________________ m ध्यान का दीप जला लो। लोगों से ज्यादा सरल हैं। होना नहीं चाहिए था ऐसा। क्योंकि | बैठ सकते, उनको भी सिंहासन चाहिए। यह भी हो सकता है कि पूरब के लोगों को खयाल है, हम धार्मिक हैं। लेकिन पूरब का | सबको साथ बिठा दो, लेकिन तब शंकराचार्य बैठने को राजी आदमी बड़ा जटिल है। पश्चिम से आदमी आता है तो वह | नहीं। क्योंकि उनको ऊपर ही होना चाहिए। वह किसी के नीचे सरल है। उसकी सरलता, पशओं-जैसी सरल है। तम्हारा साध | बैठना तो दर. किसी के साथ बैठने को भी राजी नहीं। कहेगा, यह तो पशु-व्यवहार है। महावीर से पूछो, उसकी ये लोग, जो कहते हैं कि हम आत्मा हैं, शरीर नहीं! ये लोग, सरलता बच्चों-जैसी है। तुम पश्चिम के आदमी को सुविधा से जो कहते हैं कि हम आत्मा हैं, मन नहीं! ये नीचे नहीं बैठ लूट सकते हो। पूरब के आदमी को लूटना इतना आसान नहीं। सकते। ये साथ नहीं बैठ सकते। बड़ी जटिलता है! इसके पहले कि तुम उसकी जेब काटो, उसका हाथ तुम्हारी जेब महावीर के शब्द याद रखना—'मृग-सा सरल।' में पहुंच जाएगा। 'पशु-सा निरीह...।' पशु में एक निरीहता है। एक पूरब का आदमी जो प्रश्न भी पूछता है, वे भी जटिल हैं। सरल हेल्पलेसनेस। असहाय अवस्था है पशु की। साधु ऐसा ही नहीं हैं। उसके प्रश्नों में भी दांव-पेंच है, शास्त्र है, परंपरा है। असहाय होगा इस विराट संसार के उपद्रव में। अपने किए कुछ सीधे हृदय के प्रश्न नहीं हैं। | होता नहीं मालूम पड़ता। जो करते हैं वही गलत हो जाता है। पश्चिम से आदमी आता है, सीधे प्रश्न पूछता है और जीवन में इतनी-इतनी सूक्ष्म उलझाव की गलियां हैं कि पश्चिम भौतिकवादी है। और पूरब अध्यात्मवादी है लेकिन भटक-भटक जाते हैं। इस अध्यात्मवाद ने सरल नहीं बनाया, इसने और जटिल बना 'पशु-सा निरीह...।' महावीर ने पशु को बड़ा सम्मान दे दिया। जटिलता बड़े रूप ले लेती है। और ऐसे सूक्ष्म रूप ले दिया। ये सारे प्रतीक पशुओं से ले लिये। मैं भी तुमसे कहता हूं लेती है कि तुम्हें पता भी न चले। | कि पशुओं से बहुत कुछ सीखने को है। और जो मनुष्य पश फिर ऐसा भी मेरा अनुभव है कि जब साधु मुझसे मिलने आते जैसा सरल न हो सके, वह छोड़ दे खयाल परमात्मा-जैसे सरल हैं, तो उनसे मैं सामान्य गृहस्थ को ज्यादा सरल पाता हूं। साधु होने का। पशु-जैसी सरलता परमात्मा-जैसे सरल होने का तो बड़ा जटिल मालूम होता है। कभी-कभी साधु मुझसे मिलने | पहला चरण है। पशु-जैसी सरलता, निरीहता, असहाय आते हैं। तो पहले उनके श्रावक आते हैं, वे कहते हैं महाराज जी अवस्था बड़ी बहुमूल्य है। सभ्यता बड़ी खतरनाक है। सभ्यता को बिठाइयेगा कहां? तुमको क्या फिकिर! आने दो उनको, मेरे ने मनुष्य को मारा। सभ्यता महारोग है। इससे तो पशु बेहतर। र उनके बीच में निपटारा कर लेंगे। कहां बिठाना, कहां नहीं आमतौर से तो हम पशुओं का उपयोग तभी करते हैं, जब हमें बिठाना! लेकिन वे कहते हैं कि नहीं, महाराज जी ने ही पुछवाया आदमी की निंदा करनी होती है। महावीर उपयोग कर रहे हैं है: बैठेगे कहां वह? अगर जैन-मुनि को हाथ जोड़कर नमस्कार प्रशंसा के लिए। भी करो, तो वह नमस्कार का उत्तर नहीं देता। क्योंकि वह हाथ थोड़ा फर्क समझना। अगर किसी आदमी की हमें निंदा करनी जोड़ नहीं सकता किसी को। यह तो खूब साधुता हुई! यह तो | होती है, तो हम कहते हैं, क्या पशु-जैसा व्यवहार कर रहे हो, खूब सरलता हुई! यह तो बड़ी जटिलता हो गयी। श्रावक को आदमी बनो! महावीर कह रहे हैं, क्या आदमी-जैसा व्यवहार कैसे वह हाथ जोड़े? असंभव। कर रहे हो, पशु बनो। इसलिए मैं कहता हूं, ये सूत्र बड़े एक महासम्मेलन हआ. कोई तीन सौ साध सारे देश से क्रांतिकारी हैं। और महावीर ठीक हैं. सौ प्रतिशत ठीक हैं। निमंत्रित थे। आयोजकों ने बड़ी मंच बनायी थी कि तीन सौ साधु आदमी पशु से भी गया-बीता है। आदमी जैसा पशुता से भरा साथ बैठ सकें। पर यह हो न सका। एक-एक को बैठकर ही है, ऐसी पशुता से भरा कोई भी पशु नहीं है। सिंह भी शिकार प्रवचन देना पड़ा। क्योंकि कोई दूसरे के साथ बैठने को राजी न करता है, हिंसा करता है, लेकिन भोजन के लिए। खिलवाड़ के था। शंकराचार्य अपने सिंहासन पर ही बैठना चाहते थे। जब लिए नहीं।। शंकराचार्य सिंहासन पर बैठे, तो दूसरे लोग हैं, वे भी नीचे नहीं मैंने सुना है, एक कहानी है कि एक सिंह और एक खरगोश 129 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org