Book Title: Jinsutra Lecture 38 Dhyan ka Dip Jalalo
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J सातवां प्रवचन ध्यान का दीप जला लो! 2010 03 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MINCRE सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारूद-सुरूवहि-मंदरिदु-मणी। खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू।।९६।। 4R बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए। संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम ! मा पमायए।।९७।। ण ह जिणे अज्ज दिस्सई, बहमए दिस्सई मग्गदेसिए। संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम! मा पमायए।।९८।। भावो हि पढमलिंगं, ण दव्वलिंगं च जाण परम त्थं। भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा बिंति।।९९।। APER भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स।।१००।। MARRIA देहादिसंगहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पमि रओ, स भावलिंगी हवे साहू।।१०१।। AMA c . 5 . 3 CON / 2010_03 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज के सूत्र अत्यंत मौलिक और क्रांतिकारी हैं। बड़ा अकेला विचरता है। सिंह किसी संगठन का हिस्सा नहीं होता। ना साहस चाहिए ऐसे सत्रों को अभिव्यक्ति देने के सिंह किसी संप्रदाय में नहीं बंधता। सिंह मुक्त विचरता है। न लिए। महावीर ही ऐसे सूत्र दे सकते हैं। कोई शास्त्र, न कोई संप्रदाय, न कोई परंपरा, तब कहीं पहला सूत्र है: 'सिंह-सा पराक्रमी, हाथी-सा स्वाभिमानी, सिंह-जैसा चित्त पैदा होता है। अपने ही पैरों पर, अपने ही बल, वृषभ-सा भद्र, मृग-सा सरल, पशु-सा निरीह, वायु-सा और अकेला। नितांत अकेला। महावीर बारह वर्षों तक सिंह की निसंग, सूर्य-सा तेजस्वी, सागर-सा गंभीर, मेरु-सा निश्चल, | तरह विचरे। अकेले। न किसी से बोलते, न किसी को चंद्रमा-सा शीतल, मणि-सा कांतिवान, पृथ्वी-सा सहिष्णु, संगी-साथी बनाते, न किसी के संगी-साथी होते। वनों में, सर्प-सा अनियत-आश्रयी तथा आकाश-सा निरालंब साधु ही | पहाड़ों में, महावीर की वह मौन गर्जना सिंहनाद थी। परमपद मोक्ष की यात्रा पर है।' "सिंह की तरह पराक्रमी...।' सब कुछ लगा देना होगा। एक-एक प्रतीक को ठीक से समझ लेना जरूरी है। दांव पर अगर कुछ भी लगाने से बचा लिया, तो चूक जाओगे। 'सिंह-सा पराक्रमी...।' थोड़ा-सा सोचा कि बचा लें, थोड़ा अधूरा दांव पर लगाया, तो महावीर का मार्ग आत्यंतिक संकल्प का मार्ग है। महावीर का चक जाओगे। महावीर के मार्ग पर तो जुआरी का काम है, मार्ग समर्पण का नहीं, संकल्प का है। महावीर के मार्ग पर कोई दुकानदार का नहीं। और दुर्भाग्य कि सब दुकानदार महावीर के सहारा नहीं खोजना है। सब सहारे छोड़ देने हैं। बेसहारा हो मार्ग पर हैं। महावीर का धर्म ही दुकानदार का हो गया। महावीर जाना है। सहारे में भय है। बेसहारा हो जाने में अभय है। का माननेवाला दुकानदारी के सिवाय और कुछ करता ही नहीं। महावीर का मार्ग भक्ति के ठीक विपरीत है। दोनों मार्ग से यह भी अकारण नहीं घटता। लोग पहुंच जाते हैं। दोनों मार्ग सही हैं। लेकिन महावीर के मार्ग | इसके पीछे भी बड़े मनोवैज्ञानिक कारण हैं। विपरीत का को ठीक से समझना हो, तो भक्ति के विपरीत रखकर ही समझ आकर्षण। दुकानदार सदा ही जुआरी से प्रभावित होता है। जो पाओगे। महावीर के मार्ग पर न भगवान की कोई जगह है, न हिम्मत वह नहीं कर सकता, जुआरी कर लेता है। तो भला खुद भक्ति की कोई जगह है। न पूजा की, न अर्चना की, न प्रार्थना | जुआरी न बने, लेकिन जुआरी के प्रति मन में प्रशंसा होती है। की। शरणागति का कोई स्थान नहीं है। महावीर ने कहा है, कमजोर हमेशा बहादुर से प्रभावित होता है। खुद बहादुर नहीं है, अशरण हो जाओ। कोई शरण मत गहो। इसीलिए प्रभावित होता है। जो अपने में नहीं है, वह दूसरे में 'सिंह-सा पराक्रमी...।' सिंह अकेला विचरता है। सिंहों के दिखायी पड़ता है। तो कमजोर हमेशा बहादुर की पूजा करता है। नहीं लेहड़े, साधु चलें न जमात। सिंह की भीड़ नहीं होती। | विपरीत का बड़ा आकर्षण है। स्वभावतः निर्धन आदमी धनी की 125 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAEENINEERNA / जिन सूत्र भाग : 2 A Mahen तरफ आंखें उठाकर देखता है। और झोपड़ेवालों के मन में और गुस्सा आता है, तो पत्नी को पीट देता है। पत्नी को गुस्सा आता सपनों में महलों के चित्र उभरते हैं। बुद्धिहीन बुद्धिमान की पूजा है, तो खुद को पीट लेती है। यह तो देखा? यही तो पूरा का पूरा करता है। कुरूप सुंदर की पूजा करता है। पुरुष स्त्री में आकर्षित | सार-सूत्र है गांधीवाद का। खुद को ही मार लेती है। पुरुष को होता है, स्त्री पुरुष में आकर्षित होती है। यह सब विपरीत का गुस्सा आता है तो किसी की हत्या कर देता है। स्त्री को गुस्सा आकर्षण है। जो मैं नहीं हूं, वह आकर्षक लगता है। जो मैं हूं, आता है तो आत्महत्या करने का विचार करने लगती है। अपने उसमें कोई आकर्षण नहीं रह जाता। | को ही नष्ट कर देने का खयाल आता है कमजोर को। दूसरे को महावीर तो सिंह की तरह पराक्रमी थे। लेकिन कमजोर, नष्ट करना तो कठिन। अपने को नष्ट कर लेना आसान है। काहिल, भय से भरे भीरु लोग पीछे हो लिये। उन्होंने महावीर के और अपने को नष्ट करना इस ढंग से किया जा सकता है कि मार्ग को भ्रष्ट कर दिया। महावीर का मार्ग ही वैश्यों, वणिकों का उसमें भी साहस मालूम पड़े। हो गया। वह मूलतः क्षत्रिय का मार्ग है। महावीर की अहिंसा तो सिंह के पराक्रम से पैदा हुई है। अहिंसक होने के लिए क्षत्रिय होना बुनियादी शर्त है। जो अभी क्षत्रिय-पुत्र थे, राजकुमार थे। और कुछ सीखा ही न था, एक ही हिंसक ही नहीं हुआ, वह अहिंसक कैसे हो सकेगा? जिसने कुशलता थी। तो जब उन्होंने त्यागी हिंसा, तो कुछ भी छिपाने अभी तलवार नहीं उठायी, तलवार रखेगा कैसे? रख तो वही को नहीं त्याग था। हिंसा गिर गयी। जानकर गिर गयी। व्यर्थ हो सकोगे, जो उठाया हो। जिसने किसी के ऊपर आक्रमण ही नहीं | गयी, इसलिए गिर गयी। हिंसा को ठीक से पहचाना और किया, वह आक्रमण का त्याग कैसे करेगा? तो देखो जैनों के सिवाय जहर के कुछ भी न पाया। चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय-पुत्र हैं। और सब जैन वणिक हैं। महावीर की अहिंसा में हिंसा का अभाव है। गांधी की अहिंसा उनके चौबीस ही तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, तो संयोग नहीं हो सकता। में हिंसा का छिपाव है। ऊपर से देखने पर दोनों एक से मालूम एकाध क्षत्रिय होता, संयोग मान लेते। चौबीस-के-चौबीस पड़ते हैं। लेकिन दोनों में बड़े मौलिक भेद हैं। क्षत्रिय हैं, तो अहिंसक होने के लिए क्षत्रिय होना जैसे बुनियादी / 'सिंह-सा पराक्रमी...।' अब सिंह तो हिंसक है, खयाल शर्त है। हम वही त्याग सकते हैं, जो हमारे पास हो। भिखमंगा किया? सिंह तो क्षत्रिय है। लेकिन पराक्रम सीखना हो तो सिंह अगर कहे कि मैंने त्याग दिया सब, तो क्या अर्थ है ? था क्या, से ही सीखना पड़े। अगर पराक्रम सीखना हो, तो क्षत्रिय से ही जो त्याग दिया? त्याग के पहले होना चाहिए। सीखना पड़े। और महावीर कहते हैं, अहिंसा तो और भी बड़ा क्षत्रिय घरों में पैदा हुए महावीर, ऋषभ, नेमि। हिंसा में उनका पराक्रम है। हिंसा से भी बड़ा पराक्रम है अहिंसा। तुम अहिंसा पोषण हुआ। हिंसा की कला ही सीखी। हिंसा के अतिरिक्त को अपनी कायरता को छिपाने के लिए आड़ मत बना लेना।। और कुछ जानते नहीं थे। उसी हिंसा के प्रगाढ़ अनुभव से अकसर लोग अहिंसक होते हैं और उनका भीतरी तर्क यह अहिंसा का जन्म हुआ। हिंसा की आग में जले और पाया कि होता है कि न हम किसी को मारेंगे, न कोई हमें मारेगा। वस्तुतः हिंसा करने योग्य नहीं। हिंसा में रहकर पाया कि हिंसा त्याज्य इरादा तो यह होता है, कोई हमें न मारे। तो वे कहते हैं, हम तो है। और तब एक अहिंसा का जन्म हुआ। अहिंसक हैं। हम किसी को मारने में भरोसा नहीं करते। वे यह इसलिए मैं कहता हूं गांधी और महावीर की अहिंसा में फर्क कह रहे हैं कि हम पर कृपा करना, मारना मत। हम तुम्हें नहीं है। गांधी की अहिंसा बनिये की अहिंसा है। महावीर की अहिंसा मारते, तुम हमें मत मारना। हम तुम्हें जीने देते हैं, तुम हमें जीने की अहिंसा है। और वहीं बुनियादी भेद है। महावीर की दो। यह तो हिंसा से भी नीचे हुई बात। यह तो चालबाजी हुई। अहिंसा कमजोरी से पैदा नहीं हुई, गांधी की अहिंसा कमजोरी से | कूटनीति हुई, राजनीति हुई। पैदा हुई। कोई और उपाय न था गांधी को। अहिंसक होने में गांधी की अहिंसा राजनीति है। महावीर की अहिंसा धर्म का कमजोरी छिपा लेने की सुविधा मिल गई। गांधी की अहिंसा ज्वलंततम रूप है। महावीर यह नहीं कहते कि मुझे मत मारो। स्त्रैण है। स्त्रियां सदा से ही यही करती रही हैं। अगर पुरुष को महावीर कहते हैं, मुझे मारना हो, तुम्हारी मौज। तुम्हारी 126 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ha.. ध्यान का दीप जला लो। नासमझी। लेकिन मैंने यह अनुभव किया है कि मारने में कुछ | कहते हैं, लाओत्सू अपने एक मित्र के साथ एक पहाड़ से गुजर सार नहीं. इसलिए मैं नहीं मारता है। यह दस्साहस है। अपने रहा था। सबह हई, सरज ऊगा, पक्षियों के गीत गूंजने को असुरक्षा में छोड़ देने से बड़ा और कोई दुस्साहस नहीं। लगे-बड़ी सुहावनी सुबह थी, बड़ी प्यारी सुबह थी। मित्र ने 'हाथी-सा स्वाभिमानी...।' हाथी में एक स्वाभिमान है। | कहा, बड़ी सुंदर सुबह है। लाओत्सू ने कहा, इनकार कौन कर इसीलिए तो हाथी सम्राटों के लिए प्रतीक बन गया। हाथी की रहा है? मित्र ने कहा, बड़ी सुहावनी सुबह है। लाओत्सू ने बड़े सवारी श्रेष्ठतम सवारी बन गयी। लेकिन एक खयाल रखना, चौंककर देखा और कहा, इनकार कौन कर रहा है? कहने की हाथी में स्वाभिमान है, अहंकार नहीं। अपने बल पर भरोसा है, जरूरत कहां है ? लेकिन अपने बल की कोई घोषणा नहीं। वहीं हाथी सिंह से भिन्न | जो है, है। उसकी घोषणा की जरूरत नहीं। जो नहीं है, उसकी है। सिंह में अहंकार है। | घोषणा करनी पड़ती है। शायद मित्र को संदेह रहा होगा! है या बड़ी पुरानी प्रसिद्ध कथा है ईसप की कि एक सिंह जंगल में नहीं? उसी संदेह में पूछा है। शायद लाओत्सू भी हां भर दे, तो सियार ने कहा, आप हैं महानुभाव! आपके अतिरिक्त और कौन बुद्धिमान हूं? मैं त्यागी हूं? दूसरों से पूछते हो! तुम्हें खुद ही राजा है? आप महाराजा हैं, सम्राट हैं। लोमड़ी से पूछा। भरोसा नहीं। और हम दूसरों को समझाते हैं कि मैं त्यागी हूं। खरगोश से पूछा। चीते से पूछा। सबने कहा, आप ही सम्राट जब दूसरे को भरोसा आ जाता है, तो हमें भरोसा आता है। हैं; कैसी बात पूछते हैं? मुल्ला नसरुद्दीन एक मकान बेचना चाहता था। एक एजेंट को फिर हाथी के पास आया। हाथी से पूछा कि इस जंगल का बुलाया। नदी के किनारे एकांत में बना उसका मकान है। सम्राट कौन है? हाथी ने अपनी सूंड में सिंह को फंसाया और कभी-कभी गर्मी के दिनों में वहां रुकता था। कहा, इसे बेच देना कोई पचास फीट दूर फेंक दिया। सिंह नीचे गिरा, झाड़-झूड़कर है। एजेंट ने विज्ञापन दिया पत्रों में। दूसरे दिन सुबह जब मुल्ला धल फिर वापिस आया और कहा कि अगर तुम्हें उत्तर मालूम | ने विज्ञापन पढ़ा, तो बड़ा चकित हो गया। सुंदर नदी का वर्णन नहीं, तो नाराज होने की क्या बात है! था। उस दृश्य का जो मकान को घेरे हुए है। मकान की ऐसी लेकिन हाथी की कोई घोषणा नहीं है। सिंह की घोषणा है। महिमा का बखान था कि उसने कहा अरे, इसी मकान की तो मैं हाथी चपचाप है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग अपने जीवनभर से तलाश कर रहा है। उसने फोन किया एजेंट को कि अहंकार की घोषणा करते हैं, उनमें हीनभाव होता है। बेचना नहीं है। भूलकर नहीं बेचना है-एजेंट ने पूछा, इतनी 'इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स' होती है। इसीलिए घोषणा करते जल्दी आप बदल गये? कल...कल ही तो आपने बेचने के हैं। जो व्यक्ति वस्तुतः अपने से तृप्त है, वह अपने अहंकार की लिए कहा था। बदलाहट का कारण क्या है? मुल्ला ने कहा, घोषणा नहीं करता, घोषणा का प्रयोजन क्या है ? किसके सामने तुमने जो विज्ञापन दिया है, उसने मुझे भरोसा दिला दिया। इसी सिद्ध करना है? सिद्ध तो तभी करना होता है जब भीतर लगता | मकान की तो मैं जिंदगीभर से खोज कर रहा हूं। मुझे अब तक है कि हूं नहीं। तो प्रमाण जुटाने पड़ते हैं। सिद्ध करना पड़ता है। पता ही न था। जब तुम्हें भीतर पता ही है तो तुम घोषणा नहीं करते। जिसका जब तक हम दूसरे से भरोसा न पा लें, तब तक हमें भरोसा तुम्हें पता है, अनुभव है, उसकी तुम घोषणा नहीं करते। नहीं आता। और ऐसा भरोसा दो कौड़ी का है, जो दूसरे के कोई पुरुष अगर बीच बाजार में खड़ा होकर चिल्लाने लगे कि कारण मिलता है, हाथी को देखा? सिंह को देखा? सिंह में एक मैं पुरुष हूं और प्रमाण दे सकता हूं, तो लोगों को संदेह हो अकड़ है। प्रगट अकड़ है। चलता है तो, उठता है तो, बैठता है जाएगा। इसके पुरुष होने में शंका है। पुरुष हो तो हो। घोषणा तो, घोषणा है। हाथी में कोई घोषणा नहीं है। इसीलिए तो कहते की कोई जरूरत नहीं है। किसे कहने जाना है? किसको हैं, हाथी चलता जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं। वह इनकार भी समझाना है! कौन पूछ रहा है! नहीं करता, कि तुम क्यों भौंक रहे हो? वह नाराज भी नहीं 127 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 होता। वह जानता है, कुत्ते हैं, भौंकेंगे। चुपचाप अपनी मंथरगति | जिसका अभ्यास नहीं किया गया। स्वाभाविक। तुम अभ्यास से चलता है। महावीर कहते हैं, हाथी-सा स्वाभिमान। / कर सकते हो। __ 'वृषभ-सा भद्र....।' बैल से ज्यादा भद्र कोई प्राणी नहीं। हम सबने बहत-सी बातों के अभ्यास किये हैं। आस्कर वाइल्ड ने कहीं लिखा है कि अगर बैलों को पता चल | राह पर कोई मिल जाता है तो मुस्कुराते हो, चाहे भीतर आंसू जाए कि उनकी शक्ति कितनी है, तो वे मनुष्य-जाति को घुमड़ रहे हों, चाहे भीतर दुख के बादल घिरे हों। चाहे भीतर उखाड़कर फेंक दें। लेकिन बैलों के बल पर ही मनुष्य-जाति | प्राणों को कौंधनेवाली पीड़ा चौंक रही हो। चाहे रो-रोआं रोना फलती-फूलती रही है। इसीलिए तो हिंदू गाय की पूजा करते हैं। चाहता हो, लेकिन राह पर कोई मिल गया है, तो तुम मुस्कुराते उसी से खेती है, उसी से दूध है, उसी से ईंधन है, उसी से खाद | हो। अभ्यास कर लिया। ओंठों का अभ्यास। मुस्कुराहट आती है। और वृषभ गाड़ियां खींचता, बोझ ढोता, कोल्हू चलाता। नहीं हृदय से। आयेगी कैसे? लेकिन ओंठों को फैला लेने का | मनुष्य-जाति का पूरा का पूरा अब तक का इतिहास, सौ वर्ष अभ्यास तुमने कर लिया है-वह कोई कठिन नहीं है। ओंठों पहले तक जब तक कि मशीनों का ईजाद न हुआ था और बैल | को फैला लेने से भ्रांति पैदा होती है कि मुस्कुराये। यह कैसी की जगह यंत्रों ने न ली थी, मनुष्य ने जो भी सभ्यता खड़ी की थी, मुस्कुराहट! जिसकी जड़ें हृदय तक न गयी हों, वह मुस्कुराहट वह बैलों के कंधों पर है। अगर बैल को हटा लो, आदमी की | झूठी है। आरोपित है। सरल मुस्कुराहट तो छोटे बच्चे में सारी सभ्यता गिर जाती है। आज भी मनुष्य-जाति का बड़ा मिलेगी। जिसने अभी दांव-पेंच नहीं सीखे। हिस्सा बैलों के सहारे ही जी रहा है। इसलिए महावीर कह रहे हैं कि दांव-पेंच भूलो तो सरल 'वृषभ-सा भद्र...।' बैल की भद्रता बड़ी अदभुत है। उसने | होओगे। और तुम्हारा जो साधु है, वह तुमसे भी ज्यादा दांव-पेंच कोई बगावत नहीं की कभी। उसने कोई क्रांति नहीं की। वह में है। उसको सरल कहना असंभव है। और सरल ही साधु है। चुपचाप सेवा करता रहा है। उसका व्यवहार बड़ा सज्जनोचित | सीधा, छोटे बच्चे-जैसा। स्वभाव से जो जी रहा है, वही साधु है। महावीर कहते हैं, वृषभ-सा भद्र। है। अगर तुम अभ्यास करो, तो उपवास का अभ्यास हो सकता 'मृग-सा सरल...।' मृग की आंखों में कभी झांकना। वैसी | है। तुम अभ्यास करो, तो रात जागते रह सकते हो। तुम सरल आंखें फिर और कहीं नहीं हैं। ऐसा भरोसा, ऐसी श्रद्धा | अभ्यास करो, तो धूप में खड़े रह सकते हो, कांटों पर सो सकते जैसी मृग की आंखों में है, फिर और कहीं नहीं है। इसीलिए तो | हो। लेकिन इसमें सरलता नहीं होगी। इस सब के पीछे अभ्यास किसी अति सरल क्वांरी स्त्री की आंखों को हम मृगनयनी, | होगा। तुम साधु नहीं बन रहे, तुम किसी सर्कस के योग्य बन रहे मृगनयन, कहते हैं। जिसने कभी कुछ पाप नहीं जाना है। पाप हो। साधु का लक्षण महावीर कहते हैं, मृग-सा सरल, सहज। की रेखा जिसकी आंख पर नहीं है। मृग जैसी कोरी, क्वांरी | इसी को कबीर ने कहा है-'साधो, सहज समाधि भली।' आंखें। भरोसा ही भरोसा। एक तो समाधि है, जो चेष्टा कर-कर के लायी जाती है। और महावीर कहते हैं, मृग-सा सरल। खयाल रखना, महावीर के एक समाधि है जो सब चेष्टा छोड़ देने से आती है। हो रहो छोटे प्रतीक सोचने जैसे हैं। पशुओं से प्रतीक ले रहे हैं महावीर। | बच्चे की भांति। जो भीतर हो, वही बाहर हो। चाहे कुछ भी आदमी सरल भी होता है तो उसकी सरलता में जटिलता होती | कीमत चुकानी पड़े। चाहे कोई भी मूल्य मांगा जाए, लेकिन जो है। सरलता में भी पाखंड होता है। सरलता में भी दिखावा होता| भीतर हो, वही बाहर हो। भीतर और बाहर में भेद न हो. द्वंद्व न है, प्रदर्शन होता है। सरलता में भी दांव-पेंच होते हैं। तुम | हो। बाहर भीतर की छाती पर न चढ़े। बाहर भीतर की ही खबर जिसको साधु कहते हो, उसको महावीर साध नहीं कहेंगे।। हो। बाहर भीतर का ही स्वर गूंजे। बाहर भीतर की ही तरंगें क्योंकि वह मृग-सा सरल नहीं है। उसकी सरलता बड़ी चेष्टित | आयें। जो भीतर है, वही बाहर हो। तब तो कोई सरल होता है। है, बड़ी अभ्यासजन्य है। साधी गयी है। महावीर कहते हैं, लेकिन वैसी सरलता तथाकथित साधुओं में नहीं पायी जाती। अनसाधी सरलता। मृग-सी सरलता का अर्थ है-अनसाधी। इधर मेरे अनुभव ये हैं—पश्चिम से लोग आते हैं, वे पूरब के 128 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ध्यान का दीप जला लो। लोगों से ज्यादा सरल हैं। होना नहीं चाहिए था ऐसा। क्योंकि | बैठ सकते, उनको भी सिंहासन चाहिए। यह भी हो सकता है कि पूरब के लोगों को खयाल है, हम धार्मिक हैं। लेकिन पूरब का | सबको साथ बिठा दो, लेकिन तब शंकराचार्य बैठने को राजी आदमी बड़ा जटिल है। पश्चिम से आदमी आता है तो वह | नहीं। क्योंकि उनको ऊपर ही होना चाहिए। वह किसी के नीचे सरल है। उसकी सरलता, पशओं-जैसी सरल है। तम्हारा साध | बैठना तो दर. किसी के साथ बैठने को भी राजी नहीं। कहेगा, यह तो पशु-व्यवहार है। महावीर से पूछो, उसकी ये लोग, जो कहते हैं कि हम आत्मा हैं, शरीर नहीं! ये लोग, सरलता बच्चों-जैसी है। तुम पश्चिम के आदमी को सुविधा से जो कहते हैं कि हम आत्मा हैं, मन नहीं! ये नीचे नहीं बैठ लूट सकते हो। पूरब के आदमी को लूटना इतना आसान नहीं। सकते। ये साथ नहीं बैठ सकते। बड़ी जटिलता है! इसके पहले कि तुम उसकी जेब काटो, उसका हाथ तुम्हारी जेब महावीर के शब्द याद रखना—'मृग-सा सरल।' में पहुंच जाएगा। 'पशु-सा निरीह...।' पशु में एक निरीहता है। एक पूरब का आदमी जो प्रश्न भी पूछता है, वे भी जटिल हैं। सरल हेल्पलेसनेस। असहाय अवस्था है पशु की। साधु ऐसा ही नहीं हैं। उसके प्रश्नों में भी दांव-पेंच है, शास्त्र है, परंपरा है। असहाय होगा इस विराट संसार के उपद्रव में। अपने किए कुछ सीधे हृदय के प्रश्न नहीं हैं। | होता नहीं मालूम पड़ता। जो करते हैं वही गलत हो जाता है। पश्चिम से आदमी आता है, सीधे प्रश्न पूछता है और जीवन में इतनी-इतनी सूक्ष्म उलझाव की गलियां हैं कि पश्चिम भौतिकवादी है। और पूरब अध्यात्मवादी है लेकिन भटक-भटक जाते हैं। इस अध्यात्मवाद ने सरल नहीं बनाया, इसने और जटिल बना 'पशु-सा निरीह...।' महावीर ने पशु को बड़ा सम्मान दे दिया। जटिलता बड़े रूप ले लेती है। और ऐसे सूक्ष्म रूप ले दिया। ये सारे प्रतीक पशुओं से ले लिये। मैं भी तुमसे कहता हूं लेती है कि तुम्हें पता भी न चले। | कि पशुओं से बहुत कुछ सीखने को है। और जो मनुष्य पश फिर ऐसा भी मेरा अनुभव है कि जब साधु मुझसे मिलने आते जैसा सरल न हो सके, वह छोड़ दे खयाल परमात्मा-जैसे सरल हैं, तो उनसे मैं सामान्य गृहस्थ को ज्यादा सरल पाता हूं। साधु होने का। पशु-जैसी सरलता परमात्मा-जैसे सरल होने का तो बड़ा जटिल मालूम होता है। कभी-कभी साधु मुझसे मिलने | पहला चरण है। पशु-जैसी सरलता, निरीहता, असहाय आते हैं। तो पहले उनके श्रावक आते हैं, वे कहते हैं महाराज जी अवस्था बड़ी बहुमूल्य है। सभ्यता बड़ी खतरनाक है। सभ्यता को बिठाइयेगा कहां? तुमको क्या फिकिर! आने दो उनको, मेरे ने मनुष्य को मारा। सभ्यता महारोग है। इससे तो पशु बेहतर। र उनके बीच में निपटारा कर लेंगे। कहां बिठाना, कहां नहीं आमतौर से तो हम पशुओं का उपयोग तभी करते हैं, जब हमें बिठाना! लेकिन वे कहते हैं कि नहीं, महाराज जी ने ही पुछवाया आदमी की निंदा करनी होती है। महावीर उपयोग कर रहे हैं है: बैठेगे कहां वह? अगर जैन-मुनि को हाथ जोड़कर नमस्कार प्रशंसा के लिए। भी करो, तो वह नमस्कार का उत्तर नहीं देता। क्योंकि वह हाथ थोड़ा फर्क समझना। अगर किसी आदमी की हमें निंदा करनी जोड़ नहीं सकता किसी को। यह तो खूब साधुता हुई! यह तो | होती है, तो हम कहते हैं, क्या पशु-जैसा व्यवहार कर रहे हो, खूब सरलता हुई! यह तो बड़ी जटिलता हो गयी। श्रावक को आदमी बनो! महावीर कह रहे हैं, क्या आदमी-जैसा व्यवहार कैसे वह हाथ जोड़े? असंभव। कर रहे हो, पशु बनो। इसलिए मैं कहता हूं, ये सूत्र बड़े एक महासम्मेलन हआ. कोई तीन सौ साध सारे देश से क्रांतिकारी हैं। और महावीर ठीक हैं. सौ प्रतिशत ठीक हैं। निमंत्रित थे। आयोजकों ने बड़ी मंच बनायी थी कि तीन सौ साधु आदमी पशु से भी गया-बीता है। आदमी जैसा पशुता से भरा साथ बैठ सकें। पर यह हो न सका। एक-एक को बैठकर ही है, ऐसी पशुता से भरा कोई भी पशु नहीं है। सिंह भी शिकार प्रवचन देना पड़ा। क्योंकि कोई दूसरे के साथ बैठने को राजी न करता है, हिंसा करता है, लेकिन भोजन के लिए। खिलवाड़ के था। शंकराचार्य अपने सिंहासन पर ही बैठना चाहते थे। जब लिए नहीं।। शंकराचार्य सिंहासन पर बैठे, तो दूसरे लोग हैं, वे भी नीचे नहीं मैंने सुना है, एक कहानी है कि एक सिंह और एक खरगोश 129 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सत्र भाग एक होटल में गये। खरगोश ने बैरा को आवाज दी और कहा कि तुम्हारे बाप पागल थे? क्या हुआ था? वह कहने लगे, पागल नाश्ता ले आओ। बैरा ने पूछा कि और आपके साथी, यह क्या नहीं, बड़े शिकारी थे। मैंने कहा, मुझे तो लगता है पागल थे। लेंगे? खरगोश ने कहा उनकी छोड़ो, अगर वह भूखे होते तो तुम इन गरीब सिंहों ने बिगाड़ा क्या था उनका? और उन्होंने किया सोचते हो मैं यहां बैठता ! नाश्ता उन्होंने कर लिया होता; मगर वे क्या मारकर? यह प्रदर्शन लगा रखा है! और जो मारा जिस भरे-पेट हैं। | ढंग से, वह ढंग बिलकुल गैर-जायज है। जाते, लड़ लेते, हाथ सिंह भरा-पेट हो तो हमला नहीं करता। आदमी भरे-पेट से खुली लड़ाई हो जाती, फिर एकाध सिंह को मार लाते, तो हमला करता है। लोग जंगल में शिकार करने जाते हैं, उनसे सोचते भी कि कोई बात हुई। पूछो, किसलिए? आखेट! खेल!! क्रीड़ा!!! मारने का | लेकिन, आदमी अन्याय करता है। और सोचता है अपने को खेल! सिंह की बात तो समझ में आ जाती है कि भूखा है, कि आदमी! पशओं के जगत में कोई अन्याय नहीं। अगर भूख इसलिए हमला करता है। तुम भरे-पेट, किसलिए हमला करने लगती है, तो सिंह हमला करता है, क्योंकि वही प्रकृति ने उसे जाते हो? तुम कहते हो, खेलने का मजा ले रहे हैं। कभी भोजन का उपाय दिया। लेकिन भूख न हो, तो हमला नहीं खयाल किया, अगर शिकारी पर शेर हमला कर दे तो हम खेल करता। तुम आदमी की जब निंदा करना चाहते हो, तो उससे नहीं कहते। और शिकारी बंदूकें लेकर सिंहों को छेदता रहे, तो कहते हो, पशु मत बनो। महावीर कह रहे हैं, पहले पशु तो हम खेल कहते हैं। और पतन की कोई सीमा होगी! शिकारी बनो! परमात्मा बनना तो बहुत दूर है। तुम आदमी बन गये हो। अपने घर में सिंहों के सिर लटका कर रखता है दिखाने को कि आदमी यानी झूठ। आदमी यानी पाखंड। सभ्यता यानी ऊपर कितने सिंह उसने मार डाले हैं। खेल में! से थोपा गया जबर्दस्ती का आरोपण। भीतर आग जल रही है, राजा-महाराजाओं के महलों में कभी-कभी मुझे जाने को मौका | ऊपर फूल चिपकाये हुए हैं। भीतर जहर फैल रहा है, ऊपर मिला--कभी कोई राजा-महाराजा निमंत्रित कर लिया, तो वे | अमृत की चर्चा हो रही है। भीतर कुछ है, बाहर कुछ। पशु कम दिखाते हैं ले जाकर कि उनके पिता ने कितने सिंह मारे। मैं से कम वही तो है—जो भीतर है, वही बाहर है। सिंह को तुम चकित होता हूं, सिंह तुम्हारे पिता को मार डालता तो कुछ बहुत कितना ही छेदो, सिंह ही पाओगे। हर पर्त पर सिंह पाओगे। आश्चर्य की बात न थी, लेकिन तुम्हारे पिता ने इतने सिंह परिधि से लेकर केंद्र तक सिंह ही मिलेगा। आदमी को छेदो, किसलिए मारे? दिखावे के लिए। और मारे ऐसे साधनों से, जो हजार-हजार चीजें पाओगे। आदमी तुम कहीं न पाओगे। पर्त सिंह के पास नहीं हैं। यह कोई खेल हुआ! बंदूक सिंह के हाथ पर कुछ मिलेगा, थोड़े भीतर जाओ, कुछ और मिलेगा, और में नहीं है, तलवार सिंह के हाथ में नहीं है; अगर मारना ही था, | भीतर जाओ कुछ और मिलेगा। इसीलिए तो लोग अपने भीतर रनी थी, तो नंगे हाथ सिंह से लड़े होते। कम | नहीं जाते। क्योंकि भीतर जाकर घबड़ाहट होती है कि यह मैं से कम उतनी सुविधा सिंह को भी तो दो! खेल का इतना तो क्या हूं? लोग अपना दर्शन नहीं करना चाहते। लोग बातें करते नियम मानो, अगर यह खेल ही है-चलो खेल ही सही। तो हैं आत्मा की, आत्म-दर्शन की, कोई करना नहीं चाहता। एक आदमी नंगा खड़ा है, हाथ में लकड़ी भी नहीं, बचाव का क्योंकि अपना दर्शन करने का अर्थ होगा, यह सब जो विक्षिप्तता कोई उपाय भी नहीं है, और तुम बंदूक लिए खड़े हो। और खेल की अनेक-अनेक पर्ते हैं, यह सब उघड़ेंगी, इन्हें जानना पड़ेगा। खेल रहे हो! उसको भी तो इतनी ही सुविधा दो। फिर खेल हो! इनसे गुजरकर ही तुम कहीं उस तक पहुंच पाओगे, जो तुम्हारा कम से कम खेल में दोनों के साथ पक्षपात तो नहीं होना चाहिए असली स्वरूप है। महावीर कहते हैं, 'पशु-सा निरीह।' किसी के साथ। दोनों समतुल हों। और फिर बहादुरी बता रहे | 'वायु-सा निसंग...।' हवा बहती रहती है। लेकिन हो? बंदूकें लेकर, वृक्षों पर मचानें बांधकर, हजारों आदमियों | निसंग। किसी से संग-साथ नहीं बांधती। फूलों के पास से का जत्था लेकर एक गरीब सिंह को घेर लिया और मार डाला। गुजर जाती है, तो भी वहां ठिठककर रह नहीं जाती कि इतना एक महाराजा मुझे अपने महल में ले गये। मैंने उनसे कहा, | सौरभ है, अब यहीं रुक जाएं। अब यहीं घर बना लें। शीतल 1301 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का दीप जला लो। नदियों से गुजरती है, वहां रुक नहीं जाती। सुंदर उपत्यकाओं में, प्रतीक शब्द है। लेकिन रुक नहीं जाती। असंग-भाव से बहती रहती है। अकेली | लेकिन इसे वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि कहीं कोई एक ही रहती है, कोई संगी-साथी नहीं बनाती। बिंदु तो होना ही चाहिए अस्तित्व में अभी तक उसका कोई महावीर कहते हैं, निसंग-भाव साधु का आत्यंतिक लक्षण है। पता नहीं चला, कहां है। अभी तक हमें पूरे अस्तित्व का ही पता उसमें सब के प्रति मैत्री है, लेकिन मित्र वह किसी को भी बनाता | नहीं चला, तो केंद्र का कैसे पता चलेगा! बड़ा विराट है नहीं। इसको खयाल लेना। अस्तित्व। अभी तो हम परिधि को भी नहीं छू पाये हैं, तो केंद्र को मैत्री-भाव को महावीर ने बहत महिमा दी है। लेकिन कहा. कैसे छ पायेंगे। लेकिन वैज्ञानिक इसको एक 'हाइपोथीसिस'. मित्र मत बनाना। मित्र बनाने में अर्थ हआ, रुक गये, नदी ठहर | | एक परिकल्पना की भांति स्वीकार करते हैं कि जरूर कोई एक गयी, डबरा बन गयी। मैत्री रखना। सब के प्रति प्रेम-भाव कील तो होनी ही चाहिए, जिस पर सारा अस्तित्व घूम रहा है। रखना। लेकिन प्रेम को कहीं ठहराकर डबरा मत बनाना। हवा | चांद-तारे घूम रहे हैं, सूरज घूम रहा है, पृथ्वी घूम रही है, की तरह मुक्त रहना। कहीं बंधना मत। हवा को कौन बांध | ग्रह-नक्षत्र घूम रहे हैं। यह इतना विराट चक्र घूम रहा है, तो कहीं पाया? हवा कहां रुकती? यात्रा, अनंत यात्रा, और कोई कील तो होनी ही चाहिए। अन्यथा बिना कील के तो चाक अकेली...। घूम नहीं सकता था। उस कील को जैन-शास्त्रों ने मेरु कहा है। 'सूर्य-सा तेजस्वी....।' यह सिर्फ प्रतीक ही नहीं हैं। 'मेरु-सा निश्चल...।' और साधु वही है, जिसने अपने महावीर जैसे व्यक्ति जब किन्हीं शब्दों का उपयोग करते हैं, तो यूं भीतर की कील को पा लिया। शरीर चलता है, साधु नहीं ही नहीं करते। गहरे कारणों से करते हैं। जैसे ही व्यक्ति सरल चलता। शरीर भोजन करता है, साधु नहीं करता। शरीर बोलता होता है, निसंग होता है, भद्र होता है, निरीह होता है, अकेला | है, साधु अबोला है। शरीर जवान होता, बूढ़ा होता; साधु न होता है, वैसे ही उसके भीतर एक अगाध ज्योति जलने लगती जवान होता, न बूढ़ा होता। शरीर जन्मता है, मरता है; साधु का है। क्योंकि कपट में बुझ जाती है ज्योति। कपट का धुआं तुम्हारी न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। ऐसी प्रत्येक क्रिया के बीच, ज्योति को घेर लेता है। पाखंड में बुझ जाती है ज्योति। सरलता प्रत्येक गति के बीच, प्रत्येक भंवर के बीच, जिसने अपने भीतर में धुआं बिखर जाता है, अलग हो जाता है, ज्योति जलने लगती | के मेरु को पकड़ा हुआ है, वही साधु है। चलो राह पर, मगर है। सूर्य-सा तेजस्वी हो जाता है व्यक्ति। रक्ताभ! एक आभा | एक बात ध्यान में रखकर चलना कि तुम न कभी चले हो, न चल उसे घेर लेती है। | सकते हो। चलता है चाक, तुम ठहरे हुए हो। कूटस्थ। सदा से * 'सागर-सा गंभीर...।' विराट! जिसकी कोई सीमा नहीं, ठहरे हुए हो। कभी हिले नहीं। तुम ही हिल जाओ, तो फिर कोई कूल-किनारा नहीं। जिसकी थाह पानी मुश्किल। ऐसा शरीर चल न सकेगा। फिर तो डगमगा कर वहीं गिर जाएगा। गहरा, गंभीर। | विचार चलते हैं। विचार का वर्तल घमता रहता है-बवंडर 'मेरु-सा निश्चल...।' मेरु जैन-पुराणों का प्रतीक है। मेरु की भांति। तुमने कभी धूल के बवंडर देखे? गर्मी के दिनों में है वह पर्वत, जो विश्व का केंद्र है। और जिसके केंद्र पर सारी | जब उठते हैं—बड़ा बवंडर उठता है, बड़े धूल के बादल उठते चीजें घूमती हैं। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है कील पर। मेरु | हैं-आकाश तक उठ जाते हैं, छप्पर उड़ जाते मकानों के, कील है सारे अस्तित्व की। और जैसा गाड़ी का चाक घूमता है, टीन-टप्पर उड़ जाते हैं, कभी-कभी तो छोटे बच्चे तक उड़ गये लेकिन कील थिर रहती है। चाक घम ही इसीलिए सकता है कि हैं; लेकिन जब तूफान चला जाए, आंधी विदा हो जाए, धूल का कील थिर रहती है। अगर कील भी घूम जाए, गाड़ी गिर जाए। बवंडर शांत हो जाए, तब तुम जरा जाकर देखना उस भूमि पर कील को नहीं घूमना चाहिए, तो ही चाक घूम सकता है। यह जहां बवंडर उठा था। तुम बड़े चकित होओगे, बीच में एक केंद्र सारा संसार घूम रहा है, क्योंकि केंद्र में कोई चीज है जो थिर है। है; उसका निशान छूट जाता है। चारों तरफ बवंडर के निशान शाश्वत-रूप से थिर है। जैन-पुराण उसे मेरु कहते हैं। वह तो छूट जाते हैं, लेकिन बीच में एक बिलकुल शुद्ध जगह है, जहां 1131 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कोई बवंडर न था। बवंडर की भी कील होती है। बिना कील के के प्रकाश जैसा ताप नहीं। सूरज में प्रकाश तो है, बहुत है, बवंडर भी नहीं हो सकता। लेकिन ताप भी है। जलाता भी है। सूरज के ज्यादा पास न जा मनुष्य एक बवंडर है धूल का, मिट्टी का, लेकिन भीतर आत्मा | सकोगे। झुलसा देगा। चंद्रमा में ताप नहीं है, सिर्फ प्रकाश है। की कील है। | चंद्रमा के प्रकाश में जैसे अमृत है। मनुष्य-जाति सदा से चंद्रमा महावीर कहते हैं, 'मेरु-सा निश्चल।' चलते समय याद के पास जाने को आतुर रही है। छोटे बच्चे पैदा होते से ही चांद रखना उसकी, जो कभी नहीं चला। भोजन करते वक्त याद की तरफ हाथ बढ़ाने लगते हैं। 'चंदामामा' को पकड़ने की रखना उसकी, जो कभी भोजन नहीं करता। भूख में याद रखना चेष्टा शुरू हो जाती है। आदमी सदियों से चांद पर जाने की उसकी. जिसको कभी भख नहीं लगती। दख आये, याद रखना सोचता रहा, अब तो पहंच भी गया। लेकिन यह असली चांद उसकी जिस पर कभी दुख नहीं पहुंचता न दुख, न सुख; न नहीं है। यह खोज किसी और चांद की है। तुम पहुंच गये बाहर प्रीति, न अप्रीति; न सफलता, न असफलता। सभी द्वंद्व चके | के चांद पर, पहंचना था भीतर के चांद पर। पर हैं। कील बाहर है। महावीर कहते हैं, 'चंद्रमा-सा शीतल।' साधु प्रकाशोज्ज्वल उस अतिक्रमण करनेवाली कील को पकड़ना। साधु की सारी होता है, लेकिन उसका प्रकाश शीतल है। दग्ध नहीं करता चेष्टा यही है। ध्यान में, समाधि में यही तो चेष्टा है कि किसी जलाता नहीं। मलहम की भांति है घावों पर। भरता है घाव को। तरह अपनी कील को पकड़ ले। प्राणों को तृप्त करता है। सूरज से तो तुम ऊब सकते हो कभी, कबीर का बड़ा प्रसिद्ध वचन है- 'दो पाटन के बीच में चांद से कभी नहीं ऊब सकते। चांद आदमी को आंदोलित ही साबित बचा न कोय।' करता रहा है सदा-सदा। उसकी शीतलता बड़ी आकर्षक रही कबीर ने एक चक्की चलते देखी। कोई चक्की चला रही है | है। चांद की रात प्रेम की रात है। चांद की रात काव्य की रात है। औरत सुबह-सुबह, कबीर लौटते होंगे सुबह कहीं भ्रमण के | चांद से सागर ही आंदोलित नहीं होता, मनुष्य के हृदय में भी बाद, देखा सब पिसा जा रहा है। लौटकर घर उन्होंने यह पद | बड़ी तरंगें उठती हैं, बड़े ज्वार आते हैं। / | रचा। उनका बेटा कमाल बैठा सुन रहा था। उसने कहा कि चांद-सा शीतल हो साधु। उसमें प्रकाश तो हो, देदीप्यमान रुको, ठीक कहते हो कि पाट के बीच कोई भी साबित नहीं बचा, हो, लेकिन प्रकाश किसी को झुलसाये न। उसके पास जाकर लेकिन बीच में एक कील है, कभी उसका खयाल किया? तुम्हारे घावों पर मलहम-पट्टी हो, चोट न लगे। तुम बड़े हैरान उसके सहारे जो गेहूं के दाने लग जाते हैं, वे नहीं पिसते। होओगे, जिनको साधारणतः तुम साधु कहते हो, वे सदा तुम्हारी चक्की चलायी तुमने कभी? अब चक्की खो गयी है, इसलिए निंदा कर रहे हैं। चोट करना ही उनका धंधा है। तुम्हारा अपमान शायद तुम्हें खयाल भी न हो, लेकिन बीच की कील के सहारे जो करना ही उनका व्यवसाय है। तुम्हें गाली देना ही उनके प्रवचन दाने लग जाते हैं, वे फिर पिस नहीं पाते। उनको फिर दुबारा हैं। तुम्हें चोर, पापी बताना ही उनका कुल उपदेश है। लेकिन डालना पड़ता है। जिसने कील का सहारा लिया, वह बच गया। इन घावों से तुम कोई जीवन-पथ पर थोड़े ही आ जाओगे। इनसे संसार दो पाटों की तरह पीस रहा है। लेकिन इसमें मेरु की एक ही परिणाम होता है कि तुम आत्मनिंदा से भर जाते हो। तुम कील भी है। शरीर और मन के दो पाट तुम्हें पीस रहे हैं, पर अपने ही प्रति विरोध से भर जाते हो। तुम्हारे भीतर 'गिल्ट', इसके बीच में आत्मा की कील भी है। उसे पकड़ो। उसे गहो। अपराध भाव पैदा होता है। उसका साथ लो। उसके सहारे हो जाओ। फिर तुम्हें कोई भी और जिस आदमी के जीवन में अपराध-भाव पैदा हो गया, पीस न पायेगा। जन्म आये, जन्म; मौत आये, मौत; दुख, वह आदमी नर्क में जीने लगता है। क्योंकि वह जो करता है, सुख, जो आये, आये; तुम अछूते, पार, दूर बने रहोगे। तुम्हें वही गलत मालूम होता है। पत्नी को प्रेम करो, तो पाप। बेटे को कुछ भी छु न पायेगा। | प्रेम करो, तो पाप। सुंदर मकान बनाओ, तो पाप। एक बगिया 'चंद्रमा-सा शीतल...।' चंद्रमा में प्रकाश है, लेकिन सूरज बनाओ, तो पाप। अच्छे कपड़े पहनकर निकल जाओ, तो 132 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का दीप जला लो! पाप। भोजन में स्वाद लो, तो पाप। तो आदमी को जीने दोगे, साफ-साफ दिखायी पड़े; साधु के पास जाकर तुम्हें अपने कि नहीं जीने दोगे। हर चीज पाप! यह चंद्रमा की शीतलता न भविष्य का सपना मिले, आश्वासन मिले, बल मिले, हिम्मत हुई। यह तो बड़ी जलानेवाली आग हो गयी। मिले, आशा बंधे कि हो सकता है, मुझमें भी हो सकता है। साधुओं के पास जाकर-जिन्हें तुम साधु कहते हो तुम कितना ही बुरा हूं तो भी, हो सकता है। कितने ही दूर चला गया प्रसन्नचित्त नहीं लौट पाओगे। तुम अप्रसन्नचित्त, खिन्नमना हूं, तो भी वापस लौटने का उपाय है। साधु के पास जाकर पापी होकर लौटोगे। जैसे तुम्हारे रोग ही खूब-खूब बढ़ा-बढ़ाकर को अपने संतत्व का खयाल आये। अभी तो जिनको तुम साधु दिखा देना उनका काम है। कहते हो, उनके पास अगर संत भी जाए, तो उसको भी अपने मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब तक धर्म के नाम पर लोगों ने पाप का खयाल! बड़ा अत्याचार किया है, अनाचार किया है। लोगों को अपराधी 'चंद्रमा-सा शीतल: मणि-सा कांतिवान...।' कांतिवान। बना दिया है। तुम जो करो उसी में भूल है। जब सभी करने में कांति बड़ी मनमोहक आह्लादकारी वर्षा का नाम है। साधु के भूल है, तो स्वभावतः तुममें एक निंदा पैदा होती है कि यह क्या पास तुम्हारे ऊपर कुछ बरसने लगता है। बहुत जीवन हुआ! तो में गहित हूँ, कुत्सित हूँ, नारकीय हूँ! तुम्हारे आहिस्ता-आहिस्ता। पदचाप भी नहीं होती। कहीं कोई आवाज जीवन में उदासी छा जाती है। भी नहीं होती। साधु के प्राण तुम्हें घेरने लगते हैं। साधु की आभा महावीर कहते हैं, 'चंद्रमा-सा शीतल।' तुम्हारे पास घाव हैं, तुम्हें भी घेरने लगती है। तुम्हारी आंखें ठगी रह जाती हैं। तुम माना; तुम बीमार हो, माना; लेकिन बीमार की निंदा थोड़े ही एकटक साधु से बंधे रह जाते हो। जैसे किसी मणि को देखकर करनी है। चिकित्सक के पास जाओ तो बीमार का इलाज करना तुम सम्मोहित हो जाओ; फिर कहीं और देखने का मन न हो; है, निंदा थोड़ी करनी है। जो चिकित्सक निंदा करने लगे, तुम मणि की तरफ ही आंखें लगी रहें; उसी तरफ दर्शन की सारी टी. बी. की बीमारी लेकर गये, वह टी. बी. को गालियां देने धारा मुड़ जाए। लगे और तुमको गालियां देने लगे कि तुमने टी. बी. पैदा क्यों | 'पृथ्वी-सा सहिष्णु...।' कुछ भी घटे, साधु की सहिष्णुता की, छोड़ो इसको, त्याग करो इसका! छोड़ना तो तुम भी चाहते नहीं टूटती। कुछ भी हो जाए, साधु डगमगाता नहीं। तुम उसे हो, लेकिन छोड़ो कैसे? यही तो पता नहीं है। तुमने जानकर सुख में, दुख में समान पाओगे। तुम उसे सफलता, विफलता में थोड़े ही पकड़ा है। अनजाने पकड़ा है। अब किसी को बुखार समान पाओगे, सम्मान-अपमान में समान पाओगे। चढ़ा है और तुम कहो कि छोड़ो बुखार! बुखारवाला क्या | _ 'सर्प-सा अनियत-आश्रयी...।' सर्प अपना घर नहीं कहेगा? वह कहेगा, महानुभाव, छोड़ना तो मैं भी चाहता हूं, बनाता। अनियत-आश्रयी। जहां मिल गयी जगह, वहीं सो लेकिन बुखार छोड़े तब न! कोई मैं बुखार में थोड़े ही रहना लेता है। जहां मिल गयी जगह, वहीं विश्राम कर लेता है। चाहता हूं; लेकिन मुझे पता नहीं कि मैं क्या करूं, कुछ सहायता | अपना घर नहीं बनाता। यह बड़ी बारीक बात है। इससे केवल करें, औषधि लायें। इतना ही प्रयोजन नहीं है कि कोई घर में न रहे, इससे प्रयोजन यह साधु औषधि है। उसके पास जाकर शीतलता मिले, उसके है कि कोई सुरक्षा के घर न बनाये, कोई बैंक बैलेंस पर बहुत | पास जाकर आश्वासन मिले, अपराध का भाव नहीं। उसके ज्यादा भरोसा न करे। वह सब छिन जाएगा। कोई मिट्टी के घरों पास जाकर भरोसा मिले, हताशा नहीं। उसके पास जाकर में बहुत ज्यादा अपने प्राण न डाले, क्योंकि वे सब मिट जाएंगे। तुम्हारे जीवन का सूर्योदय हो; तुम्हें लगे कि माना कि बहुत | मुक्त रहे। घरों में हो, तो भी घरों का न हो। दुकानों पर हो, तो गलतियां हैं, कोई फिकिर नहीं, गलतियों से बड़ा मेरे भीतर छिपा | भी दुकानों का न हो। बाजार में खड़ा रहे, तो भी बाजार के बाहर हुआ खजाना है। गलतियां मैंने की हैं, कोई हर्जा नहीं, भूल-चूक रहे। याद बनी ही रहे कि यह जगह घर बनाने की नहीं। घर तो सबसे होती है, लेकिन मेरे भीतर छिपा हुआ परमात्मा है। साधु परमात्मा है। यहां तो हम परदेस में हैं। यहां तो यात्रा है। यहां तो के पास जाकर तुम्हारा भविष्य प्रगाढ़ हो, प्रखर हो, उज्ज्वल हो, | अगर कभी थक जाते हैं, तो रुकना है, पड़ाव पर; लेकिन पड़ाव 1331 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: मंजिल नहीं है। बड़ी पुरजोर आंधी है बड़ी काफिर बलाएं हैं 'आकाश-सा निरावलंब...।' और कोई सहारा न खोजे। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं इतना निरावलंब हो जैसा आकाश है। कोई आधार नहीं आकाश अफक पर जिंदगी के लश्करे-जुल्मत का डेरा है का, कोई बुनियाद नहीं, कोई खंभे नहीं, जिन पर सधा हो। बस हवादिस के कयामतखेज तूफानों ने घेरा है है। आकाश-जैसा हो जाए। जहां तक देख सकता हं अंधेरा ही अंधेरा है महावीर दिगंबर रहे, नग्न रहे। वह आकाश-जैसी चर्या थी। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूँ दिगंबर का अर्थ होता है, आकाश को ही जिसने अपना वस्त्र तलातमखेज दरिया आग के मैदान हाइल हैं बना लिया। दिगंबर का मतलब सिर्फ नग्न नहीं होता। नग्नता गरजती आंधियां बिखरे हुए तफान तो बड़ी आसान है। कोई भी कपड़े छोड़ दे तो नग्न हो सकता | तबाही के फरिश्ते जब्र के शैतान हाइल हैं है। लेकिन जो आकाश को अपना वस्त्र बना ले, वह है मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं दिगंबर। वह नग्न तो होगा, लेकिन नग्नता में सिर्फ नग्नता नहीं संकल्प और दिशा का बोध हो तो अंधेरा तुम्हें तोड़ेगा नहीं। है, कुछ और बड़ी घटना घटी है। पूरा आकाश ही उसने अपना अंधेरा ही तुम्हें मौका देगा अपने स्वयं के प्रकाश को खोजने का। घर बना लिया, अपने वस्त्र बना लिया। अब अलग से वस्त्रों तो जवानी तुम्हें मिटायेगी नहीं, जवानी ही तुम्हारा संन्यास की कोई जरूरत नहीं रही। अब उसने अपने को प्रगट कर बनेगी। तो ऊर्जा तुम्हें भटकायेगी नहीं, ऊर्जा पर ही चढ़कर तुम दिया। जैसा है वैसा प्रगट कर दिया। नग्न, तो नग्न। परमऊर्जा के परमपद तक पहुंचोगे। जिस व्यक्ति को दिशा का ऐसा साधु परमपद मोक्ष की यात्रा पर है। बोध है, गंतव्य का थोड़ा खयाल है, जिसने अपनी सुई में धागा सीह गय-वसह-मिय-पसु, मारूद-सुरूवहि-मंदरिदुं-मणी। पिरोया है, फिर अंधेरा कितना ही हो, वह अपनी मंजिल की खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू।। तरफ बढ़ता ही जाता है। और कितनी ही बाधाएं हों, और कितने परमपद की यात्रा पर ऐसा व्यक्ति चल पाता है। बड़ी ही पत्थर राह पर पड़े हों, वह उनकी सीढ़ियां बना लेता है। वह कठिनाइयां हैं रास्ते में। और उन कठिनाइयों को जीतने के लिए हर स्थिति को चनौती समझता है। और हर हार को नया शिक्षण तुम्हें बड़े गुण निर्मित करने होंगे। समझता है। हर हार को जीत के लिए उपाय बना लेता है। और जवानी की अंधेरी रात है जुल्मतं का तूफां है बढ़ता ही जाता है। मेरी राहों से नूरे-माहो-अंजुम तक कुरेजा है। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं। खुदा सोया है ऐ हरमन महशर बदामा है यह जो महावीर ने गुण कहे, यह राह पर तुम्हें साथ देंगे। इन मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं एक-एक गुण को खूब ध्यानपूर्वक सोचना, विचारना, मनन चांद-तारे खो गये हैं: परमात्मा का पता नहीं-कहां सो गया करना, आत्मसात करना। है; शैतान जागा हुआ है, राह पर बड़ा गहरा अंधेरा है- 'प्रबुद्ध और उपशांत होकर संयतभाव से ग्राम और नगर में खुदा सोया है ऐ हरमन महशर बदामा है विचरण कर शांति को बढ़ा। शांति का मार्ग बढ़ा। हे गौतम, मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।' गमो-हिर्मा युरुश है मसाइब की घटाएं हैं गौतम महावीर के प्रमुख शिष्य हैं। जैसे कृष्ण ने अर्जुन को जुनूं की फितनाखेजी हुस्न की खूनी अदाएं हैं संबोधित करके गीता कही है, ऐसे महावीर के सारे वचन गौतम बड़ी पुरजोर आंधी है बड़ी काफिर बलाएं हैं को संबोधित करके हैं। गौतम के बहाने सभी के लिए कहे हैं। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता है बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए। बड़े आकर्षण हैं जगत के। जवानी का पागलपन है, हुस्न की संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम! मा पमायए।। बड़ी खींच है, सौंदर्य का बुलावा है। 'प्रबुद्ध और उपशांत होकर...।' दो बातें ध्यान में रखनी 134 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का दीप जला ला। HARERNA BHAI जरूरी हैं। प्रबुद्धता और उपशांति। अगर तुम सिर्फ शांत हो जागो! जागो फिर एक बार। जाओ और प्रबुद्ध न होओ, तो नींद में खो जाओगे। नींद में हम प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें सभी शांत हो जाते हैं। लेकिन नींद कोई मंजिल नहीं है। अगर जागो! जागो फिर एक बार। तुम प्रबुद्ध हो जाओ, बहुत जागे हुए हो जाओ, और शांत न हो | महावीर के सभी वचन अंततः अप्रमाद पर पूरे होते हैं। वे सको, तो तुम पागल हो जाओगे। क्योंकि विश्राम तुम्हें मिल न कहते हैंसकेगा। जो आदमी सात दिन न सो पाये, वह विक्षिप्त होने | जागो, फिर एक बार! कहते हैं. तीन सप्ताह जो आदमी न सोये. वह और इसके बाद का सत्र तो बहत सोचने जैसा है। सोचना। सुनिश्चित रूप से पागल हो जाएगा। विश्राम भी चाहिए। 'भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते...।' तो महावीर का सूत्र है : 'प्रबुद्ध और उपशांत'; एक साथ। भविष्य में लोग कहेंगे, महावीर खो गये। शांत भी बनो और जागे हुए भी बनो। यह दोनों साथ-साथ बढ़ें, भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते, और जो अलग-अलग नहीं। अगर तुम प्रबुद्ध न हुए तो नींद में खो मार्गदर्शक हैं वे भी एकमत नहीं हैं। किंतु आज तुझे गौतम, जाओगे। नींद अच्छी है, सुखद है, लेकिन सुख ही थोड़े गंतव्य न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।' है। परम आनंद न मिलेगा, मोक्ष न मिलेगा। मोक्ष तो जागे हुए महावीर कहते हैं, सदियों तक फिर लोग पूछेगे, कहां पायें के लिए है। लेकिन अगर तुम सिर्फ जागने ही लगो, और अनिद्रा जिन-जैसा शास्ता? महावीर-जैसा सदगरु? और अभी. मैं को तुम समझ लो कि साधना है, और शांत होना खो जाए, तो मौजूद हूं, महावीर कहते हैं गौतम से, तेरे सामने हूं गौतम, और तनाव से भर जाओगे। तनाव तुम्हें तोड़ देगा। दोनों का अभी तू सो रहा है। फिर सदियों तक लोग रोयेंगे और साथ-साथ जोड़ चाहिए। अनुपात दोनों का बराबर चाहिए। पछतायेंगे। और त सामने मौजद है। मार्ग तेरी आंखों के सामने आधा-आधा। और सम्यक-रूप से साधना में जानेवाले व्यक्ति | बिछा है। तू किस लिए बैठा है? उठ! को निरंतर याद रखनी चाहिए कि इन दो में से किसी की भी मात्रा | ‘भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते...।' ज्यादा न हो पाये। अमृत भी बे-मात्रा हो, तो जहर हो जाता है। ण हु जिणे अज्ज दिस्सई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए। और जहर भी मात्रा में लिया जाए तो औषधि बन जाता है। तो और महावीर कहते हैं कि और जो मार्गदर्शक होंगे, वे आपस एक तरफ शांति को बढ़ाओ और एक तरफ जागरण को। में एकमत न होंगे। महावीर अपने ही मार्ग पर पड़ जानेवाली "हे गौतम, शांति का मार्ग बढ़ा! हे गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद शाखाओं, विशाखाओं की बात कर रहे हैं। कह रहे हैं, अभी मत कर!' एक क्षण भी बेहोशी में मत गंवा। मार्ग बिलकुल एकजुट है। पगडंडियां अलग-अलग टूटी नहीं। जागो फिर एक बार। अभी मार्ग राजपथ-जैसा है: तू चल! भविष्य में लोग पूछेगे, प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें जिन कहां हैं? कहां उनके दर्शन हों, जो मार्ग दिखायें? और जो अरुण-पंख तरुण-किरण मार्ग दिखानेवाले लोग होंगे रास्ते पर, कोई 'तेरापंथी' होगा, खड़ीखोल रही द्वार कोई ‘दिगंबर' होगा, कोई 'श्वेतांबर' होगा। पंथों में और जागो फिर एक बार। छोटे पंथ होंगे और हजार मत होंगे। और बड़ा संघर्ष होगा। और आंखें अलियों-सी अभी मार्ग सुस्पष्ट है, गौतम! तू क्यों बैठा है ? उठ! किस मधु की गलियों में फंसी, जागो फिर एक बार! बंद कर पांखें प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें। पी रहीं मधु मौन, महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, कितने तारों ने तुम्हें जगाया है! अथवा सोयीं कमल कोरकों में? प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें। बंद हो रहा गुंजार 'न्यायपूर्ण मार्ग तुझे उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद 135 2010_03 www.jainelibray.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग मत कर।' महावीर कहते हैं, भाव ही असली बात है। क्रिया तो उसकी फिर एक दिन तो लोग कहेंगे छाया है। जो भाव में घट जाता है, वह क्रिया में आयेगा ही। छुप गये वो साजे-हस्ती छेड़कर उलटा जरूरी नहीं है कि सच हो। जो क्रिया में घटता है वह भाव अब तो बस आवाज ही आवाज है में आये, यह जरूरी नहीं है। लेकिन जो भाव में आ गया, वह एक दिन तो वीणा टूट जाएगी। इस जगत में कुछ भी सदा क्रिया में तो आयेगा ही, यह अनिवार्य है। इसलिए भाव मुख्य रहने को नहीं है। महावीर खो जाएंगे। बुद्ध खो जाएंगे। है, प्रथम है, आधारभूत है। लोग भाव की कम चिंता करते हैं, छप गये वो साजे-हस्ती छेड़कर द्रव्य की ज्यादा चिंता करते हैं। समझोअब तो बस आवाज ही आवाज है दान भाव में हो, तो चीजें तो तुम दे सकोगे लोगों को; लेकिन फिर आवाज गूंजती रहती है सदियों तक। लोग ऐसे बेसुध पड़े भाव में देने की क्षमता आ जाए, बांटने का सुख आ जाए, रस हैं कि जब संगीत बजता होता है, तब वे बैठे रहते हैं। जब वीणा आ जाए बांटने में, तो चीजें तो गौण हैं, तुम दे दोगे। कोई खो जाती, सिर्फ प्रतिध्वनि रह जाती; जब शास्ता खो जाते और प्रयोजन नहीं है दूसरी बात का। वह आ ही जाएगी। लेकिन यह शास्त्र मात्र रह जाते, तब बड़ी माथापच्ची लोग करते हैं, बड़ा हो सकता है कि तुम चीजें तो बांटते रहो और देने का भाव विवाद करते हैं। बड़ा चिंतन-मनन करते हैं। बिलकुल न हो। तो चीजों के बांटने को ही तुम सब कुछ मत सारी महफिल जिसपे झूम उठी 'मजाज़' समझ लेना। वह गौण है। दोयम है। वो तो आवाजे-शिकस्ते-साज है। जिसमें खुलूसे-फिक्र न हो, वह सुखन फिजूल जब वीणा टूटती है, तब सोये हुए लोग चौंककर उठते हैं। जिसमें न दिल हो शरीक उस लय में कुछ भी नहीं मज़ाज़ की ये पंक्तियां बड़ी प्यारी हैं तुम गीत तो गा सकते हो, लेकिन अगर दिल ही शरीक न हो, सारी महफिल जिसपे झूम उठी 'मज़ाज़' तो उस लय में कुछ भी नहीं। वो तो आवाजे-शिकस्ते-साज है जिसमें खुलूसे-फिक्र न हो, वह सुखन फिजूल वह तो वीणा के टूटने की आवाज है, पागलो! जिस पर सारी और जिसमें गहराई न हो चिंतन की, मनन की, ध्यान की, उस महफिल झूम उठी। जब महावीर मरते हैं, तब तुम जगते हो। काव्य का कोई भी मूल्य नहीं। तुम काव्य तो रच सकते हो। वह जब महावीर जाते हैं, तब तम चिल्लाते हो। और ऐसा सभी तकबंदी होगी: लेकिन जब तक प्राण न डालोगे, उसमें प्राण न महावीरों के साथ हुआ। ऐसा ही आज भी होता है। आदमी में | होंगे। काव्य शब्दों से नहीं बनता, न मात्राओं से, न छंद के कोई बहुत फर्क नहीं पड़े। कपड़े बदल गये। मकानों के बनाने | नियमों से, काव्य बनता है प्राणों को उंडेलने से। इसीलिए तो के ढंग बदल गये। रास्तों पर बैलगाड़ियों की जगह कारें हैं। | कभी-कभी जिन्होंने प्राण उंडेल दिये, और काव्य के जिन्हें किसी आकाश में पक्षियों की जगह हवाई जहाज हैं। आदमी के पैर नियम का कोई पता न था, वे भी शाश्वत हो गये। जमीन को नहीं छूते, चांद-तारों पर चलने लगे, पर आदमी में | कबीर, कुछ भी जानते नहीं काव्य के नियम। लेकिन शाश्वत कोई फर्क नहीं पड़ा। वही होता रहेगा। | रहेगी उनकी वाणी। हृदय ही उंडेल दिया। मूल ही उंडेल दिया, यही मैं तुमसे भी कहता हूं : भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन तो गौण की क्या फिकिर? मात्राएं पूरी थीं या न थीं; छंद के दिखायी नहीं देते; और जो मार्गदर्शक हैं, वे भी एकमत नहीं हैं; नियम पूरे हुए या न हुए, प्राण ही डाल दिये। भाव ही प्रथम है। किंतु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी भाव को ही जिन ने, महावीर ने गुण-दोषों का कारण कहा है। प्रमाद न कर। _ 'भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया 'वास्तव में भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग है। द्रव्य लिंग जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है, उसका बाह्य त्याग परमार्थ नहीं है। क्योंकि भाव को ही जिनदेव गुण-दोषों का निष्फल है।' कारण कहते हैं।' अगर बाहर का त्याग किया भी जाए तो भी यही ध्यान रखकर 136 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का दीप जला लो। किया जाए कि वह भीतर के त्याग के लिए निमित्त बने। साधु-जैसा दिखायी पड़ता है। और द्रव्य-लिंग और भाव-लिंग भावविसद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। में फर्क क्या है? इतना ही फर्क है, भाव-लिंगी ने अंतर को बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स।। बदला, जागकर; द्रव्य-लिंगी ने बाहर को बदला, सोये-सोये। निमित्त बन जाए, बस। एक बहाना बने। लेकिन असली बात इक दीया जला कि जल उठी सुबह भीतर की रहे। तो लोग बाहर से तो छोड़ देते हैं, भीतर से छोड़ते इक दीया बुझा कि रात हो गयी नहीं। छोड़ने तक को पकड़ लेते हैं। त्याग तक की अकड़ आ एक शह लगी कि ढह गया किला जाती है कि मैंने लाखों छोड़े। एक शह लगी कि मात हो गयी 'जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से | इक हवा चली कि खिल उठा चमन पूरी तरह मुक्त है, तथा जो अपनी आत्मा में लीन है, वही साधु इक हवा चली कि सब उजड़ गया भाव-लिंगी है।' एक पग उठा कि राह मिल गयी द्रव्य-लिंगी, भाव-लिंगी, ऐसे साधुओं के दो रूप महावीर ने एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया किये। द्रव्य-लिंगी वही है, जिसने धन छोड़ा; लेकिन पकड़ना फर्क बड़ा थोड़ा-सा है। एक पग का! न छोड़ा। भाव-लिंगी वही है, जिसने धन भी छोड़ा, लेकिन धन इक दीया जला कि जल उठी सुबह छोड़ा क्योंकि पकड़ना ही छोड़ दिया। पकड़ ही छोड़ दी। नहीं अगर जागरण जग गया, तो सुबह हो गयी। बस एक दीया तो मन बड़ा चालाक है। एक चीज छोड़ता है, दूसरी पकड़ लेता जल जाए जागरण का; महावीर की भाषा में अप्रमाद का, होश है. पकड कायम रहती है। धन छोड़ो, धर्म पकड़ लो। घर का, विवेक का; एक दीया जल जाए, बस। तुम्हारे भीतर चैतन्य छोड़ो, संन्यास पकड़ लो। गृहस्थी छोड़ो, मंदिर पकड़ लो। आ जाए बस, तुम उठते-बैठते जागे हुए उठने-बैठने लगो, तो एक चीज छोड़ी, दूसरी पकड़ी, मुट्ठी तो बंधी ही रही। सब बदल जाएगा। और वह एक दीया बुझ जाए, तो फिर तुम कंकड़-पत्थर छोड़े एक रंग के, दूसरे रंग के पकड़ लिया। धन लाख उपाय करो, घर छोड़ हिमालय चले जाओ, वस्त्र छोड़ छोड़ा, तो ज्ञान पकड़ लिया। महावीर कहते हैं, पकड़ छोड़ो। नग्न हो जाओ, धन छोड़ भिखमंगे होकर सड़क पर खड़े हो मुट्ठी खुली रखो। सत्य कुछ आकाश-जैसा है। मुट्ठी बांधो, जाओ, कुछ भी फर्क न होगा। तुम तुम ही रहोगे। एक ही क्रांति बाहर हो जाता है। मुट्ठी खोलो, भीतर आ जाता है। खुली मुट्ठी है जीवन में, वह है भीतर की अंतर्ज्योति के जग जाने की क्रांति। पर पूरा आकाश रखा है। बंद मुट्ठी खाली है। कुछ भी नहीं। और सब क्रांति के धोखे हैं। * कहावत तो है, लोग कहते हैं—बंद मुट्ठी लाख की। बंद मुट्ठी इक दीया जला कि जल उठी सुबह खाक की, लाख की छोड़ो! खाक भी नहीं है। मगर बंद मुट्ठी इक दीया बुझा कि रात हो गयी लाख की लोग कारण से कहते हैं। वे यह कहते हैं, बंद रहे तो बस एक ही दीये का फर्क है तुममें और महावीर में। इसलिए लोगों को भ्रम रहता है कि कुछ होगा। इसीलिए तो समझदार घबड़ाना मत। बस एक दीये का फर्क है अंधेरे कमरे में और | लोग बंद मट्टी रखे हए हैं। खद भी डरते हैं खोलने से, कहीं खद | प्रकाशोज्ज्वल कमरे में। रात और सुबह में बस एक दीये का को भी पता न चल जाए कि कुछ भी नहीं है। बंद रहती है, तो फर्क है। खुद को भी भरोसा रहता है कि है, बहुत कुछ है। जब तक नहीं एक शह लगी कि ढह गया किला देखा तब तक तो है ही! इसीलिए लोग आंख खोलकर नहीं एक शह लगी कि मात हो गयी देखते, नहीं तो सपने टूट जाएं। सपनों का संसार टूट जाए! इक हवा चली कि खिल उठा चमन देहादिसंगहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। इक हवा चली कि सब उजड़ गया अप्पा अप्पमि रओ, स भावलिंगी हवे साहू।। एक पग उठा कि राह मिल गयी भाव-लिंगी ही साधु है। द्रव्य-लिंगी साधु नहीं है; एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 उस एक दीये को जलाओ! उस एक दीये पर सारी शक्ति लगा दो! उस एक दीये पर सारा जीवन लगा दो! वह एक दीया जल गया, तो सब मिल गया। वह एक दीया न जला, तो तुम सारे संसार के साम्राज्य को पा लो, तम भिखमंगे और खाली हाथ ही बिदा होओगे। तुम रिक्त मरोगे। अगर भरकर जाना हो, खिलकर जाना हो, फूलकर जाना हो, तो उस एक दीये को जला लो। उसे मैं ध्यान का दीया कहता हूं, महावीर उसे अप्रमाद का दीया कहते हैं। बात एक ही है। बद्ध उसे सम्यक-स्मृति कहते हैं। पतंजलि उसे समाधि कहते हैं। कृष्णमूर्ति उसे 'अवेयरनेस' कहते हैं। होश कहो, सावधानी कहो। कबीर उसे सुरति कहते हैं, स्मृति कहते हैं। जो कहना हो कहो-नाम तुम रख लो-इतना ही ध्यान रहे, दीये में ज्योति हो, फिर नाम कोई भी हो! इक दीया जला कि जल उठी सुबह इक दीया बुझा कि रात हो गयी। आज इतना ही। 138 2010_03