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________________ जिन सत्र भाग आखिरी प्रश्न: वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें। तेरे गुस्से से भी प्यार, तेरी मार भी स्वीकार आ गई वह आंख, वह अभिलाषी नेत्र, प्रभु के दर्शन करने की चाहे खुशी दो कि दो गम, दे दो खुशी-खुशी करतार क्षमता वाले नेत्र...। तेरी धूप हो कि छांव, मुझको दोनों हैं स्वीकार हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे। तेरा सब कुछ मुझे पसंद, तेरा न भी नहीं इनकार। एक पागलपन आयेगा, घबड़ाना मत। यह पागलों की ही बात है। बुद्धिमान तो ठीक-ठीक को स्वीकार करते हैं। बुद्धिमान तो शुभ है, ऐसी ही भाव की दशा भक्त की दशा है। और सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को इनकार करते हैं; फूल चुनते जिसको ऐसे स्वीकार का भाव आ गया; अस्वीकार को भी | हैं, कांटे अलग करते हैं। यह तो दीवानों की बात है कि दोनों को स्वीकार करने की क्षमता आ गई; 'नहीं' में भी दंश न रहा; हार स्वीकार कर लेते हैं। में भी कांटे न चुभे; सुख आये कि दुख, दोनों को जिसने | और मैं तुमसे कहता हूं, दीवानगी से बड़ी कोई बुद्धिमत्ता नहीं परमात्मा का उपहार समझकर स्वीकार कर लिया, उसका प्रसाद है। क्योंकि जो सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को अस्वीकार, मान कर स्वीकार कर लिया-उसकी मंजिल ज्यादा दूर नहीं है। उनके जीवन में दुख ही दुख भर जाता है। तुम्हारे अस्वीकार उसके पैर मंजिल के करीब आने लगे। उसका रास्ता पूरा होने के करने से दुख थोड़े ही जाता है, दुगना हो जाता है। कांटा तो चुभा करीब आने लगा। ही है, पीड़ा तो हो ही रही है-तुम अस्वीकार करते हो, उससे इस भाव-दशा को सम्हालना। इस भाव-दशा को धीरे-धीरे पीड़ा और सघन हो जाती है। कांटा चुभा है और तुम स्वीकार गहराना। यह तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाये। यह तुम्हारी कर लेते हो, तुम कहते हो, 'प्रभु की कोई मर्जी होगी! जरूर धड़कन-धड़कन में बस जाये। किसी कारण से चुभाया होगा।' जिनको हर हालत में खुश और शादमां पाता हूँ मैं बायजीद निकलता था एक रास्ते से, पत्थर से चोट लग गई, उनके गुलशन में बहारे-बेखिजां पाता हूं मैं। वह गिर पड़ा, पैर से खून निकलने लगा! उसने हाथ उठाये जो हर हाल में खुश हैं, उनके जीवन में वसंत आता है और आकाश की तरफ और प्रभु को धन्यवाद दिया कि 'धन्यवाद, पतझड़ कभी नहीं आती। मेरे मालिक! तू भी खूब खयाल रखता है!' उसके एक भक्त ने वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें पूछा, 'यह जरा जरूरत से ज्यादा हो गई बात। अतिशयोक्ति हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे। हुई जा रही है। खून निकल रहा है, पत्थर की चोट लगी अगर तुम्हारे पास ऐसी प्रेम की भाव-दशा उठ रही है, ऐसी है—धन्यवाद का कारण कहां है?' पहली झलकें आनी शुरू हुई हैं कि सुख और दुख दोनों को तुम बायजीद ने कहा, 'पागलो, फांसी भी हो सकती थी! उसका प्रभु की अनुकंपा मान लो, तो फिर जल्दी ही, तुम्हारे पास वैसे | खयाल तो देखो! अपने फकीरों का खयाल रखता है। जरा-सी दिल का निर्माण हो जायेगा। चोट से बचा दिया। मैं जैसा आदमी है, उसकी तो फांसी भी हो हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे! जाये तो कम है। मेरे पाप, मेरे गुनाह तो देखो!' वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें! तो पैर में लगी चोट और बहता लह भी अहोभाग्य हो गया। फिर तुम्हारी आंख परमात्मा को देख ही लेगी। यही तो बायजीद तीन दिन से भूखा था। एक गांव में रुके। वह सांझ अभिलाषी की आंख की परीक्षा है। सुख को तो सभी स्वीकार प्रार्थना जब करता था तो रोज कहता था, 'प्रभु! जो भी मेरी कर लेते हैं। उससे कुछ पता नहीं चलता। दुख को भी जो जरूरत होती है, तू सदा पूरी कर देता है।' उस दिन भक्त जरा स्वीकार कर लेता है, उससे ही पता चलता है। फूल गिरें, सभी नाराज थे, तीन दिन से भूखे थे। किसी गांव में ठहरने को जगह मान लेते हैं, और प्रसन्न हो लेते हैं। लेकिन जबे कांटे जीवन में न मिली। लोगों ने रुकने न दिया। लोग विरोध में थे। फिर भी आयें तब भी जो मुस्कुराता रहता है... | उस रात उन्होंने कहा, अब आज देखें, आज यह बायजीद क्या 360 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340116
Book TitleJinsutra Lecture 16 Utho Jago Subah Karib Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size38 MB
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