________________ रसमयता और एकाग्रता सजा और ऐसी सजा चाहता हूं कराता होगा। उनका समर्पण समग्र है। गोपियां तो प्रसन्नता से नर्क चली जाएंगी, अगर उनके नर्क के जाने से कृष्ण का सिरदर्द ठीक होता हो। उन्हें तो क्षणभर भी आखिरी प्रश्न : ध्यान की मृत्यु और प्रेम की मृत्यु क्या भिन्न खयाल न आया होगा कि यह कोई पाप हो रहा है। हैं? क्या उनकी प्रक्रियाएं भी भिन्न हैं? प्रेम शिष्टाचार के नियम मानता ही नहीं। जहां शिष्टाचार के नियम हैं, वहां कहीं छुपे में गहरा अहंकार है। सब शिष्टाचार के | मृत्यु तो एक ही है; ध्यान की हो कि प्रेम की। लेकिन नियम अहंकार के नियम हैं। प्रेम कोई नियम नहीं मानता। प्रेम | प्रक्रियाएं, उस मृत्यु तक पहुंचने के मार्ग, विधियां भिन्न-भिन्न महानियम है। सब नियम समर्पित हो जाते हैं। प्रेम पर्याप्त है; हैं। ध्यान से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। प्रेम से भी किसी और नियम की कोई जरूरत नहीं है। यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। मिटना तो दोनों हालत में ज्ञानी और भक्त में बड़े फर्क हैं। वे दृष्टियां ही अलग हैं। वे होता है, लेकिन दोनों के मार्ग बड़े अलग-अलग हैं। दो अलग संसार हैं। वे देखने के बिलकुल अलग आयाम हैं। ध्यान के पहले चरण पर तुम नहीं मिटते। ध्यान के पहले चरण जिसको हम ज्ञानी कहते हैं, वह रत्ती-रत्ती हिसाब लगाता है। पर तो तममें जो गलत है उसको मिटाया जाता है, सही को कर्म, कर्मफल, क्या करूं, क्या न करूं, किसको करने से पाप बचाया जाता है। अशुभ को मिटाया जाता है, शुभ को बचाया लगेगा, किसको करने से पुण्य लगेगा। | जाता है। अशुद्धि जलाई जाती है, शुद्धि बचाई जाती है। भक्त तो उन्माद में जीता। वह कहता जो तुम कराते, करेंगे। तो ज्ञान के मार्ग पर या ध्यान के मार्ग पर व्यक्ति शुद्ध होने पाप तो तुम्हारा, पुण्य तो तुम्हारा। भक्त तो सब कुछ परमात्मा लगता है। मिटता नहीं, परिशुद्ध होता है, लेकिन बचता है। के चरणों में रख देता है। वह कहता है अगर तुम्हारी मर्जी पाप आखिरी छलांग में परिशुद्धि ऐसी जगह आ जाती है, जहां कि कराने की है तो हम प्रसन्नता से पाप ही करेंगे। भक्त का समर्पण शुद्धता भी अशुद्धि मालूम होने लगती है। जहां होना मात्र आमूल है। मदहोशी! बेहोशी! परमात्मा के हाथ में अपना हाथ | अशुद्धि मालूम होती है, वहां आखिरी छलांग में ध्यानी अपने को पूरी तरह दे देना-बेशर्त। बुझा देता है। भक्त पहले कदम पर बुझाता है। वह इसका वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया हिसाब नहीं करता-अच्छा और बुरा। वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी | तो भक्ति छलांग है और ध्यान क्रमिक विकास है। ध्यान धर्म-उपदेशकों ने, तथाकथित ज्ञानियों ने, धर्मगुरुओं ने—सर एक-एक कदम, धीरे-धीरे चलता है; आहिस्ता-आहिस्ता। जोड़कर बदनाम किया-खूब सिर मारा और बदनाम किया, भक्ति बिलकुल पागलपन है। वह एकदम छलांग लगा लेती तब कहीं बेहोशी को, मदहोशी को, फलों के रंग जैसी शराब को | है। ध्यानी ऐसे है, जैसे सीढ़ियों से उतरता है छत से-एक-एक वे बदनाम करने में सफल हो पाए; अन्यथा कभी बदनाम न कदम, सम्हल-सम्हलकर। सम्हलना ध्यान का सूत्र होती। है-सावधानी। वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया भक्त ऐसा है, छत से छलांग लगा देता है। फिक्र ही छोड़ता है वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी हाथ-पैर टूटेंगे, बचेंगे, मरेंगे, क्या होगा। वह छलांग लगा देता भक्त तो शराबी जैसा है। ज्ञानी हिसाबी-किताबी है। दोनों के है। उसकी श्रद्धा आत्यंतिक है। वह कहता है, उसे बचाना है तो गणित अलग-अलग हैं। भक्त तो जानता ही नहीं क्या बुरा है, वह बचा ही लेगा। जाको राखे साइयां। उसे नहीं बचाना है तो क्या भला है। भक्त तो कहता है, जो भगवान करे वही भला। तुम सीढ़ियों पर भी सम्हल-सम्हलकर चलो तो भी मर जाओगे, जो मैं करना चाहूं वह बुरा, और जो भगवान करे वह भला। तो भी मिट जाओगे। तो गोपियों ने सोचा होगा, भगवान कहते हैं अपनी चरण-रज तो भक्त तो छलांग लगाता है—एक ही कदम। फिर एक दे दो, उन्होंने जल्दी से दे दी होगी। भगवान कराता है तो भला ही कदम के बाद उसे कुछ करना नहीं पड़ता। फिर तो जमीन का 1583 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org