________________ - जिन सत्र भाग एक होटल में गये। खरगोश ने बैरा को आवाज दी और कहा कि तुम्हारे बाप पागल थे? क्या हुआ था? वह कहने लगे, पागल नाश्ता ले आओ। बैरा ने पूछा कि और आपके साथी, यह क्या नहीं, बड़े शिकारी थे। मैंने कहा, मुझे तो लगता है पागल थे। लेंगे? खरगोश ने कहा उनकी छोड़ो, अगर वह भूखे होते तो तुम इन गरीब सिंहों ने बिगाड़ा क्या था उनका? और उन्होंने किया सोचते हो मैं यहां बैठता ! नाश्ता उन्होंने कर लिया होता; मगर वे क्या मारकर? यह प्रदर्शन लगा रखा है! और जो मारा जिस भरे-पेट हैं। | ढंग से, वह ढंग बिलकुल गैर-जायज है। जाते, लड़ लेते, हाथ सिंह भरा-पेट हो तो हमला नहीं करता। आदमी भरे-पेट से खुली लड़ाई हो जाती, फिर एकाध सिंह को मार लाते, तो हमला करता है। लोग जंगल में शिकार करने जाते हैं, उनसे सोचते भी कि कोई बात हुई। पूछो, किसलिए? आखेट! खेल!! क्रीड़ा!!! मारने का | लेकिन, आदमी अन्याय करता है। और सोचता है अपने को खेल! सिंह की बात तो समझ में आ जाती है कि भूखा है, कि आदमी! पशओं के जगत में कोई अन्याय नहीं। अगर भूख इसलिए हमला करता है। तुम भरे-पेट, किसलिए हमला करने लगती है, तो सिंह हमला करता है, क्योंकि वही प्रकृति ने उसे जाते हो? तुम कहते हो, खेलने का मजा ले रहे हैं। कभी भोजन का उपाय दिया। लेकिन भूख न हो, तो हमला नहीं खयाल किया, अगर शिकारी पर शेर हमला कर दे तो हम खेल करता। तुम आदमी की जब निंदा करना चाहते हो, तो उससे नहीं कहते। और शिकारी बंदूकें लेकर सिंहों को छेदता रहे, तो कहते हो, पशु मत बनो। महावीर कह रहे हैं, पहले पशु तो हम खेल कहते हैं। और पतन की कोई सीमा होगी! शिकारी बनो! परमात्मा बनना तो बहुत दूर है। तुम आदमी बन गये हो। अपने घर में सिंहों के सिर लटका कर रखता है दिखाने को कि आदमी यानी झूठ। आदमी यानी पाखंड। सभ्यता यानी ऊपर कितने सिंह उसने मार डाले हैं। खेल में! से थोपा गया जबर्दस्ती का आरोपण। भीतर आग जल रही है, राजा-महाराजाओं के महलों में कभी-कभी मुझे जाने को मौका | ऊपर फूल चिपकाये हुए हैं। भीतर जहर फैल रहा है, ऊपर मिला--कभी कोई राजा-महाराजा निमंत्रित कर लिया, तो वे | अमृत की चर्चा हो रही है। भीतर कुछ है, बाहर कुछ। पशु कम दिखाते हैं ले जाकर कि उनके पिता ने कितने सिंह मारे। मैं से कम वही तो है—जो भीतर है, वही बाहर है। सिंह को तुम चकित होता हूं, सिंह तुम्हारे पिता को मार डालता तो कुछ बहुत कितना ही छेदो, सिंह ही पाओगे। हर पर्त पर सिंह पाओगे। आश्चर्य की बात न थी, लेकिन तुम्हारे पिता ने इतने सिंह परिधि से लेकर केंद्र तक सिंह ही मिलेगा। आदमी को छेदो, किसलिए मारे? दिखावे के लिए। और मारे ऐसे साधनों से, जो हजार-हजार चीजें पाओगे। आदमी तुम कहीं न पाओगे। पर्त सिंह के पास नहीं हैं। यह कोई खेल हुआ! बंदूक सिंह के हाथ पर कुछ मिलेगा, थोड़े भीतर जाओ, कुछ और मिलेगा, और में नहीं है, तलवार सिंह के हाथ में नहीं है; अगर मारना ही था, | भीतर जाओ कुछ और मिलेगा। इसीलिए तो लोग अपने भीतर रनी थी, तो नंगे हाथ सिंह से लड़े होते। कम | नहीं जाते। क्योंकि भीतर जाकर घबड़ाहट होती है कि यह मैं से कम उतनी सुविधा सिंह को भी तो दो! खेल का इतना तो क्या हूं? लोग अपना दर्शन नहीं करना चाहते। लोग बातें करते नियम मानो, अगर यह खेल ही है-चलो खेल ही सही। तो हैं आत्मा की, आत्म-दर्शन की, कोई करना नहीं चाहता। एक आदमी नंगा खड़ा है, हाथ में लकड़ी भी नहीं, बचाव का क्योंकि अपना दर्शन करने का अर्थ होगा, यह सब जो विक्षिप्तता कोई उपाय भी नहीं है, और तुम बंदूक लिए खड़े हो। और खेल की अनेक-अनेक पर्ते हैं, यह सब उघड़ेंगी, इन्हें जानना पड़ेगा। खेल रहे हो! उसको भी तो इतनी ही सुविधा दो। फिर खेल हो! इनसे गुजरकर ही तुम कहीं उस तक पहुंच पाओगे, जो तुम्हारा कम से कम खेल में दोनों के साथ पक्षपात तो नहीं होना चाहिए असली स्वरूप है। महावीर कहते हैं, 'पशु-सा निरीह।' किसी के साथ। दोनों समतुल हों। और फिर बहादुरी बता रहे | 'वायु-सा निसंग...।' हवा बहती रहती है। लेकिन हो? बंदूकें लेकर, वृक्षों पर मचानें बांधकर, हजारों आदमियों | निसंग। किसी से संग-साथ नहीं बांधती। फूलों के पास से का जत्था लेकर एक गरीब सिंह को घेर लिया और मार डाला। गुजर जाती है, तो भी वहां ठिठककर रह नहीं जाती कि इतना एक महाराजा मुझे अपने महल में ले गये। मैंने उनसे कहा, | सौरभ है, अब यहीं रुक जाएं। अब यहीं घर बना लें। शीतल 1301 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org