________________ ध्यान का दीप जला लो। किया जाए कि वह भीतर के त्याग के लिए निमित्त बने। साधु-जैसा दिखायी पड़ता है। और द्रव्य-लिंग और भाव-लिंग भावविसद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। में फर्क क्या है? इतना ही फर्क है, भाव-लिंगी ने अंतर को बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स।। बदला, जागकर; द्रव्य-लिंगी ने बाहर को बदला, सोये-सोये। निमित्त बन जाए, बस। एक बहाना बने। लेकिन असली बात इक दीया जला कि जल उठी सुबह भीतर की रहे। तो लोग बाहर से तो छोड़ देते हैं, भीतर से छोड़ते इक दीया बुझा कि रात हो गयी नहीं। छोड़ने तक को पकड़ लेते हैं। त्याग तक की अकड़ आ एक शह लगी कि ढह गया किला जाती है कि मैंने लाखों छोड़े। एक शह लगी कि मात हो गयी 'जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से | इक हवा चली कि खिल उठा चमन पूरी तरह मुक्त है, तथा जो अपनी आत्मा में लीन है, वही साधु इक हवा चली कि सब उजड़ गया भाव-लिंगी है।' एक पग उठा कि राह मिल गयी द्रव्य-लिंगी, भाव-लिंगी, ऐसे साधुओं के दो रूप महावीर ने एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया किये। द्रव्य-लिंगी वही है, जिसने धन छोड़ा; लेकिन पकड़ना फर्क बड़ा थोड़ा-सा है। एक पग का! न छोड़ा। भाव-लिंगी वही है, जिसने धन भी छोड़ा, लेकिन धन इक दीया जला कि जल उठी सुबह छोड़ा क्योंकि पकड़ना ही छोड़ दिया। पकड़ ही छोड़ दी। नहीं अगर जागरण जग गया, तो सुबह हो गयी। बस एक दीया तो मन बड़ा चालाक है। एक चीज छोड़ता है, दूसरी पकड़ लेता जल जाए जागरण का; महावीर की भाषा में अप्रमाद का, होश है. पकड कायम रहती है। धन छोड़ो, धर्म पकड़ लो। घर का, विवेक का; एक दीया जल जाए, बस। तुम्हारे भीतर चैतन्य छोड़ो, संन्यास पकड़ लो। गृहस्थी छोड़ो, मंदिर पकड़ लो। आ जाए बस, तुम उठते-बैठते जागे हुए उठने-बैठने लगो, तो एक चीज छोड़ी, दूसरी पकड़ी, मुट्ठी तो बंधी ही रही। सब बदल जाएगा। और वह एक दीया बुझ जाए, तो फिर तुम कंकड़-पत्थर छोड़े एक रंग के, दूसरे रंग के पकड़ लिया। धन लाख उपाय करो, घर छोड़ हिमालय चले जाओ, वस्त्र छोड़ छोड़ा, तो ज्ञान पकड़ लिया। महावीर कहते हैं, पकड़ छोड़ो। नग्न हो जाओ, धन छोड़ भिखमंगे होकर सड़क पर खड़े हो मुट्ठी खुली रखो। सत्य कुछ आकाश-जैसा है। मुट्ठी बांधो, जाओ, कुछ भी फर्क न होगा। तुम तुम ही रहोगे। एक ही क्रांति बाहर हो जाता है। मुट्ठी खोलो, भीतर आ जाता है। खुली मुट्ठी है जीवन में, वह है भीतर की अंतर्ज्योति के जग जाने की क्रांति। पर पूरा आकाश रखा है। बंद मुट्ठी खाली है। कुछ भी नहीं। और सब क्रांति के धोखे हैं। * कहावत तो है, लोग कहते हैं—बंद मुट्ठी लाख की। बंद मुट्ठी इक दीया जला कि जल उठी सुबह खाक की, लाख की छोड़ो! खाक भी नहीं है। मगर बंद मुट्ठी इक दीया बुझा कि रात हो गयी लाख की लोग कारण से कहते हैं। वे यह कहते हैं, बंद रहे तो बस एक ही दीये का फर्क है तुममें और महावीर में। इसलिए लोगों को भ्रम रहता है कि कुछ होगा। इसीलिए तो समझदार घबड़ाना मत। बस एक दीये का फर्क है अंधेरे कमरे में और | लोग बंद मट्टी रखे हए हैं। खद भी डरते हैं खोलने से, कहीं खद | प्रकाशोज्ज्वल कमरे में। रात और सुबह में बस एक दीये का को भी पता न चल जाए कि कुछ भी नहीं है। बंद रहती है, तो फर्क है। खुद को भी भरोसा रहता है कि है, बहुत कुछ है। जब तक नहीं एक शह लगी कि ढह गया किला देखा तब तक तो है ही! इसीलिए लोग आंख खोलकर नहीं एक शह लगी कि मात हो गयी देखते, नहीं तो सपने टूट जाएं। सपनों का संसार टूट जाए! इक हवा चली कि खिल उठा चमन देहादिसंगहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। इक हवा चली कि सब उजड़ गया अप्पा अप्पमि रओ, स भावलिंगी हवे साहू।। एक पग उठा कि राह मिल गयी भाव-लिंगी ही साधु है। द्रव्य-लिंगी साधु नहीं है; एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org