होगा? छाया कटेगी? परिणाम मन के ही सिक्कों में फंसे। यह मन ही है, जो कहता है एकाग्र यही होगा, खुद ही थकेगा। और डर है कि छाया से लड़ने में बनो। यह तुम्हें असंभव चीजें करने को देता है। फिर वे नहीं कहीं अपने हाथ-पैर न काट ले। क्रोध में. उबाल में, पागल न होती तो तम हारे-थके परेशान हो जाते हो। हो उठे। कहीं ऐसी घड़ी न आ जाए कि विक्षिप्तता में अपने को। | एकाग्रता की कोई जरूरत ही नहीं है। थोड़ा जीवन की गणित ही काट ले। की व्यवस्था के सूत्र समझने चाहिए। अक्सर मन के साथ लड़नेवाले ऐसी ही स्थिति में पड़ जाते हैं। पहला सूत्रः जब भी मन नहीं होता, तब तुम एकाग्र होते हो। मन तुम्हारा है; तुम्हारी छाया। है नहीं, बस छाया जैसा है। कभी अपने काम में पूरे संलग्न। चाहे बुहारी लगा रहे हो घर रोशनी बढ़ाओ। में, लेकिन पूरे संलग्न। अचानक तुम पाते हो, मन नहीं है। थोड़े जागकर मन को समझो। संगीत सुनते संलग्न, मन नहीं है। चित्र बनाते....किसी भी घड़ी जब ध्यान करो और मन कहे, भजन में, तो जरा जागकर देखो, | जब तुम पाते हो कि मन नहीं है, तुम ही हो, तो एकाग्रता अपने एक तरफ खड़े होकर देखो कि मन क्या कह रहा है। जब भजन | आप घटती है। करो और मन कहे, ध्यान लगाओ, तब जागकर देखो कि मन एकाग्रता घटाई नहीं जा सकती। एकाग्रता मन की तन्मयता क्या कह रहा है। इसकी चालबाजियां पहचानो। इसकी का परिणाम है। जब मन डूबा होता है तब तुम एकाग्र होते कूटनीति पहचानो। मन बड़ा राजनीतिज्ञ है। यह तुम्हें भटकाए जब मन उभर आता है तब तुम अनेकाग्र हो जाते हो। मन तुम्हें रहता है। यह तुम्हें चलाए रहता है। अनेक में बांट देता है; खंड-खंड कर देता है। और तुमने ध्यान करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा। अब तुम चेष्टा कर रहे हो एकाग्र होने की। एकाग्र होने की और तमने भजन करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा। तो चेष्टा और झंझट लाएगी क्योंकि करोगे किससे चेष्टा तुम एकाग्र अब यह तो समझो कि मन कहीं लगेगा ही नहीं। मन का लगना होने की? मन से ही करोगे। सब चेष्टा मात्र मन से होती है। धर्म नहीं। न लगना मन की आदत है। कहीं लगता नहीं। जो अब तुम एक ऐसे काम में लगे हो, जैसे कोई आदमी अपने नहीं लगता वही मन है। | जूते के बंद खींच-खींचकर खुद को उठाने की कोशिश करे। तो अब जब मन तुमसे कहे कि ध्यान करो, क्या भजन में पड़े खुद को कैसे उठाओगे जूते के बंद खींचकर? थोड़े-बहुत हो? तो जागकर देखना कि यह फिर वही मन, जो कहीं नहीं उछल-कूद लो, फिर बार-बार जमीन पर पड़ जाओगे। यह लगता, भजन में भी नहीं लगा था; तब इसने कहा था, ध्यान | असंभव चेष्टा है। करो। अब कहता है भजन करो। पहले कहा, संसार में उलझे मन कभी एकाग्र नहीं होता। जब एकाग्रता होती है तो मन नहीं। रहो। फिर कहा, संन्यास ले लो। अब संन्यास में भी नहीं होता। तो तुम मन के द्वारा एकाग्र होने की चेष्टा ही छोड़ो। तुम लगता; कहता है संसार में लौट चलो। - तो छोटे-छोटे कामों में रस लो। रस का परिणाम है एकाग्रता। इस मन को जरा देखना। कुछ करने की बात नहीं है, सिर्फ बुहारी लगाओ तो ऐसे लगाओ, जैसे भगवान के मंदिर में लगा 570 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता रहे हो। चाहे घर तुम्हारा ही हो; है तो भगवान का ही मंदिर। टटोलो। तो फिर लोग गलत जगहों पर पहुंच जाते हैं। ही करो जैसे भगवान को ही भोग लगा रहे एक बहत बडा सर्जन, जिसकी सारी जगत में ख्याति थी. जब हो। भोजन तो तुम ही कर रहे हो लेकिन अंततः तो भगवान को साठ वर्ष का हुआ और उसकी साठवीं वर्षगांठ मनाई गई तो ही लग रहा है भोग। वही तो तुम्हारे भीतर आकर भूख बना। सारी दुनिया से उसके मित्र इकट्ठे हुए, उसके मरीज इकट्ठे हुए उसी ने तो तुम्हारी भूख जगाई। वही तो तुम्हारे भीतर भूखा है। और उन्होंने उसका बड़ा स्वागत किया। लेकिन वह बड़ा उदास उसके लिए ही तो तुम भोजन दे रहे हो। रस जगाओ। एकाग्रता था। उसके स्वागत में एक नृत्य का आयोजन किया गया था। तो की बात मत उठाओ। रस का सहज परिणाम एकाग्रता है। जो | जब लोग नृत्य करने लगे और वह सर्जन देखता रहा तो उसकी करते हो उसे रसपूर्ण ढंग से करो। उसमें डुबकी लो। छोटे और आंख से आंसू टपकने लगे। बड़े काम नहीं हैं दनिया में। जिस काम में तम डुबकी ले लो, उसके पास बैठे उसके मित्र ने पूछा, क्या मामला है? हम सब वही बड़ा हो जाता है। बुहारी लगाने में डूब जाओ, वही बड़ा हो तुम्हारी वर्षगांठ पर इकट्ठे हुए प्रसन्नता से। यह नृत्य तुम्हारे जाता है। स्वागत में होता है, तुम रोते क्यों हो? तुम्हारी आंख में आंसू | कबीर कहते हैं: 'खाऊ-पिऊ सो सेवा, उठे-बैठं सो क्यों हैं? तुम किस पीड़ा से भीग गए हो? परिक्रमा।' मेरा उठना बैठना ही उस परमात्मा की परिक्रमा है। उसने आंसू पोंछ लिए। उसने कहा कि नहीं, वह कोई बात और जो मैं खाता-पीता हूं, यही उसकी सेवा है। रस! नहीं है। पर मित्र ने जिद्द की। कहा कि क्या तुम्हें कोई जीवन में मेरे देखे अधिक लोगों के जीवन का कष्ट यही है कि वे जीवन विफलता मिली? तुम जैसा सफल आदमी नहीं है। तुमने जो में कहीं भी रस नहीं ले रहे हैं। जो भी कर रहे हैं, बेमन से कर रहे | आपरेशन किया, सफल हुआ। तुम्हारे जैसा कुशल सर्जन हैं। कर रहे हैं क्योंकि करना है। खींच रहे हैं। जैसे बैलगाड़ी में दुनिया में नहीं। फिर क्या? जुते बैल; ऐसा जीवन को खींच रहे हैं। नाचते हुए, उमंग से भरे लेकिन उसने कहा, मैं कभी सर्जन होना ही नहीं चाहता था। हुए नहीं। | मेरा दिल तो एक नर्तक होने का था। आज नाच को देखकर मैं रो अगर तुम कोई ऐसे काम में लगे हो, जिसमें तुम रस ले ही नहीं उठा। मैं छोटा-मोटा नर्तक होता, कोई मुझे न जानता तो भी मेरी सकते तो बदलो वह काम। कोई काम जीवन से ज्यादा मूल्यवान | तृप्ति होती। आज मैं दुनिया का सबसे बड़ा सर्जन हूं, लेकिन नहीं है। अक्सर ऐसा हआ है. हो रहा है कि लोग ऐसे काम में मेरी कोई तप्ति नहीं है। मेरी नियति ही मझे न मिली। तो आज भी उलझे हैं जो उनमें रस नहीं जगाता। किसी को कवि होना था, वह जब मैं किसी को नाचते देखता हूं तो बस, मुझे याद हो आती है। जूते बेच रहा है, बाटा की दुकान पर बैठा है। और जिसको बाटा तुम अपनी जिंदगी को गौर से देखो। पहली तो बात—जो कर की दुकान पर बैठना था, वह कविता कर रहा है। तो उसकी रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करो। हो सकता है तुमने रस कविता में जूते की पालिश की गंध आती। आएगी ही। का अभ्यास नहीं किया। तुम्हें किसी ने सिखाया ही नहीं कि रस लोग वहां हैं, जहां उन्हें नहीं होना था। और यह विकृति के का अभ्यास कैसे करना। कारण है। क्योंकि तुमने कभी अपने सहज भाव को तो खोजा रस के अभ्यास का पहला सिद्धांत है कि जो भी कर रहे हो, नहीं। किसी के पिता ने कहा कि दकान करो। इसमें ज्यादा लाभ इसका परिणाम मुल्यवान नहीं है। तुम्हें यही सिखाया गया है कि है। किसी के पिता ने कहा, डाक्टर बन जाओ। किसी की मां को परिणाम मूल्यवान है। तुम करते हो, इससे दस रुपये मिलेंगे कि खयाल था, बेटा इंजीनियर बने। परिवार को धुन थी कि बेटा | हजार रुपये मिलेंगे कि लाख रुपये मिलेंगे। लाख रुपये में मूल्य नेता बने। है, परिणाम में मूल्य है। तो सब धक्का दे रहे हैं एक-दूसरे को कि यह बन जाओ, वह | रस का सिद्धांत है, जो तुम कर रहे हो, वह अपने आप में मूल्य बन जाओ। कोई यह नहीं पूछता कि यह बेटा क्या बनने को पैदा है। अंतर्निहित है मूल्य। हजार मिलेंगे, दस हजार मिलेंगे, वह हुआ है? इससे भी तो पूछो। थोड़े इसके हृदय को भी तो बात गौण है। करने में जो डुबकी लगेगी वही बात महत्वपूर्ण है। 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 अगर डूब गए तो मिल गए करोड़ों। अगर न डूबे और करोड़ों भी एकाग्रता ही खबर देती है। मिले तो कुछ भी न मिला। वह समय व्यर्थ गया, जो बिना डूबे अब इस बच्चे से तुम कहो, कि चिड़ियां गीत गा रही हैं, उन गया। वे दिन व्यर्थ ही बीते, जो बिना डूबे बीते। जब रसधार न पर एकाग्रता करो, यह न कर पाएगा। यह संभव नहीं होगा। बही तो तुम जीए न जीए बराबर। रस-विमुग्धता में ही जीवन हमें देखना चाहिए कि कहां हमारी एकाग्रता है। वहीं हमारा है। तो पहली तो बात जो कर रहे हो...। जीवन है। मगर आज अचानक जीवन बदलने का तुम्हारे हाथ में तुमसे नहीं कहता कि जल्दी बदलने में लग जाना। क्योंकि हो उपाय नहीं। आज तो पहचानने का भी उपाय नहीं कि कहां सकता है, तुम अपना काम भी बदल लो और रस न आए। तुम्हारी एकाग्रता होती है। तुम तो भूल ही गए। तुम्हारे जीवन की क्योंकि रस आने की तुम्हारी आदत ही न रही हो। तुमने रस सारी व्यवस्था उल्टी-सीधी हो गई है। दूसरों ने तुम्हें चला बनाने की बात ही न बनाई हो। | दिया। दूसरों ने तुम्हें मार्ग दे दिया। दूसरों ने तुम्हें दिशा और तो पहले तो जो कर रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करना। | आदर्श दे दिए। तुम्हें पूरी तरह भरमा दिया है। सौ में पचास मौके तो ऐसे हैं कि तुम उसी में रस ले पाओगे। रस पहले तो जो काम कर रहे हो उसमें रस लेने की आकांक्षा लेते ही एकाग्रता हो जाएगी। जगाओ। जो काम कर रहे हो उसे इतने भाव से करो, इतनी देखा, स्कूल में छोटे बच्चे पढ़ते हैं; बाहर चिड़िया गुनगुनाने मगनता से करो कि उससे अतिरिक्त ऊर्जा बचे ही नहीं लगी गीत. बच्चा एकटक होकर सनने लगता है। शिक्षक डंडा | विघ्न-बाधा डालने को। पीटता है टेबल पर, कि यहां ध्यान दो। एकाग्रता करो। एकाग्रता का और क्या अर्थ होता है? एकाग्रता कोई जबर्दस्ती एकाग्रता बच्चा कर ही रहा है। मगर शिक्षक पर नहीं कर रहा, | थोड़े ही है। एकाग्रता बड़ी स्वाभाविक घटना है। यह बात सच है। यह ब्लैकबोर्ड पर नहीं कर रहा। ब्लैकबोर्ड पर अब तुम यहां मुझे सुन रहे हो। जिनको मेरी बात में रस आ रहा लिखे अक्षरों पर नहीं कर रहा। लड़का तो एकाग्रता कर ही रहा है, वे एकाग्र हैं। एकाग्रता कर थोड़े ही रहे हो, एकाग्रता हो रही है। एकाग्रता तो हो ही रही है। वह जो चिड़िया गीत गा रही है | है। इसे समझने की कोशिश करो। तुम्हारे करने की थोड़े ही बात वह उसे सुन रहा है। शिक्षक कहता है, एकाग्रता करो। मन को है। तुम थोड़े ही बैठे हो सब मांस-पेशियों को खींचकर, आंखें ऐसा विचलित मत करो। | मुझ पर गड़ाकर और चेष्टा कर रहे हो कि एकाग्रता! ऐसे बात बिलकुल गलत कह रहा है शिक्षक। शिक्षक उसके मन एकाग्रता करोगे तो तुम सुन ही न पाओगे, जो मैं कह रहा हूं। को विचलित करने की कोशिश कर रहा है। वह एकाग्र है। एकाग्रता सहज है। तुम्हें रस आ रहा है। उसी रस के कारण तुम अगर कोई बाधा न दे, तो यह सारा संसार थोड़ी देर के लिए मिट चले आए हो। उसी रस के कारण तुम रोज चलते आए हो। वही जाएगा। वह चिड़िया की गुनगुनाहट होगी, उसका गीत होगा, रस तुम्हें लाता रहा है। इस बच्चे की भावदशा होगी। और यह एक बात सीख | रस है तो एकाग्रता है। लेगा-रस की। तो तुम रस को जगाओ, एकाग्रता की बात ही छोड़ दो। अगर रस चूंकि उसे चिड़िया के गीत में आ रहा है, इसलिए एकाग्र हो | रस जगे ही न तो फिर समझो, फिर हिम्मत करो, साहस करो। गया है। उसी कक्षा में ऐसे बच्चे भी होंगे, जिन्हें रस गणित के बदलो उस व्यवस्था को, जिसमें रस नहीं जगता। हो सकता है सवाल में आ रहा है। वे वहां एकाग्र हो गए होंगे। वह व्यवस्था तुम्हारे लिए नहीं है। हमें लोगों को एकाग्रता नहीं सिखानी चाहिए। उनका रस तो दरिद्र हो जाना बेहतर है समृद्ध होने की बजाय। सड़क का देखकर उन्हें दिशा देनी चाहिए। जो बच्चा गणित को सुनकर | भिखारी हो जाना बेहतर है सम्राट होने की बजाय-अगर रस एकाग्र हो गया है, बाहर भौंकते कुत्ते, लड़ती बिल्लियां, गीत आ जाए। क्योंकि रस ही सम्राट बनाता है। गाती चिड़ियां, रास्ते पर बैठे मदारी की बीन-कुछ नहीं सुनाई तो कभी-कभी तुम किसी भिखारी के चेहरे पर ऐसी आभा पड़ती। यह बच्चा आइंस्टीन होने को पैदा हुआ है। इसकी | देखोगे, जो सम्राटों के चेहरों पर नहीं दिखती। रसविमुग्ध है 572 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता वह। अपने काम में लीन है। एकाग्रता जरूर आती है, मगर परिणाम की तरह आती है। रथचाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक भिखारी एकाग्रता साधन नहीं है; जहां रस लोगे वहीं घट आती है। रस आया, पांच बजे सुबह उसका दरवाजा खटखटाने लगा। वह के पीछे बंधी चली जाती है। रस की छाया है। बड़ा नाखुश हुआ। पांच बजे सुबह नींद से भरे उसको उठाया। तो तुम कहीं भी रस लो। अगर मंदिर में रस न आता हो, फिक्र वह बड़ा झल्लाता हुआ बाहर आया। ऐसे वह देना पसंद करता छोड़ो। फिर मंदिर में परमात्मा तुम्हारे लिए नहीं घटेगा। जहां रस था। दान उसका रस था। लेकिन यह कोई वक्त है? ही नहीं है, वहां एकाग्रता नहीं होगी। एकाग्रता नहीं होगी, तो उसने भिखारी को कहा कि सनो जी। यह कोई समय है? | परमात्मा कहां होनेवाला है। भिखारी ने कहा कि आप भी सुनो। आप बैंकिंग का धंधा करते अगर तुम्हें बांसुरी के गीत में रस आता है तो वहीं तुम्हारा हैं, मैं कोई सलाह तो देता नहीं। यह हमारा धंधा है। इसमें हम परमात्मा तुम्हें मिलेगा। अगर नर्तक की पायलों में तुम्हें रस सलाह किसी की मानते नहीं। | आता है तो तुम्हारा परमात्मा वहीं नाचेगा। रथचाइल्ड ने प्रकाश जलाया कि इस आदमी को देखना तुम्हारे परमात्मा की खोज तुम्हारे रस से ही तय होगी। रसो वै चाहिए, जो दुनिया के बड़े से बड़े करोड़पति को कह सकता है सः। उस परमात्मा का स्वभाव रस है। किसी शास्त्र ने नहीं कहा कि सुनो, तुम बैंकिंग का धंधा करते हो, हम तुम्हें कभी सलाह | कि परमात्मा का स्वभाव एकाग्रता है। सच्चिदानंद! वह रस की देते नहीं। हमारी सलाह का कोई मतलब भी नहीं, क्योंकि हमें | बात है। तुम्हें जहां आ जाए रस, जहां आ जाए आनंद, जहां कोई अनुभव भी नहीं। तुम हमें सलाह मत दो। हम जन्मजात उमंग उठे, जहां तुम खिल उठो। फिर वह कुछ भी हो। चाहे भिखारी हैं। खेल हो, तो प्रार्थना बन गई। और ऐसे तुम बैठे-बैठे प्रार्थना उस आदमी के चेहरे को देखा, वह बड़ा प्रसन्न आदमी था। करते रहो, भजन करते रहो, ध्यान करते रहो; रस उमगे नहीं, रथचाइल्ड ने लिखा, मैं मंत्रमुग्ध हो गया। यह हिम्मत भिखारी मेघमल्हार बजे नहीं, हृदय गुनगुनाए नहीं-ऐसे तुम करते चले की नहीं, सम्राट की होती है। रथचाइल्ड को ऐसा कहना, जिसके जाओ जबर्दस्ती, यंत्रवत, करनी चाहिए, कर्तव्यवश, लोग कहते पास भीख मांगने आए कि चुप! सलाह मत देना। मेरे धंधे को | हैं इससे रस मिलेगा इसलिए कर रहे हैं। मैं भलीभांति जानता हूं। नहीं, जहां रस मिलता है वहीं परमात्मा आता है। रथचाइल्ड ने उसे खूब दिया; और कहा, मैं खुश हुआ इस इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई बात से कि कोई आदमी अपने भिखमंगेपन की भी इतनी प्रतिष्ठा अनुशासन नहीं है। क्योंकि अनुशासन कोई भी होगा, पराया रखता है। होगा, दूसरे का होगा। तुम्हें अपना अनुशासन खोजना पड़ेगा। कभी तुम्हें राह का भिखारी भी प्रसन्न मिल सकता है। प्रसन्नता प्रत्येक व्यक्ति को अपना मार्ग खोजना पड़ेगा। मैं इशारे देता हूं। का कोई संबंध इससे नहीं कि तुम्हारे पास क्या है। जो भी तुम्हारे उन इशारों से तुम अपना मार्ग समझने की कोशिश करो। पास है, उसमें अगर रस है तो प्रसन्नता है। तुम अगर हाथ के | कबीर ज्ञान को भी उपलब्ध हो गए तो भी कपड़ा बुनते रहे। भिक्षापात्र को भी गीत गुनगुनाते हुए ढो रहे हो तो आनंद है। और जुलाहापन उन्होंने छोड़ा नहीं। किसी ने पूछा कि अब तो आप तुम्हारे पीछे स्वर्णरथ चल रहे हैं और तुम मुर्दा, बुझे, तो कुछ अर्थ बंद करें। कभी सुना नहीं कि कोई बुद्धपुरुष और कपड़े बुनता नहीं है। रहा और जुलाहा बना रहा और बाजार में कपड़े बेचने जाता एकाग्रता मत पूछो। यद्यपि तुम्हें यही सिखाया गया है स्कूल | रहा। अब तो छोड़ो। से लेकर विश्वविद्यालय तक। और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु लेकिन कहते हैं, कबीर ने कहा, इसी कपड़े के बुनने ने तो मुझे भी तुम्हें यही सिखाते हैं कि-एकाग्रता। मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा से मिलाया। इसे कैसे छोड़ दूं? यह मेरी प्रार्थना। यह | रसमग्नता। वह शब्द हटा दो। क्योंकि वह शब्द सीधा काम का | मेरी पूजा। यह मेरी अर्चना। ही नहीं है। 'झीनी झीनी बीनी रे चदरिया।' 571 ___ 2010_03 | Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 वह जुलाहे का गीत है। कोई और दूसरा तो गा भी नहीं की कोशिश कर रहे हो, जो चढ़ाव पर है। तो नदी चढ़ाव पर तो सकता। बुद्ध कैसे गाएंगे? बुद्ध ने कभी चदरिया बीनी नहीं। नहीं बहती, ढाल पर ही बह सकती है। रसधार भी ढाल पर ही उन्हें कुछ पता भी नहीं। महावीर कैसे गाएंगे? चदरिया थी, वह | उतरकर, बहकर मिलता है। भी छोड़ दी! उनसे तो पूछो कैसी छोड़ी रे चदरिया, तो बता तो फिर बदलो। इसीलिए साहस की जरूरत है। पहले सारी सकते हैं। चेष्टा कर लो। और फिर तुम्हें लगे कि नहीं, इस ढंग से मेरे लिए लेकिन कबीर ने बुन-बुनकर पाया। वे ताने-बाने चादर के परमात्मा से मिलन नहीं हो सकेगा तो बदलो। उस बदलाहट को बुनते-बुनते उनका ध्यान फला। वहीं रसविमुग्ध हुए। पर कैसे | मैं संन्यास कहता हूं। बदलने की हिम्मत रखो। पाया उन्होंने? क्योंकि हमें बुद्ध की बात समझ में आ जाती है | एक आदमी चालीस साल तक लंदन के बाजार में दलाल का कि दूर बोधिवृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे हुए हैं। कि महावीर वनों काम करता रहा। बड़ा सफल आदमी था। खूब कमाई थी। सब में, पर्वतों में, एकांत में, बारह वर्ष मौन में खड़े हुए। तरह का सुख था। किसी ने कभी सोचा भी न था, एक रात वह कबीर...कबीर कपड़ा बुन-बुनकर पा लिए। घर से नदारद हो गया। पत्नी भी भरोसा न कर सकी, बेटे भी रस से बुना होगा। कबीर कहते थे, राम के लिए बुन रहा हूं। | भरोसा न कर सके, मित्र भी भरोसा न कर सके, काम धंधे में जो सभी ग्राहकों में राम देखते थे। जब अपना कपड़ा बुनकर और लोगों से संबंध था वे भी भरोसा न कर सके। क्योंकि न तो वह काशी के बाजार में बेचने जाते, कोई मिल जाता रास्ते में और आदमी कभी किसी और स्त्री के संग में देखा गया था. कि पत्नी कहता, कहां जा रहे हो? तो वे कहते, राम आए होंगे। उनको सोच भी सके कि वह किसी स्त्री के साथ भाग गया। न उसके जरूरत है, कपड़ा बुनकर लाया हूं। बड़ा बढ़िया बुना है। राम कोई धार्मिक रुझान थे कि वह कोई जाकर किसी आश्रम में को देने जा रहा हूं। संन्यासी हो गया होगा। न कोई दुख था कि आत्महत्या कर ली जब कोई ग्राहक उनसे कपड़ा खरीदता तो वे कहते, सम्हालकर होगी। सब भांति सुखी-संपन्न आदमी था; जिसको हम रखना राम। बड़ी मेहनत से बुना है। बड़े रस से बुना है। कपड़ा सुखी-संपन्न कहते हैं, वैसा आदमी था। सब ठीक-ठाक था। ही नहीं है, पीढ़ी दर पीढ़ी चले ऐसी मजबूती से बुना है। अपने | कोई तीन साल बाद उस आदमी का पता चला कि वह पेरिस में प्राण उंडेले हैं। | चित्रकला सीख रहा है। भिखमंगे की हालत हो गई है। भागे तो जिसको ग्राहक में राम दिखाई पड़े, अब उसे किसी उसके मित्र। उससे कहा, तुमने यह क्या किया? तुम्हारे पास बोधिवृक्ष के नीचे जाने की जरूरत न रही। सभी लोग बोधिवृक्ष सब था, सब ठीक था। उसने कहा, वही अड़चन थी। सब ठीक | के नीचे जा भी नहीं सकते। और अच्छा है कि जाते नहीं; नहीं तो था, कहीं कुछ गड़बड़ न थी। लेकिन कोई प्रफुल्लता न थी। बड़ी झंझट खड़ी हो जाए। एकाध बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठता कहीं कोई उमंग न थी। सब ठीक चल रहा था और सब ठीक मैं है, चलता है। एकाध महावीर मौन खड़ा हो जाता है, चलता है। | चला रहा था, लेकिन कोई रसधार न बह रही थी। लेकिन सभी ऐसे खड़े हो जाएं तो जीवन बड़ा विरस हो जाएगा। मेरे जीवन में सदा से आकांक्षा थी कि चित्रकार बनूं। दलाल अधिक को तो कबीर जैसा होना पड़ेगा। अधिक को तो गोरा बनना मैंने कभी चाहा न था। वह सफलता सांयोगिक थी। अब जैसा होना पड़ेगा। गोरा कुम्हार बस घड़े बनाता रहा। और घड़े मैं खुश हूं। मेरे पास अब कुछ भी नहीं है। चित्र बनाता हूं, बिक बनाते-बनाते खुद को भी बना लिया। रैदास जूते सीते-सीते, जाते हैं तो भोजन के लायक, कपड़े के लायक इंतजाम कर पाता जूते बनाते-बनाते पहुंच गए। | हैं। अपने पास रहने का छप्पर भी नहीं है। एक मित्र के कमरे में तो तम जो कर रहे हो, उसमें रस डालो। उंडेलो रस। वही बना हूं, रह रहा हूं। लेकिन वापस मझे जाना नहीं है। मैं प्रसन्न तुम्हारा भजन, वही तुम्हारा ध्यान। हूं। और जो मित्र गए थे उन्होंने देखा कि वह आदमी एक अगर तम्हारी सारी चेष्टाएं असफल हो जाएं तो फिर साहस अदभत ऊर्जा से. एक अदभत आभा से भरा था। सख गया था | करो। तो फिर तुम गलत जगह हो। तुम कुछ ऐसी जगह बहने शरीर उसका, लेकिन एक रोशनी थी। उसने कहा, मैं किसी से 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता नाराज नहीं हूं। मेरी पत्नी को कहना, मैं किसी से नाराज नहीं हूं। | यहां आ गई। इरादा था कि यहां से दक्षिण भारत घूमने सब ठीक था। मैं बिलकुल, जैसा जिसको हम सुखी-संपन्न | जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर कुछ ऐसी पागल हुई कि कहते हैं, वैसा आदमी था। मेरे बच्चे ठीक हैं, मेरे बेटे ठीक हैं, | संन्यास भी ले लिया। और अब ऐसा लगने लगा कि जैसा मेरी पत्नी ठीक है। सब ठीक था। पहले कभी नहीं लगा था। जिस किनारे पर अब तक खड़ी थी लेकिन मत तीक से कहीं कळ होता? ठीक से कछ ज्यादा | वह किनारा ओझल हो गया है आंख से: और अब तो आप ही चाहिए। ठीक से क्या होगा? ऐसे तो ठीक-ठीक-ठीक, और | मेरे कृष्ण बन गए हैं, जिनकी मैं आराधना करती थी। और यह मर जाएंगे। सुविधापूर्वक जी लिए और मर गए। नाच तो पैदा विश्वास लेकर जाती हूं कि जो ध्यान मिला यहां, वह कायम ही न हुआ। जीवन में फूल तो खिले ही नहीं। रहेगा। और पुकारने पर आप सदा आते रहेंगे। लौटा नहीं वापस। बड़ा चित्रकार बन गया। 'मेरे तो रजनीश ही दूसरो न कोई।' इसे मैं संन्यास कहता हूं। न उसने गैरिक वस्त्र पहने, न वह | किसी आश्रम में गया लेकिन इसे मैं संन्यास कहता हूं। संन्यास | __ पूछा है त्रिवेणी ने। नई-नई महिला, नया-नया उसका आना का अर्थ हुआ, साहस इस बात का कि अगर दिखाई पड़े कि मेरा हुआ है। लेकिन जैसे बहुत दिन का प्यासा जल के पास आ जीवन मरुस्थल में खोया जा रहा है तो अपनी राह बदल लेने | जाए, दिल खोलकर पी ले, ऐसा उसने पीया है। की। चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। तो कभी-कभी ऐसा होता है, जो मुझे बहुत सुनते रहे, वे खाली आदमी कमजोर है। वह सुविधा से जीता है। चाहे कुछ न हाथ रह जाते हैं। और ऐसा भी होता है, कभी-कभी कोई नया मिले, लेकिन सुविधा तो है, सुरक्षा तो है। कुछ न मिले! व्यक्ति एकदम भरपूर हो उठता है। प्यास पर निर्भर है। इसलिए ये सारे प्रश्न उठते हैं कि एकाग्रता कैसे सधे? तो | त्रिवेणी कोई पढ़ी-लिखी महिला नहीं है, ग्रामीण है; गैर-पढ़ी पहले तो कोशिश करना। सध जाए तो शुभ। चेष्टा करने से लिखी है। पर हृदय उसका बड़ा पढ़ा-लिखा मालूम होता पचास प्रतिशत मौके हैं, सध जाएगी। न सधे तो हिम्मत करना। है-'ढाई आखर प्रेम के।' बुद्धि का कोई शिक्षण नहीं हुआ है देर मत लगाना, क्योंकि जिंदगी रोज हाथ से सरकी जाती है। लेकिन हृदय जीवंत है। जिंदगी उन्हीं की है, जो हिम्मत से जिंदगी को बदलने के लिए तो घटना बड़ी सरलता से घट गई है। पति-पत्नी दोनों यहां तैयार होते हैं। नहीं तो जिंदगी बह जाती है। चिकने घड़े के ऊपर हैं। लक्ष्मी मुझे कहती थी कि दोनों दिनभर रसविमुग्ध बैठे रहते जैसे वर्षा का जल बह जाता है, कुछ भरता-करता नहीं। या हैं। जाते ही नहीं आश्रम से। खोए-खोए। जैसे कुछ मिल गया उल्टे घड़े पर जैसे वर्षा गिरती रहती है—टप-टप। बहुत है-कोई खजाना। भरोसा भी नहीं हो रहा है कि मिल गया है। आवाज, शोरगुल मचता है लेकिन घड़ा खाली का खाली रहता इतने अचानक मिला है। विश्वास भी नहीं आता कि मिल गया है। उल्टा रखा है। | है। हटते भी नहीं। कहीं जाते भी नहीं। ठगे-ठगे! तो जरा गौर से देखना। तुम्हारा घड़ा अगर भरता न हो तो कहीं त्रिवेणी मुझे मिलने आयी थी। कुछ कहा नहीं उसने। कुछ उल्टा तो नहीं रखा है? कहने को उसके पास है भी नहीं। यह प्रश्न भी किसी दूसरे से तो न तो मौलिक सवाल ध्यान का है, न भजन का है; मौलिक लिखवाया होगा। यह प्रश्न भी किसी और ने तैयार किया होगा। सवाल समझ का है। मन के स्वभाव को समझो। लेकिन वह मौजूद रही, बैठी रही। और बैठे-बैठे उसने जो एकाग्रता की बात ही मत उठाओ, रसमयता की बात उठाओ। कहना था, कह दिया–बिना कहे। उसकी मौजूदगी से उसने रसमयता के पीछे-पीछे तुम पाओगो, एकाग्रता घूघर बजाती हुई अपने भाव अर्पित कर दिए। अपना भाव-सुमन चढ़ा दिया। चली आती है। लोग आते हैं, बहुत बात कर जाते हैं और बिना कछ कहे भी चले जाते हैं। आए, बकवास कर जाते हैं। त्रिवेणी आयी, बैठी दूसरा प्रश्नः बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति के साथ रही चुपचाप एक तरफ। न कुछ बोली, न पास पैर छूने आयी। 5751 ___ 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 मगर उसने छू लिए पैर। गहन भाव की बात है। जाते हो। तुम भूल ही जाते हो। आनंद इत्यादि की बकवास भूल यह प्रश्न कई तरह से सोचने जैसा है। पहली बात : 'बिना जाते हो। अचानक तुम पाते हो, मिला। क्योंकि तुम्हारे खोने में किसी उद्देश्य के मैं अपने पति के साथ यहां आ गई।' ही आनंद है। और तो कोई आनंद नहीं है। तुम नदी भी पार कर ऊपर से जिसे हम उद्देश्य कहते हैं, ऊपर से जिसे हम लेते हो, तैर भी जाते हो। मित्र से कहते हो, हमें तो कुछ मिला चेष्टापूर्वक खोज कहते हैं, वह बड़ी उथली है। भीतर एक | नहीं।'तुम कहते थे, बड़ा आनंद मिलता है। निरुद्देश्य खोज चल रही है। वह जन्मों-जन्मों से चल रही है। ऐसे कभी-कभी तुम किसी को यहां मेरे पास ले आते हो, हमें कभी पता भी नहीं होता कि कहां किस द्वार पर हमारे लिए कहते हो चलो, सुनने में बड़ा आनंद आता है। बस, तुम गड़बड़ द्वार खुल जाएंगे! हमें पता भी नहीं होता कि कहां किस घड़ी में में उसको डाल रहे हो। यह तो भूलकर कहना ही मत कि सुनने में जीवन को शरण मिल जाएगी। शायद हम चेष्टा करके उसकी बड़ा आनंद आता है। क्योंकि आनंद का लोभ सभी को है। वह खोज भी नहीं कर रहे थे। अकस्मात घटता है। अक्सर चेष्टा | भी सोचेगा कि चलो, आनंद की तो खोज हम भी कर रहे हैं। करनेवाले लोग वंचित रह जाते हैं। क्योंकि चेष्टा में अहंकार है। अगर सुनने से ही आनंद मिलता है, इतना सस्ता मिलता है, चले मेरे पास दो तरह के लोग आते हैं। एक, जो जान-बूझकर धर्म चलते हैं। क्या बिगड़ता है? सुन ही लें। की खोज में निकले हैं। उनके साथ बड़ी अड़चन है। वे सब मगर वह पूरे समय बैठा है, देख रहा है किनारे से। जैसे तुमने आश्रमों में हो आए हैं। सब गुरुओं के पास हो आए हैं, सब देखा हो, बिल्ली बैठी रहती है, चूहे की राह देखती रहती है। ऐसे शास्त्र पढ़ लिए हैं। कहीं कुछ नहीं होता। लगती है बिलकुल शांत बैठी है, ध्यान कर रही है। ऊपर से जब ऐसा व्यक्ति मेरे पास आता है तो मैं जानता हूं, होना बहुत देखो तो ऐसा लगता है, बड़ी महावीर बनी बैठी है, ध्यान-मग्न; मश्किल है। उसकी सचेष्ट-आकांक्षा ही बाधा बन रही है। लेकिन उसकी नजर लगी है चूहे की पोल पर कि कब निकले! उसकी आकांक्षा के कारण ही वह बंद है। अभी तक नहीं निकला, अब निकले। बड़ी देर हुई जा रही है, दूसरे तरह के लोग हैं, जो कभी निरुद्देश्य आ जाते हैं। | भूख बढ़ती जा रही है। अकारण! वे ज्यादा खुले होते हैं। कुछ पाने की खोज नहीं तो वह जो आदमी आ गया है सुनने, इसलिए कि आनंद होती। कुछ पाने की अपेक्षा नहीं होती। मन ज्यादा खुला होता मिलेगा, वह आनंद के चूहे पर लगाए नजर बैठा है। और ध्यान है। सरलता से चीजें घट जाती हैं। रखना, बिल्ली की नजर से चूहा डरता है। निकलता ही नहीं। तुम इसे समझने की कोशिश करना। जो-जो तुमने वह भी अंदर से देख लेता है कि कहीं कोई ध्यानमग्न तो नहीं उद्देश्यपूर्वक खोजा है, उसे तुम कभी न पा सकोगे। जीवन में जो बैठा है! अगर बैठा है तो खतरा है। चूहे भी बिल्ली के पास नहीं भी महत्वपूर्ण है, वह उद्देश्यपूर्वक खोज से नहीं मिलता। आनद, | आते। कितना ही ध्यान करो! क्योंकि चूहे सत्य, प्रभु, कोई भी सीधी खोज से नहीं मिलते। आकस्मिक खाए हज को चली। इतने चूहे खा चुकी है, इसका भरोसा चूहों घटते हैं। अनायास घटते हैं। प्रसादरूप मिलते हैं। | को नहीं आता कि यह ध्यान में बैठी होगी। कोई मित्र तुमसे कहता है कि मैं तैरने जाता हूं नदी में, बड़ा आनंद बड़ी नाजुक घटना है। तुम जब बिलकुल बेखबर होते आनंद आता है। तुम कहते हो, तो हम भी आएंगे। आनंद की हो, मस्त होते हो, तब तुममें प्रवेश कर जाता है। सामने के द्वार तो हम भी तलाश कर रहे हैं। बस, गड़बड़ हो गई। तुम्हें न से आता ही नहीं, पीछे के द्वार से आता है। ऐसा ढोल इत्यादि मिलेगा! क्योंकि तुम तैरोगे ही नहीं। एक हाथ मारोगे और बजाकर आता ही नहीं। चुपचाप, पगध्वनि भी नहीं होती ऐसे सोचोगे, आनंद अभी तक नहीं मिला। कब मिलेगा अब? | चला आता है। आधी नदी पार भी हो गई, अभी तक आनंद नहीं मिला? अब तो अक्सर जो आकस्मिक रूप से आ गए हैं...। तुम उदास होने लगोगे। तुमको मैं कहता हूं, अपने मित्रों को कभी मत कहना कि बड़ा क्योंकि आनंद मिलता है तब, जब तुम तैरने में परिपूर्ण लीन हो | आनंद मिलता है, चलो। नहीं तो तुम उसके कारण बाधा बन -साचले 576 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता जाओगे। तुम ही बाधा बन जाओगे। वे आएंगे और आनंद नहीं पत्नी अब धोखा देने लगी? या कभी-कभी यह भी संदेह होता मिलेगा तो वे कहेंगे, तुमने धोखा दिया। और तुम्हें भी क्या खाक है क्या पहले-पहल धोखा दिया था? क्या मैं कोई सपने में खो मिलता होगा, जब हमको नहीं मिला। सुना तो हमने भी वही, | गया था? सुना तुमने भी वही। हमें तो कुछ भी न मिला। तो तुम नाहक की कुछ भी नहीं हुआ है। एक जीवन की छोटी-सी घटना तुम बातें करते हो। | नहीं समझ पा रहे हो। जब पहली दफा किसी स्त्री या किसी नहीं, त्रिवेणी को हो गया होगा। वह यहां आने के लिए आयी पुरुष से मिले थे तो मिलने में कोई भी अपेक्षा न थी-निरपेक्ष। ही न थी। जाते थे पति-पत्नी दक्षिण की यात्रा को, पूना बीच में घटना आकस्मिक घट गई थी। लेकिन अब अपेक्षा है। | पड़ गया। सोचा होगा चलो, यहां भी देखते चलो। मगर कोई ऐसा हर तरफ होता है। पहली दफा ध्यान में लोगों खोज नहीं थी। ऐसी कोई चेष्टा नहीं थी। ऐसी कोई अपेक्षा भी कभी-कभी ऐसी अनुभूति आती है। फिर कठिन हो जाता है। नहीं थी कि आनंद मिलेगा कि रसधार बहेगी कि बादल | क्योंकि फिर दूसरे दिन ध्यान नहीं करते। फिर तो वे थोड़ा उमड़ेंगे-घुमड़ेंगे कि बिजली चमकेगी। ऐसा कुछ खयाल ही न हिलते-डुलते हैं, और भीतर तैयार रहते हैं कि अब हो....अब था। इतनी सरलता से कोई आ जाता है तो घटना घट जाती है। हो...अब हो। नहीं होता। क्योंकि जब पहली दफा हआ था तो सरलता से आना मुश्किल है। क्योंकि जो सरल हैं, वे आएं 'अब हो, अब हो' ऐसी कोई आवाज भीतर नहीं थी। अब क्यों? जो जटिल हैं वे आते हैं। जटिल को मिलना मुश्किल। तुमने एक नई चीज जोड़ दी, जो बाधा बन रही है। जो खोज रहा है वह आता है। जो खोज नहीं रहा वह आता नहीं।। इधर मेरे हजारों लोगों पर ध्यान-प्रयोग करने के जो नतीजे हैं, जो खोज रहा है उसको मिलता नहीं। | उनमें एक नतीजा यह है कि पहली दफा जैसी झलक मिलती है, तो कभी-कभी जब न खोजनेवाला आ जाता है सत्संग में, तो फिर बड़ी कठिन हो जाती है। फिर जब तक वह पहली झलक घटना घट जाती है। भूल नहीं जाती, दूसरी झलक नहीं मिलती। कभी महीनों लग 'बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति को साथ आ गई।' जाते हैं भूलने में। जब बिलकुल हार-हारकर आदमी सोचता है, इसीलिए कुछ हो गया। अपेक्षा न हो तो जीवन में बड़ी घटनाएं कि अरे! वह भी मिली न होगी। कल्पना कर ली होगी। जब घटती हैं। जो-जो तुमने अपेक्षा बांधी, वही-वही नहीं घटेगा। पहली झलक भूल जाती है तब दूसरी झलक मिलती है। दूसरी, अपेक्षा के कारण ही घटना बंद हो जाता है। | तीसरी, चौथी झलक के बाद यह समझ में आना शुरू होता है कि तुमने देखा! किसी से प्रेम हो जाता है, खूब रस बहता है। मैं जो मांग रहा था, वह बाधा बन रही थी। लेकिन यह थोड़े दिन ही चलता है। यह हनीमून भी पूरा निरुद्देश्य आने से ही कुछ हुआ। अब ऐसी निरुद्देश्यता को होते-होते चल जाएगा, संदिग्ध है। यह सुहागरात पर ही समाप्त | कायम रखना। अब खतरा है। त्रिवेणी पूछती है कि घर जाकर हो जाता है। उसी स्त्री से, उसी पुरुष से बड़ा रस मिला था। फिर यह ध्यान कायम रहेगा न? अब खतरा है। जो हुआ है, बिना क्या हो जाता है? मांगे हुआ है। अब भी क्यों मांगना? जब अभी बिना मांगे हो अपेक्षा नहीं थी, जब मिला था। तब तुमने सोचा न था कि गया है तो फिर भी बिना मांगे होता रहेगा। मिलेगा। तब तुम सचेत रूप से खोज नहीं रहे थे, मांग नहीं रहे अब खतरा है। अब खतरा यह है कि जो रस उसे मालूम हुआ थे; मिला था। फिर सचेत रूप से मांगने लगे। अब तुम कहते है, अब वह चाहेगी कि वह घर पर कायम रहे। लौट-लौटकर हो रोज-रोज मिलना चाहिए। अब तुम कहते हो, आज नहीं उसको फिर पाना चाहेगी। इस चाह से ही मर जाएगा। अब मिला, बात क्या है? कोई धोखा चल रहा है? निरुद्देश्य न रही त्रिवेणी। अब त्रिवेणी को उद्देश्य मिल गया। अब तुम मांग करते हो। अब तुम दावेदार बन गए। अब तुम अब दुबारा अगर वह पूना आएगी तो भी खतरा है। जरूर मकदमा लड़ने को तैयार हो। अब तम कलह करते हो पत्नी से आएगी। आना पड़ेगा उसे। क्योंकि वह जो रस मिला, अब कि आज सुख नहीं दिया। या फिर तुम्हें संदेह होता है कि क्या उसकी वासना जगेगी। अब वह बार-बार आएगी। अब मैं भी 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 उससे डरा हूं। क्योंकि जब वह बार-बार आएगी और न पाएगी हम अपने ढंग से जीएंगे, अपने ढंग से नाचेंगे। न हम किसी को तो मुझ पर नाराज होगी। जोर-जबर्दस्ती करते कि वह हमारे ढंग का हो। न हम किसी को इसलिए अभी से सावधान कर देता हूं। बात ही छोड़ो। जैसी जोर-जबर्दस्ती करने देंगे कि हम उसके ढंग के हों। न हम किसी आयी थी निरुद्देश्य, ऐसी ही घर वापस लौट जाओ। जैसे को दबाएंगे, न हम दबेंगे। निरुद्देश्य मन से मुझे यहां चाहा, मुझे प्रेम किया, ऐसे ही घर पर संन्यास बड़ी गहरी उदघोषणा है। वह इस बात की उदघोषणा भी करना। आनंद मत मांगना, ध्यान मत मांगना। मांगना ही है कि अब न तो मैं किसी पर आग्रह थोपूंगा अपना कि वह मेरे मत कुछ। घटेगा। खूब-खूब घटेगा। जितना घटा है वह तो जैसा हो, और न मैं चाहूंगा कि कोई चेष्टा करे मुझे अपने जैसा सिर्फ शुरुआत है। यह तो अभी एक झाला आया है। अभी तो बनाने की। तो न तो मैं किसी का मालिक बनूंगा, और न किसी मूसलाधार वर्षा होगी। मगर मांगना मत। यह तो सिर्फ शुरुआत को मालिक बनने दूंगा। न मैं किसी की स्वतंत्रता छीनूंगा, और न है। और जब दुबारा यहां आओ तो अपेक्षा लेकर मत आना। किसी को मेरी स्वतंत्रता छीनने दूंगा। फिर ऐसे ही आ जाना। कठिन होगा। क्योंकि इस बार तो | दोहरी उदघोषणा है संन्यास। अब जो मेरी मौज है, वैसे ही निरुद्देश्य आना स्वाभाविक हुआ था। अब दूसरी बार बड़ा जीऊंगा। यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अपनी मौज में कठिन होगा। लेकिन अगर समझा कि पहली दफा निरुद्देश्य किसी को कष्ट दो। क्योंकि कष्ट देने का तो अर्थ हआ, जाने से घट गया था तो अब उद्देश्य लेकर क्यों जाएं? उदघोषणा इकहरी हो गई। तुम दूसरे पर अपने को थोपने लगे। चले आना. जब आने की सविधा बने। यह सोचकर मत जीवन के परम रहस्यों में एक है कि न तो दसरे के जीवन में आना कि वहां जाकर खूब आनंद होगा; कि वहां खूब बाधा देना और न किसी को अवसर देना कि तुम्हारे जीवन में ध्यानमग्नता आएगी; कि डूबेंगे। यह सोचकर ही मत आना। बाधा दे। बड़ा कठित है। आसान है बात, या तो दूसरे के जीवन फिर ऐसे आना जैसे अजनबी हो। फिर घटेगा। जितना घटा पर हावी हो जाओ, दूसरे की छाती पर बैठ जाओ, मूंग दलो; उससे बहुत ज्यादा घटेगा। और इस सूत्र को अगर समझ लिया | यह आसान है। या दूसरे को अपनी छाती पर बैठ जाने दो, वह तो घटता ही रहेगा। मूंग दले, यह भी आसान है। और यही अक्सर घटता है। या तो परमात्मा शुरू होता है, अंत कभी भी नहीं होता। हमारे पात्र | तुम किसी की छाती पर मूंग दलोगे, या कोई तुम्हारी छाती पर मूंग भर जाते हैं, फिर भी बरसता रहता है। पात्र ऊपर से बहने लगते दलेगा। इसलिए मैक्यावेली ने कहा है, इसके पहले कि दूसरा हैं, फिर भी बरसता रहता है। बाढ़ आ जाती है, बरसता ही रहता तुम्हारी छाती पर मूंग दले, देर मत करो; उचको, झपटो, बैठ है। लेकिन अड़चन खड़ी होती है कि जैसे ही हमने अपेक्षा की जाओ दूसरे की छाती पर, तुम मूंग दलना शुरू करो। नहीं तो कि हम सिकड़े। हमारा पात्र बंद हुआ। हम अपात्र हुए। कोई न कोई तुम्हारी छाती पर दल देगा। 'बिना किसी उद्देश्य के यहां आ गई। इरादा कुछ और मैक्यावेली कहता है, रक्षा का एकमात्र उपाय आक्रमण है। था—दक्षिण भारत घूमने जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर इसके पहले कि कोई हमला करे, तुम हमला कर दो। राह मत कुछ ऐसी पागल हुई कि संन्यास भी ले लिया...।' देखो कि वह करेगा, फिर रक्षा कर लेंगे। क्योंकि जिसने राह ठीक कहती है। संन्यास एक तरह का पागलपन है। संन्यास देखी वह तो पिछड़ गया। एक तरह की मस्ती है। हिसाब-किताब की दुनिया के बाहर है। तो दुनिया में ऐसा ही हो रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को तर्क-वितर्क की दुनिया के बाहर है। सोच आदि को जो एक खा जाती है। तो या तो बड़ी मछली बनो या छोटी मछली किनारे हटाकर रख देता है वही संन्यस्त होने का अधिकारी है। बनोगे। और क्या करोगे? जो कहता है, लोक-लाज खोई। जो कहता है, अब फिक्र नहीं साधारण हैं दोनों बातें। यही हो रहा है। यही कलह है, यही कि लोग क्या कहेंगे। जो कहता है, दूसरों के मत का अब कोई संघर्ष है—देशों में, जातियों में, व्यक्तियों में, सारे संबंधों में। प्रभाव नहीं। अब हम अपने ढंग से जीएंगे। जीवन हमारा है, पति पत्नी पर हावी होना चाहता है कि वह मेरे ढंग से चले। 5781 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता एक पत्नी मेरे पास आती है। वह कहती है पति को बस, रस यही है। पति को तूने दीन-हीन कर दिया है। तेरी | किसी तरह शराब रुकवा दें। और कुछ भी करे, मगर शराब न मालकियत कायम हो गई शराब पीने के कारण। ऐसे पति सब पीये। मैंने पूछा उसको कि सच में तू शराब के इतने विपरीत है या तरह से ठीक हैं। अगर शराब छोड़ दें तो तेरी मालकियत खतम अपनी चलाने का आग्रह है? क्योंकि तेरे पति को मैं जानता हूं। हो जाएगी। त ऊंची हो गई है. पति को नीचा बना लिया है। पति भला आदमी! तुझसे डरते हैं, तू डराती है। अगर तेरे पति ने शराब छोड़ी तो वे और शराबी अक्सर भले आदमी होते हैं। खतरा तो उनसे है, | तुझे डराएंगे। इसकी तू तैयारी कर ले। जो माला इत्यादि लिए बैठे हैं। उनमें भले आदमी खोजना बहुत जीवन में हम या तो डरते हैं या डराए जाते हैं। हम मश्किल है। वे अक्सर दष्ट प्रकति के लोग होते हैं। शराबी तो अच्छे-अच्छे बहाने खोज लेते हैं डराने के। और हम अगर डराए अक्सर भले आदमी होते हैं। जाते हैं तो भी हम अच्छे-अच्छे तर्क ले लेते हैं कि हम क्यों डर तेरे पति को मैं जानता हूं, भला आदमी है। ऐसे किसी को कुछ रहे हैं। हम कहते हैं कि वह बात ठीक ही है, इसलिए हम डर रहे गड़बड़ भी नहीं करता। वह कहती है, ऐसे तो कुछ गड़बड़ नहीं हैं। संन्यास का अर्थ इन दोनों स्थितियों के पार जाना है। संन्यास करते, पीकर ऐसा कुछ खराब भी नहीं करते। सिर्फ आपका | का अर्थ है, न तो हम डराएंगे किसी को; क्योंकि हम कौन हैं? प्रवचन देते हैं पीकर-दो-दो तीन-तीन घंटे! ऐसी कोई बुरी और न हम किसी से डरेंगे। न तो हम किसी को उसके मार्ग से बात भी नहीं कहते। ज्ञान की बातें करते हैं। तो मैंने कहा, हर्जा विचलित करेंगे, न हम अपने मार्ग से विचलित होंगे। क्या है? वे मेरा ही प्रवचन देते हैं। बात तो यही कहते हैं। बात इसका अर्थ हुआ, संसार से संबंध छोड़ा। क्योंकि संसार में दो भी बिलकुल दोहराते हैं। जब वे पी जाते हैं तो शब्द शब्द दोहराते ही तरह के संबंध हैं—या तो डराए जाओ, या डराओ। अगर हैं, भाव-भंगिमा दोहराते हैं। तो फिर मैंने कहा, हर्ज क्या है ? तू तुम मेरी बात समझो तो पत्नी को छोड़कर नहीं जाना, दुकान समझना कि टेप रिकार्ड लगाया है। सुन लिया कर। छोड़कर नहीं जाना, घर छोड़कर नहीं जाना। संसार से संबंध नहीं, मगर वह कहती है, यह ठीक नहीं है। मैंने कहा, एक छोड़ने का यह सार है कि मत डरना किसी से और मत डराना काम कर। तीन महीने...कितने दिन से तेरे पति पीते हैं? वह किसी को। तुम संसार के बाहर हो गए। क्योंकि इन दोनों में ही कहने लगी, कोई बीस साल से। मैंने कहा, बीस साल की संसार बंटा है। तब तुम न बड़ी मछली रहे, न छोटी मछली रहे। आदत है, छूटते-छूटते छूटेगी। मगर तू एक काम कर। तू तीन | तुम मछली ही न रहे। तुम संसारी न रहे। महीने कहना छोड़ दे। तू तो कोई शराब नहीं पीती, सिर्फ कहती बड़ी हिम्मत चाहिए। रास्ता कठिन होगा क्योंकि तुम अचानक है कि मत पीयो। और बीस साल का अनुभव है कि वे सुनते अकेले पड़ जाओगे। और तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा दांव पर लग नहीं। कहने में कुछ सार भी नहीं है। तीन महीने के लिए तू जाएगी। क्योंकि जिनने प्रतिष्ठा दी थी, वे प्रतिष्ठा खींच लेंगे कहना छोड़ दे। वापस। उन्होंने कुछ शर्तों से प्रतिष्ठा दी थी। वे कहते थे, तुम उसने पांच-सात दिन के बाद आकर कहा कि असंभव। मेरी बड़े बुद्धिमान हो, अब न कहेंगे। वे कहते थे, तुम बड़े होशियार भी बीस साल की आदत है। यह नहीं हो सकता। इससे मुझे हो, अब न कहेंगे। अब तो वे कहेंगे, तुम पागल हो गए, बड़ी बेचैनी होती है, इसलिए नहीं कह सकती। इसकी तो आप सम्मोहित हो गए। किसके जाल में पड़ गए! तुमने अपनी बुद्धि मुझे छुट्टी दे दें। गंवा दी। अब तो वे तुम पर संदेह करेंगे। तो मैंने कहा, अब तू सोच। तेरे पति की तो शराब की आदत है | तो तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा कठिनाई में पड़ जाएगी। संन्यास बीस साल की। कैसे छूटेगी? तुझे सिर्फ कहना रोकना है, वह महंगा सौदा है। पागल ही कर सकते हैं। भी नहीं छूटता। वह भी तेरी शराब हो गई। | त्रिवेणी ठीक कहती है कि 'यहां आकर संन्यास ले लिया। और मजा तुझे अंदाज में नहीं है, अगर मैं तेरे पति को राजी कर ऐसी पागल हो गई कि संन्यास ले लिया। और अब आप ही मेरे लूं और वे शराब न पीयें तो तू दुखी हो जाएगी। क्योंकि तेरा सारा | कृष्ण बन गए हैं।' 579 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 जहां प्रेम हो गया वहीं कृष्ण का आविर्भाव हो जाता है। कृष्ण इसलिए यह जो मौका मिला, यह जो पलक थोड़ी खुली, से थोड़े ही प्रेम होता है! जहां प्रेम होता है, वहीं कृष्ण का इसको और खोलते ही चले जाना। आविर्भाव हो जाता है। यही कठिन बात है। '...अब यह विश्वास लेकर जाती हूं कि जो ध्यान यहां मिला अगर तुम किसी दूसरे को सिद्ध करोगे कि मुझे कृष्ण के दर्शन | है, वह कायम रहेगा।' हो गए तो वह हंसेगा। उसका हंसना भी ठीक है। वह कहेगा, यह बात छोड़कर जाओ। यह साथ लेकर मत जाओ। यह हमें तो कोई कृष्ण के दर्शन होते नहीं; तुम्हें कैसे हो गए? कुछ रहेगा कायम, लेकिन तुम यह बात यहीं छोड़ जाओ। तुम यह भ्रांति हो गई होगी। बात ही मत उठाओ। यह विश्वास खतरनाक है। यह विश्वास वह भी ठीक है। क्योंकि कृष्ण के दर्शन तो प्रेम में होते हैं; प्रेम तो इस बात की सूचना है कि अविश्वास आना शुरू ही हो गया। की आंख हो तो होते हैं। और प्रेम की आंख हो तो कुछ और ही डर लगने लगा मन में कि अब घर वापस जाना है। पता नहीं जो यहां हो रहा था, वह वहां होगा या नहीं होगा। तुम्हारा घर मोहब्बत में कदम रखते ही गुम होना पड़ा मुझको परमात्मा के उतने ही निकट है जितना यहां। सभी घर उसके हैं। निकल आयीं हजारों मंजिलें एक-एक मंजिल से सभी जगह वही है। तुम यह विश्वास ही उठाने का मतलब हुआ कि कहीं गहरे में हजारों मंजिलें खुल जाती हैं। इधर प्रेम की आंख बंद हुई कि सब अविश्वास आने लगा कि अब जाती हूं घर, अब पता नहीं जो बंद हो जाता है। हुआ है, वह साथ जाएगा या नहीं? फिक्र छोड़ो। विश्वास की कृष्ण दिखाई पड़ सकते हैं, जहां तुम्हारा प्रेम जग जाए। प्रेम | कोई जरूरत नहीं है। कृष्ण को निर्मित करता है। प्रेम कृष्ण का आविष्कार करता है। तुम आनंदमग्न, नाचती, गीत गुनगुनाती वापस जाओ। तुम्हारे तो तुम्हारा प्रेम जगा, इसे स्मरण रखना। और इस प्रेम को मुझ गीतों में बंधा हुआ, जो यहां घटा है वह तुम्हारे साथ चला पर ही मत रोक लेना। इसे और बढ़ाना, कि धीरे-धीरे कृष्ण सब आएगा। अपेक्षाशून्य! जैसे निरुद्देश्य आना यहां हुआ था, ऐसे जगह दिखाई पड़ने लगें। जो घटना तुमने मुझ पर घटा ली है, | ही निरुद्देश्य वापस चली जाओ। दूर न जा पाओगी। वह तुम्हारी प्रेम की आंख के कारण घटी है। इसी आंख से वृक्ष याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई को देखना। तो तुम पाओगे, कृष्ण खड़े हैं हरे-भरे। इसी आंख काफिले घर से बहुत दूर न होने पाए से पहाड़ को देखना तो तुम पाओगे, कृष्ण खड़े हैं। कैसे आकाश | कभी नहीं हो पाते दूर। प्रेम की झलक मिल जाए...। को छूते शिखर। हिमाच्छादित! कृष्ण खड़े हैं। याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई। तुम इसी प्रेम की आंख से देखते चले जाना, तो हर जगह कृष्ण | फिर दिल कभी भूलता ही नहीं। दिल में घट जाए, एक दफा दिखाई पड़ेंगे। यह प्रेम की आंख जो पैदा हुई है, यह बढ़ती जाए, दिल में झंकार हो जाए, फिर दिल कभी भूलता ही नहीं। यह मुझ पर रुके न। क्योंकि रुक जाए तो खतरा हो जाता है। याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई रुकने से संप्रदाय बन जाता है। बढ़ने से धर्म, रुकने से संप्रदाय। काफिले घर से बहुत दूर न होने पाए तुमने अगर यह जिद्द की कि यही आदमी कृष्ण है, और कोई फिर तुम जाओ कितने ही दूर-पृथ्वी के किसी दूर के कोने पर कृष्ण नहीं तो बस, जल्दी ही यह प्रेम मर जाएगा। क्योंकि प्रेम | भी, तो भी घर से दूर न हो पाओगे। वह घर परमात्मा है, जिससे फैलता रहे तो जीता है। प्रेम बढ़ता रहे तो जीता है। प्रेम सिकुड़ | हम कभी दूर नहीं हो पाते। जाए तो मरने लगता है। तुमने गर्दन पर फांसी लगा दी। जैसे एक दफा पुलक आ जाए, झलक आ जाए। वह झलक आयी [ दो और कोई मर जाए, ऐसा प्रेम को है। इसलिए विश्वास इत्यादि की बात मत उठाओ। विश्वास तो सिकोड़ना मत, अन्यथा मर जाएगा। फिर एक दिन तुम पाओगे | थोथी चीज है। विश्वास तो अविश्वास को ढांकने का उपाय है। कि मुझमें भी दिखाई नहीं पड़ेंगे कृष्ण। विश्वास तो शंका को छिपाने की व्यवस्था है। विश्वास तो संदेह 5800 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता को लीपापोती करना है। गाना, नाचना, चुप होकर बैठ जाना। अपेक्षा मत ले जाओ। तुम जैसी निरुद्देश्य यहां आयी थीं, बिना किसी भाव के कुछ सहज होना; सहजस्फूर्त। और फिर संबंध नहीं टूटता है। पता न था क्या घटेगा, ऐसे ही वापस जाओ बिना कुछ पता लिए तू सोज-ए-हकीकी है मैं परवाना हूं कि क्या घटेगा। बहुत कुछ घटने को है। मैं तुमसे पहले तुम्हारे | तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं घर पहुंच गया हूं। तू रूह है मैं जिस्म हूं '...जो ध्यान यहां मिला वह कायम रहेगा और पुकारने पर तू अस्ल है मैं नक्ल आप सदा आते रहेंगे?' जिसमें है बयां तेरा, वह अफसाना हूं तुम फिक्र ही न करो। कभी-कभी बिना पुकारने पर भी | भक्त कहता है: आऊंगा। द्वार पर दस्तक दूं तो घबड़ाना मत। कभी अचानक तू सोज-ए-हकीकी है, मैं परवाना हूं सामने खड़ा हो जाऊं तो घबड़ाना मत। तू है सत्य का दीया, मैं हूं पतिंगा, परवाना। तुझ पर जलने को प्रेम न तो समय जानता, न स्थान जानता। क्षेत्र और काल आता हूं। दोनों के पार है। तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं दिन-रात खुली रहती हैं राहें दिल की -तू फूलों के रंग जैसी शराब है, मैं तेरा पात्र हूं। तकती हैं किसे रोज निगाहें दिल की तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल तू रूह है मैं जिस्म रोके जो रुकती नहीं आहे दिल की -तू है आत्मा, मैं शरीर। दिन-रात खुली रहती हैं राहें दिल की वे प्रेम के रास्ते सदा | तू अस्ल है मैं नक्ल ही खुले हुए हैं। अपेक्षा से बंद हो जाते हैं। द्वार बंद हो जाता, | भक्त अपने को पोंछ देता है, मिटा देता है। अपेक्षा रखोगे तो भिड़ जाता। अपेक्षा भर मत ले जाओ। प्रफुल्लता से, तुम रहोगे। क्योंकि अपेक्षा तुम्हारी है; तुम्हारे अहंकार की, मग्न-भाव से जाओ। अस्मिता की है। अपेक्षाएं हटा दो। अपेक्षाओं के गिरते ही दिन-रात खली रहती है राहें दिल की तुम्हारा अहंकार गिर जाएगा। तकती हैं किसे रोज निगाहें दिल की तू रूह, मैं जिस्म दिल की निगाह के लिए कोई भौतिक उपस्थिति जरूरी नहीं त अस्ल, मैं नक्ल है। दिल की आंख दर से देख लेती है। और दिल की आंख न हो | तब भक्त नक्ल हो जाता है, नकल हो जाता है। वह कहता है तो पास से भी नहीं देख पाती। दिल की आंख न हो तो आदमी तेरी छाया, प्रतिबिंब दर्पण में बनी तेरी प्रतिछवि। अंधे की तरह आता, अंधे की तरह चला जाता। तू अस्ल, मैं नक्ल ये किसका तसव्वर है, ये किसका है खयाल जिसमें है बयां तेरा, वह अफसाना हूं आता हूं तुम्हारे साथ। लेकिन तुम्हारी अपेक्षा रही तो न आ | ज्यादा से ज्यादा वह कहानी हूं, वह गीत हूं, जिसमें तेरा बयान पाऊंगा। अपेक्षा छोड़ दो। अपेक्षा का त्याग कर दो। आता हूं | है। अपने को पोंछो। अपने को हटाओ। उसी ढंग से परमात्मा तुम्हारे साथ एक तसव्वुर की तरह, एक भाव की तरह, एक के लिए जगह बनती है। भक्ति की तरह। तो मैं कहता हूं, त्रिवेणी, घर जाओ-खाली, शून्यवत। कोई ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल अपेक्षा नहीं, कोई अतीत अनुभव की स्मृति नहीं। जो हुआ है रोके जो रुकती नहीं आहे दिल की वह फिर-फिर हो, ऐसी वासना नहीं-शून्य! उस शून्य में ही रोना! अपेक्षा मत ले जाओ। उसका दीया उतर आएगा; उसकी रोशनी भरेगी। हंसना! अपेक्षा मत ले जाओ। तू वादा-ए-गुलरंग मैं पैमाना हूं 5811 __ 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 यह शून्यता ही तुम्हें पात्र बना देगी। फूलों के रंगों जैसी शराब, | उन्हें थोड़े ही मतलब है! उन्हें अपने नर्क की पड़ी है, कि पैर की परमात्मा की मस्ती उसमें उतरेगी और भरेगी। तुम मिटोगे तो धुल दे दें और फंस जाएं। यह भी खब आदमी फंसाने के उपाय परमात्मा हो सकता है। कर रहा है! अभी पैर की धूल दे दें, फिर फंसें खुद। तुम्हारा तो सिरदर्द ठीक हो, हम नर्क में सड़ें। नहीं, यह पाप हमसे न हो तीसरा प्रश्न : कथा कहती है कि श्री कृष्ण भगवान ने जब सकेगा। इनको अपनी फिक्र है। गोपियों को अपना पता ही नहीं सिरदर्द मिटाने के लिए भक्तों से उनकी चरणधूलि मांगी, तब | है। इसलिए उन्होंने कहा, पैर की धूल तो पैर की धूल। इसे थोड़ा सबने इंकार कर दिया, लेकिन गोपियों ने चरणधूलि दी। प्रभु, | समझ लेना। इस प्रसंग का रहस्य बताने की कृपा करें। प्रेम के अतिरिक्त और कोई विनम्रता नहीं है। गोपियां तो समझती हैं सब लीला उसकी है। यह सिरदर्द उसकी लीला, यह रहस्य बिलकुल साफ है। बताने की कोई जरूरत नहीं है। पैर, यह पैर की धूल उसकी लीला। वही मांगता है। उसकी ही सीधा-सीधा है। दसरे डरे होंगे। दसरों की अस्मिता रही होगी, | चीज देने में हमें क्या अड़चन है? अहंकार रहा होगा। तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर अब यह बड़े मजे की बात है। अहंकार को विनम्र होने का | हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी पागलपन होता है। अहंकार को ही विनम्र होने का खयाल होता यह भगवान, जिसने दुनिया बनाई हो-यजदां, स्रष्टा; है। तो जो दूसरे रहे होंगे, उन्होंने कहा, पैर की धूल भगवान के कभी-कभी हंसता तो होगा; कैसा दिलचस्प जुर्म किया। यह लिए? कभी नहीं। कहां भगवान, कहां हम! हम तो क्षुद्र हैं, | दुनिया बनाकर कैसा मजेदार पाप किया। तुम विराट हो। हम तो ना-कुछ हैं, तुम सब कुछ हो। लेकिन तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर इस ना-कछ में भी घोषणा हो रही है कि हम हैं, छोटे हैं। हमारे हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी पैर की धूल तुम्हारे सिर पर ? पाप लगेगा, नर्क में पड़ेंगे। भक्त कहते हैं-हंसी उसको भी तो आती होगी कि खब लेकिन गोपियां जो सच में ही ना-कुछ हैं, उन्होंने कहा हमारे मजाक रहा! पैर कहां? हम कहां? हमारे पैर की धूल भी तुम्हारे ही पैर की कृष्ण खूब हंसे होंगे, जब ज्ञानियों ने धूल न दी और गोपियों ने धूल है। और यह धूल भी कहां ? तुम ही हो। और फिर तुम्हारी | धूल दे दी। खूब हंसे होंगे। छोटी-सी मजाक भी न समझ पाए। आज्ञा हो गई तो हम बीच में बाधा देनेवाले कौन ? हम कौन हैं ज्ञानियों से ज्यादा बुद्धू खोजना मुश्किल है। शास्त्र समझ गए, जो कहें नहीं? शास्त्र का सागर समझ गए, और जरा-सी मजाक न समझ पाए, प्रेम की विनम्रता बड़ी अलग है। ज्ञान की विनम्रता थोथी है, जरा-सी बात न समझ पाए। परमात्मा के लिए इतना भी न कर धोखे से भरी है। ज्ञानी जब तुमसे कहता है, हम तो आपके पैर | पाए। गोपियां तो खूब खुश हुई होंगी। उन्होंने तो सोचा होगा, की धूल हैं, तुम मान मत लेना। जरा उसकी आंख में देखना। | चलो अपराध तुम्ही करवा रहे हो तो करेंगे। दिलचस्प हो गया वह कह रहा है, समझे कि नहीं, कि हम महाविनम्र हैं! अपराध, तुम्हारी आज्ञा से हो रहा है। तुम यह मत कहना कि ठीक कहते हैं आप: बिलकुल सही खताओं पे जो मुझको माइल करे फिर कहते हैं आप। तो वह नाराज हो जाएगा और फिर कभी तुम्हारी | सजा और ऐसी सजा चाहता हूं तरफ देखेगा भी नहीं। वह सुनना चाहता है कि तुम कहो, कि | उन्होंने तो सोचा होगा, चलो अच्छा। अब ऐसी सजा देना कि | अरे! आप और पैर की धूल? नहीं-नहीं। आप तो पूज्यपाद! हम और खताएं करें। अब ऐसा दंड देना कि हम और खताएं करें आप तो महान, आपकी विनम्रता महान। वह यह सुनना चाहता ताकि तुम और दंड दो। यह संबंध बना रहे। यह दोस्ती बनी है कि तुम कहो कि आप महान। रहे। यह गठबंधन बना रहे। दूसरों ने इंकार कर दिया होगा। कृष्ण के सिर में दर्द है, इससे | खताओं पे जो मुझको माइल करे फिर 5821 2010_03 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता सजा और ऐसी सजा चाहता हूं कराता होगा। उनका समर्पण समग्र है। गोपियां तो प्रसन्नता से नर्क चली जाएंगी, अगर उनके नर्क के जाने से कृष्ण का सिरदर्द ठीक होता हो। उन्हें तो क्षणभर भी आखिरी प्रश्न : ध्यान की मृत्यु और प्रेम की मृत्यु क्या भिन्न खयाल न आया होगा कि यह कोई पाप हो रहा है। हैं? क्या उनकी प्रक्रियाएं भी भिन्न हैं? प्रेम शिष्टाचार के नियम मानता ही नहीं। जहां शिष्टाचार के नियम हैं, वहां कहीं छुपे में गहरा अहंकार है। सब शिष्टाचार के | मृत्यु तो एक ही है; ध्यान की हो कि प्रेम की। लेकिन नियम अहंकार के नियम हैं। प्रेम कोई नियम नहीं मानता। प्रेम | प्रक्रियाएं, उस मृत्यु तक पहुंचने के मार्ग, विधियां भिन्न-भिन्न महानियम है। सब नियम समर्पित हो जाते हैं। प्रेम पर्याप्त है; हैं। ध्यान से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। प्रेम से भी किसी और नियम की कोई जरूरत नहीं है। यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। मिटना तो दोनों हालत में ज्ञानी और भक्त में बड़े फर्क हैं। वे दृष्टियां ही अलग हैं। वे होता है, लेकिन दोनों के मार्ग बड़े अलग-अलग हैं। दो अलग संसार हैं। वे देखने के बिलकुल अलग आयाम हैं। ध्यान के पहले चरण पर तुम नहीं मिटते। ध्यान के पहले चरण जिसको हम ज्ञानी कहते हैं, वह रत्ती-रत्ती हिसाब लगाता है। पर तो तममें जो गलत है उसको मिटाया जाता है, सही को कर्म, कर्मफल, क्या करूं, क्या न करूं, किसको करने से पाप बचाया जाता है। अशुभ को मिटाया जाता है, शुभ को बचाया लगेगा, किसको करने से पुण्य लगेगा। | जाता है। अशुद्धि जलाई जाती है, शुद्धि बचाई जाती है। भक्त तो उन्माद में जीता। वह कहता जो तुम कराते, करेंगे। तो ज्ञान के मार्ग पर या ध्यान के मार्ग पर व्यक्ति शुद्ध होने पाप तो तुम्हारा, पुण्य तो तुम्हारा। भक्त तो सब कुछ परमात्मा लगता है। मिटता नहीं, परिशुद्ध होता है, लेकिन बचता है। के चरणों में रख देता है। वह कहता है अगर तुम्हारी मर्जी पाप आखिरी छलांग में परिशुद्धि ऐसी जगह आ जाती है, जहां कि कराने की है तो हम प्रसन्नता से पाप ही करेंगे। भक्त का समर्पण शुद्धता भी अशुद्धि मालूम होने लगती है। जहां होना मात्र आमूल है। मदहोशी! बेहोशी! परमात्मा के हाथ में अपना हाथ | अशुद्धि मालूम होती है, वहां आखिरी छलांग में ध्यानी अपने को पूरी तरह दे देना-बेशर्त। बुझा देता है। भक्त पहले कदम पर बुझाता है। वह इसका वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया हिसाब नहीं करता-अच्छा और बुरा। वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी | तो भक्ति छलांग है और ध्यान क्रमिक विकास है। ध्यान धर्म-उपदेशकों ने, तथाकथित ज्ञानियों ने, धर्मगुरुओं ने—सर एक-एक कदम, धीरे-धीरे चलता है; आहिस्ता-आहिस्ता। जोड़कर बदनाम किया-खूब सिर मारा और बदनाम किया, भक्ति बिलकुल पागलपन है। वह एकदम छलांग लगा लेती तब कहीं बेहोशी को, मदहोशी को, फलों के रंग जैसी शराब को | है। ध्यानी ऐसे है, जैसे सीढ़ियों से उतरता है छत से-एक-एक वे बदनाम करने में सफल हो पाए; अन्यथा कभी बदनाम न कदम, सम्हल-सम्हलकर। सम्हलना ध्यान का सूत्र होती। है-सावधानी। वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया भक्त ऐसा है, छत से छलांग लगा देता है। फिक्र ही छोड़ता है वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी हाथ-पैर टूटेंगे, बचेंगे, मरेंगे, क्या होगा। वह छलांग लगा देता भक्त तो शराबी जैसा है। ज्ञानी हिसाबी-किताबी है। दोनों के है। उसकी श्रद्धा आत्यंतिक है। वह कहता है, उसे बचाना है तो गणित अलग-अलग हैं। भक्त तो जानता ही नहीं क्या बुरा है, वह बचा ही लेगा। जाको राखे साइयां। उसे नहीं बचाना है तो क्या भला है। भक्त तो कहता है, जो भगवान करे वही भला। तुम सीढ़ियों पर भी सम्हल-सम्हलकर चलो तो भी मर जाओगे, जो मैं करना चाहूं वह बुरा, और जो भगवान करे वह भला। तो भी मिट जाओगे। तो गोपियों ने सोचा होगा, भगवान कहते हैं अपनी चरण-रज तो भक्त तो छलांग लगाता है—एक ही कदम। फिर एक दे दो, उन्होंने जल्दी से दे दी होगी। भगवान कराता है तो भला ही कदम के बाद उसे कुछ करना नहीं पड़ता। फिर तो जमीन का 1583 2010_03 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 गुरुत्वाकर्षण खींच लेता है। ऐसा थोड़े ही कि तुमने एक कदम | भक्त तो शराबी जैसा है। उसने तो भक्ति की सुरा पी ली। छलांग लगाई, फिर तुम पूछते हो अब हम क्या करें छलांग अब वह डांवाडोल चलता है। अब गिर जाए, तो उसे फिकर लगाकर? पूछने का मौका ही नहीं है। गए! एक कदम तुमने नहीं। न पहुंच पाए तो उसे फिकर नहीं। उठाया कि जमीन खींचने लगती है। एक कदम तुम न उठाते तो तुमने कभी एक मजे की घटना देखी है? शराबी गिर जाता है जमीन की कशिश के लिए तुम उपलब्ध न थे। एक कदम उठाया रास्ते पर, हाथ-पैर नहीं टूटते। तुम जरा गिरो! कि जमीन की कशिश काम करने लगी। एक बैलगाड़ी में दो आदमी बैठे थे—एक शराबी शराब पीए तो भक्ति का शास्त्र कहता है कि तुम छलांग लो, फिर और एक आदमी पूरे होश में। बैलगाड़ी उलट गई। जो होश में परमात्मा की कशिश बाकी काम कर देती है। तुम छोड़ो, वही था, उसके हाथ-पैर टूट गए। जो शराबी था उसको पता ही नहीं कर लेगा। | चला। जब उसने सुबह आंख खोली तो उसने कहा, अरे! ध्यानी कहता है, हम छोड़ न पाएंगे ऐसे। हम तो जो गलत है बैलगाड़ी का क्या हुआ? उसे छोड़ेंगे। पता नहीं परमात्मा है भी या नहीं? तुमने देखा, कभी-कभी छोटे बच्चे गिर पड़ते हैं छत से, चोट तो तुम्हें सोचना है अपने भीतर कि तुम्हें कौन-सी बात ठीक नहीं खाते। बड़ा आदमी गिरे तो जरूर चोट खाता है। क्या लगती है। अगर पागल होने की हिम्मत है तो भक्ति। अगर तर्क कारण होगा? शराबी जब गिरता है तो उसे पता ही नहीं चलता बहुत प्रगाढ़ है, सोच-विचार काफी निखरा हुआ है, बुद्धि | कि गिर रहे हैं। गिरने का पता चले तो आदमी रोकता है। रोके बलशाली है तो भक्ति तुम्हारे काम की नहीं। तो विरोध खड़ा होता है, प्रतिरोध होता है। जब होशवाला घबड़ाहाट कोई भी नहीं है। पहुंचोगे तो वहीं। जब तुम आदमी गिरता है तो वह सब तरह से अपने को रोकता है कि गिर सीढ़ियां उतर रहे हो तब भी कशिश ही तुम्हें खींच रही है। तुम न जाऊं। जमीन खींच रही है नीचे, वह खींच रहा है, सम्हाल धीरे-धीरे उतर रहे हो, बस इतनी ही बात है। भक्त तेजी से जा रहा है अपने को जमीन के विपरीत। तो दोहरी शक्तियों में विरोध रहा है, तीर की तरह जा रहा है। तुम आहिस्ता-आहिस्ता जा रहे होता है। उसी में हड्डियां टूट जाती हैं। हो, एक-एक कदम जा रहे हो। जब तुम एक कदम उतरते हो शराबियों को गिरते देखकर और चोट लगते न देखकर चीन सीढ़ी से तब भी कशिश ही तुम्हें खींचती है। लेकिन तुम एक और जापान में एक विशेष कला विकसित हुई, उसका नाम है कदम उतरते हो, फिर दूसरा कदम उतरते हो। तुम पर निर्भर है। ज्युदो, जुजुत्सु। यह देखकर कि शराबी गिरता है रोज। पड़े हैं और जल्दबाजी में ऐसा मत करना, यह मत सोचना कि.चलो नाली में। फिर सुबह उठकर घर जाते हैं, फिर नहा-धोकर फिर यह सीधा मार्ग है भक्ति का; छलांग लगा जाओ। अगर तुम्हारे चले दफ्तर। न उनकी हड्डी-पसली टूटी, न कहीं कुछ है। तुम मन में यह न जंचे तो छलांग लगेगी ही नहीं।। सुबह पहचान भी नहीं सकते कि ये रातभर सड़क पर पड़े रहे हैं। तो अपने मन को पहचानना। तुम्हें जो ठीक लगे वही तुम्हारे | सुबह बिलकुल ठीक मालूम पड़ते हैं। तुम तो गिरो इतना! लिए ठीक है। और सदा ध्यान रखना जो तुम्हारे लिए ठीक है, बच्चा रोज गिरता है, दिनभर गिरता है घर में। मां-बाप तो गिरें; वह जरूरी नहीं कि सभी के लिए ठीक हो। जो दूसरे के लिए फौरन हड्डी-पसली टूट जाएगी। ठीक है वह तुम्हारे लिए गैर-ठीक हो सकता है। जो दूसरे के अभी अमरीका में उन्होंने एक प्रयोग किया हार्वर्ड युनिवर्सिटी लिए अमृत है, तुम्हारे लिए जहर हो सकता है। में कि एक बड़े पहलवान को, बड़े शक्तिशाली आदमी को एक मृत्यु तो एक ही है। मृत्युएं दो नहीं हैं। अंतिम परिणाम तो एक छोटे बच्चे की नकल करने को कहा। आठ घंटे बच्चा जो करे ही है, लेकिन चलनेवाले दो ढंग के हैं। कुछ हैं, जो होशियारी से वह तुम करो। वह आदमी सोचता था, मैं शक्तिशाली आदमी चलते हैं, सम्हल-सम्हलकर चलते हैं। रास्ते पर देखा, कोई है, गजर जाऊंगा। काफी, हजारों डालर मिलनेवाले थे। चा आदमी सम्हलकर चलता है। और शराबी को देखा, डांवाडोल घंटे में चारों खाने चित्त हो गया। क्योंकि वह बच्चा कभी गिरे तो चलता है। अब उसको गिरना पड़े। यह बड़ी झंझट की बात। 584 2010_03 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता वह बच्चा...बच्चे को आनंद आ गया। उसने कहा कि यह सकते हो बिना शर्त लगाए, तो फिर प्रेम के मार्ग से उतरो। मेरी नकल कर रहा है। तो वह और जोर-जोर से करने लगा। मिटोगे तो दोनों हालत में क्योंकि जब तक तुम न मिटोगे, तब चार घंटे में वह जो पहलवान था, उसने कहा माफी करो। वे तक परमात्मा न हो सकेगा। और जिस दिन तुम मिटोगे उस दिन हजारों डालर रखो अपने। यह तो हमारी जान ले लेगा। आठ | तुम्हें चाहे पता न भी चले कि तुम मिट गए हो, सारी दुनिया को घंटे में हम मर ही जाएंगे। क्योंकि उचकता, कूदता, चिल्लाता, पता चल जाएगा कि तुम मिट गए हो। जिनके पास भी आंखें हैं चीखता। और जो वह करे, वही उसे करना है। उन्हें पता चल जाएगा कि तुम मिट गए हो। तुम्हारा शून्य बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रयोग करके देख रहे थे कि छोटे बच्चे में कितनी मुखर होता है! ऊर्जा है, फिर भी थकता नहीं। कारण क्या होगा? छोटा बच्चा शून्य बड़ा संगीतपूर्ण होता है। शून्य का सन्नाटा सुनाई पड़ने अभी अपने को सम्हालता नहीं। अभी जो घटता है, उसके साथ लगता है। जो लोग भी मिट गए हैं, उनके पास लोग भागे चले हो लेता है। अगर बच्चा गिरता है, तो वह गिरने में सहयोग आते हैं, खिंचे चले आते हैं। समझ में भी नहीं आता कि क्या करता है। तुम गिरते हो तो विरोध करते हो। तुम्हारे विरोध के आकर्षण है। आकर्षण इतना ही है कि जहां कोई मिट गया वहां कारण हड्डी टूट जाती है। हड्डी गिरने के कारण नहीं टूटती। हड्डी शून्य पैदा हो गया। तुम्हारे विरोध के कारण टूटती है। वैज्ञानिकों से पूछो, हवा चलती है, क्यों चलती है? यह हवा अगर तुम गिरने में साथ हो जाओ, अगर जब तुम गिरने लगो | अभी चल रही है, यह गुलमोहर का वृक्ष कंप रहा है। यह हवा तो गिरने से तुम्हारे बचने की कोई आकांक्षा न हो, तुम गिरने के क्यों चल रही है? तो वैज्ञानिक कहते हैं, हवा के चलने का एक साथ सहयोग कर लो, तुम गिरने से एक कदम आगे गिर जाओ, | कारण है, एक ही कारण है। जब कहीं जोर की गर्मी पड़ती है तो तुम कहो, लो राजी; तो चोट न खाओगे। तो तुम ऐसे गिर | वहां की हवा विरल हो जाती है। वहां शून्य पैदा हो जाता है। उस जाओगे....बिना किसी प्रतिरोध के। तुम पृथ्वी की गोद में गिर शून्य को भरने के लिए आसपास की हवा दौड़ने लगती है। जाओगे। चोट न खाओगे। | क्योंकि शून्य को प्रकृति बर्दाश्त नहीं करती। उसको भरना पड़ता शराबी चोट नहीं खाता। ऐसे ही भक्त भी चोट नहीं खाता। है। आसपास की हवा उस शुन्य को भरने के लिए दौड़ती है, वह गिरता है; बड़ी ऊंची छलांग है उसकी। मगर वह शराबी इसलिए हवा चलती है। इसलिए गर्मी में बवंडर उठते हैं, तूफान है। उसने प्रेमरस पीया है। उसने प्रेम की सुरा पी ली। उठते हैं। क्योंकि शून्य पैदा हो जाता है। सूरज की गर्मी के कारण मगर तुम अगर नहीं हो शराबी और तुम्हारा स्वभाव वैसा नहीं हवा विरल हो जाती है, फैल जाती है। जगह खाली हो जाती है। है तो करना मत। तुम अपनी सीढ़ियां उतरना। छोटी-छोटी उसे भरने हवा आती है। सीढ़ियां-सीढ़ियां बनाकर उतरना। कोई जल्दी भी नहीं है क्योंकि ठीक ऐसा ही परमात्मा के आत्यंतिक लोक में भी घटता है। दोनों तरह से लोग पहुंच जाते हैं। जब कोई व्यक्ति मिट जाता है, खाली हो जाता, तो प्रकृति या तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम इसमें से एक को अपनी परमात्मा शून्य को बर्दाश्त नहीं करता। उस शून्य को भरने के स्वभाव की, प्रकृति की अनुकूलता बिना देखे चुन लो। इसलिए लिए चेतना की लहरें चल पड़ती हैं। मैं भक्ति की भी बात करता हूं, ध्यान की भी बात करता हूं। मैं तुम चेतना की लहरों की तरह यहां आ गए हो। जहां कहीं कोई दोनों की बात करता हूं क्योंकि तुममें दोनों तरह के लोग हैं। व्यक्ति मिटा कि चेतनाएं उस तरफ सरकने लगती हैं। ऐसा अंतिम घटना तो एक है, लेकिन उस तक पहुंचने के रास्ते बड़े व्यक्ति हिमालय पर बैठा हो तो लोग वहां रास्ता खोजते हुए, भिन्न हैं। | पगडंडियां बनाते हुए पहुंच जाते हैं। जाना ही पड़ेगा। शून्य को अगर तम्हें विचार की बड़ी पकड़ है तो तम ध्यान से चलो। परमात्मा बर्दाश्त नहीं करता। उसे भरना ही पड़ेगा। अगर तुम्हारा हृदय खुला है, तुम छोटे बच्चे हो सकते हो, या कि | जहां गुरु पैदा होगा वहां शिष्य आते चले जाते हैं। गुरु के होने तुम स्त्रैण हो सकते हो, तुम प्रेम बहा सकते हो और प्रेम में बह का एक ही अर्थ है, जहां शून्य पैदा हुआ। 585 2010_03 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनिया को कि यह मालूम होता है नहीं मालूम होती है प्रेम तुम्हारे जीवन में घटेगा, पता भी नहीं चलेगा तुम्हें किसी और को भी शायद पता न चले, फिर भी सबको पता चल जाएगा। और ऐसा भी पता चलता रहता है कि मालूम नहीं हो रहा है। किसी को मालूम नहीं हो रहा है। लेकिन चुपचुप, गुपचुप, हृदय से हृदय तक खबर पहुंच जाती है। मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनिया को कि यह मालूम होता है नहीं मालूम होती है और मृत्यु तो मोहब्बत की आखिरी घड़ी है। वह तो चरमोत्कर्ष, वह तो आखिरी उत्कर्ष, वह तो चरम स्थिति है। जहां कोई व्यक्ति बिलकुल शून्य हो जाता है, सब तरफ से परमात्मा दौड़ पड़ता है अनेक-अनेक रूपों में उसे भरने को।। इसी को हिंदू अवतरण कहते हैं। यह परमात्मा का दौड़कर किसी को भर देना अवरतण है-उतर आना। कोई खाली हो गया. परमात्मा दौड़ा उसे भरने को। ध्यानी को भी भरता है. प्रेमी को भी भरता है। लेकिन भरता तभी है, जब तुम मिटते हो। अपने को बचाना मत। कोई भी मार्ग खोजो। अपने को मिटाने का मार्ग खोजो। संसार है अपने को बचाने की चेष्टा; धर्म है अपने को मिटाने का साहस। आज इतना ही। 586 2010_03