Book Title: Jinsutra Lecture 16 Utho Jago Subah Karib Hai
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रवचन उठो, जागो-सुबह करीब है Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार जैसे महावीर के 'अहिंसा' शब्द का गलत अर्थ लिया गया, ऐसे ही क्या आपका 'प्रेम' शब्द खतरे से नहीं भरा है ? जो दीया तूफान से बुझ गया, उसे फिर जला के क्या करूं? जो परमात्मा घर से ही भटक गया, उसे घर वापस बुला के क्या करूं? तेरे गुस्से से भी प्यार, तेरी मार भी स्वीकार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्नः कल आपने बताया कि महावीर ने कारण कि उन प्रश्नों के उत्तर लोगों को गलत अर्थों में ले जाते हैं। प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि लोग तो बुद्ध के मरने के बाद जो सबसे बड़ा विवाद बुद्ध के उसका गलत अर्थ लेते हैं और यह कि आज | अनुयायियों में उठा, वह यह था कि बुद्ध इन प्रश्नों के संबंध में लोग अहिंसा का गलत अर्थ लेते हैं, इसलिए आप प्रेम शब्द | चुप क्यों रह गये। और बुद्ध-धर्म के जो खंड-खंड टुकड़े हए, का उपयोग करते हैं। पर जैसा लोग महावीर के समय में प्रेम वह उनके चुप रह जाने की वजह से हुए। क्योंकि किसी ने कहा शब्द का गलत अर्थ करते थे, क्या आज भी वही स्थिति नहीं कि वे चुप रह गये, क्योंकि जो उन्होंने जाना वह शब्द में प्रगट है? और आपके द्वारा सर्वाधिक उपयुक्त शब्द, प्रेम, क्या करने योग्य न था। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि वहां आज भी खतरे से भरा नहीं है? | जानने को ही कुछ नहीं है; प्रगट करने का सवाल ही नहीं है। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं चला. शब्द-मात्र खतरे से भरा है। क्योंकि जैसे ही बोला गया शब्द, तो बोलते क्या? बोलनेवाले की मालकियत उस पर समाप्त हो जाती है। चुप्पी का भी तो तुम अर्थ करोगे! तो अर्थ से तो बचा नहीं जा सुननेवाला मालिक हो जाता है। कुछ मैंने कहा, कहते ही मैं | सकता। तो उपाय क्या है? उपाय यही है कि जिसे जो शब्द मालिक नहीं रहा; सुनते ही तुम मालिक हो गये। अब तुम क्या ठीक लगे, वह उसका उपयोग करे और सब तरह से, हर दिशा अर्थ करोगे तुम पर निर्भर है। से, उस शब्द को परिभाषित करे। जितने दूर तक संभव हो तुम्हें तो जो शब्दों से डरते हों, उन्हें तो बोलने का ही उपाय नहीं है। मौका न दे कि तुम अपना अर्थ प्रवेश कर पाओ। इस तरह की क्योंकि अर्थ मैं नहीं डाल सकता; अर्थ तो तुम डालोगे। मेरा परिभाषा करे, सब तरफ से इस तरह का पहरा बिठाये शब्द पर, अर्थ तो मेरे हृदय में रह जायेगा; शब्द की खाली खोल तुम तक फिर भी अगर तुम गलत अर्थ करना चाहो तो करोगे ही। जायेगी; आत्मा फिर तुम उसमें डालोगे। तो अर्थ तो सदा लेकिन सत्य का गलत उपयोग होगा, इस डर से सत्य बोलने तुम्हारा होगा। और चूंकि तुम उपद्रव से ग्रस्त हो, तुम जो भी से नहीं रुका जा सकता। सौ में निन्यानबे लोग गलत अर्थ कर अर्थ डालोगे वह भी उपद्रव-ग्रस्त होगा। क्योंकि तुम बड़े भ्रांत लेंगे, कोई हर्ज नहीं; वह जो एक ठीक अर्थ कर लेगा, तो भी हो, तुम्हारे अर्थ भ्रांत ही होंगे। तुम गलत ही निकाल लोगे। सार्थक है बोलना। क्योंकि वे जो निन्यानबे गलत अर्थ कर रहे तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि जिन्होंने जाना है, वे चुप रह हैं, न सुनते तो भी गलत होते, कुछ बिगड़ा नहीं है। वे गलत थे, जायें। लेकिन चुप रह जाने का भी तुम अर्थ करोगे कि क्यों चुप इसलिए गलत अर्थ किया; गलत अर्थ के कारण गलत नहीं हो रह गये। बुद्ध ने बहुत-से प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये-सिर्फ इस गये हैं। इसलिए अगर उन्होंने गलत अर्थ किया तो उनकी जिंदगी 3451 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R जिन सूत्र भार | में कुछ और बिगाड़ नहीं आ जायेगा। वे बिगड़े थे, बिगड़े डालोगे, वे भी लौटेंगे...! इसलिए मैं उस खेत की ओर नजर रहेंगे। लेकिन वह जो सौ में एक भी अगर सुन लेगा, राजी होगा, करता हूं, उस खेत की तरफ, जिस पर इन पच्चीस सौ वर्षों में उठेगा, चलेगा, तो पर्याप्त है। सौ सुननेवालों में अगर एक भी | खेती नहीं हुई। जग जाये, तो सार्थक हो गया श्रम। निन्यानबे की फ्रिक करने की प्रेम शब्द का आध्यात्मिक अर्थ उपयोग नहीं किया गया है। कोई जरूरत नहीं है। | उसका उपयोग कर लेना जरूरी है। मैं यह नहीं कहता हूं कि सदा महावीर ने अहिंसा शब्द चुना, वह उनकी पसंद थी। उनकी यह सार्थक रहेगा; जल्दी ही इस खेत में से भी उपजाऊपन नष्ट पसंद के बहुत कारण हैं। एक कारण है कि प्रेम और भक्ति के हो जायेगा। तब नये-नये शब्द खोजने होंगे। वह आनेवाले नाम पर चलनेवाला संप्रदाय बिलकुल विकृत हो गया था। अब लोग चिंता करें। अगर प्रेम की ही वे बात करते तो उस संप्रदाय से पृथक, अलग नये शब्द सदा जरूरी रहते हैं, क्योंकि नये शब्दों के साथ खड़े होने की कोई सुविधा न थी। वे जिस क्रांति की बात करना | मनुष्य में नयी चेतना का संचार होता है। और कभी-कभी पराने चाहते थे, वह क्रांति पैदा न होती। उन्हीं शब्दों के उन्हीं | बहुत दिन तक उपयोग न किये गये शब्दों का पुनः उपयोग पारिभाषिक शब्दों का उपयोग करने का परिणाम यह होता, वे भी उपयोगी होता है, क्योंकि वे फिर नये हो गये होते हैं; इतने दिन पंडितों और ब्राह्मणों के उसी समुदाय में खो जाते जिसकी बड़ी | तक पड़े रहे खाली, बिना फसल बोये, फिर क्षमता को अर्जित भीड़ थी। उन्होंने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। इस तरह कर लेते हैं। तो प्रेम शब्द ने क्षमता अर्जित कर ली है। उन्होंने एक परिभाषा दी। इस तरह उन्होंने अपने को पृथक | फिर कुछ और बातें हैं। अहिंसा शब्द नकारात्मक है। उसमें किया। इस तरह भीड़ में खोने से अपने को बचाया। उपयोगी था | 'नहीं' पर जोर है। महावीर का जोर 'नहीं' पर था। मेरा जोर उनका उपयोग कर लेना अहिंसा का। | 'नहीं' पर नहीं है। मेरे लिए आस्तिकता स्वीकार में है। 'हां' लेकिन इन पच्चीस सौ सालों में अहिंसा शब्द को बड़ा मूल्य के भाव में है। 'नहीं' पर जीवन के स्तंभ नहीं रखे जा सकते। मिल गया है। उस मूल्य से फिर वैसी की वैसी स्थिति खड़ी हो | और जिसने 'नहीं' के घर में रहना शुरू किया वह सिकुड़ जाता गई है। अब अहिंसा शब्द का उपयोग करने का अर्थ है: अहिंसा | है। और जैन धर्म अगर सिकड़ गया तो उसका कोई और कारण की कतार में खड़े हए लोगों की भीड़ में खो जाना। नहीं है; 'नहीं' के घर ने मार डाला। तो जिस कारण से महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया, / बुद्ध ने भी 'नहीं' शब्दों का उपयोग शुरू किया था। पांच सौ उसी कारण से मैं अहिंसा शब्द का उपयोग नहीं कर सकता हूं। साल में बुद्ध का धर्म नष्ट हो गया और तब बौद्ध भिक्षुओं को कारण वही है। मैं प्रेम शब्द का उपयोग करना चाहूंगा। इन एक बात समझ में आ गई कि 'नहीं' शब्दों ने जान ले ली। वे पच्चीस सौ सालों में प्रेम शब्द खो गया, उपयोग में नहीं आया। जो नकारात्मक शब्द हैं—निर्वाण-नहीं हो जाना—किसकी जैसे किसी ने अपने खेत को कुछ वर्षों के लिए बंजर छोड़ दिया आकांक्षा है 'नहीं' होने की? शब्द सुनकर ही लोग चौंक जाते हो, खेती न की हो, तो जिस खेत पर बार-बार खेती की गई है, हैं। तो जब बौद्ध भिक्षु भारत के बाहर गये, बर्मा, लंका, चीन तो उसका उपजाऊपन नष्ट हो जाता है। वह जो खाली पड़ा रहा उन्होंने 'नहीं' शब्दों का त्याग कर दिया। एशिया में बुद्ध-धर्म खेत है वर्षों तक, उसने फिर उपजाऊ शक्ति को अर्जित कर फैला जब उसने 'हां' शब्दों का उपयोग किया-अकारात्मक, लिया है। तो प्रेम शब्द फिर उपयोगी हो गया है। उस शब्द में विधायक, जीवंत। बौद्ध धर्म विराट धर्म हो गया। बुद्ध के शब्द फिर प्राण डाले जा सकते हैं। | अगर पकड़े रहते तो जो दशा जैनों की हुई, वही दशा बुद्ध-धर्म पच्चीस सौ साल के अंतराल ने, इस पच्चीस सौ साल में की होती। बुद्ध की मजबूरी थी 'नहीं' शब्दों का उपयोग करने बुद्ध, महावीर और गांधी तक अहिंसा शब्द की बड़ी महिमा की; वही मजबूरी थी जो महावीर की थी। ब्राह्मण परंपरा 'हां' गायी गई है। अहिंसा शब्द पर काफी खेती हो चुकी; अब वहां शब्दों से भरी है। आस्तिक शब्दों से भरी है। इस बड़ी परंपरा से कुछ भी पैदा नहीं होता। अब तो डर यह है कि जितने बीज तुम | अगर अलग खड़े न करो तो यह परंपरा लील जायेगी। इस 1346 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो-सुबह करीब है परंपरा से अलग खड़ा होना जरूरी है। अलग खड़े होने के लिए अनुभव...! सभी को अनुभव हाथ आ जाता है। 'नहीं' शब्दों का उपयोग करना पड़ा, ताकि सीमा-रेखा साफ हो तो हिंदुओं के हिसाब से संन्यास जीवन-विरोधी न था, जीवन जाये। और जब अल्पमत में कोई होता है तो उसे बड़ी स्पष्टता से का नवनीत था। जिन्होंने जीवन को जीया, वे उस नवनीत को अपनी सीमा-रेखा बनानी पड़ती है, क्योंकि बहुमत उसे लील | उपलब्ध हुए। दूध है; उसे जमाओ, दही बनाओ, दही का मंथन जायेगा। हिंदुओं का विराट सागर था; जैनों, बौद्धों की नदी | करो, मक्खन निकालो, मक्खन को गरमाओ, घी कहीं भी खो जाती इसमें, यह ताल-तलैया कहीं भी खो जाता, | बनाओ-ऐसा संन्यास था। घी की तरह! फिर घी का तुम कुछ इसका कहीं पता भी न चलता। तो उस ताल-तलैया को बहुत भी नहीं कर सकते। सुरक्षित होकर अपनी व्यवस्था करनी पड़ी। उसने उन सारे शब्दों | तुमने कभी खयाल किया, घी के बाद कोई गति नहीं है। घी को पयोग रोक दिया, जो हिंद उपयोग करते थे। वे शब्द तम कुछ और नहीं बना सकते। दुध दही हो सकता है; दही अपने-आप में बहुमूल्य थे; लेकिन मजबूरी थी, उन शब्दों के मक्खन बन जाता है; मक्खन घी बन जाता है लेकिन अब साथ संबंध हिंदुओं का था। अगर ब्रह्म शब्द का उपयोग तुम घी को कुछ भी नहीं बना सकते। पराकाष्ठा! करो-डूबे! अगर परमात्मा शब्द का उपयोग करो-डूबे! अब अगर तुम चाहो, कि घी को पीछे भी लौटायें तो वह भी बी परंपरा थी। उस परंपरा के कारण सारे नहीं कर सकते। तुम चाहो कि अब घी का मक्खन बना लें, कि विधायक शब्द उपयोग कर लिये गये थे। हिंदुओं का वही तो मक्खन का अब दही बना लें, कि दही से अब दूध में उतर बल है। हिंदू इतने आघातों के बाद जीते रहे हैं, उसका कारण जायें-वह भी नहीं हो सकता। कहां है? उसका कारण है उनकी विधायकता में, स्वीकार में, तो हिंदुओं के लिए तो संन्यास घी की तरह था; वह आखिरी अंगीकार में। बात थी-जिससे पीछे लौटना नहीं होता, जिसके आगे जाना अगर तुम वैदिक, उपनिषद के ऋषियों का स्मरण करो तो तुम्हें नहीं है। और उस तक जिसे पहुंचना है, उसे ये सारी सीढ़ियां पार समझ में आयेगा कि अब तुम जिसे साधु और संन्यासी कहते हो, | करनी होंगी। उस हिसाब से वे साधु-संन्यासी न थे। मैं जिस हिसाब से | इस सनातन धर्म के बीच महावीर का आविर्भाव हुआ। यह संन्यासी कहता हूँ, उस हिसाब से संन्यासी थे। घर में थे, परंपरा सड़ गई थी, गल गई थी। सभी परंपराएं एक दिन सड़ गृहस्थी में थे, उनकी पत्नियां थीं, बच्चे थे, धन-दौलत थी। जाती हैं, गल जाती हैं। यह जीवन का स्वाभाविक धर्म है। जैसे बड़ा विधायक रूप था। हर जवान बूढ़ा हो जाता है, फिर हर बूढ़ा मर जाता है, फिर एक संन्यास हिंदओं के लिए गहस्थी के विपरीत नहीं था. गहस्थी दिन अस्थि लेकर हम जाकर जला आते हैं-ठीक ऐसी ही का ही आत्यंतिक फल था। ऐसा नहीं था कि घर को छोड़कर जो संस्कृतियां पैदा होती हैं, धर्म पैदा होते हैं, जवान होते हैं, बूढ़े चला गया, वह संन्यासी है; नहीं, जिसने घर पूरा कर लिया, वह होते हैं, मरते हैं। लेकिन जिस बात को हम सामान्यतया जीवन संन्यासी है। जो घर में पूरा-पूरा जी लिया और पार हो गया; में कर लेते हैं...मां मर गई तो बहुत प्रेम था, फिर भी क्या जीवन के अनुभव एक-एक सोपान की तरह चढ़ गया-वह करोगे? रोते हो, धोते हो, रोते जाते हो, अर्थी बांधते जाते संन्यासी है। संन्यास हिंदुओं के लिए जीवन का अंतिम शिखर हो-करोगे क्या? रोते जाते हो, अर्थी लेकर चल पड़ते हो। था। पहले ब्रह्मचर्य, फिर गार्हस्थ्य, फिर वानप्रस्थ, फिर रोते जाते हो, जला आते हो। इतनी हिम्मत हम धर्मों के साथ न संन्यास-ऐसी जीवन में एक क्रमबद्धता थी, एक विकास था। कर पाये कि वे भी जवान होते हैं; जब जवान होते हैं तब उनका बहुत वैज्ञानिक बात थी। पहले संसार को ठीक से अनुभव तो मजा और! जब हिंदू धर्म शिखर पर था तो उसने उपनिषद जैसे कर लो, भोग की पीड़ा तो जानो, ताकि तुम त्यागी हो सको। धन शास्त्रों को जन्म दिया, महाकाव्य पैदा हुआ! सब तरफ गीत की व्यर्थता तो जानो ताकि विराग का जन्म हो सके! इस देह की गूंज उठा हिंदू धर्म का! प्राणों में पुलक थी, उत्साह था, जवानी नश्वरता को तो पहचानो! शास्त्रों से नहीं-जीवन, थी! फिर हिंदू धर्म बूढ़ा हुआ। जब हिंदू धर्म बूढ़ा हुआ और मर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सत्र भार गया या मरने के करीब था, मरणासन्न था, तब बुद्ध और महावीर क्षत्रिय के स्वार्थ थे, ब्राह्मण का तो कोई उपाय न था कि वह जैन का आविर्भाव हुआ। अब इस मरते आदमी के साथ उनको | बने; इस बनने में कोई सार न था। अभी भी तुम देखते हो, किसी भी तरह का संबंध जोड़ना खतरनाक था। यह तो मर ही | हिंदुस्तान में जो लोग ईसाई बनते हैं, कोई बिरला, सिंघानिया, रहा था। इसके साथ संबंध जोड़ने का अर्थ था, तुम पहले से ही | साहू कोई ईसाई बनते हैं? ईसाई बनता है शद्र, गांव का गरीब, मौत से जुड़ गये। स्वभावतः उन्होंने नये शब्द खोजे। आदिवासी। जिनका निहित स्वार्थ है, वे किसलिए ईसाई तुम देखो, जैनों ने संस्कृत भाषा तक का उपयोग न किया! बनेगें? ईसाई तो वह बनता है जो हिंदू धर्म से पीड़ित है, परेशान शब्दों की तो बात अलग; उस भाषा में भी बोलने में खतरा था, है। जो हिंदू धर्म उसे नहीं दे सका है, उसका आश्वासन ईसाइयत क्योंकि भाषा के सब संबंध थे। अब अगर संस्कृत का महावीर देती है। उपयोग करते तो उपनिषदों से ऊंचा गीत और क्या गा पाते? | तो महावीर और बुद्ध दोनों ने कहा, कोई वर्ण नहीं है। लेकिन पराकाष्ठा हो गई थी। संस्कृत ने अपनी आखिरी ऊंचाई पा ली | शूद्र तो इतना दलित था कि उसे ये शब्द भी समझ में न आ सकते थी। संस्कृत ने शिखर छू लिया था; अब इसके पार जाने का | थे; उसको तो शास्त्र पढ़ने की मनाही थी। उसको तो कोई शिक्षा कोई उपाय न था। इस मंदिर पर कलश चढ़ चुका था। तो | भी न थी। इसलिए स्वभावतः ब्राह्मण आ नहीं सकता था, क्षत्रिय महावीर ने संस्कृत का उपयोग न किया। महावीर ने प्राकृत का | को आने का कोई कारण न था—उसके हाथ में तलवार और उपयोग किया। संस्कृत पंडित की भाषा थी, सुसंस्कृत की, | बल था। शूद्र समझ नहीं सकता था। और शुद्र को भीतर लाने अभिजात्य की। महावीर ने दीन की, गरीब की, लोकजन की | में खतरा भी था, क्योंकि वह वैश्य नहीं घुसने देता था शूद्र को। भाषा का उपयोग किया। क्योंकि वह छिड़कता था। उसकी भी धारणा तो हिंदू की थी। ध्यान रखना, जब भी नया धर्म आता है तो उनके द्वारा आता अगर क्षत्रिय आता तो वैश्य स्वीकार कर लेता; वह ऊपर का है, जो पुराने धर्म के कारण दलित थे, पीड़ित थे। जो पुराने धर्म था; ब्राह्मण आता तो भी स्वीकार कर लेता। शूद्र से उसे भी के कारण प्रतिष्ठित थे वे तो नये धर्म को क्यों चुनेंगे? उनका तो अड़चन थी; वह उससे भी नीचे था। इसलिए वैश्य शूद्र को पुराने धर्म के साथ बड़ा संबंध है। उनके तो बड़े स्वार्थ हैं। तो | घुसने न देगा। इसलिए जैन धर्म वैश्यों का धर्म हो गया, स्वभावतः ब्राह्मण आंदोलित होगा महावीर के विचारों से, यह तो दुकानदारों का धर्म हो गया। स्वभावतः महावीर को इनकी भाषा संभव न था। क्षत्रिय आंदोलित हो सकता था, वैश्य आंदोलित का उपयोग करना पड़ा-लोक-भाषा का। हो सकता था, शूद्र आंदोलित हो सकता था। क्षत्रिय भी बहुत बुद्ध ने भी वही किया। उन्होंने भी लोक-भाषा का उपयोग आंदोलित नहीं हुआ, क्योंकि उसके भी संबंध बहुत गहरे ब्राह्मण किया। उन्होंने पाली चुनी। क्योंकि वे प्राकृत चुनते तो महावीर से जुड़े थे। ब्राह्मण सबके ऊपर था। लेकिन वस्तुतः तो क्षत्रिय | के साथ बंध जाते। ही ऊपर था, जिसके हाथ में तलवार है। क्षत्रिय के कारण और इसे थोड़ा सोचना चाहिए। महावीर बुद्ध से कोई तीस साल आज्ञा से ब्राह्मण ऊपर रह सकता था। नाममात्र को ब्राह्मण ऊपर उम्र में बड़े थे। महावीर पहले आ गये थे। तीस साल वे काम था, वस्तुतः तो क्षत्रिय ऊपर था। तुम कितनी ही बात करो कि कर चुके थे। संतों की महिमा थी; महिमा थी, लेकिन उस महिमा को भी जब ब्राह्मण संस्कृत बोलते थे, महावीर ने प्राकृत चुनी थी; बुद्ध को तक राजा आकर चरण न छूता, कौन महिमा थी? राजा आकर दोनों उपाय न रहे थे। एक ही क्षेत्र में थे दोनों, लेकिन बुद्ध ने चरण छूता था तो संत की महिमा थी। तो संत दीवाने रहते थे कि पाली चुनी, ताकि साफ-साफ व्याख्या हो सके, भेद हो सके। कितने राजा किसके पास आते हैं। तो क्षत्रिय भी प्रतिष्ठित था। | भाषा से बड़ा भेद और किसी चीज से पैदा नहीं होता। इसलिए जैन धर्म अगर बनियों का धर्म हो गया, तो कुछ आश्चर्य तुम जानते हो, जब कोई आदमी तुम्हारी भाषा नहीं समझता, नहीं है। वैश्य सर्वाधिक प्रभावित हुए। शूद्र बहुत कम प्रभावित तो तुम अजनबी हो गये, एकदम अजनबी हो गये। पास-पास हुए, क्योंकि प्रभावित होने की भी थोड़ी समझ तो चाहिए। बैठे हो और हजारों मील का फासला हो गया। क्योंकि आदमी 348 ain Education International Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो--सुबह करीब है। जीता है भाषा से, जुड़ता है भाषा से। फिर भी उसकी प्रेयसी उसे परमात्मा मानने लगती है। तो अगर संस्कृत का त्याग करने का परिणाम यह हुआ कि जैन हिंदू धर्म | प्रेम शब्द का बहुत उपयोग करो तो परमात्मा को इनकार न कर से बिलकुल साफ अलग टूट गये। पाली का प्रयोग करने के सकोगे। क्योंकि प्रेम शब्द का इशारा ही और की तरफ है। प्रेम कारण बौद्ध जैनों से भी टूट गये, ब्राह्मणों से भी टूट गये। तीर है, निशाना कहीं और है : निकलेगा तुम्हारे हृदय से, लगेगा दोनों ने वर्गों का विरोध किया, तो ही तो वे आकर्षित कर सके किसी और हृदय में। वैश्य को। यद्यपि वैश्य आकर्षित हो गया, लेकिन बड़े मजे की तो प्रेम तो खतरनाक है—ध्यान। प्रेम तो खतरनाक बातें हैं, दुनिया में संस्कार बड़ी मुश्किल से जाते हैं। अभी भी है-अहिंसा। प्रेम तो खतरनाक है, क्योंकि प्रेम के साथ जैन मंदिर में शूद्र को प्रवेश नहीं है। और महावीर कहते हैं, न परमात्मा आता है और परमात्मा के साथ हिंदुओं की पूरी कोई शूद्र है, न कोई ब्राह्मण है, न कोई वैश्य है, न कोई क्षत्रिय जीवन-चिंतना जुड़ी है। इसलिए महावीर को परमात्मा भी है। उनकी सारी क्रांति वर्ण-विरोधी है। लेकिन फिर भी वर्ण | इनकार कर देना पड़ा, प्रेम भी इनकार कर देना पड़ा, प्रार्थना भी जाता नहीं। इनकार कर देनी पड़ी, पूजा, अर्चना, धूप-दीप सब इनकार कर तुमने देखा, अगर कोई ब्राह्मण ईसाई हो जाये, तो वह ईसाई देना पड़ा। सब भांति व्यक्ति अपने में भीतर चला जाये, बाहर होकर भी ब्राह्मण रहता है। ईसाइयों को मैं जानता हूं। उनमें कोई जाये ही नहीं। परमात्मा भी बहिर्यात्रा है। इस कारण महावीर ने अगर ब्राह्मण के वर्ग से ईसाई हुआ है और कोई अगर शूद्र के वर्ग | अहिंसा शब्द का उपयोग किया। से ईसाई हुआ है, तो वह जो ब्राह्मण ईसाई है, शूद्र ईसाई से ऊपर लेकिन अहिंसा बहुत कमजोर शब्द है; प्रेम के सामने टिकता रहता है। ब्राह्मण ईसाई शूद्र ईसाई से विवाह नहीं करता। नहीं, बहुत लंगड़ा है। उनकी जरूरत थी। उनकी मजबूरी थी। संस्कार बड़े गहरे बैठ जाते हैं! लेकिन प्रेम के पास पैर हैं। तो जब महावीर ने वर्णों की व्यवस्था तोड़ दी, तो उन्होंने तुम जरा किसी स्त्री से कहो कि मेरा तुझसे अहिंसा का संबंध आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी; क्योंकि वह वर्णाश्रम एक ही हो गया है, तब तुम्हें पता चलेगा! वह दुबारा तुम्हारी शकल न प्रत्यय था—चार वर्ण, चार आश्रम। जब महावीर ने वर्ण की देखेगी। किसी स्त्री से अहिंसा का संबंध! उसका मतलब इतना व्यवस्था तोड़ी तो उन्होंने आश्रम की भी व्यवस्था तोड़ दी। यह हुआ कि हम तुम्हें मारेंगे भी नहीं, कष्ट भी न देंगे। खतम, संबंध तोड़ना जरूरी था, नहीं तो हिंदू ढांचा पकड़े रहता; उससे छूटना पूरा हो गया! दोगे क्या? यह तो न देने की बात हुई। दुख न मुश्किल था। जब तुम किसी एक सागर में पैदा होते हो तो तुम्हें दोगे, समझ में आया। मारोगे नहीं, यह भी समझ में आया। अपना द्वीप बनाना पड़ता है। तो उन्होंने कहा कि न कोई ब्रह्मचर्य | लेकिन इतने पर कोई संबंध निर्भर होते हैं? का सवाल है, न कोई गृहस्थ का सवाल है, न कोई वानप्रस्थ अहिंसा संबंध तोड़ने की व्यवस्था है, जोड़ने की नहीं। का, न कोई संन्यस्त का; और जब तुम संन्यस्त होना चाहते हो | इसलिए महावीर का अनुयायी टूट जाता है, सबसे टूट जाता है। तभी हो सकते हो। इस तरह उन्होंने दोनों ही व्यवस्थाएं तोड़ दीं। अहिंसा जोड़ ही नहीं सकती। अहिंसा में कोई सीमेंट नहीं है। फिर उन्होंने नये शब्द खोजे, नयी भाषा खोजी।। अहिंसा में योग नहीं है। प्रेम शब्द बहुत खतरनाक है। क्यों? क्योंकि प्रेम के साथ ही अब तुम चकित होओगे, महावीर ने योग शब्द का उपयोग तत्क्षण परमात्मा प्रवेश करता है। तुमने कभी देखा, एक नहीं किया। और भी तुम हैरान होओगे कि महावीर ने 'अयोग' साधारण स्त्री को भी तुम प्रेम करने लगो तो उसमें देवी का शब्द का उपयोग किया है। जुड़ना नहीं है, टूटना है, अयोग। तो आविर्भाव हो जाता है। एक स्त्री एक साधारण-से पुरुष के प्रेम | जब महावीर का ज्ञानी परम अवस्था को उपलब्ध होता है तो में पड़ जाये तो उसे परमात्मा मानने लगती है। जहां प्रेम आता है, उसको वे कहते हैं, 'अयोगी, केवली'। जो सब तरह से सबसे वहां पीछे से परमात्मा आ जाता है। साधारण जीवन में, जहां कि टूटकर अकेला हो गया : अयोगी, केवली। योग पाप है, क्योंकि तुम भलीभांति जानते हो कि यह आदमी परमात्मा नहीं है, लेकिन योग में तो बात ही जुड़ने की है। जुड़ना तो है ही नहीं, क्योंकि 3491 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 जुड़ना ही तो संसार है। संसार से टूट जाने में असली बात है। निकले। तो नोह ने अपनी पत्नी से पूछा, 'यह मामला क्या है? तो अहिंसा से संबंध तोड़ा जा सकता है, जोड़ा तो नहीं जा मैंने पहले कहा था कि दो-दो लेना, एक-एक लेना।' उसने सकता। अहिंसा सिकोड़ सकती है, फैला तो नहीं सकती। कहा, 'लिये तो इतने ही थे, मगर इतने हो गए सात दिन में।' / अहिंसा तुम्हें अपने में बंद कर देगी, खोलेगी तो नहीं। अहिंसा में एक जोड़ा काफी है। उतने बचाने से सारी प्रकृति, सारी पृथ्वी कोई द्वार-दरवाजे नहीं हैं, दीवाल है। इसलिए जितने तुम | बच गई। अहिंसा जैसे शब्दों से भरोगे, उतने ही तुम पाते जाओगे कि तुम | जीवन का स्वभाव फैलाव है। प्रेम में फैलाव है; अहिंसा में सूखने लगे, तुम्हारे पत्ते कुम्हलाने लगे, शाखाएं गिरने लगीं, तुम सिकुड़ाव है। इसलिए मैं तो प्रेम शब्द को ही पसंद करता हूं। सिकुड़ने लगे, तुम लौटने लगे। तुम्हारा फैलाव खो गया। अहिंसा प्रेम का एक छोटा-सा अंग है। जिससे हम प्रेम करते हैं, तुम्हारे जीवन का अभियान खो गया। उसे हम दुख नहीं देना चाहते—यह बात ही साफ है। जिससे तो अगर जैन सिकुड़ गये तो कुछ आकस्मिक नहीं है। फैलने हमारा प्रेम का संबंध है, उससे हमारा अहिंसा का संबंध तो हो ही का उपाय न था। गया। लेकिन जिससे हमारा अहिंसा का संबंध है, उससे प्रेम का नकार को कभी जीवन की व्यवस्था मत बनाना, क्योंकि जीवन | संबंध हो गया—यह जरूरी नहीं है। प्रेम अहिंसा से बड़ी बात का स्वभाव फैलाव है। यहां सब चीजें फैलती हैं। एक छोटे से है। जिससे हम प्रेम करते हैं, उसे हम कैसे दुख पहुंचायेंगे? उसे बीज को डाल दो, एक बड़ा वृक्ष हो जाता है। उस वृक्ष में फिर दुख पहुंचाकर तो अपने को ही दुख पहुंच जाता है। भूल-चूक से करोड़ों बीज लग जाते हैं। एक बीज करोड़ बीज हो जाता है। अगर पहुंच भी जाता हो, तो भी हम क्षमा-याची होते हैं, सुधार करोड बीजों को फैला दो, परी पथ्वी वक्षों से भर जायेगी। एक | की कोशिश करते हैं। अहिंसा अपने से सध आती है: जहां प्रेम बीज से यह पूरी पृथ्वी हरी हो सकती है। आया, अहिंसा पीछे से अपने आप आ जाती है। तुम जरा देखो तो जीवन का ढंग। ईसाई कहते हैं, अदम और तो मैं तो कहता हूं, प्रेम को बढ़ाओ। वह व्यक्तियों पर सीमित हव्वा, एक जोड़ा भगवान ने पैदा किया था, फिर उससे ये सारे न रहे; फैलता जाये, वृक्षों, पशु-पक्षियों को भी घेर ले। चार अरब मनुष्य पैदा हुए। बस एक जोड़ा काफी था। और जब मैं कहता हूं, परमात्मा को प्रेम करो, तो मेरा इतना ही यहूदियों की कथा है कि परमात्मा बहुत नाराज हो गया था एक अर्थ है कि यह जो दिखाई पड़ रहा है-दृश्य-इसको इतना बार। लोग भ्रष्ट हो गये थे। तो उसने सारी पृथ्वी को महाप्रलय | प्रेम करो कि इस सभी में तुम्हें अदृश्य की प्रतीति होने लगे। में डुबा दिया। लेकिन एक भक्त था उसका : नोह। उसने नोह से | पत्ते-पत्ते में वह दिखाई पड़ने लगे। कहा कि तुझे हम बचा लेंगे। लेकिन नोह ने प्रार्थना की कि माना अहिंसा अपने से आ जायेगी। अहिंसा के लिए अलग से कि लोग बुरे हैं, गलत हो गये हैं; लेकिन इतने नाराज न हों, कुछ शास्त्र बनाने की कोई जरूरत नहीं है। तो बचा लें, बीज तो बचा लें। तो परमात्मा ने कहा, 'अच्छा! तू माना कि प्रेम शब्द के अब भी गलत अर्थ लिये जायेंगे, लेकिन एक-एक पशुओं का एक-एक जोड़ा अपनी नाव में रख लेना। फिर भी मैं मानता हूं कि प्रेम ज्यादा जीवंत शब्द है। गलत भी वह नाव भर बचेगी।' बस एक जोड़ा काफी था। लेकिन बड़ी अर्थ लिये जायेंगे, तो भी चुनने योग्य है। गलत अर्थ तो अहिंसा मधुर कहानी है। नोह और उसकी पत्नी दरवाजे पर खड़े हो गये के भी लिये गये। और शब्द नकारात्मक था, मुर्दा था तो और नाव में, उन्होंने कहा, आ जाओ एक-एक जोड़ा। तो हाथी गलत अर्थ मुर्दे पर इकट्ठे हुए। बड़ी सड़ांध पैदा हो गई। जीवंत आया, ऊंट आये, घोड़े आये, गधे आये-सब आये। फिर कोई शब्द हो तो थोड़ा-बहुत गलत अर्थ लेने में बाधा डालेगा, जब प्रलय समाप्त हो गया, सात दिन के बाद सारी पृथ्वी डूब | इनकार करेगा। एक पत्थर पड़ा हो, उसको तुम छैनी उठाकर गई, सिर्फ नोह की नाव बची। फिर पृथ्वी उभरी, फिर किनारे | काटने लगो, तो वह कुछ बाधा न डालेगा। एक जिंदा बच्चा हो नाव लगी। फिर वे दोनों दरवाजे पर खड़े हो गये, फिर एक-एक | तो उछलेगा-कूदेगा, चीखेगा-चिल्लायेगा। मोहल्ले-पड़ोस के को निकाला। लेकिन वे बड़े हैरान हुए, चूहे कोई दस-पच्चीस लोगों को इकट्ठा कर लेगा अगर छैनी उठाओगे उसके ऊपर। 350/ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BIHARI उठो, जागो—सुबह करीब है उठा, जागा-सुबह करीब है - प्रेम जीवंत है। अगर तुम उसे बदलोगे तो इतनी आसानी से न | स्थिति तो करीब-करीब आज भी वही है। प्रेम शब्द गलत बदल पाओगे; शोरगुल मचायेगा। अहिंसा बिलकुल मुर्दा है। समझा जायेगा। लेकिन मेरे साथ भेद है। मैं कोई नया धर्म खड़ा तुम उसे बना लेना, अपने रंग-ढंग में रंग-लेप कर लेना। करने में उत्सुक नहीं हूं। नयी भाषा खड़ी करने में उत्सुक नहीं हूं। अहिंसा के शब्द से आवाज भी न निकलेगी। तुम जो भी बना नया शास्त्र निर्मित करने में उत्सुक नहीं हूं। शास्त्र तो बहुत हैं। लोगे, वही बन जायेगी। धर्म भी बहुत हैं। भाषाएं भी बहुत हैं। अब तो हमें कुछ खोज नकार हमेशा ही सावधान होने योग्य है। अभाव है नकार। करनी चाहिए कि सभी धर्मों के भीतर जो सार है, वह हमारी अभाव पर इतना जोर मत देना; क्योंकि अभाव से तुम धीरे-धीरे पकड़ में आ जाये। तो मैं यह नहीं...मेरी चेष्टा वही नहीं है जो रसहीन हो जाओगे। अभाव को देखते-देखते तुम भी धीरे-धीरे महावीर की थी। तो महावीर हिंदू से डरे थे; मैं डरा हुआ नहीं बुझ जाओगे। | हूं। बुद्ध, महावीर से भी डरे हुए थे; मैं डरा हुआ नहीं हूं। मैं न महावीर की मजबूरी थी, उन्होंने चुना; लेकिन उनकी मजबूरी | ईसाई से डरा हुआ हूं, न मुसलमान से डरा हुआ हूं, न हिंदू से, न से मैं बंधा हुआ नहीं हूं। उन्होंने ठीक माना होगा। उनकी | जैन से, न बौद्ध से—किसी से डरे होने का कोई कारण नहीं है। परिस्थिति में जो उन्हें ठीक लगा होगा, किया होगा। लेकिन हां, अगर मुझे कोई नया धर्म स्थापित करना हो तो भय आ उनकी परिस्थिति मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है। यही तो मुझे जायेगा। क्योंकि फिर मुझे खयाल रखना पड़ेगा। सारे बाजार सुविधा है। मेरे ऊपर किसी का बंधन नहीं है। अगर जैन का खयाल रखना पड़ेगा। मेरी चीज कुछ नयी होनी चाहिए, महावीर पर बोलेगा तो उसको अड़चन होगी। वह हिम्मत नहीं | पृथक होनी चाहिए; उसमें गंध, रंग अलग होना चाहिए, जुटा पाता। उसको महावीर का बंधन मानकर चलना पड़ता है। ट्रेडमार्का अलग होना चाहिए, तो ही टिक पायेगी बाजार में, जो महावीर ने कहा, वह हर हालत में ठीक होना ही चाहिए। उस अन्यथा खो जायेगी। दिन के लिए भी ठीक होना चाहिए, आज भी ठीक होना चाहिए। मेरी तो चेष्टा बड़ी भिन्न है। मेरी चेष्टा यह है कि जो अब तक मैं कहता हूं, उस दिन जरूर ठीक रहा होगा; क्योंकि महावीर | जाना गया है और काफी जान लिया गया है-अब उस जैसा बुद्धिशाली व्यक्ति, जब इस शब्द को चुना था तो बहुत | जानने का सार-निचोड़ लोगों को मिलना शुरू हो जाये। सोचकर चुना होगा। लेकिन महावीर कोई सदा के लिए आदमी धर्मों का कोई भविष्य नहीं है। धर्म गये, अतीत की बात हो को बांध नहीं गये। कौन बांध जाता है? कौन बांध सकता है? गये। जैसे विज्ञान एक है, ऐसा ही भविष्य में कभी धर्म भी एक मेरे लिए कोई मजबूरी नहीं है। इसलिए मैं पतंजलि पर भी होगा। हिंदू नहीं होगा, मुसलमान नहीं होगा, ईसाई नहीं होगा। बोलता हूं, तो भी मेरी कोई मजबूरी नहीं है। कोई बंधन नहीं है। इन सबने अपनी-अपनी धाराएं धर्म के सागर में डाल दीं। अब कोई ऐसा नहीं है कि पतंजलि ने जो कहा है, वह ठीक ही कहा | सागर को हम गंगा थोड़े ही कहते हैं, यमुना थोड़े ही कहते है। आज के लिए तो मैं फिक्र नहीं करता। आज के लिए तो मैं हैं-कोई जरूरत नहीं कहने की। सागर यमुना से भी बड़ा है, जो कहूंगा, मैं मानता है, ज्यादा ठीक है। उन्होंने अपने समय के गंगा से भी बड़ा है, ब्रह्मपुत्र से भी बड़ा है-हजारों नदियों को लिए कहा होगा। जैसे वे अपने समय के लिए कहने के हकदार लील जाता है; इंचभर ऊपर नहीं उठता। हजारों नदियां बादलों थे, वैसे अपने समय के लिए कहने के लिए मैं हकदार हूं। में उड़ जाती हैं; इंचभर नीचे नहीं गिरता। अब धर्म का सागर निश्चित ही, मैं यह नहीं कहता कि मैं जो कह रहा हूं, वह बनना चाहिए; ताल, सरोवर बहुत हो चुके। अब उन्होंने काफी सदा-सदा सही रहेगा; कभी न कभी सड़ जायेगा, मरेगा। तब बोध की सामग्री इकट्ठी कर दी है। अब कोई जरूरत नहीं है कि कोई न कोई उसे बदलेगा-बदलना ही चाहिए। इस जगत में हिंदू मुसलमान से लड़े, कि जैन हिंदू से लड़े। अब तो जरूरत है कोई भी व्यक्ति सभी के लिए सदा के लिए निर्णायक नहीं हो कि जैन, हिंदू और मुसलमान और ईसाई और सिक्ख के बीच जो सकता; नहीं तो मनुष्य की स्वतंत्रता, महिमा मर जायेगी। | सारभूत है, वह प्रगट हो जाये; ताकि धर्म का विज्ञान बने। गुनो, सुनो, समझो, लेकिन कभी भी अंधी लकीरें मत पीटो। अब विज्ञान विज्ञान है; न ईसाई है, न हिंदू है, न मुसलमान 351 www.jainelibran.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग शा है। कोई ईसाई भी अगर वैज्ञानिक सत्य खोजता है तो उस सत्य | जाओ, फिर कोई बात नहीं। खाट से, अब खाट से बचोगे तब को हम ईसाई तो नहीं कहते। आइंस्टीन ने रिलेटिविटी का तो फिर जीना ही मुश्किल हो जायेगा। सिद्धांत खोजा, सापेक्षता का सिद्धांत खोजा। इसको हम ईसाई | ईरान में कहावत है, जमीन पर सोनेवाला खाट से कभी नहीं तो नहीं कहते, यहूदी तो नहीं कहते, मुसलमान तो नहीं कहते। गिरता। बिलकुल ठीक है। जब जमीन पर ही सो रहे हैं तो खाट मुसलमान खोजे तो भी वह विज्ञान, हिंदू खोजे तो भी विज्ञान, से गिरोगे कैसे? लेकिन ऐसे कहां तक बचते रहोगे? फिर यहूदी खोजे तो भी विज्ञान। तो धर्म के संबंध में भी, कोई भी | जीओगे कैसे? फिर यह जीना तो एक पलायन हो जायेगा। यहां खोजे, वह उस एक ही परम सत्य की तरफ इशारे हैं। अंगुलियों | तो हर चीज में खतरा है। यहां प्रेम करो, खतरा है। यहां घर से को छोड़ो अब, अब चांद को देखो! | बाहर निकलो, खतरा है। यहां सांस लो, खतरा है। इन्फैक्शन। मेरी चेष्टा है कि तुम्हें अंगुलियों से छड़ाऊं और चांद को | यहां पानी पीयो, खतरा है। यहां भोजन करो, खतरा है। यहां दिखाऊं, क्योंकि सभी अंगुलियां उसी चांद की तरफ बता रही | खतरा ही खतरा है। यहां तो मरे हए ही खतरे के बाहर हैं। हैं। हां, किसी अंगुली पर हीरे जड़ा हुआ शृंगार है; कोई अंगुली | देखा तुमने, मरा हुआ आदमी बिलकुल खतरे के बाहर है। काली-कलूटी है; कोई दुर्बल है; कोई बड़ी सुंदर है, युवा है | पहली तो बात, अब मर नहीं सकता। कोई बीमारी नहीं लग कोई बूढ़ी है; कोई अति प्राचीन है; कोई अभी छोटे बच्चे की सकती, छूत की बीमारी नहीं लग सकती। दूसरे इससे बचते हैं, तरह है, नये-नये पल्लव की भांति-मगर ये सारी अंगुलियां | यह किसी से नहीं बचता। तो जिन लोगों ने भी खतरे, खतरे, जिस चांद की तरफ उठी हैं, वह एक है। हमने अंगुलियों पर | खतरे को सोचा है, हिसाब रखा है, वे धीरे-धीरे मर गये। इस अब तक बहुत ध्यान दिया, अब अंगुलियों को छोड़ें और चांद | देश के मुर्दा हो जाने में बड़ा हाथ है-इस धारणा का, कि इसमें पर ध्यान दें। इशारा समझें। खतरा है, इसमें खतरा है। तो सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते तो मैं तो प्रेम शब्द का उपयोग जारी रखेंगा। खतरा तो है, जाओ-जाओगे कहां? लेकिन खतरे से क्या घबड़ाना? खतरे से घबड़ा-घबड़ाकर ही मैंने सुना है, पुराने गांव की एक कहानी है कि गांव का जो तो आदमी नपुंसक हो गया है। हर जगह खतरे से बच रहे हैं। मालगुजार था, उससे मिलने एक ब्राह्मण आया। तो जब ब्राह्मण धीरे-धीरे तुम पाओगे, जिंदगी से भी बच गये; क्योंकि जिंदगी आये तो मालगुजार को नीचे बैठना चाहिए। मालगुजार अपने स्वयं खतरा है। जो प्रेम से बचेगा, आज नहीं कल जिंदगी से भी तखत पर बैठा था। ब्राह्मण आया तो मालगजार, वह नीचे बचेगा। जिंदगी में भी खतरा है। मौत तो जिंदगी में ही घटेगी। ब्राह्मण बैठने लगा। मालगुजार ने कहा, 'यह ठीक नहीं है, कभी तुमने सोचा...? नियम के विपरीत है। तुम ऊपर बैठो, मैं नीचे बैठता हूं।' उस मेरी बूढ़ी नानी थी। वह सदा डरती थी कि मैं हवाई जहाज में न ब्राह्मण ने कहा, 'लेकिन इसमें बड़ी झंझट आयेगी।' जिद्दी था जाऊं। जब भी मैं घर से निकलता, तब वह कहती, ‘एक बात मालगुजार भी। उस ब्राह्मण ने कहा, 'ऐसा कहां तक करोगे? खयाल रखना-हवाई जहाज में कभी नहीं।' क्योंकि अगर मैं नीचे बैलूंगा, तुम क्या करोगे फिर?' उसने मैंने उसको कहा कि तू डरती क्यों है हवाई जहाज से? उसने | | कहा, 'मैं गड्डा खोदकर उसमें नीचे बैठ जाऊंगा।' उसने कहा, कहा कि अखबार में खबर आती है कि गिर गया, लोग मर गये। | 'अगर मैं गड्ढे में आ गया, फिर? उसने कहा, 'मैं और गड्डा मैंने कहा, 'तुझे पता है, निन्यानबे प्रतिशत लोग तो खाट पर नीचे खोद लूंगा।' उस ब्राह्मण ने कहा, 'मैंने अगर और गड्डा मरते हैं? तो क्या खाट पर सोना बंद कर दूं, बोल?' उसने खोद लिया तो?' उस मालगुजार ने कहा, 'फिर गड्डे को पूर के कहा, यह बात तो ठीक है। उसको भी जंची बात। उसने कहा, मैं घर चला जाऊंगा। फिर क्या करूंगा? तुम मेरे पीछे ही लगे यह बात तो ठीक है। मरते तो खाट पर ही हैं निन्यानबे प्रतिशत रहोगे, तो तुमको गड्ढे में पूर के, मैं घर चला जाऊंगा।' लोग। तो अगर दुर्घटना कोई बचानी है तो खाट बचानी है। ऐसे कहां तक भागते रहोगे? कहीं तो भय को गड्ढे में दबाना कभी-कभार कोई मरता है हवाई जहाज में। उसने कहा, फिर पड़ेगा। कहीं तो उसको पूरना पड़ेगा। 352 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो-सुबह करीब है यह मुझे पता है कि प्रेम खतरनाक शब्द है। सभी जीवंत शब्द | है? कि तुम हीरे से बचोगे? हीरे का काम किसी का सिर तोड़ खतरनाक होते हैं। डालना नहीं है। यह तो छोटे-मोटे पत्थर से भी हो सकता था। अहिंसा क्लीनिकल है। अहिंसा बिलकुल अस्पताल में धोया, | मनुष्य ने प्रेम का, प्रेम-ऊर्जा का बड़ा निम्नतम उपयोग किया पोंछा, साफ-सुथरा शब्द है। उसमें रोगाणु हैं ही नहीं। जीवाणु है, क्षुद्रतम उपयोग किया है। वह उपयोग है-और संतति को ही नहीं हैं तो रोगाणु कहां से होंगे? वह बड़ा डाक्टरी शब्द है। पैदा करना। प्रेम का जो परम उपयोग है, वह स्वयं को जन्म देना उसमें काफी औषधियां छिड़की गई हैं। पर वह पीने योग्य भी है। प्रेम का जो साधारण उपयोग है, वह दूसरे को जन्म देना है। नहीं रहा, जैसा बहुत पोटेशियम डाल दिया हो पानी में। प्रेम की जो आखिरी पराकाष्ठा है, वह अपने को जन्म देना प्रेम बड़ा जीवंत शब्द है—होना ही चाहिए; क्योंकि सारा है-आत्म-जन्म। प्रेम की जो आखिरी पराकाष्ठा है, वह बाहर जगत प्रेम से जीता है। तुम जन्मे हो प्रेम से। तुम जीओगे प्रेम | दिखाई पड़नेवाली देहें, शरीर, रूप, रंग, इन पर ही समाप्त नहीं में। और काश, तुम मर भी सको प्रेम में, तो धन्यभागी हो! हो जाती। रंग में जो छिपा है, रूप में जो छिपा है, दृश्य में जो जन्मते सभी हैं, जीते बहुत कम हैं; मरते तो कभी-कभी कोई हैं। छिपा है, जब वह दिखाई पड़ने लगे, तब तुम समझना कि तुमने जन्मते सभी प्रेम में हैं। प्रेम का पूरा उपयोग किया। इसलिए प्रेम की प्रबल आकांक्षा जीवन में होती है—प्रेम तुम्हारे पास रोशनी है, लेकिन रोशनी से अगर तुम जिंदगी की मिले, प्रेम बंटे, प्रेम दिया जाये, प्रेम लिया जाये। जीवन का गंदगी ही देखते फिरो तो रोशनी का कोई कसूर नहीं है। यह सारा आदान-प्रदान प्रेम के सिक्कों का है। प्रेम से मत भागना; रोशनी तुम्हें जिंदगी का परम रूप भी दिखा सकती थी। क्योंकि जो प्रेम से भागा, वह जीवन से भागा, और जो जीवन से है तेरा हुस्न जब से मेरा मरकजे-निगाह भागा वह परमात्मा के मंदिर को कभी भी खोज न पायेगा। हर शै है एतबारे-नजर से गिरी हुई। मछली की तरह तड़पायेगा अहसास तुझे पायाबी का और एक बार उसका रूप तुम्हें थोड़ा दिखाई पड़ने लगे, थोड़ी जीना है तो अपने दरिया में इमकाने-तलातुम रहने दे। उसकी झलक आने लगे, उसके हुस्न की, उसके सौंदर्य की; -घबड़ा मत तूफानों से। अगर जीना है... फूलों में से कभी तुम्हें उसकी आंख भी झांकती दिखाई पड़ने जीना है तो अपने दरिया में इमकाने-तलातुम रहने दे लगे; सागर की लहरों में कभी तुम्हें उसकी भी लहर का अनुभव -रहने दे आंधियों, तूफानों की संभावना। अगर आंधी और | हो जाये... तूफान की सारी संभावना काट दी, तो दरिया दरिया न रह है तेरा हुस्न जब से मेरा मरकजे-निगाह! जायेगा, छिछला हो जायेगा। तुम्हारी आंख में जरा उसके सौंदर्य की छाया बनने लगे, / मछली की तरह तड़पायेगा अहसास तुझे पायाबी का-फिर प्रतिबिंब, परछाई पड़ने लगे... उथला पानी तुझे मछली की तरह तड़पायेगा। तूफान रहने दो; | हर शै है एतबारे-नजर से गिरी हुई! क्योंकि तूफानों से टक्कर लेकर ही जीवन निखरता है। तूफानों में उसी दिन से सब चीजें मूल्य खो देंगी। उसी दिन से तुम धन, से गुजरकर ही जीवन का निखार आता है। पद, प्रतिष्ठा, देह, वस्तुएं, इन सब का मूल्य गिर जायेगा। प्रेम को मैं धर्म कहता हूं। लेकिन कठिन है, क्योंकि तुमने प्रेम महावीर कहते हैं, इन सब का मूल्य गिरा दो तो सत्य तुम्हें को केवल वासना की तरह जाना है। इसलिए तुम्हारे डर को मैं | उपलब्ध हो जायेगा; मैं तुमसे कहता हूं कि तुम परमात्मा का समझता हूं। तुम घबड़ाये हो! प्रेम? प्रेम से तो तुमने केवल थोड़ा इशारा खोजने लगो, थोड़ा उसका हुस्न तुम्हारी आंख में वासना जानी है। प्रेम से तो तुमने अपने बहुत निम्नतम रूप का | उतरने लगे, थोड़ा उसका नशा तम्हें मदमस्त करने लगे तो चीजें ही संबंध जोड़ा है। यह तुम्हारी भूल है, इसमें प्रेम का कोई कसूर अपने-आप छूट जायेंगी। नहीं। अब किसी आदमी के हाथ में हीरा हो और वह उसको और ये दो ही रास्ते हैं : या तो चीजें छोड़ो, तो सत्य का दर्शन किसी के सिर में मारकर सिर तोड़ डाले तो इसमें हीरे का कसूर होता है; या सत्य का दर्शन शुरू करो, तो चीजें छूट जाती हैं। 353 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 15 अब मैं तुमसे कहता हूं कि पहला मार्ग बड़ा खतरनाक है। चीजें को रास आता है, जो उनके शास्त्र के अनुकूल पड़ता है, वही छोड़ो, पक्का नहीं है कि चीजें छूटने से उसका दर्शन हो जायेगा; बोलना पड़ता है। जब मेरे पास कभी आ जाते हैं, क्योंकि अब कहीं ऐसा न हो कि चीजें छूटने से तुम केवल सिकुड़कर रह तो उनके अनुयायी भी आने नहीं देते; पहले आ जाते थे, तो वे जाओ और दर्शन की क्षमता भी खो जाये। ऐसा ही हुआ है। मुझसे कहते थे, अकेले में बात करनी है। अपने अनुयायियों को कभी कोई एक-आध महावीर अपवाद हो जाते हैं, बात अलग। बाहर कर देते। अकेले में क्यों करनी है? वे कहते कि आप नियम नहीं हैं वे। अधिक लोगों को तो मैं यही देखता हूं कि चीजें इनको तो बाहर जाने दें, इनके सामने सच न कहा जा सकेगा। छोड़-छोड़कर उनको कुछ मिला नहीं है; कुछ छूटा जरूर, मिला अकेले में उनके प्रश्न बुनियादी रूप से तीन मैंने पाये। एक, कि कुछ भी नहीं है। मिलने से तो वे भयभीत हो गये हैं, डरते हैं। मैं उन्होंने छोड़ दिया सब, लेकिन भीतर से रस नहीं गया है। दूसरा, तो तुमसे कहूंगा छोड़ना मत, जब तक कि श्रेष्ठ का अनुभव न हो | जो-जो वासनायें उन्होंने दबा ली हैं, जैसे-जैसे देह कमजोर होती जाये। श्रेष्ठ को पहले उतरने दो; आने दो रोशनी को, फिर | जाती है, वे वासनाएं प्रबल होकर उभर रही हैं। पैंतालीस साल अंधेरा जायेगा। के बाद पता चलना शुरू होता है, जो-जो दबा लिया, वह तम खेल रहे थे कंकड़-पत्थर से, फिर कोई हीरे दे गया था; मुश्किल में डालता है। क्योंकि दबाने की ताकत कमजोर हो कंकड़-पत्थर छुट जायेंगे। हीरे जब सामने हों तो मुट्ठियां कौन जाती है। दबानेवाला दीन होने लगता है, क्षीण होने लगता है। कंकड़-पत्थरों से भरेगा! और जो वासना दबाई है, अंगार की तरह वह ताजी रहती है। लेकिन जरूरी नहीं है कि तुम कंकड़-पत्थर छोड़ दो तो कोई | और तीसरी बात, एक संदेह कि हमने जो किया है, वह ठीक आकर हीरों से तुम्हारी मुट्ठियां भर दे। किया? यह उचित हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो संसार में अकसर तो मैं देखा हूं, जैन मुनि जब मेरे पास कभी आते हैं, तो है वही ठीक हो? उनकी बात सुनकर बड़ी व्यथा होती है। अब यह बड़ी दयनीय दशा है। यह तुमसे ज्यादा दयनीय दशा तो वे यही कहते हैं कि हमने छोड़ तो सब दिया, लेकिन पाया | है। यह तुमसे ज्यादा मुश्किल और उलझन की दशा है। तुम्हारे तो कुछ भी नहीं। जिंदगी हो गई छोड़ने में, अब मौत करीब आने पास कुछ तो है—संसार ही सही; ये हाथ बिलकुल खाली हो लगी। अब तो हाथ-पैर भी कंपने लगे। अब डर भी समाने गये। इन खाली हाथों की दीनता देखो लगा। अब लौटकर भी उस संसार में नहीं जा सकते जिसको मैं तुम्हें दीन नहीं बनाना चाहता। मैं कहता हूं, तुम परमात्मा छोड़ आये। अब थूककर चाटना ठीक भी नहीं मालूम होता।' को खोजो। वह जैसे-जैसे मिलता जायेगा, वैसे-वैसे संसार और समय भी न रहा, शक्ति भी न रही। लेकिन भीतर एक तिरोहित होता जायेगा। जैसे-जैसे तुम्हारे हाथ भरने लगेंगे संदेह उठता है। न मालूम कितने जैन मुनियों ने मुझसे कहा है कि उससे, वैसे-वैसे तुम पाओगे संसार से हाथ हटने लगे। हटाना भीतर एक संदेह उठता है कि हमने छोड़कर ठीक किया? कहीं न पड़ेंगे। हटाना पड़े तो दमन होता है। हट जायें, अपने से हट हमसे कुछ भूल तो नहीं हो गई? जायें तो उसका सौंदर्य ही अनूठा है। फिर उसकी लकीर भी नहीं कहीं ऐसा तो नहीं था कि यही संसार सब कुछ है और हम | रह जाती भीतर, पीड़ा भी नहीं रह जाती। इसको भी छोड़ बैठे? दूसरा तो मिला नहीं, यह छूट गया। जिस दिन से इश्क अपना हुआ मीरे-कारवां तुम्हें उनकी पीड़ा का अंदाज नहीं, क्योंकि तुम केवल उनका आगे बढ़े हए हैं हर इक कारवां से हम। प्रवचन सुनते हो। प्रवचन में तो वे वही दोहराते हैं, जिसको | -और जिस दिन तुम अपनी बागडोर प्रेम के हाथ में दे सुनकर वे फंस गये हैं। प्रवचन में तो वे सत्य नहीं कहते। | दोगे... अभी तक आदमी इस प्रामाणिकता को उपलब्ध नहीं हुआ कि जिस दिन से इश्क अपना हुआ मीरे-कारवां प्रवचन में सत्य कहे। प्रवचन में तो वह वही कहता है जो तुम्हें -और जिस दिन से तुम्हारा पथ-प्रदर्शक, अगुआ प्रेम हो रास आता है, भाता है। अब जैनों के बीच बोलते हैं तो जो जैनों | जायेगा... 354 ain Education International Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो-सुबह करीब है आगे बढ़े हुए हैं हर इक कारवां से हम। तुम जिसे प्रेम करते हो उसी की गर्दन दबाने लगते हो, इतनी --उसी दिन तुम पाओगे, तुम सबसे ज्यादा आगे बढ़ गये | हिंसा है। प्रेमी अकसर एक-दूसरे को मार डालते हैं। विवाह की हो। प्रेम के अतिरिक्त कोई आगे बढ़ा नहीं है। प्रेम पथ-प्रदर्शक | तिथि अकसर मरण की तिथि सिद्ध होती है। है। प्रेम प्रकाश का दीया है। एक आदमी का विवाह हो रहा था। राह पर एक मित्र मिल खतरे मुझे मालूम हैं कि प्रेम के हैं, क्योंकि तुमने प्रेम का गलत गया। कल विवाह होनेवाला था। उस मित्र ने कहा, 'बड़ी रूप जाना है। लेकिन तुम्हारे गलत रूप जानने के कारण सत्य | बधाइयां!' उस मित्र ने कहा, 'शायद तुम्हें पता नहीं है, अभी तुमसे न कहूं, तो वह और भी खतरनाक होगा। मैं वही कहूंगा | मेरा विवाह हुआ नहीं, कल होनेवाला है। उसने कहा, जो ठीक है। तुम्हें उसमें से गलत निकालना हो, निकाल लेना। | इसीलिए तो बधाइयां दे रहे हैं, फिर बधाइयां देने का उपाय न वह तुम्हारी जिम्मेवारी है। लेकिन जिम्मेवार तुम्हीं रहोगे। लेकिन | रहेगा। एक दिन और बचा है, जी लो! चल लो मस्ती से, इस कारण कि कहीं तुम कुछ गलती न कर लो, मैं तुम्हें मारना | स्वतंत्रता से।' नहीं चाहता। तुम्हारी जिंदगी तो पूरी-पूरी ऊर्जा से भरी हुई होनी / अगर राह पर तुम स्त्री-पुरुष को चलते देखो तो तुम तत्क्षण चाहिए। कोई हर्जा नहीं, आज गलत जाओगे; जिस ऊर्जा से कह सकते हो कि ये पति-पत्नी हैं या नहीं। पति डरा-डरा चल गलत गये हो, उसी ऊर्जा से वापिस भी आ सकते हो। रहा है, नीचे नजर रखकर चल रहा है, इधर-उधर देखता नहीं; लेकिन प्रेम को जरा कसना। रोज-रोज ऊपर उठाना। क्योंकि फिर झंझट खड़ी हो जाये! रोज-रोज देखना कि उसके और नये-नये सोपान हैं। यह प्रेम गर्दन को काट जाता है। मधुर-मधुर सोपान हैं! बड़े प्रीति-भरे! मैं एक ट्रेन में सफर कर रहा था। एक महिला मेरे साथ उस तुम तो जिसे प्रेम कहते हो, वह बड़ी मिश्रित अवस्था है; जैसे | डब्बे में थी। उसका पति भी था, लेकिन वह किसी दूसरे डब्बे में सोने में बहुत कूड़ा-कर्कट मिला हो। था। पर वह हर स्टेशन पर आता। तो मैंने उससे पूछा कि मुझे इसलिए तुम्हारे प्रेम में घणा भी मिली है। तुम जिसको प्रेम शक होता है, ये पति हो नहीं सकते। उसने कहा, 'क्यों?' वह करते हो उसी को घृणा भी करते हो। थोड़ी चौंकी। तुमने कभी जांचा अपने मन को कि जरा पत्नी नाराज हो जाती 'कितने दिन हुए शादी हुए?' है कि तुम सोचते हो कि मर ही जाये तो बेहतर। सोचने लगते हो | उसने कहा, 'कोई सात-आठ साल हो गये।' कि हे भगवान, इसको उठाओ! कहां फंस गये इस चक्कर में! 'यह बात उपन्यास में हो सकती है। सात-आठ साल हो गये, बेटा तुम्हारे अनुकूल नहीं चलता तो मां कहने लगती है कि तुम और पति हर स्टेशन पर उतरकर आते हैं इस भीड़-भड़क्का पैदा ही न हुए होते जो अच्छा था। तुम्हारे प्रेम से घृणा बहुत दूर में...!' नहीं है। तुम्हारे आशीर्वाद से तुम्हारा अभिशाप बहुत दूर नहीं है। वह कहने लगी, 'आपने ठीक पहचाना। वे मेरे पति हैं नहीं, पास ही पास बैठे हैं। तुम्हारी मुस्कुराहट तुम्हारे आंसुओं से बहुत लगाव है।' ज्यादा दूर नहीं है। तब बात ठीक है। लगाव एक बात है। पत्नी तुम किसी और थोड़ा जागो! इसे देखो। तुम्हारा प्रेम क्षण में क्रोध बन जाता | की होओगी। नहीं तो अपना पति हर स्टेशन पर उतरकर आये! है, क्षणभर में क्रोध बन जाता है। अभी जिसके लिए तुम जान | एक दफे जो छटा, तो वह आखिरी स्टेशन पर भी आ जाये तो देने को तैयार थे, क्षणभर में उसी की जान लेने को तैयार हो जाते | काफी है।' हो। जरा सोचो, जरा जागो और देखो। | प्रेम में बड़ा और बहुत कुछ मिला हुआ है। एक-दूसरे की यह प्रेम बहत गंदगियों से मिला हुआ है। इसमें क्रोध भी है। गर्दन दबा देते हैं। हां, बहाने हम अच्छे खोजते हैं। लेकिन इसमें द्वेष भी है। इसमें ईर्ष्या भी है, मत्सर है, मोह है, राग है, जिसको प्रेम कहें, वह अभी बड़ी दूर है। लेकिन जिसे तुम प्रेम घृणा है, हिंसा है। कह रहे हो, उसमें भी वह पड़ा है। इसलिए मैं यह न कहूंगा, इस नागो आरआ है। इस है, राग 355 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 4 सब को फेंक देना। इसको निखारना है। इस सोने में मिट्टी मिली नहीं है कि तुम कुछ और हो गये हो जो तुम नहीं हो। भूलने का है, माना; मिट्टी को काट डालना है, सोने को बचाना है। तो इतना ही अर्थ है कि तुमने कुछ और समझ लिया है। हो तो तुम | दुनिया में कुछ लोग हैं जो इसी को प्रेम समझ रहे हैं। वे गलत। वही जो हो। जैसे आज रात तुम यहां सोओ और सपने में देखो, और दुनिया में कुछ लोग हैं जो मिट्टी के कारण इस पूरे प्रेम को | कलकत्ते में हो, तो कोई कलकत्ते पहुंच नहीं गये। कोई लौटने के फेंक देने को कहते हैं। वे भी गलत; पहले से भी ज्यादा गलत। | लिए तुम्हें कोई हवाई जहाज नहीं पकड़ना पड़ेगा। कोई हिलाकर क्योंकि मिट्टी के बहाने कहीं सोने को मत फेंक देना! जगा देगा, तुम पूना में जगोगे, कलकत्ते में नहीं जगोगे। तुम यह अहिंसा की धारणा में वही हो गया है। फेंक ही दो इस प्रेम न कहोगे कि यह क्या मुसीबत कर दी। तुम भागकर स्टेशन भी को; इसमें खतरा है, इसमें उपद्रव है, इसमें तनाव है, परेशानी न जाओगे कि अब मैं पकडूं ट्रेन पूना जाने की, इस आदमी ने है, अशांति है। फेंक ही दो। लेकिन साथ ही सोना भी चला कलकत्ते में जगा दिया। सपने में कलकत्ते में थे। यह सिर्फ जाता है। खयाल था। असलियत में तो तुम पूना में ही हो। मैं तुमसे कहता हूं, ये दोनों अतियां हैं, इनसे बचना। इसमें से | परमात्मा को खोया जा नहीं सकता। हो तो तुम परमात्मा में मिट्टी तो काटनी है-घृणा काटनी है, क्रोध काटना है, मत्सर, | ही। सपने तुम कोई भी देख लो। और सपना तुम्हारी स्वतंत्रता ईर्ष्या अलग करनी है—प्रेम को निखारना है। है। और सपने बड़े मधुर हैं। और सपने एकदम बुरे भी नहीं हैं, जीवन एक प्रयोगशाला है प्रेम को निखार लेने की। और क्योंकि इन्हीं सपनों के माध्यम से तुम अपने से अपने को दूर कर धन्यभागी हैं वे जो अपने प्रेम को पूरा निखार लेते हैं। उस प्रेम के लेते हो, फासला कर लेते हो। फिर मिलन का मजा आ जाता निखरे रूप में ही जगत जैसा दिखाई पड़ता है उसका नाम है। जैसे मछली सागर में ही रहती है तो सागर को भूल ही जाती परमात्मा है। उस प्रेम के निखरे रूप में ही तुम जिस नियति को है, सागर का पता ही नहीं चलता। जरा फेंक दो मछली को उपलब्ध होते हो, उसका नाम आत्मा है। किनारे पर, तड़फती है तब उसे पहली दफा याद आती है कि सागर क्या है। दूसरा प्रश्नः जो दीया तूफान से बुझ गया उसे फिर जलाकर तुम अपने सपनों के तट पर तड़फ रहे हो। यह तड़फ तुम्हें फिर क्या करूं? जो स्वभाव स्वप्न में खो गया, उसे वापस जगाकर सागर में ले जायेगी। अब तुम पूछते हो कि क्या फायदा जो क्या करूं? आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि मैं ही परमात्मा दीया तूफान से बुझ गया...?' बुझा नहीं है। कोई तूफान हूं, लेकिन जो परमात्मा घर से ही भटक गया, उसे घर वापिस तुम्हारे दीये को बुझा नहीं सकता; अन्यथा तूफान तो इतने बुलाकर क्या करूं? हैं...। कोई तूफान तुम्हारे दीये को नहीं बुझा सकता। किसको पता चल रहा है यह? यह कौन कह रहा है कि क्या करूं उस ऐसा प्रश्न बहुतों के मन में उठता है, स्वाभाविक है। लेकिन दीये को फिर से जलाकर जिसको तूफान ने बुझा दिया? यह जो तुम जीवन की जटिलता को नहीं समझ रहे हो। स्वभाव इसीलिए कह रहा है वही तो तुम्हारा दीया है-यह तुम्हारा जो खो गया है, क्योंकि बिना खोये तुम उसे जान ही न सकोगे। वह चैतन्य-भाव है। यह कौन कह रहा है कि क्या फायदा उस सदा से है, तुम उसके प्रति अंधे हो जाते हो। उसे खोना जरूरी कौन है जो कह रहा है? है, ताकि तुम पा सको। पाने के लिए खोना अनिवार्य है। खोकर यही तुम्हारा परमात्म-भाव है। यह साक्षी-भाव, यह चैतन्य, भी तुम वस्तुतः थोड़े ही खोते हो, क्योंकि स्वभाव तो वही है जो यह ज्ञान, यह बोध, यह ज्योति। दीया बुझता नहीं। यह दीया खोया न जा सके। बुझनेवाला दीया नहीं है। और बुझ जाता तो इसके जलाने के विस्मरण का नाम खोना है। तुम भूल गये हो। और यह भूलने फिर कोई उपाय न थे। बुझ जाता तो तुम होते ही न। बुझ जाता की बात अत्यंत आवश्यक है समझ लेनी। भूलने का अर्थ यह तो सोचनेवाला भी न होता कि कैसे इसे जलाऊं। तुम हो। तुम 356 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / उठो, जागो-सुबह करीब है परिपूर्ण हो। सिर्फ एक सपने ने तुम्हें घेर लिया है। एक बादल आनी चाहिए। और खेल में 'क्यों' का तो सवाल मत उठाना। आ गया है। और सूरज को ढांक लिया है। क्योंकि 'क्यों' दुकानदार का शब्द है, खिलाड़ी का नहीं। अब यह धूप-छांव का खेल बड़ा मधुर है। इसलिए हिंदुओं की दो आदमी फटबाल खेल रहे हैं, तो तम पछते हो, 'यह क्या परिभाषा बड़ी अनूठी है। वे कहते हैं, लीला है। तुम इसको बड़ा फायदा? इधर से गेंद उधर मारी, उधर से इधर मारी; अरे एक काम समझ रहे हो कि खो दिया, अब क्या फायदा! तुमने कभी जगह रखो, बैठ जाओ शांति से।' आदमी बालीबाल खेल रहे बचपन में छिया-छी नहीं खेली? दो बच्चे छिया-छी खेलते हैं, | हैं, तुमने देखा कैसा पागलपन करते हैं। बीच में एक जाली बांध दोनों आंख बंद करके खड़े हो जाते हैं, छिप जाते हैं। पता है कि रखी है, इधर से फेंक रहे हैं उधर; उधर से फेंक रहे हैं इधर। और यहीं छिपे हैं, इसी कमरे में छिपे हैं। कई बार चक्कर लगाते हैं, | इनकी तो छोड़ो ही, कई भीड़ लगाकर खड़े हैं देखने के लिए। खोजते हैं कहां छिपा है, बड़ा शोरगुल मचाते हैं और उन्हें इतना-सा काम हो रहा है, गेंद इधर से उधर फेंकी जा रही यह पक्का पता है कहां छिपा है,क्योंकि घर ही कौन बड़ा है; वही / तो दो मशीनें लगाकर भी कर सकते हो। इसमें सार क्या है? कमरे में कहीं छिपा है, बिस्तर के नीचे चला गया है कि दीवाल अगर दुकानदार है तो पूछेगा, 'क्यों? इससे मिलेगा क्या?' की ओट में खड़ा हो गया है। सब पता है। लेकिन फिर खेल का लेकिन तब चूक गये बात। मिलने का सवाल नहीं है, खेल में ही मजा चला जाता है, जब सब पता ही है तो। तो थोड़ा दौड़ते हैं, रस है। यह जो खेल की उमंम है, इसमें ही रस है। धामते हैं, खोजते हैं, इधर-उधर झांकते हैं, फिर पकड़ लेते हैं। | तिनके की तरह सैले-हवादिस लिये फिरा हिंदू कहते हैं, यह जगत छिया-छी है, लीला है। तुम्हीं अपने | तूफान लेकर आये थे हम जिंदगी के साथ। को खोज रहे हो, तुम्हीं अपने को छिपा रहे हो। तुम पूछोगे, तूफान हमारे साथ आया है। जिंदगी तूफान है। इसमें बड़ी 'क्यों? क्यों खेलें छिया-छी?' मत खेलो। सारा धर्म वही तो लहरें उठती हैं, बड़ी आंधियां आती हैं। फिर सन्नाटा भी छा जाता कला सिखाता है तुम्हें कि जिनको छिया-छी नहीं खेलनी, वे है। सन्नाटे के लिए आंधी जरूरी है; आंधी के लिए सन्नाटा ध्यान करें, वे छिया-छी के बाहर हो जाते हैं। ध्यान का मतलब जरूरी है-दोनों परिपूरक हैं। यहां मिलना भी है, खोना भी है; कुल इतना ही है कि अगर थक गये, अब तुम्हें खेलना नहीं है, तो पाना भी है, बिछुड़ना भी है; याद भी है, विस्मृति भी है। ये दोनों घोषणा कर दो कि अब हम खेल के बाहर होते हैं, अब हम जरा पहलू हैं, दो पंख हैं। इनसे ही जीवन के आकाश में उड़ने का विश्राम करेंगे, या अब हमें भूख लगी है, अब हम घर जाते हैं। उपाय है। जिनको अभी खेलने में रस आ रहा है, वे खेलें। जिनको खेलने ये हादसे कि जो इक-इक कदम पे हाइल हैं में अब थकान आने लगी है, वे घर लौट जायें। खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा लेंगे। परमात्मा की खोज का मतलब इतना ही है कि अब बहुत हो जमाना ची-ब-जबीं है तो क्या बात है 'रविश' गई छिया-छी; अब थक गये। बस इतना ही स्मरण काफी है कि हम इस अताब पे कुछ और मुस्कुरा लेंगे। थक गये—विश्राम। जैसे दिनभर आदमी मेहनत करता है, रात ये हादसे, ये घटनायें जो हर कदम पर घट रही हैं, ये पत्थर जो सो जाता है। अब तुम यह तो नहीं कहते रात खड़े होकर कि अब हर कदम पर अड़े हुए हैं, खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा क्यों सोयें, जब दिनभर मेहनत की! तुम्हारी मर्जी, न सोना हो तो | लेंगे। घबड़ाओ मत; ये पत्थर नहीं हैं, ये सीढ़ियां बन जानेवाली न सोओ, खड़े रहो। रातभर सोये रहे, अब सुबह तुम्हें कोई हैं। यह भटकाव ही उसके पहुंचने का रास्ता बन जाने वाला है। उठाने लगे तो तुम यह तो नहीं कहते कि नहीं उठेंगे अब; रातभर | यह दूर हो जाना ही पास आने का उपाय है। सोये रहे, अब क्यों उठे? नहीं सोने के बाद जागना है; जागने ये हादसे कि जो इक-इक कदम पे हाइल हैं के बाद सोना है। दिन के बाद रात है, रात के बाद दिन है। ये जो अड़े हैं पत्थर, और घटनाएं, और जीवन के उलझाव, ध्यान, संसार, परमात्मा, अरूप और उसके रूप, इन दोनों के और बाजार और दुकान और तृष्णा और मोह और हजार-हजार बीच यात्रा है। यह खेल बड़ा मधुर है। बस खेलने की कला बातें हैं...खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा लेंगे। घबड़ाओ 357 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 मत, खेले चले जाओ। अभी तुम ठीक से खेल समझे नहीं, | और सोच रहे हो, सब ठाठ पड़ा रह जायेगा। अब अड़चन अभी खेल का गणित नहीं आया। गणित आ जायेगा तो रस आई। अब तुम इकहरे न रहे। तुम्हारा व्यक्तित्व खंडों में बंट आने लगेगा। और तब इन पत्थरों पर चढ़ने में मजा आने गया। तुम्हारे तथाकथित धर्मों ने तुम्हें विक्षिप्त बना दिया है। लगेगा। तब तुम धन्यवाद दोगे इन पत्थरों को कि अच्छा किया मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह यह नहीं कह रहा हूं कि तुम कि तुम थे, अन्यथा कहां चढ़ते! अच्छा हुआ कि तुम थे, छोड़कर चल पड़ो। मैं तुमसे कह रहा हूं, ठीक से तंबू गड़ा लो। अन्यथा जीवन को जांचने की सुविधा कहां मिलती, अवसर कहां भगवान से भटकने का मौका मिला है, ठीक से भटक जाओ। मिलता। दूर जाने का क्षण आया है, दूर चले जाओ। इसमें भी क्या जमाना ची-ब-जबीं है तो क्या बात है 'रविश' कंजूसी करनी? क्योंकि मेरे देखे जो जितनी दूर जाता है, जब और अगर जमाना बहुत क्रोध से भरा है और चारों तरफ बड़ी | उसे याद पकड़ती है तो उतनी ही तीव्रता से पास आता है। पास अड़चन और मुसीबत है तो बात क्या है 'रविश'... आने और दूर आने में एक अनुपात है। खोने का तो कोई उपाय हम इस अताब पे कुछ और मस्करा लेंगे। नहीं है, खेल है। रोकर खेलना हो रोकर खेल लो; हंस के इस क्रोध पर थोड़ा और मुस्कुरा लेना। खेलना हो हंसकर खेल लो। जो हंसकर खेलता है, उसको मैं यह जो जमाना इतने उपद्रव खड़ा करता है, इस पर थोड़ा | धार्मिक कहता हूं। जो रो-रोकर खेलने लगे, वह कोई खिलाड़ी मुस्कुराना सीखो। | नहीं है। परमात्मा का खोजी खेल मानकर चलता है। तुम बड़ी गंभीरता | हैरात तो इसके बाद सहर, अनवार भी लेकर आएगी से चल रहे हो, यह अड़चन है। तुम्हारे तथाकथित धार्मिकों ने है सुबह तो शब तारों के चमकते हार भी लेकर आएगी। तुम्हें बड़े गंभीर चेहरे सिखा दिये हैं; जैसे कि प्रार्थना कोई काम है रात तो इसके बाद सहर–रात है तो सुबह होने के करीब है, है! प्रार्थना खेल है। प्रार्थना रस है, काम नहीं है। इसमें कुछ | घबड़ाओ मत। रात का मजा ले लो, सुबह तो हो ही जायेगी। लाभ और लोभ थोड़े ही है। इसमें तो होने का मजा है। इन सुबह के लिए रोओ, चिल्लाओ-चीखो मत। यह रात सुबह के पक्षियों से पूछो! ये जो झींगुर गुनगुनाये जा रहे हैं, इनसे रास्ते पर ही है। यह रात होनेवाली सुबह ही है। यह रात सुबह पूछो—किसलिए? वे तुम्हारी बात पर ही आश्चर्य करेंगे कि | का ही छिपा हुआ रूप है। सवाल भी उठाने योग्य है? मजा आ रहा है। है रात तो इसके बाद सहर अनवार भी लेकर आएगी। तुम्हें जब तक संसार में मजा आ रहा है, दौड़े जाओ; जब तुम्हें / सुबह प्रकाश भी लेकर आनेवाली है। अंधेरे को ठीक से तो परमात्मा में मजा आने लगे, रुक जाना। मजे-मजे की बात है। भोग लो। क्योंकि अगर आंखें अंधेरे को ठीक से न भोग पायें तो . मैं जो संसार में हैं, उनके विरोध में नहीं हूं। मैं कहता हूं, उन्हें | तुम प्रकाश को भोगने के योग्य न बन पाओगे। मजा आ रहा है तो मजा लें। तकलीफ तो कब खड़ी होती है कि तुमने कभी खयाल किया? जब अंधेरे के बाद तुम प्रकाश को तुम्हें मजा संसार में आ रहा है और तुम किसी की बात में पड़ गये देखते हो तो अंधेरा तुम्हारी आंखों को तैयार करता है; तुम और उसने कहा कि संसार में क्या रखा है! तुम्हें मजा संसार में प्रकाश को देखने में समर्थ हो जाते हो। आंख को विश्राम मिलता आ रहा है। अब तुम एक उलझन में पड़े, एक तनाव पैदा हुआ। है अंधेरे में; आंख ताजी हो जाती है। फिर से तुम देखने में किसी ने कह दिया, संसार में क्या रखा है, यह तो सब धूल है, | कुशल हो जाते हो। इसलिए तो आंख झपकती रहती है। तुमने यह तो सब पड़ा रह जाएगा-यह ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब कभी पूछा कि आंख झपकती क्यों रहती है? यह हर पल अंधेरे बांध चलेगा बनजारा! उनका बनजारा बांधकर चल रहा हो, को पैदा करती रहती है, ताकि ताजी बनी रहे। इसलिए तुमने लेकिन तुम्हारा तो अभी बिलकुल खेल लग रहा था, तंबू लग | देखा फिल्म जाते हो देखने, तो तीन घंटे तुम आंख का झपकना रहा था, व्यवस्था तुम जुटा रहे थे। यह बात तुम्हारे कान में पड़ भूल जाते हो। उसी लिए आंख थक जाती है। फिल्म के कारण गई, अब तुम अड़चन में पड़े। अब तुम तंबू भी गाड़े जा रहे हो नहीं, टेलीविजन देखने के कारण नहीं; तुम आंख का झपकना 358] ain Education International Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो-सुबह करीब है भूल जाते हो कि जो स्वाभाविक प्रक्रिया थी अंधेरे को बीच-बीच जीवन कभी नहीं हारता। तुम हार जाओगे तो विदा कर लिये में लाने की, वह भूल जाते हो। तुम इतने ज्यादा तन जाते हो कि जाओगे, बुला लिये जाओगे। जीवन चलता जाता है। एक लहर आंख फाड़े बैठे रहते हो। अब की बार जब सिनेमा जाओ या हार जाती है तो विलीन हो जाती है सागर में। फिल्म देखने जाओ या टेलीविजन देखो, तो आंख को झपकाते | शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें? रहना, तुम पाओगे कोई थकान न आई। आंख के झपकने में राज है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने। है। अंधेरा प्रकाश का खेल है। धूप छाया का खेल है। और अगर एक पैमाना टूट गया तो घबड़ाते क्यों हो, मधुशाला हैरात तो इसके बाद सहर अनवार भी लेकर आएगी। साबित है, तो हजार पैमाने भरे तैयार हैं। विश्राम तो कर लो थोड़ा रात में। यहां छोटी-छोटी चीजों से लोग घबड़ा जाते हैं। किसी की संसार विश्राम है परमात्मा का। जल्दी ही सुबह होगी, | पत्नी मर गई, वैराग्य का उदय हो गया। है मैकदा तो सलामत परमात्मा भी आयेगा, प्रकाश भी लायेगा। भाग-दौड़ मत करो। हजार पैमाने! इतनी जल्दी क्यों करते हैं? किसी की दुकान में व्यर्थ शीर्षासन इत्यादि लगाकर खड़े न हो जाओ। इससे रात के घाटा लग गया, दिवाला निकल गया-अरे, दीवाली बहुत जाने का कोई संबंध नहीं। रात अपने से आती है, अपने से जाती मनाई, अब दिवाला भी मना लो! इतना घबड़ाना क्या? है। तुम तो सिर्फ साक्षी रहो। है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने।। है सुबह तो शब तारों के चमकते हार भी लेकर आएगी। हारकर धर्म की तरफ, पराजय के भाव से, विफलता से, और अगर सुबह है तो ध्यान रखना, रात भी आनेवाली है। विषाद से कहीं कोई गया है! उदासी से तो रुग्णता आती है, यह जीवन का चक्र है जो घूमता चला जाता है। इस चक्र में जो जीवन का स्वास्थ्य नहीं। धर्म की तरफ उदासी से नहीं, प्रसन्नता खेलना सीख जाये-खेलना पहली शर्त-गंभीरता से नहीं, | से, प्रफुल्लता से गये हुए ही पहुंचते हैं। खिलाड़ी के अहोभाव से, रस से-जो खेलना सीख जाये, यह बुलंद नग्मए-आदम है बज्मे-अंजुम में पहली शर्त। और दूसरी बात धीरे-धीरे तुम्हारे खिलाड़ीपन से -नक्षत्र मंडल में आदमी का गीत गूंज रहा है। उठेगी, वह है साक्षी-भाव। जब तुम देखोगे, रात भी अपने से कब इक सितारए-नौ हंस पड़े खुदा जाने आती है; सुबह भी अपने से हो जाती है: फिर सांझ आ जाती है, | -कब वर्षा हो जायेगी परम आनंद की. पता नहीं कभी भी हो फिर तारे जगमगा उठते हैं—यह सब अपने से हो रहा है तो मैं | सकती है! नाहक दौड़-धूप क्यों करूं; मैं सिर्फ साक्षी रहूं, देखें, जो होता है हयात अभी है फकत इक हयात का परतब उसका मजा लू, रस लूं। परमात्मा इतने रूप धरता है, -जिसे तुमने अभी जिंदगी समझा है, वह तो केवल जिंदगी इतने-इतने नाच करता है, मैं द्रष्टा बनूं। तो पहले खिलाड़ी बनो, | की छाया है। फिर द्रष्टा बन जाओ, बस। यह दो बातें जिसके जीवन में आ हयात अभी है फकत इक हयात का परतब गईं, उसने पा ही लिया। अभी हयात को समझा ही क्या है दुनिया ने। शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें? अभी तुमने जीवन का पूरा राज कहां सीखा? जल्दी मत है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने करो। निर्णय मत लो कि 'क्या फायदा जो दीया बुझ गया, अब बुलंद नग्मए-आदम है बज्मे-अंजुम में इसको जलाने से क्या फायदा! और जो घर छूट गया, उसको कब इक सितारए-नौ हंस पड़े खुदा जाने खोजने से क्या फायदा!' ऐसे तो तुम थककर गिर जाओगे। हयात अभी है फकत इक हयात का परतब ऐसे तो तुम जीते-जी मुर्दा हो जाओगे। अभी हयात को समझा ही क्या है दुनिया ने। उठो जीवन की यात्रा प्रफुल्लता से करनी है। शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें? और जब कुछ खोता हो, तब भी समझ रखनाः यह भी कुछ अगर तुम हार गये हो तो इसको जीवन की हार मत समझो। पाने का उपाय होगा। 359 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग आखिरी प्रश्न: वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें। तेरे गुस्से से भी प्यार, तेरी मार भी स्वीकार आ गई वह आंख, वह अभिलाषी नेत्र, प्रभु के दर्शन करने की चाहे खुशी दो कि दो गम, दे दो खुशी-खुशी करतार क्षमता वाले नेत्र...। तेरी धूप हो कि छांव, मुझको दोनों हैं स्वीकार हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे। तेरा सब कुछ मुझे पसंद, तेरा न भी नहीं इनकार। एक पागलपन आयेगा, घबड़ाना मत। यह पागलों की ही बात है। बुद्धिमान तो ठीक-ठीक को स्वीकार करते हैं। बुद्धिमान तो शुभ है, ऐसी ही भाव की दशा भक्त की दशा है। और सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को इनकार करते हैं; फूल चुनते जिसको ऐसे स्वीकार का भाव आ गया; अस्वीकार को भी | हैं, कांटे अलग करते हैं। यह तो दीवानों की बात है कि दोनों को स्वीकार करने की क्षमता आ गई; 'नहीं' में भी दंश न रहा; हार स्वीकार कर लेते हैं। में भी कांटे न चुभे; सुख आये कि दुख, दोनों को जिसने | और मैं तुमसे कहता हूं, दीवानगी से बड़ी कोई बुद्धिमत्ता नहीं परमात्मा का उपहार समझकर स्वीकार कर लिया, उसका प्रसाद है। क्योंकि जो सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को अस्वीकार, मान कर स्वीकार कर लिया-उसकी मंजिल ज्यादा दूर नहीं है। उनके जीवन में दुख ही दुख भर जाता है। तुम्हारे अस्वीकार उसके पैर मंजिल के करीब आने लगे। उसका रास्ता पूरा होने के करने से दुख थोड़े ही जाता है, दुगना हो जाता है। कांटा तो चुभा करीब आने लगा। ही है, पीड़ा तो हो ही रही है-तुम अस्वीकार करते हो, उससे इस भाव-दशा को सम्हालना। इस भाव-दशा को धीरे-धीरे पीड़ा और सघन हो जाती है। कांटा चुभा है और तुम स्वीकार गहराना। यह तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाये। यह तुम्हारी कर लेते हो, तुम कहते हो, 'प्रभु की कोई मर्जी होगी! जरूर धड़कन-धड़कन में बस जाये। किसी कारण से चुभाया होगा।' जिनको हर हालत में खुश और शादमां पाता हूँ मैं बायजीद निकलता था एक रास्ते से, पत्थर से चोट लग गई, उनके गुलशन में बहारे-बेखिजां पाता हूं मैं। वह गिर पड़ा, पैर से खून निकलने लगा! उसने हाथ उठाये जो हर हाल में खुश हैं, उनके जीवन में वसंत आता है और आकाश की तरफ और प्रभु को धन्यवाद दिया कि 'धन्यवाद, पतझड़ कभी नहीं आती। मेरे मालिक! तू भी खूब खयाल रखता है!' उसके एक भक्त ने वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें पूछा, 'यह जरा जरूरत से ज्यादा हो गई बात। अतिशयोक्ति हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे। हुई जा रही है। खून निकल रहा है, पत्थर की चोट लगी अगर तुम्हारे पास ऐसी प्रेम की भाव-दशा उठ रही है, ऐसी है—धन्यवाद का कारण कहां है?' पहली झलकें आनी शुरू हुई हैं कि सुख और दुख दोनों को तुम बायजीद ने कहा, 'पागलो, फांसी भी हो सकती थी! उसका प्रभु की अनुकंपा मान लो, तो फिर जल्दी ही, तुम्हारे पास वैसे | खयाल तो देखो! अपने फकीरों का खयाल रखता है। जरा-सी दिल का निर्माण हो जायेगा। चोट से बचा दिया। मैं जैसा आदमी है, उसकी तो फांसी भी हो हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे! जाये तो कम है। मेरे पाप, मेरे गुनाह तो देखो!' वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें! तो पैर में लगी चोट और बहता लह भी अहोभाग्य हो गया। फिर तुम्हारी आंख परमात्मा को देख ही लेगी। यही तो बायजीद तीन दिन से भूखा था। एक गांव में रुके। वह सांझ अभिलाषी की आंख की परीक्षा है। सुख को तो सभी स्वीकार प्रार्थना जब करता था तो रोज कहता था, 'प्रभु! जो भी मेरी कर लेते हैं। उससे कुछ पता नहीं चलता। दुख को भी जो जरूरत होती है, तू सदा पूरी कर देता है।' उस दिन भक्त जरा स्वीकार कर लेता है, उससे ही पता चलता है। फूल गिरें, सभी नाराज थे, तीन दिन से भूखे थे। किसी गांव में ठहरने को जगह मान लेते हैं, और प्रसन्न हो लेते हैं। लेकिन जबे कांटे जीवन में न मिली। लोगों ने रुकने न दिया। लोग विरोध में थे। फिर भी आयें तब भी जो मुस्कुराता रहता है... | उस रात उन्होंने कहा, अब आज देखें, आज यह बायजीद क्या 360 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAHUTNERMI उठो, जागो-सुबह करीब है। कहता है! उसने फिर वही कहा कि हे प्रभु! तू भी खूब है। जब सघन भाव! तो तुम पाओगे, सब तरफ से परमात्मा ने नये-नये जो मेरी जरूरत होती है, परी कर देता है। द्वार खोल लिये; हर तरफ से उसकी हवाएं तुम्हें छूने लगीं। एक भक्त ने कहा, 'अब सुनो! तीन दिन से भूखे हैं। क्या __हर एक जल्वा है मेरे लिए कशिश तेरी खाक जरूरत पूरी कर देता है?' हर एक सदा मुझे तेरा पयाम होती है। बायजीद हंसने लगा। उसने कहा, 'तुम समझे ही नहीं; तीन फिर हर आवाज में उसका संदेश और हर रूप में उसका रंग, दिन से भूख मेरी जरूरत थी। तीन दिन उपवास मेरी जरूरत थी। हर फूल में उसकी खुशबू...। तुम तैयार हो जाओ। और यही उसने पूरी की।' | तैयारी का ढंग है। इसे तुम चौबीस घंटे स्मरण रखो। जल्दी ही देखो, ऐसा आदमी दुख नहीं पा सकता। ऐसे आदमी को कैसे दुख भी आयेंगे, स्मरण रखना। सुख भी आयेंगे, स्मरण दुख दोगे? परमात्मा भी बड़ी उधेड़-बुन में पड़ जाता होगा ऐसे | रखना। तुम हर हालत में सभी कुछ उसी को समर्पण किये चले आदमी के साथ कि अब करो क्या! यह आदमी तो जीतने जाना। तुम कहना, सब तेरे हैं, सब तेरे भेजे हैं। और जल्दी ही लगा! यह तो छिया-छी में हाथ आगे मारने लगा। इसको दुखी तुम पाओगे, तुम्हारे जीवन में सुख-दुख की उधेड़-बुन खो गई करने का उपाय न रहा। और एक परम शांति विराजमान हो गई है-ऐसी शांति जो पृथ्वी और सुख तभी उत्पन्न होता है जब दुखी होने का उपाय नहीं रह की नहीं है; ऐसी शांति जो केवल स्वर्ग की है! जाता। अगर तुमने सुख पकड़ा और दुख छोड़ा, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे, तुम्हारा सुख भी दुख हो जाता है। आज इतना ही। पकड़नेवाले का सुख भी दुख हो जाता है; क्योंकि वह डरता है, कहीं छिन न जाये। छिनेगा तो ही। कौन सुख स्थायी होता है? आया है, जायेगा! पानी की लहर है। न दुख ठहरता, न सुख ठहरता। जिसने पकड़ा सुख को, वह दुखी होने लगा। पहले सुख की आकांक्षा में दुखी था; अब इस भय से दुखी होगा कि छूटता, अब गया, अब गया, अब जायेगा! और जिसने दुख को स्वीकार कर लिया, वह तो दुख को भी रूपांतरित कर लेता है। सुख तो सुख है ही, वह दुख को भी सख बना लेता है। इस कीमिया को ही धर्म समझना। जुनूं हर रंग में मशरूरो-शादां खिरद! हर हाल में चींबर जबीं है। प्रेमोन्माद, जुनूं हर रंग में मशरूरो-शादा.... -वह जो पागलों की मस्ती है, दीवानों की मस्ती है, वह तो हर हाल में खुश है। खिरद! लेकिन अक्ल, बुद्धि, हर हाल में चींबर जंबी है। वह हर हाल में त्यौरी चढ़ाये हुए है। कुछ भी हो जाये, तृप्ति नहीं होती। कुछ भी मिल जाये, असंतोष बना रहता है। सौभाग्य है, अगर इस तरह की भाव-दशा में रमते जाओ। यह सिर्फ तुम्हारी कविता न हो, तुम्हारा जीवन बने! यह तुमने सिर्फ होशियारी न की हो प्रश्न पूछकर, यह तुम्हारा भाव बने! 361