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________________ हला प्रश्न : कुछ दिन ध्यान में जी लगता है, फिर | जीवन के प्रत्येक पल तुम ऐसा ही पाओगे। कुछ दिन पूजा और भजन चलता है, लेकिन बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी एकाग्रता कहीं भी नहीं होती। अपनी इस स्थिति अब कहां ले जाके बैठे ऐसे दीवाने को हम से परेशान हूं। कृपा कर मुझे साधे। बगीचे में बिठाओ तो लगता नहीं। मरुस्थल में ले जाओ तो घबड़ाता है। मन का स्वभाव ऐसा। न यहां लगता, न वहां लगता। मन का | बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी स्वभाव है द्वंद्व। जो करोगे वहीं से उचटा हुआ लगेगा। जहां हो अब कहां ले जाके बैठे ऐसे दीवाने को हम हेगा। जहां नहीं हो वहां का रस जन्मेगा। मन एक तरह का पागलपन है. एक तरह की विक्षिप्तता है। जो मिला, व्यर्थ हो जाता है। जो नहीं मिला, वे दूर के ढोल बड़े | मन से मुक्त होना ही मुक्ति है। मन के पार होना ही स्वस्थ होना सुहावने लगते हैं। है। तो पहली तो बात, मन के इस स्वभाव को समझने की मन के इस स्वभाव को समझो। न तो ध्यान काम आता, न कोशिश करो। अक्सर लोग समझने की कम कोशिश करते हैं, भजन काम आता; मन के स्वभाव को समझना काम आता है। / छुटकारा पाने की ज्यादा कोशिश करते हैं। और छुटकारा बिना मन की यह प्रक्रिया है। पद मिल जाए तो असंतुष्ट, पद न समझे कभी नहीं है। तो तुम्हारी आकांक्षा यह होती है, कैसे मिले तो असंतुष्ट। पद न मिले तो पीड़ा, पद मिल जाए तो झंझट मिटे। लेकिन बिना समझे झंझट मिटी ही नहीं। नासमझी व्यर्थता का बोध। गरीब रोता, अमीर नहीं है। अमीर रोता कि में झंझट है। अमीर हो गया, अब क्या करूं? तो तुम चाहते हो, कैसे इस मन से छुटकारा हो? लेकिन पहले जो भी तुम्हारे पास है, वह पास होने के कारण ही दो कौड़ी का इस पहचानो तो। इससे दोस्ती तो साधो। इससे परिचय तो हो जाता है। और जो तुमसे बहुत दूर है, दूर होने के कारण ही बनाओ। इसके कोने-कांतर तो खोजो। दीया तो जलाओ कि उसका बुलावा मालूम होता है। इसके सारे स्वभाव को तुम ठीक से देख लो। उस देखने में, उस मन के इस आधारभूत जाल को समझो। इसे पहचानो। यह | दर्शन में, उस साक्षीभाव में ही तुम पाओगे विजय की यात्रा पूरी ध्यान और भजन का ही सवाल नहीं है। भोजन करो तो मन में होने लगी। उपवास का रस उमगता है कि पता नहीं, उपवास करनेवाले न जिस दिन कोई मन को पूरा समझ लेता है, उसी दिन मन मालूम किस गहन शांति और आनंद को उपलब्ध हो रहे हों। | विसर्जित हो जाता है। जैसे सूरज के ऊगने पर ओसकण उपवास करो तो भोजन की याद आती है। तिरोहित हो जाते हैं, ऐसे ही बोध के जगने पर मन तिरोहित हो 569 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340159
Book TitleJinsutra Lecture 59 Rasmayta aur Ekagrata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size39 MB
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