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________________ ध्यान का दीप जला लो! पाप। भोजन में स्वाद लो, तो पाप। तो आदमी को जीने दोगे, साफ-साफ दिखायी पड़े; साधु के पास जाकर तुम्हें अपने कि नहीं जीने दोगे। हर चीज पाप! यह चंद्रमा की शीतलता न भविष्य का सपना मिले, आश्वासन मिले, बल मिले, हिम्मत हुई। यह तो बड़ी जलानेवाली आग हो गयी। मिले, आशा बंधे कि हो सकता है, मुझमें भी हो सकता है। साधुओं के पास जाकर-जिन्हें तुम साधु कहते हो तुम कितना ही बुरा हूं तो भी, हो सकता है। कितने ही दूर चला गया प्रसन्नचित्त नहीं लौट पाओगे। तुम अप्रसन्नचित्त, खिन्नमना हूं, तो भी वापस लौटने का उपाय है। साधु के पास जाकर पापी होकर लौटोगे। जैसे तुम्हारे रोग ही खूब-खूब बढ़ा-बढ़ाकर को अपने संतत्व का खयाल आये। अभी तो जिनको तुम साधु दिखा देना उनका काम है। कहते हो, उनके पास अगर संत भी जाए, तो उसको भी अपने मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब तक धर्म के नाम पर लोगों ने पाप का खयाल! बड़ा अत्याचार किया है, अनाचार किया है। लोगों को अपराधी 'चंद्रमा-सा शीतल: मणि-सा कांतिवान...।' कांतिवान। बना दिया है। तुम जो करो उसी में भूल है। जब सभी करने में कांति बड़ी मनमोहक आह्लादकारी वर्षा का नाम है। साधु के भूल है, तो स्वभावतः तुममें एक निंदा पैदा होती है कि यह क्या पास तुम्हारे ऊपर कुछ बरसने लगता है। बहुत जीवन हुआ! तो में गहित हूँ, कुत्सित हूँ, नारकीय हूँ! तुम्हारे आहिस्ता-आहिस्ता। पदचाप भी नहीं होती। कहीं कोई आवाज जीवन में उदासी छा जाती है। भी नहीं होती। साधु के प्राण तुम्हें घेरने लगते हैं। साधु की आभा महावीर कहते हैं, 'चंद्रमा-सा शीतल।' तुम्हारे पास घाव हैं, तुम्हें भी घेरने लगती है। तुम्हारी आंखें ठगी रह जाती हैं। तुम माना; तुम बीमार हो, माना; लेकिन बीमार की निंदा थोड़े ही एकटक साधु से बंधे रह जाते हो। जैसे किसी मणि को देखकर करनी है। चिकित्सक के पास जाओ तो बीमार का इलाज करना तुम सम्मोहित हो जाओ; फिर कहीं और देखने का मन न हो; है, निंदा थोड़ी करनी है। जो चिकित्सक निंदा करने लगे, तुम मणि की तरफ ही आंखें लगी रहें; उसी तरफ दर्शन की सारी टी. बी. की बीमारी लेकर गये, वह टी. बी. को गालियां देने धारा मुड़ जाए। लगे और तुमको गालियां देने लगे कि तुमने टी. बी. पैदा क्यों | 'पृथ्वी-सा सहिष्णु...।' कुछ भी घटे, साधु की सहिष्णुता की, छोड़ो इसको, त्याग करो इसका! छोड़ना तो तुम भी चाहते नहीं टूटती। कुछ भी हो जाए, साधु डगमगाता नहीं। तुम उसे हो, लेकिन छोड़ो कैसे? यही तो पता नहीं है। तुमने जानकर सुख में, दुख में समान पाओगे। तुम उसे सफलता, विफलता में थोड़े ही पकड़ा है। अनजाने पकड़ा है। अब किसी को बुखार समान पाओगे, सम्मान-अपमान में समान पाओगे। चढ़ा है और तुम कहो कि छोड़ो बुखार! बुखारवाला क्या | _ 'सर्प-सा अनियत-आश्रयी...।' सर्प अपना घर नहीं कहेगा? वह कहेगा, महानुभाव, छोड़ना तो मैं भी चाहता हूं, बनाता। अनियत-आश्रयी। जहां मिल गयी जगह, वहीं सो लेकिन बुखार छोड़े तब न! कोई मैं बुखार में थोड़े ही रहना लेता है। जहां मिल गयी जगह, वहीं विश्राम कर लेता है। चाहता हूं; लेकिन मुझे पता नहीं कि मैं क्या करूं, कुछ सहायता | अपना घर नहीं बनाता। यह बड़ी बारीक बात है। इससे केवल करें, औषधि लायें। इतना ही प्रयोजन नहीं है कि कोई घर में न रहे, इससे प्रयोजन यह साधु औषधि है। उसके पास जाकर शीतलता मिले, उसके है कि कोई सुरक्षा के घर न बनाये, कोई बैंक बैलेंस पर बहुत | पास जाकर आश्वासन मिले, अपराध का भाव नहीं। उसके ज्यादा भरोसा न करे। वह सब छिन जाएगा। कोई मिट्टी के घरों पास जाकर भरोसा मिले, हताशा नहीं। उसके पास जाकर में बहुत ज्यादा अपने प्राण न डाले, क्योंकि वे सब मिट जाएंगे। तुम्हारे जीवन का सूर्योदय हो; तुम्हें लगे कि माना कि बहुत | मुक्त रहे। घरों में हो, तो भी घरों का न हो। दुकानों पर हो, तो गलतियां हैं, कोई फिकिर नहीं, गलतियों से बड़ा मेरे भीतर छिपा | भी दुकानों का न हो। बाजार में खड़ा रहे, तो भी बाजार के बाहर हुआ खजाना है। गलतियां मैंने की हैं, कोई हर्जा नहीं, भूल-चूक रहे। याद बनी ही रहे कि यह जगह घर बनाने की नहीं। घर तो सबसे होती है, लेकिन मेरे भीतर छिपा हुआ परमात्मा है। साधु परमात्मा है। यहां तो हम परदेस में हैं। यहां तो यात्रा है। यहां तो के पास जाकर तुम्हारा भविष्य प्रगाढ़ हो, प्रखर हो, उज्ज्वल हो, | अगर कभी थक जाते हैं, तो रुकना है, पड़ाव पर; लेकिन पड़ाव 1331 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340138
Book TitleJinsutra Lecture 38 Dhyan ka Dip Jalalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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