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________________ तेरहवां प्रवचन वासना ढपोरशंख है
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________________ जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ। ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्त कामेहिं।।३२।। तुमं सि नाम स चेव, जं हंतव्वं ति मनसि। तुमं सि नाम स चेव, जं अज्जावेयव्वं ति मनसि।।३३।। रागादीणमणुप्पासो, अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए। तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठा।।३४।। अज्झवसिएण बंधो, सत्ते मारेज्ज मा थ मारेज्ज। एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्छयणयस्स।।३५।। हिंसा दो अविरमणं, वहपरिणामो य होइ हिंसा हु। तम्हा पमत्तजोगे, पाणव्ववरोवओ णिच्चं / / 36 / / अत्ता चेव अहिंसा, अत्ता हिंसति णिच्छओ समए। जो होदि अप्पमत्तो, अहिंसगो हिंसगो इदरो।।३७।। तुगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि। जह तह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नत्थि।।३८।। www.jainelibrar.org
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________________ रमात्मा को अस्वीकार करनेवाले और लोग भी हुए कारवां लग चुका है रस्ते पर हैं; लेकिन जैसी कुशलता से महावीर ने अस्वीकार | फिर कोई रहनुमा न आ जाए किया, वैसा किसी ने भी नहीं किया। कुशलता से बुत-ओ-बुतखाना तोड़ने वाले मेरा अर्थ है, परमात्मा को अस्वीकार भी किया और फिर भी इसी जद में खुदा न आ जाए परमात्मा को बचा लिया। इनकार भी किया, परमात्मा को खोने देखो-देखो इन आंसुओं पे 'जमील' भी न दिया। मूर्ति-भंजक बहुत हुए हैं; लेकिन मूर्ति तोड़ने में ही तुहमते-इल्तिजा न आ जाए। परमात्मा भी टूट गया। महावीर ने मूर्ति तोड़ी, लेकिन उस अमूर्त बुत-ओ-बुतखाना तोड़ने वाले को पूरा-पूरा बचा लिया। यही उनकी कुशलता है। इसी जद में खुदा न आ जाए। परमात्मा जब मूर्ति बन जाता है तो थोथा हो जाता है। परमात्मा मूर्तियों और मंदिर से छुटकारा उपयोगी है। लेकिन ध्यान जब तक अमूर्त अनुभव हो, तभी तक बहुमूल्य है। जैसे ही रखना, इसी जद में कहीं खुदा न आ जाए! कहीं ऐसा न हो कि आकार दिया, वैसे ही परमात्मा से दूर होने लगे; क्योंकि मंदिर और मूर्ति तोड़ने में खुदा भी टूट जाए! परमात्मा निराकार है। जैसे ही पत्थर में परमात्मा को देखना शुरू उसे तो बचाना है, जो मंदिर में छिपा है। उसे तो बचाना है जो किया, वैसे ही आंखें अंधी होनी शुरू हो जाती हैं। मर्ति में छिपा है। महावीर ने बड़ी कशलता से बचाया है। इसे इस्लाम ने भी मूर्तियां तोड़ीं। महावीर ने भी मूर्तियां तोड़ीं। समझने की कोशिश करें। लेकिन महावीर ने बड़ी कुशलता से तोड़ीं। महावीर ने बड़ी 'जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया अहिंसा से तोड़ीं, बड़े प्रेम से तोड़ीं। जरा-सा फासला है, लेकिन है। अतः आत्म-हितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव-हिंसा का बड़ा भेद है। इस्लाम ने बड़े क्रोध से तोड़ दीं, बड़ी हिंसा से तोड़ परित्याग किया है। जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। दीं। हिंसा और क्रोध में, तोड़ने के आग्रह में, एक बात साफ हो | जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है।' गई। जब हम आग्रह से कोई चीज तोड़ते हैं तो उसका अर्थ है, यही तो उपनिषद कहते हैं। यही तो वेद कहते हैं। लेकिन कहीं अचेतन में हमारा लगाव है। तोड़ने योग्य मानते हैं, इतना उपनिषद और वेद परमात्मा के नाम से कहते हैं; महावीर ने श्रम उठाते हैं तोड़ने के लिए, तो जरूर हमें लगता है कि मूर्ति में आत्मा के नाम से कहा। बड़ा फर्क है। जैसे ही परमात्मा का कोई मूल्य है। महावीर ने इस तरह न तोड़ा। तोड़ा भी, मूर्ति विचार होता है, ऐसा लगता है ईश्वर कोई और, कहीं और। दूरी बिखेर भी दी, चोट भी न हुई, आवाज भी न हुई, और भीतर जो पैदा हो जाती है। महावीर ने आत्मा के नाम से वही कहा। छिपा था, अमूर्त, उसे बचा भी लिया। आत्मा से दूरी पैदा नहीं होती। वह तुम्हारा स्वरूप है। वह 275
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________________ जिन सत्र भाग : 1 तुम्हारा होने का केंद्र है। तो दूसरे में भी तुम्हें जब अपना केंद्र __तुमने जो चोट दूसरे को मारी है, वह क्रोध में तुम्हीं को लग गई दिखाई पड़ने लगे, तब महावीर कहते हैं, तुम जागे। है। महावीर का यह मूलभूत आधार है। अगर तुम दुखी हो तो अहिंसा का पूरा शास्त्र दूसरे में भी स्वयं को देखने का ही | तुमने किसी को दुख देना चाहा था; अन्यथा तुम दुखी न हो शास्त्र है। लेकिन इस दूसरे को देखने को एक परमात्मा को सकते थे। तुम पीड़ित हो, परेशान हो, चिंताग्रस्त हो, संताप से महावीर नहीं मानते कि परमात्मा सब में छाया हआ है। महावीर भरे हो, चैन खो गया, शांति खो गई, जीवन की प्रफुल्लता खो मानते हैं, तुम्हीं दूसरे से जुड़े हो और दूसरा तुमसे जुड़ा है। जीवन | गई है, तो जरूर यही तुमने जीवन के साथ किया है। जीवन के एक अंतरात्माओं का अंतर्जाल है; अंतरात्माओं का अंतर्संबंध साथ तुम जो करते हो, उसी के प्रतिफल तुम्हें मिलते हैं। . है। जैसे मकड़ी का जाला होता है; एक धागे को हिला दो, पूरा हमारी हालत उलटी है। साधारणतः हम ऐसा सोचते हैं कि जाला हिल जाता है—ऐसे ही एक व्यक्ति की चेतना को हिला दूसरे हमें दुखी कर रहे हैं। दूसरे तो केवल तुमने जो दिया था दो, सारा अस्तित्व हिल जाता है। एक वृक्ष को चोट पहुंचा दो, | वापिस लौटा रहे हैं। तुम्हारी धरोहर तुम्हें सौंप रहे हैं। और अगर चोट सभी पर फैल जाती है। क्योंकि हम अलग-थलग नहीं हैं। तुमने ऐसा देखा कि दूसरे तुम्हें दुखी कर रहे हैं तो तुम्हारी पूरी हम टूटे-टूटे नहीं हैं। मेरे और तुम्हारे बीच कोई दीवाल नहीं है। जीवन-दिशा भ्रांत हो जाएगी। तब तुम कभी सुखी न हो जो मुझे घटेगा, वह तुम्हें भी घटेगा। जो तुम्हें घटेगा, वह मुझ सकोगे। क्योंकि दूसरों को तुम कैसे बदलोगे? अपने को ही तक भी आ जाएगा। जैसे हम सागर में एक कंकड़ को फेंक दें, | बदलना इतना मुश्किल है, दूसरों को तुम कैसे बदलोगे? फिर लहरें उठती हैं. दर-दिगंत तक फैलती चली जाती हैं। अगर मैंने दसरा कोई एक थोड़ी है, अनंत हैं। इस अनंत को तुम कैसे तुम्हें चोट पहुंचाई तो एक कंकड़ फेंका सागर में। माना, तुम्हारी बदलोगे? और इसको बदलने के लिए तो अनंत काल लग तरफ फेंका था, लेकिन उसकी लहरें सभी को आंदोलित करेंगी। जाएगा। अगर बदल भी पाए तो इतना समय लग जाएगा...! उन सभी में मैं भी सम्मिलित हूं। एक तो बदलना असंभव, बदल भी लिया तो अनंत काल तुम तो जो दख देता है. वह अपने हाथ से अपने लिए दख निर्मित | दख भोगते रहोगे। करता है। जो सुख बांटता है, वह अपने हाथ से अपने लिए सुख / यहीं मार्क्स और महावीर की दृष्टि में भेद है। मार्क्स कहता है, निमंत्रित करता है। तुम जो दोगे वही तुम्हें मिलेगा। जो तुमने समाज जुम्मेवार है, अर्थव्यवस्था जुम्मेवार है। इसे बदल दो, दिया था पहले वही तुम पा रहे हो। किया तुमने दूसरे के साथ सब सुख हो जायेगा। परमात्मा को मनुष्य से अलग दूर ऊपर था, हो गया तुम्हारे साथ। आकाश में माननेवाले कहते हैं, प्रार्थना करो, पूजा करो, सब महावीर कहते हैं, तुम्हारे अतिरिक्त यहां कोई नहीं है। तो तुम ठीक हो जायेगा। गंगा-स्नान करो, सब ठीक हो जायेगा। वे भी जो भी करोगे, अपने ही साथ कर रहे हो। | बड़ी झूठी बातें हाथ में दे रहे हैं। हमारी हालत ऐसी है, जैसे तुमने उस शेखचिल्ली की कहानी महावीर सीधी बीमारी का निदान करते हैं। वे कहते हैं, न तो सुनी होगी। वह बैठा था, शांति से राह चलते लोगों को देख रहा कोई परमात्मा ऊपर बैठकर तुम्हें दुख दे रहा है। इसलिए तुम्हें था। एक मक्खी उसे परेशान करने लगी, आकर नाक पर बैठने दुख नहीं दिया जा रहा है कि तुमने प्रार्थना नहीं की है, कि तुमने लगी। एक-दो दफे उसने झपट्टा मारा, लेकिन मक्खियां जिद्दी पूजा नहीं की है। ऐसा परमात्मा भी क्या परमात्मा होगा जो होती हैं। जैसे ही उसने झपट्टा मारा, मक्खी फिर आकर नाक पर | तुम्हारी पूजा की अपेक्षा और आकांक्षा रखता हो, और जो बैठ गई। फिर उसे क्रोध आने लगा। यह छोटी-सी मक्खी और इसलिए नाराज हो जाता हो कि तुम ठीक से पूजा नहीं कर रहे, उसे सता रही है! उसका क्रोध बढ़ता चला गया। उसने और प्रार्थना नहीं कर रहे, तुम नियम और व्यवस्था से नहीं चल रहे! झपट्टे जोर से मारे। फिर उसके बर्दाश्त के बाहर हो गया। पास ऐसा परमात्मा तो बड़ा अहंकारी होगा। ऐसा परमात्मा तो स्वयं में ही पड़ी हुई छुरी थी, उठाकर छुरी उसने मक्खी को मारी। | दुखी होगा, तुम्हें कैसे सुखी कर पाएगा? थोड़ा सोचो, अगर मक्खी तो उड़ गई, नाक कट गई। परमात्मा तुम्हारी प्रार्थनाओं से सुखी होता हो, तो मरा जाता 276
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________________ - वासना ढपोरशंख है होगा, पागल हुआ जाता होगा! इतने लोग हैं, कौन प्रार्थना यहां जैनों को भी कुछ बात समझ लेनी जैसी है। भ्रांतियां करता है? जो प्रार्थना करते हैं, वे भी परमात्मा के लिए प्रार्थना हमारी ऐसी हैं कि सत्य भी हमारे हाथ लग जाएं तो हम उन्हें नहीं करते; वे भी कुछ और मांगने के लिए करते हैं। जब काम | विकृत कर लेते हैं। जैन सोचते हैं कि वे जीव-दया कर रहे हैं, निपट जाता है तो भूल जाते हैं। दुख में याद आ जाती है, सुख में | दूसरे पर दया कर रहे हैं। महावीर कहते हैं, जिसने जीव पर दया विस्मरण हो जाता है। दुख में विस्मरण नहीं होता, सुख में | की उसने अपने पर दया की। बस इतना ही। नहीं तो एक नया विस्मरण हो जाता है। परमात्मा को तो वे भी याद नहीं करते हैं। | अहंकार, एक नया भूत पैदा होता है कि मैं जीव-दया कर रहा हूं, तो परमात्मा तो पागल हुआ जा रहा होगा, अगर तुम्हारी | कि मैं अहिंसक हूं, कि मैंने देखो कितने जीवों को बचाया! एक प्रार्थनाओं से उसे प्रसन्न होने की अपेक्षा है तो! | नई अकड़ पैदा होती है। इतना ही कहो कि तुमने अपने को दुख महावीर कहते हैं, ऐसा कोई परमात्मा नहीं है। यह भी तुम्हारे | देने से स्वयं को बचाया। तुमने स्वार्थ साधा। तुमने आत्महित भलावे हैं। तुम सत्य को नहीं देखना चाहते कि तमने दुख साधा। इसमें घोषणा और विज्ञापन करने की कोई भी जरूरत फैलाया, इसलिए दुख पा रहे हो, तो तुम कोई न कोई बहाना नहीं है। तुम ऐसी तो घोषणा नहीं करते कि आज मैंने अपना सिर खोजते हो बाहर। कभी समाज-व्यवस्था में, कभी भाग्य में, दीवाल से नहीं तोड़ा। तुम ऐसा तो नहीं कहते कि आज मैंने पैर कभी प्रकृति के दोषों में, कभी त्रिगुणों में, कभी परमात्मा की में छुरा नहीं मारा। तुम ऐसा कहोगे तो लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, प्रार्थना-पूजा में लेकिन तुम बाहर कोई सहारा खोजते हो। तुम इसमें क्या बड़ा किया? यह तो सभी करते हैं। एक बात नहीं देखना चाहते कि तुम जुम्मेवार हो। अगर तुमने जीव-हिंसा नहीं की, तो कुछ पुण्य किया, ऐसा जीवन का सबसे बड़ा कठोर सत्य यही है-इसे स्वीकार कर मत सोचो। इतना ही कि अपने पर दया की। यह सूत्र बड़ा लेना कि जो मुझे हो रहा है, उसके लिए मैं जुम्मेवार हूं। बड़ी बहुमूल्य है। नहीं तो एक नया पागलपन शुरू होगा। पहले तुम उदासी आएगी। मैं जुम्मेवार हूं-अपने दुखों के लिए, अपनी सोचते थे, दूसरे तुम्हें दुख दे रहे हैं; अब तुम सोचने लगोगे कि चिंताओं के लिए! दूसरे पर जुम्मा टाल के थोड़ी राहत मिलती तुम दूसरों को सुख दे रहे हो। लेकिन अगर तुम दूसरों को सुख दे है। कम से कम इतनी तो राहत मिलती है कि दूसरे कर रहे हैं, मैं सकते हो तो दुख भी दे सकते हो। मूल भ्रांति तो मौजूद रही। क्या करूं! असहाय होने का मजा तो आ जाता है। और अगर तुम दूसरों को सुख-दुख दे सकते हो तो दूसरे तुम्हें महावीर ने कहा, यह धोखाधड़ी अब और मत करो। यह तुमने | क्यों नहीं दे सकते? तर्क तो वहीं का वहीं रहा, कहीं हटा न।। किया था, वही लौट रहा है। यह तुमने दिया था, उसकी ही | महावीर चाहते हैं कि तुम इस गहन सत्य को एक बार प्रगाढ़ता प्रतिध्वनि है। और अगर तुमने यह न देखा तो तुम फिर वही किए से अंगीकार कर लो कि तुम जो करोगे, वह अपने ही साथ कर चले जा रहे हो जिसके कारण तुम दुखी हो। तो जाल फैलता ही | रहे हो। दूसरे निमित्त हो सकते हैं, बहाने हो सकते हैं। लेकिन चला जायेगा। अंततः, अंततोगत्वा, सभी किया हुआ अपने साथ किया हुआ यह दुष्चक्र का अंत हीन होगा। चाक घूमता ही रहेगा। सिद्ध होता है। 'जीववहो अप्पवहो!' जीव का वध अपना ही वध है। जब 'जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया भी तुमने किसी को मारा, अपने को ही काटा और मारा। है...।' 'जीवदया अप्पणो दया होइ।' और जीव पर जब भी तुमने | महावीर कहते हैं, धार्मिक व्यक्ति स्वार्थी व्यक्ति है। उसे दया की, किसी पर भी, तुमने अपने पर ही दया की। समझ में आ गया कि अपने साथ क्या करना है। उसने अपने 'अतः आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव-हिंसा का | साथ शिष्टाचार सीख लिया। अधार्मिक व्यक्ति अशिष्ट है; परित्याग किया है।' यह वचन समझना। 'आत्महितैषी' अपने साथ ही अशिष्टता कर रहा है। अधार्मिक व्यक्ति अज्ञानी आत्मकाम–अत्त कामेहिं। स्वार्थ का जो अर्थ होता है, वही। है; अपने को ही काट रहा है, चोट पहुंचा रहा है। सोचता है, आत्महितैषी, अपना हित चाहनेवालों ने...। दूसरे को चोट पहुंचा रहे हैं। उस सोचने में, उस सपने में, अपने .
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________________ जिन सूत्र भागः1 को ही तोड़ता चला जाता है। से प्रेम हो जाए, और सामान न हो तो कैसे प्रेम करे! 'आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीवहिंसा का परित्याग | लेकिन स्त्रियों के अनुभव से भी यह पता चला कि उनको भी किया है।' उन्होंने किसी भी तरह की हिंसा को अपने जीवन में इसमें रस आया है। चाहे हिम्मत न रही दुबारा इस आदमी के बचाया नहीं। | पास जाने की, लेकिन इस आदमी को वे स्त्रियां कभी भूल न हिंसा का अर्थ होता दूसरे को दुख देने की आकांक्षा। हिंसा सकीं। तो मनोवैज्ञानिकों को पहली दफा एक सूत्र समझ में आना का अर्थ होता है। दूसरे के दुख में सुख लेने का भाव। हिंसा का शुरू हुआ कि स्त्रियों को स्वयं को पीड़ा देने में कुछ रस मालूम अर्थ है: परपीड़न में रस। जिसको आज आधुनिक मनोविज्ञान होता है; जैसे पुरुषों को दूसरों को पीड़ा देने में कुछ रस मालूम सैडिज़म कहता है-दूसरे को पीड़ा देने में रस-उसको ही होता है। महावीर हिंसा कहते हैं। फिर एक दूसरा आदमी हुआ : मैसोच। उसके नाम पर दूसरा महावीर की हिंसा का सिद्धांत अति मनोवैज्ञानिक है। दुनिया | शब्द बना : मैसोचिज़म। मैसोचिज़म का अर्थ है: स्वयं को दुख में दो तरह के लोग हैं। मनोवैज्ञानिक उनका विभाजन करते हैं। देने में रस लेना। वह खुद को सताता था। वह भी कोड़े मारता एक-जिनको वे सैडिस्ट कहते हैं, जो दूसरे को सताने में रस था, लेकिन खुद को मारता था। और जब तक वह अपने को लेते हैं। ठीक से पीटता, मारता और खुद चीखने-चिल्लाने न लगता, एक बड़ा लेखक हुआः सादे। उसके नाम पर सैडिज़म निर्मित तब तक उसकी कामोत्तेजना न जगती थी। तो जो स्त्री उसके प्रेम हुआ। उसका एक ही रस था, दूसरों को सताने में। वह प्रेम भी में पड़ जाती, वह स्त्री को कहता कि पहले मुझे मारो, पीटो, मेरी करता किसी स्त्री को तो द्वार-दरवाजे बंद करके पहले तो उसकी छाती पर नाचो। जैसे काली नाचती है शिव की छाती पर, ऐसा पिटाई करता, कोड़े मारता, लहूलुहान कर देता। वह चिल्लाती | मैसोच कहता कि पहले मेरी छाती पर नाचो, मुझे रौंदो। जब वह | और चीखती, भागती और वह कोड़े मारता। और भागने का | काफी पीटा जाता, और खून बहने लगता और सब तरफ कोड़ों कोई उपाय न था, द्वार-दरवाजे बंद थे। जब तक वह के निशान बन जाते, तब कामोत्तेजना का ज्वार उठता। तब वह चीखती-चिल्लाती न, रोती-भागती न, तब तक उसकी प्रेम कर पाता। ये भी उसके लिए कामोत्तेजना को जगाने का कामोत्तेजना न जागती। ये कमोत्तेजना का उपाय था। जब वह उपाय था। उसके नाम पर मनोवैज्ञानिकों ने दूसरा शब्द बनायाः स्त्री भागने, चीखने-चिल्लाने लगती और लहू बहने लगता, तब | मेसोचिज़म।। उसकी कामोत्तेजना जगती। तब वह उसे प्रेम करता। उसके नाम तो दो तरह के लोग हैं दुनिया में दूसरे के दुख में रस लेनेवाले पर सैडिज़म शब्द निर्मित हुआ। वह जेल में मरा, क्योंकि अनेक और स्वयं के दुख में रस लेनेवाले। स्त्रियों के साथ उसने यही किया। तुम जिनको त्यागी, महात्मा कहते हो, उनमें से अधिक तो लेकिन एक बड़े आश्चर्य की बात पता चली कि जिन स्त्रियों ने मेसोचिस्ट हैं, बीमार हैं। वास्तविक स्वस्थ आदमी न तो दूसरे भी दि सादे से प्रेम किया, उनको फिर किसी दूसरे का प्रेम कभी न को दुख देने में रस लेता है, न खुद को दुख देने में रस लेता है। | जंचा। माना कि वह दुबारा हिम्मत न की उसके पास जाने की, दुख में रस नहीं लेता-स्वस्थ आदमी का लक्षण है। दुख में लेकिन फिर सब प्रेम फीके पड़ गए। यह भी थोड़ी हैरानी की | रस लेने का अर्थ हुआः परवर्शन; कुछ विकृति हो गई; कहीं बात हुई। जैसी उत्तेजना उसने जगाई, जैसा तूफान उसने खड़ा | कुछ गड़बड़ हो गई बात। | कर दिया, वैसा फिर कोई भी न कर पाया। दि सादे तो अपना फूल में कोई रस ले, यह समझ में आता है लेकिन काटों में बैग साथ में लेकर चलता था-कहां कौन मिल जाये, क्या कोई रस लेने लगे...। फूल को कोई अपने हाथों पर रखे, पता! उस बैग में, जैसे डाक्टर लेकर चलता है, उसका सब | आंखों की पलकों से छुआए, समझ में आता है। फूल की माला साज-सामान होता था। कोड़े, कांटे, चुभाने के सामान, सब बनाकर अपने गले में डाल ले, समझ में आता है। सामान लेकर चलता था। कब कहां कोई स्त्री मिल जाए, किसी| लेकिन कांटों को कोई अपने में चुभाने लगे और कांटों का हार 278
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________________ A ST वासना ढपोरशंख है ran Bhar NER बनाकर पहनने लगे, तो कुछ विकृति हो गई। कहीं स्वभाव से दुख देने में कुछ अर्थ ही नहीं है। दुख देना तो जीवन के अवसर च्युत हो गया यह आदमी। | को व्यर्थ करना है, खराब करना है। जहां संगीत उठ सकता था दुख में रस, चाहे वह अपने दुख में हो और चाहे दूसरे के दुख आनंद का, उस ऊर्जा को तुमने दुख में बदल लिया। जहां फूल में हो, हिंसा है। इसलिए अगर तुम मुझ से पूछो तो महावीर के | खिल सकते थे, वहां कांटे बिछा लिये। पीछे चलने वाले जैन मुनियों में निन्यानबे प्रतिशत तो महावीर के | ‘जीव का वध अपना वध है।' ऐसे महावीर परमात्मा की दुश्मन हैं। वे हिंसा में रस ले रहे हैं; यद्यपि उन्होंने हिंसा का रुख | भावना को भीतर से ले आते हैं। मंदिर गिरा देते हैं, परमात्मा को अपनी तरफ बदल लिया है। बचा लेते हैं। क्योंकि जब मेरे देने से तुम तक दुख पहुंचता है यह भी थोड़ा सोचने जैसा है। और फिर मुझ पर लौट आता है, तो इसका अर्थ एक ही हुआ कि महावीर कहते हैं, दूसरे को भी दुख दो तो भी अपने पर लौटता मैं और तुम जुड़े हैं; कोई सेतु है। कुछ आवागमन हो रहा है। है-जरा वर्तुल बड़ा होता है। | कुछ लेन-देन चल रहा है। हमारे फासले और फर्क ऊपर-ऊपर अगर तुमको मैं कोड़ा मारूं तो भी कोड़ा मेरी तरफ लौटेगा, होंगे, भीतर कहीं गहराई में हम जड़े हैं। तभी तो मैं तम्हें दुख दे थोड़ा समय लगेगा; क्योंकि तुम तक की दूरी जाना, फिर पाता हूं और फिर दुख मेरे पास लौट आता है। बीच में कोई लौटना। फिर हो सकता है, तुम भी सीधा-सीधा न भेजो, केयर दीवाल होती, कोई खाई होती, खड्ड होता, सेतु न होता, हमें आफ भेजो; तो लंबी यात्रा होगी। कभी जन्म भी लग जाते हैं। जोड़नेवाला कोई तत्व न होता, तो ठीक था; दुख कैसे लौटता? कभी जन्मों के बाद लौटेगा कोड़ा। मैं भी भूल चुका होऊंगा कि जाता है, आता है। तरंगें जाती हैं, लौट आती हैं। अर्थ हुआ कि कब तुम्हें दिया था लेकिन आएगा। | कोई गहराई में हम एक ही सागर के हिस्से हैं। उस सागर का फिर जिसको मेसोचिस्ट हम कहते हैं, वह ज्यादा कशल है। नाम ही परमात्मा है। वह कहता है, इतनी लंबी यात्रा क्या करनी है; कोड़ा अपने हाथ लेकिन महावीर उसे बाहर स्थापित नहीं करते; तुम्हारे भीतर में लेकर खुद ही को मार लेना उचित है। वह ज्यादा नगद है। स्थापित करते हैं। क्योंकि बाहर जैसे ही परमात्मा स्थापित किया मगर हर हालत में कोड़ा अपने पर ही पड़ता है। तो दुख चाहे तुम जाता है, लोग पूजा और प्रार्थना में लग जाते हैं। लोग जीवन का दूसरे को दो, चाहे अपने को दो-तुम हिंसक हो। रूपांतरण नहीं करते, पूजा-प्रार्थना करते हैं। वे परमात्मा से तुमने देखा होगा काशी के रास्तों पर कांटों पर लेटे हुए कहते हैं, हे प्रभु! जीवन को बदलो! बिगाड़ते जीवन को खुद हैं त्यागियों को-वे मैसोचिस्ट हैं, वे हिंसक हैं। वे रस ले रहे हैं और आशा रखते हैं, कोई और बदलेगा। तो फिर ऐसा परमात्मा खुद को सताने में। भी पुराने ढांचे को चलाने का ही आधार बन जाता है। क्योंकि तुमने ऐसे साधुओं को देखा होगा, जो महीनों का उपवास कर | जब तक तुम न बदलोगे, कोई न बदलेगा। अगर कोई परमात्मा रहे हैं। वे दुखवादी हैं। वे अपने को सता रहे हैं। वे हिंसा में होता तो उसने कभी का बदल दिया होता। तुम कितने दिन से मजा ले रहे हैं। तुमने ऐसे साधुओं के बाबत सुना होगा, जिन्होंने प्रार्थना कर रहे हो! तुम्हारे हाथ कब से जुड़े हैं नमाज में! तुम अपनी आंखें फोड़ लीं। वे दुखवादी हैं। तुमने ऐसे साधुओं के कितने दिन से झुके बैठे हो मूर्तियों के समाने! कुछ भी तो नहीं संबंध में सुना होगा जिन्होंने अपनी जननेंद्रियां काट ली हैं। वे होता। सदियां बीत गईं, जनम-जनम तुमने प्रार्थना की है, पूजा दुखवादी हैं। की है-कुछ भी तो नहीं होता। तुम वहीं के वहीं हो। आदमी दो हिस्सों में बंटा है: दूसरे को दुख दो या अपने को देखो पूजा करनेवाले को! रोज चला जाता है मंदिर, रोज लौट दुख दो, मगर दुख दो। आता है—वही का वही है! कोई भी तो रूप बदलता नहीं। हां, स्वस्थ आदमी सब भांति की हिंसा का त्याग करता है। यह एक और खतरा पैदा हो जाता है। अब वह आश्वस्त हो जाता है महावीर के स्वास्थ्य की परिभाषा है। स्वस्थ व्यक्ति अहिंसक कि ठीक है, प्रभु खयाल रखेगा। और जो उसे करना है, किये होता है। न वह दूसरे को दुख देता न स्वयं को दुख देता, क्योंकि | चला जाता है। जो करता है, उससे जीवन निर्मित होगा; पूजा से 279
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________________ जिन सूत्र भागः1 HARIWARRIA नहीं। पहुंचाना अपने ही स्वभाव को नुकसान पहुंचाना है। देखो-देखो इन आंसुओं पे 'जमील' "जिसे तू हनन योग्य मानता है वह तू ही है। और जिसे तू तुहमते-इल्तिजा न आ जाए! आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह भी तु ही है। इसलिए न तो जमील ने कहा है कि ये जो आंसू बह रहे हैं आनंद के, कोई किसी को आज्ञा में रख, न किसी को हनन योग्य मान।' भूल से इन्हें प्रार्थना न समझ ले! कहीं इन पर प्रार्थना का आरोप यहां सभी मालिक हैं; गुलाम होने को कोई भी नहीं है। न आ जाए! थोड़ा सोचना। तुम तो जिनसे प्रेम करते हो, उन्हें भी गुलाम महावीर ने कभी हाथ भी नहीं जोड़े, झुके भी नहीं-कहीं | बना लेते हो। पति पत्नी का मालिक हो जाता है। वह पत्नी से प्रार्थना का आरोप न आ जाए! कहीं कोई यह न कह दे कि यह कहता है, मान कि मैं परमात्मा हूं। पति परमेश्वर हो जाता है। आदमी प्रार्थना कर रहा है! पत्नी यद्यपि लिखती है, 'तुम्हारी दासी' चिट्ठी-पत्री में, बाकी क्योंकि प्रार्थना का अर्थ हुआ : मैंने किया है गलत, कोई और वह असलियत नहीं है। दिल में वह भी सोचती है कि तुम्हारी उसे ठीक कर दे। लेकिन यह तो गणित के बाहर होगा, जीवन के | मालकिन। इसीलिए तो घर स्त्री का समझा जाता है, वह गणित के विपरीत होगा। मैंने किया गलत, मुझे ही ठीक करना घरवाली समझी जाती है। कोई पति को थोड़े ही घरवाला कहता होगा। जो घट रहा है मेरे पास, वह मेरे ही कर्मों का फल है। मुझे है, पत्नी को! मालकियत उसकी है। और मुश्किल है ऐसा पति कर्म रूपांतरित करने होंगे। कठिन होगा मार्ग, लेकिन कोई | खोजना जो उसकी मालकियत मानकर न चलता हो। तो उपाय नहीं। कठिन होगा मार्ग, पर बस एक ही मार्ग है। कठिन ऊपर-ऊपर पति बाजार में दिखलाता रहता है कि मैं मालिक हूं, ही मार्ग है। | भीतर-भीतर पत्नी रोज उसे जतलाती रहती है सुबह से सांझ 'जिसे तू हनन योग्य मानता है वह तू ही है।' जिसे तू मारने तक, अनेक मौकों पर कि मालिक कौन है, ठीक समझ लेना! चला है, जिसे तूने मारने की योजना बनाई है, वह तू ही है। मुल्ला नसरुद्दीन के घर उसके मित्र इकट्ठे थे एक दिन। कुछ 'जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह भी तू ही है।' जिसे झंझट हो गई। पत्नी झपटी, जैसी उसकी आदत। तो वह तूने गुलाम बना लिया है वह भी तू है। जिसे तू मारने चला है वह भागकर बिस्तर के नीचे छिप गया। पत्नी झुक आयी और उसने भी तू है। यह एक ही आत्मा का विस्तार है। ठीक तेरे जैसा ही कहा, 'निकल बाहर...! निकलो बाहर।' तो मुल्ला और चैतन्य दूसरे में भी है। भीतर सरकता गया बिस्तर के। उसने कहा, 'निकलते हो कि हजार मिट्टी के दीये हों, ज्योति एक है। ज्योति का स्वभाव एक नहीं...!' उसने कहा कि 'आज तय ही हो जाये कि मालिक है। मिट्टी के दीयों में बड़ा फर्क हो सकता है—एक आकार, | कौन है! नहीं निकलते!' दूसरा आकार, हजार आकार हो सकते हैं; एक रंग, दूसरा रंग, यह कोई तय करने का ढंग हआ। लेकिन जिन्हें हम प्रेम करते हजार रंग हो सकते हैं। छोटे दीये, बड़े दीये, लेकिन सबके हैं उनको भी हम गुलामी में बांधते हैं। इसलिए तो प्रेम से भी भीतर जो ज्योति जलती है वह एक है। लोग ऊब जाते हैं; प्रेम से भी छुटकारा चाहते हैं। बड़ी अजीब जो मेरे भीतर है, उससे अन्यथा तुम्हारे भीतर नहीं है। मुझ में बात है! यहां इस जगत में प्रेम भी दुख देता मालूम पड़ता है। और तुम में जो फर्क और फासले हैं, वे मिट्टी के दीये के हैं। मेरी क्योंकि प्रेम हम कहते हैं, है कुछ और। नाम हम अच्छे चुनते हैं, देह अलग, तुम्हारी देह अलग; रंग-ढंग अलग, संदर चुनते हैं लेकिन नाम ही संदर और अच्छे हैं. भीतर कछ शैली-व्यवस्था अलग-पर सब ऊपर-ऊपर की बात है! और है। जैसे-जैसे भीतर उतरोगे, वैसे-वैसे ही भेद समाप्त होते जाते हैं। तुम जरा गौर करना कि जब तुम किसी को कहते हो कि मुझे जब ठीक अंतर्तम में पहुंचोगे तो पाओगेः जो दीया यहां जल रहा तुझसे प्रेम है, तो तुम जरा गौर करना, तुम्हारी असली आकांक्षा है, जो ज्योति यहां जल रही है, वही ज्योति वहां भी जल रही है। क्या है? असली आकांक्षा कुछ और होगी। प्रेम के नाम के नीचे ज्योति का स्वभाव एक है। इसलिए इस ज्योति को नुकसान कुछ और छिपा होगा-हिंसा छिपी होगी, स्वामित्व का भाव 12801
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________________ वासना ढपारशख है छिपा होगा, महत्वाकांक्षा छिपी होगी। एक आदमी को कब्जे में | चम्मच से बाहर सामान भी गिर जाता, कभी चम्मच भी गिर ले लेने की आकांक्षा छिपी होगी। इसीलिए तो जिसको तुम कब्जे जाती, कभी उसके कपड़ों पर भी खाना गिर जाता। तो पत्नी में ले लेते हो, उसमें रस खो जाता है। बहुत नाराज होती थी। आखिर पत्नी ने एक दिन उसे उठा दिया किस पति को पत्नी में रस है? बड़ा रस था जब तक पाया न कुर्सी से, खाने की टेबल पर से, कोने में ले जाकर बिठा दिया था। तब तक जान दांव पर लगा देने को तैयार थे। मिलते ही और कहा कि चम्मच से अब खाना तुम बंद करो! एक बर्तन में सब हाथ-पैर ढीले हो जाते हैं, बात खतम हो गई! क्योंकि जो इकट्ठा सब भोजन रख दिया और कहा कि इसी से तुम भोजन रस था, वह जीतने में था। जो रस था, वह चुनौती में था। अब करो। उस दिन से बूढ़े को टेबल पर आने की मनाही हो गई। चुनौती दूसरी स्त्रियों से आती है, पत्नी से नहीं आती। पत्नी तो लेकिन बूढ़ा बूढ़ा होता जा रहा था और हाथ-पैर उसके कंपते थे जीत ली। अब जीते हुए को क्या जीतना! कोई भी रास्ते से और अब और कंपने लगे। क्योंकि अब घर में यह स्थिति हो गई गुजरती स्त्री आकर्षण का कारण बन जाती है, क्योंकि फिर, फिर कि आदमी की आदमी की तरह गिनती न रही। एक दिन उसके कोई विजय की यात्रा के लिए एक निमंत्रण मिला। प्रेम के नाम हाथ से बर्तन भी छूट गया, तो उसकी बहू ने कहा कि 'अब पर जीत की आकांक्षा होगी। जीत यानी अहंकार। और फिर प्रेम बहुत हो गया! अब तुम्हें तो जानवरों जैसी व्यवस्था करनी के नाम पर कब्जियत की दौड़ चलती है, कौन कब्जा करे! कौन पड़गी।' तो उसने एक बड़ी बालटी में उसके सामने भोजन असली मालिक है, यह तय करने में जिंदगी खराब हो जाती है। रखना शुरू कर दिया; जैसे गाय-भैंस का रखते हों। हर छोटी-बड़ी बात पर झगड़ा चलता है। कलह, एक-दूसरे को ऐसा कुछ दिन चला। इस युवती का छोटा बेटा था। वह यह आज्ञा में रखने की चेष्टा!...बाप बेटे से कहता है कि मेरी सब देखता रहता था। एक दिन वह बाहर से, बढ़ई कुछ काम मानकर चल, क्योंकि मुझे तुझसे प्रेम है। मैं जो कहता हूं वैसा कर रहा था घर में, लकड़ी के टुकड़े उठा लाया और उन्हें कर, क्योंकि मुझे तुझसे प्रेम है। मैं जो कहता हूं, उससे विपरीत जोड़-जोड़कर कुछ बनाने लगा। तो उसकी मां ने और उसके मत करना, क्योंकि मुझे तुझसे प्रेम है। मैं तेरे हित में कह रहा हूं! | पिता ने, दोनों टेबल पर बैठे थे, पूछा, 'क्या कर रहे हो?' तो अपना हित साध नहीं पाये, दूसरे का हित तुम क्या साधोगे? | उसने कहा कि मैं भी आप दोनों के लिए, जब आप बूढ़े हो खुद कोरे के कोरे रह गये, बेटे को उपदेश दिये जा रहे हो! बेटा जाएंगे, तो यह लकड़ी की बालटी बना रहा हूं। भी सुन लेता है जब तक कमजोर है। वह भी देखता है कि ठहरो स्वभावतः सब चीजें वर्तुल में घूमती हैं। जो तुम अपने बाप के थोड़े, जल्दी ही मैं भी शक्तिशाली हो जाऊंगा। तो अगर बेटे साथ कर रहे हो, याद रखना, बेटा तुम्हारे साथ करेगा! ध्यान जवान होकर बाप को सताने लगते हैं, यह कुछ आकस्मिक नहीं रखना, जो बेटा तुम्हारे साथ कर रहा है, वह तुमने अपने बाप के है। हर बाप ने बेटे को, जब वह छोटा था, सताया है-उसके साथ किया था। और ध्यान रखना, तुम जो बेटे के साथ अभी ही हित में सताया है; मगर सताया है। हित की बातें तो सब कर रहे हो, वह कल लौटायेगा। क्योंकि जिंदगी में कोई भी चीज व्यर्थ की बकवास है-सताने का मजा...! रुकती नहीं, लौटानी पड़ती है। बूढ़े हो जाने पर बेटा उत्तर देने लगता है। जो दिया था, वह सोच-समझकर! प्रेम के नाम पर अधिकार, गुलामी मत वापिस लौटने लगता है। थोपना। क्योंकि प्रेम तो परम स्वतंत्रता है। जिसको प्रेम है, वह मैंने सुना है, एक घर में शादी होकर, पत्नी आयी। तो बूढ़ा अकारण है। वह कुछ भी थोपता नहीं। प्रेम का अर्थ ही होता है: बाप, पति का बाप, उसे पसंद नहीं पड़ता था। किसी को पसंद दूसरे को दूसरा होने देने की स्वतंत्रता। दूसरा जैसा है उसको नहीं पड़ता। वह चाहती थी कि किसी तरह इस बूढ़े से छुटकारा वैसा ही अंगीकार कर लेने की क्षमता प्रेम है। न उसे बदलना हो। एक बोझ...। लेकिन कोई उपाय न था। कहीं जाने की | है-बड़े-बड़े आदर्शों के नाम पर भी नहीं, क्योंकि सब आदर्श कोई जगह न थी। बूढ़े को वहां रहना ही पड़ा। वह बहुत बूढ़ा हो | मालकियत करने के ढंग हैं। तुम बेटे से कहते हो, यह आदत गया था। उसके हाथ भी कंपते थे। भोजन करता तो कभी-कभी गलत है, इसे छोड़ो। अब तुम आदत के बहाने बेटे की गर्दन पर
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________________ Luitel जिन सत्र कब्जा कर रहे हो। आदत अगर गलत है तो निवेदन कर दो। चाहता है। क्योंकि जब तक गुलाम बनाने की चाह है तब तक आदत अगर गलत है तो जतला दो। लेकिन इसके बहाने | गुलामी आती रहेगी। मालकियत मत करो। इतना ही कहो कि मुझे गलत दिखाई पड़ती। ठीक तम जैसे ही लोग हैं सब तरफ। जो तम चाहते हो. वही वे है आदत, फिर तुम्हारी मर्जी! फिर तुम अपने मालिक हो! फिर भी चाहते हैं। जो तुम नहीं चाहते, वही वे भी नहीं चाहते। इस अगर तुमने गलत को भी चुना, तो चुनो! सत्य को ठीक से समझना। कल रात मैं एक आधुनिक विचारक, 'साज़' की एक किताब जीसस से कोई पूछता है, एक युवक निकोदेमस, कि मैं जल्दी पढ़ रहा था। उसमें कुछ परिभाषाएं दी हैं। उसमें जवान, प्रौढ़ में हूं, मुझे कुछ छोटा-सा सूत्र दे दें जो मेरा जीवन बदल दे। तो आदमी की परिभाषा भी है। उसने लिखा है : प्रौढ़ वह आदमी जीसस ने कहा, दूसरे के साथ वह मत करना, जो तुम चाहते हो, है, जिसे ठीक करने की तो आजादी है ही, गलत करने की भी दूसरा तुम्हारे साथ न करे। उन्होंने कहा, इतना काफी है। इतने से आजादी है। अगर गलत करने की आजादी न हो तो आजादी सारा धर्म निकल आता है। दूसरे के साथ वह मत करना, जो तुम क्या हुई? अगर ठीक ही करने की स्वतंत्रता हो तो यह तो नहीं चाहते कि दूसरा तुम्हारे साथ करे। बस काफी है। स्वतंत्रता शब्द का बड़ा दुरुपयोग हुआ। | यह एक वचन ही बाइबिल की पूरी कथा है, पूरा सार है। प्रेम स्वतंत्र करता है। निश्चित, सावधान करता है, कि महावीर का भी पूरा सार यही है। वे समझा रहे हैं कि तुम्हें यह यहां-यहां मैं गया हूं और मैंने गड्ढे पाए, तुम सोच-समझ कर | बात खयाल में आ जाये कि दूसरा 'दूसरा' नहीं है तुम्हारे जाना, सम्हलकर जाना। अगर जाने का मन हो तो मेरा अनुभव जैसा ही चैतन्य, तुम्हारी जैसी ही आत्मा, ठीक तुम्हारे ही जैसे ले लो, मेरे अनुभव के बाद जाना। जाने से नहीं रोकता हूं; सुख और दुख का आकांक्षी, ठीक तुम जैसा ही मोक्ष का खोजी, लेकिन मैं गिर गया था, उसकी खबर तुम्हें दे देता हूं। हो सकता स्वतंत्रता का दीवाना है। है, तुम न भी गिरो। हो सकता है, तुम सम्हलकर जाओ और इतना खयाल रखना। इतना खयाल रखकर अगर चले तो न बचकर निकल आओ। लेकिन मैं जल गया था। तो इतना तुम्हें तो तुम किसी को बांधोगे और न तुम बंधोगे। कह देता हूं कि वहां जलन है, फिर तुम सोचकर जाना। न बांधनेवाला भी बंध जाता है। कारागृह का मालिक भी जाओ, तुम्हारी मर्जी! जाओ तुम्हारी मर्जी! कारागृह को छोड़कर थोड़े ही जा सकता है। कैदी भीतर होंगे, अपना सत्य निवेदन कर देना पर्याप्त है। लेकिन गर्दन पर हम मालिक बाहर होगा-लेकिन बाहर जो है वह भी खड़ा रहता है हावी हो जाते हैं। हम आदर्शों का उपयोग भी कारागृहों की तरह कि कैदी भाग न जायें। उसे भी कैदियों कि साथ कैदी ही हो जाना करते हैं, जंजीरों की तरह करते हैं। | पड़ता है। महावीर कहते हैं: "जिनों ने, जाग्रत पुरुषों ने कहा है, राग आदि की अनुत्पत्ति "जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। और जिसे तू अहिंसा, और उसकी उत्पत्ति हिंसा है।' आज्ञा में रखने योग्य मानता है वह भी त ही है।' | 'जागे हए पुरुषों ने कहा है, राग आदि की उत्पत्ति हिंसा और एक बडी महत्वपर्ण बात इस सत्र से निकलती है। अगर तमने अनत्पत्ति अहिंसा है।' किसी को गुलाम बनाने की चेष्टा की तो वही व्यक्ति तुम्हें भी यह अहिंसा का बड़ा सूक्ष्मतम विश्लेषण है। दूसरे को चोट गुलाम बनाने की चेष्टा करेगा। क्योंकि जिसे तुम आज्ञा में रखना करने जाओ, यह तो दूर की बात है। यह तो फिर विचार का चाहते हो, वह तुम ही हो। भूल के किसी को गुलाम मत बनाना, स्थूल होने की बात है। तुम्हारे मन में राग उठा तभी हिंसा उठ अन्यथा तुम गुलाम बन जाओगे। और अगर तुम गुलाम बन गए। जाती है। फिर तुम करो या न करो, यह सवाल नहीं है। तुम्हारे हो तो खोजबीन करना; तुम पाओगे कि गुलाम बनाने की मन में जरा-सा राग उठा...तुम राह से जाते थे, एक बड़ा मकान आकांक्षा का ही यह परिणाम है। परिपूर्ण स्वस्थ आदमी वही है, | देखा, तुम्हारे मन में हुआ: ‘ऐसा मकान मैं भी बनाऊं!' हिंसा जो न तो किसी का गुलाम है और न किसी को गुलाम बनाना हो गई। हिंसा का बीज पड़ गया; क्योंकि अब इस बड़े मकान 2820
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________________ Dom HIV वासना ढपोरशख है E न E को बनाने के लिए धन चाहिए, इस बड़े मकान को बनाने के लिए मेरे मन में यह भाव उठा कि धन्यभागी है प्रसेनचंद्र-मेरे साथ दूसरों से धन छीनना पड़ेगा। इस बड़े मकान को बनाने के लिए ही बड़ा हुआ, साथ हम पढ़े और लिखे और खेले और ये इतने अब प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी। इस बड़े मकान को बनाने के लिए बड़े आंतरिक साम्राज्य का मालिक हो गया और मैं कुछ भी न | ईमानदारी, बेईमानी, सब मार्गों से खोजबीन करनी | कर पाया; मैं बाहर की व्यर्थ की चीजें जटाने में लगा रहा: मेरी पड़ेगी-जैसे भी। इस बड़े मकान की आकांक्षा के उठते ही जिंदगी यू ही गई–तो तब मेरे मन में सवाल उठा था कि अगर तुम्हारे भीतर हिंसा का बीज पड़ गया। देर लगेगी वृक्ष बनने में, प्रसेनचंद्र की इसी समय मृत्यु हो जाये तो यह किस स्वर्ग में या लेकिन अगर बचना हो वृक्ष से तो बीज से ही बच जाना। मोक्ष में जन्मेगा, वह मैं आप से पूछता हूं। इसलिए महावीर कहते हैं, राग की उत्पत्ति-हिंसा। ऐसा मत महावीर ने कहा, उस समय अगर प्रसेनचंद्र की मृत्यु हो जाती सोचना कि किसी की गर्दन काटोगे तब हिंसा। तो वह सातवें नर्क में पड़ता। यही अपराध और पाप का भेद है। अपराध--जब पाप | बिंबिसार ने कहा, आप क्या कहते हैं? सातवें नर्क में? तो वास्तविक होकर प्रगट हो जाता है। जब पाप कानून की पकड़ में हमारी क्या गति होगी? वह सब छोड़कर खड़ा है! आ जाता है तो अपराध। और जब तक पाप कानून की पकड़ में महावीर ने कहा कि तुम आए, उसके पहले तुम्हारा नहीं आता तभी तक पाप। तुम अपने मन में बैठे अगर दुनियाभर फौज-फांटा आया; तुम्हारे वजीर निकले, सेनापति निकले, को भी मारने का विचार करते रहो, तो कोई अदालत तुम्हें दंड सिपाही निकले, उन सब ने भी प्रसेनचंद्र को देखा। तुम्हारे दो नहीं दे सकती। पुलिस नहीं आ सकती पकड़ने कि तुम बहुत वजीर उसके पास खड़े होकर बात करने लगे कि ये देखो, बुद्ध हिंसा के विचार कर रहे हो। विचार की स्वतंत्रता है तुम्हें। विचार | की तरह यहां खड़ा है! यह प्रसेनचंद्र है। यह बड़ा सम्राट था। को व्यक्त मत करना। अगर आज लगा रहता अपने काम में तो सारी जमीन का मालिक कानून इतनी ही फिक्र करता है कि तुम जो सोचते हो, करना हो जाता। यहां बुद्ध की तरह खड़ा है नग्न! और ये अपने वजीरों मत; किया तो पकड़े गये। अगर तुम सिर्फ सोचते रहो, तुम्हारी के ऊपर सब छोड़ आया है। इसके बेटे छोटे हैं और वजीर सब मौज। लेकिन धर्म इससे गहरे जाता है। धर्म कहता है, तुम लूटे ले रहे हैं। जब तक इसके बेटे बड़े होंगे तब तक खजाने में सोचना मत। क्योंकि जो तुमने सोचा, कितनी देर बचोगे करने कुछ बचेगा ही नहीं। से? विचार वस्तु बन जाता है। जो भाव है, वह कल घना होकर उन दोनों वजीरों ने ऐसी बात की, प्रसेनचंद्र ने सुनी। वह आंख बरसेगा। आज जो बिलकुल छोटा-सा मालूम पड़ता था, वह बंद किये खड़ा था। लेकिन उसने सुनी। सुनते ही क्रोध आ कल बड़ा हो जायेगा; वह फैलता रहेगा। आज कहीं भी पता न गया। उसने कहा, 'अच्छा! तो मेरे वजीर समझते क्या हैं, क्या चलता था, तुम बिलकुल शांत बैठे थे। मैं मर गया हूं! मैं अभी जिंदा हूं!' क्रोध में, जैसी उसकी पुरानी महावीर के जीवन में उल्लेख है कि उनका एक शिष्य थाः आदत थी, हाथ उसका तलवार पर चला गया। तलवार अब प्रसेनचंद्र। वह सम्राट था पहले, फिर संन्यस्त हो गया, नग्न नहीं थी, अब तो नंगा खड़ा था। लेकिन पुरानी आदत...! मुनि हो गया। तलवार पर हाथ चला गया। जब तलवार पर उसका हाथ गया एक दिन प्रसेनचंद्र का एक दूसरा मित्र बिंबिसार महावीर के | तो उसकी पुरानी एक और आदत भी थी कि जब भी वह बहुत दर्शन को आया। वह भी सम्राट था। उसने आकर महावीर को | क्रोध में आ जाता और तलवार पर उसका हाथ जाता तो दूसरे पछा कि राह में प्रसेनचंद्र को खड़े देखा एक गफा में। धन्यभागी हाथ से वह अपना मुकट सम्हालता कि कहीं वह गिर न जाये है प्रसेनचंद्र! मेरा बचपन का साथी है। वह मुनित्व को उपलब्ध क्रोध में। अब मुकुट भी न था। दूसरा हाथ उसने मुकुट हो गया। वह दिगंबर मुनि हो गया। एक मैं हूं अभागा, अभी भी सम्हालने के लिए रखा; वहां कुछ भी न था। अपने ही माथे को सड़-गल रहा हूँ संसार में। एक प्रश्न मेरे मन में उठा है, वह छूकर उसे याद आयी कि अरे, यह मैं क्या कर रहा हूं! तत्क्षण आप से पूछना है। जब मैं प्रसेनचंद्र के पास से गुजर रहा था और उसने अपना तनाव छोड़ दिया, हिंसा का भाव छोड़ दिया। 283
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________________ जिन सूत्र भाग 1 तो महावीर ने कहा, जब तुम गुजर रहे थे उसके पास से, तब मिलता वहां भी खोजे चले जाते हैं! उसका हाथ तलवार पर था। मरता तो सातवें नर्क जाता। लेकिन एक सूफी फकीर के घर एक रात चोर घुस गए। सूफी सोया अब अगर मरे तो मोक्ष उसका है। घड़ी भर का ही फासला हुआ था, उठा और दीया जला लिया उसने। चोर बड़े घबड़ा गए। है। बाहर से देखने पर प्रसेनचंद्र अब भी वैसा है। बाहर तो कोई उसने कहा, 'घबड़ाओ मत! मैं तुम्हारा साथ दूंगा।' भी फर्कन पड़ा, लेकिन भीतर की भाव-दशा बदल गई। उन्होंने कहा, 'मतलब? तुम पागल तो नहीं हो? होश में तुम्हारा होना, तुम्हारा भीतर, तुम्हारा आंतरिक तत्व है। भाव हो? हम चोर हैं!' तम्हें भीतर बदलते हैं। विचार तुम्हें भीतर बदलते हैं। बाहर तो उसने कहा, 'तम फिक्र छोडो। इस घर में मैं तीस साल से रह जब तुम विचारों को लाते हो तो समाज शुरू होता है। समाज | रहा हूं और खोज रहा हूं कि कुछ मिल जाये, मिलता नहीं। मैं जहां शुरू होता है वहां कानून शुरू होता है। लेकिन तुम जहां हो, तुम्हें साथ दूंगा। अगर तुम खोज लो, आधा-आधा बांट लेंगे। वहां पाप और पुण्य का हिसाब है, वहां धर्म का हिसाब है। तो मैं दीया जलाकर आया, भाग मत जाना।' 'राग आदि की उत्पत्ति हिंसा, अनुत्पत्ति अहिंसा है।' जिस जिंदगी में तुम रह रहे हो जन्मों से, उसमें कुछ पाया है? जान भी जिंदगी पे देते हैं लेकिन उम्मीद नहीं छूटती। शायद मिले कल, ऐसे आशा के जिंदगी काबिले-यकी भी नहीं। सहारे बंधे जीते हो। अनुभव पर सदा तुम्हारी आशा जीत जाती मैं हूं वोह जिससे चर्ख दबता था है। यही जीवन का सबसे बड़ा रोग है : अनुभव पर आशा की अब तो गरदानती जमीं भी नहीं। जीत। अनुभव तो कहता है, कुछ भी नहीं है। अनुभव तो हजार आज नहीं कल, यह शरीर तो गिरेगा, मिट्टी में मिल जायेगा। बार कह चुका कि कुछ भी नहीं है। अनुभव से तो सदा हाथ में मैं हूं वोह जिससे चर्ख दबता था-कभी आकाश दबता था। राख लगी है। लेकिन आशा कहती है, कौन जाने! अब तो गरदानती जमीं भी नहीं-फिर जमीन भी कोई फिक्र न उम्मीद तो बंध जाती, तस्कीन तो हो जाती करेगी। वादा न वफा करते, वादा तो किया होता। जान भी जिंदगी पे देते हैं। उम्मीद तो बंध जाती, तस्कीन तो हो जाती—एक भरोसा तो जिंदगी काबिले-यकी भी नहीं। आ जाता, एक आशा तो बंध जाती! वादा न वफा करते-कोई और जिस जिंदगी पर हम मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं, जरूरत न थी कि जो वायदा किया था वह पूरा करते। वादा तो वह जिंदगी पानी का एक बबूला है-अब मिटा तब मिटा; एक किया होता! सपने में खींची गई लकीर है—खिंची भी नहीं. सिर्फ खिचे होने | __ आदमी इतने से ही जीये चला जाता है: 'कहा तो होता! का खयाल है! आशा तो बंधा दी होती! सांत्वना तो रखवा देते!' जिस जिंदगी के लिए हम मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं उस तुमने कभी गौर किया? तुम उन चीजों पर भी भरोसा किये जिंदगी का मूल्य कितना है? जिस दिन व्यक्ति को अपने जीवन जाते हो जिनको तुम जानते हो कुछ परिणाम होने का नहीं। बहुत का मूल्य दिखाई पड़ना शुरू होता है कि इस जीवन का कोई भी बार जान चुके हो कि कुछ मिलता नहीं! कितनी बार क्रोध मूल्य नहीं है, मिट्टी में मिट्टी गिर जायेगी, तो मैं व्यर्थ इस मिट्टी किया! कितनी बार कामवासना में जले, डूबे, क्या मिला? को बचाने के लिए जो उपाय करता हूं, राग-द्वेष करता हूं, उनका हाथ खाली के खाली रहे। लेकिन फिर भी...। कोई सार नहीं है। जीवन की असारता दिखाई पड़ जाये तो सब ___ हजार बार भी वादा वफा न हो लेकिन राग-द्वेष की असारता दिखाई पड़ जाती है। उस असारता के | मैं उनकी राह में आंखें बिछा के देख तो लूं। अनुभव का नाम ही अहिंसा है। -न आये, कोई हर्जा नहीं! हजार बार न आये, कोई हर्जा लेकिन हम झूठ में ऐसे रगे-पगे हैं, कि जहां बार-बार आशा नहीं। एक हजार एकवीं बार शायद आ जाये। मैं उनकी राह में टूटती है वहां भी आशा किये चले जाते हैं; जहां कभी कुछ नहीं आंखें बिछा के देख तो लूँ! 284
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________________ H HTRARA वासना ढपोरशंख है I ऐसे ही सब बैठे हैं अपने दरवाजों पर, राह में आंखें बिछाए, | कहा, 'अच्छा दो करोड़ की सही।' उसने कहा, अरे, चार की उसकी, जो न कभी आया है और न कभी आएगा। बंद करो | कर दूं? मगर हुआ कुछ नहीं। वह आदमी थोड़ा घबड़ाया। दरवाजे। उठो, बहुत देख चुके यह राह! तुम जिसकी राह देख | उसने कहा कि भई करते क्यों नहीं...चार ही सही। उसने कहा, रहे हो, वह है ही नहीं। उसके आने का कोई सवाल नहीं है। 'अरे, आठ की कर दें न...!' ऐसा ही ढपोरशंख था वह। वासनाओं से जिसने आनंद के आने की राह देखी हैं वह गलत उससे कुछ हुआ नहीं, वह दुगना करता जाता...! की राह देख रहा है, जो आ ही नहीं सकता। वासना का स्वभाव | वासना ढपोरशंख है। राग ढपोरशंख है। वह तुमसे कहता है आनंद नहीं। सिर्फ आशा बंधाती है। वासना ढपोरशंख है। कि होगा, होगा; जितना मांग रहे हो उससे ज्यादा होगा। तुम्हारे तुमने कहानी सुनी है? एक आदमी ने शिव की बड़ी भक्ति सपने से भी बड़ा सपना पूरा कर के दिखला दूंगा। क्या तुमने की। जब उसकी भक्ति पूरी हो गई, शिव ने कहा, तू वरदान मांग खाक आशा की है! जो तुम्हें दूंगा, तुम चकित हो जाओगे। ले। उस आदमी ने कहा, 'मैं क्या मांगू! आप ही जो उचित हो, तुमने इसकी कभी आशा भी नहीं की थी, सोचा भी न था। दे दें।' शिव ने उठाकर अपना शंख दे दिया और कहा, यह शंख मगर ये सब बातें हैं। अनुभव तो कुछ और कहता है। अनुभव है, इससे तू जो भी मांगेगा मिल जायेगा। तू कहेगा कि एक तो कहता है, न दो की वर्षा होती है, न चार की वर्षा होती है, न मकान मिल जाये, एक मकान मिल जायेगा। तू कहेगा, धन की | आठ की वर्षा होती है। लेकिन आशा बड़ी होती चली जाती है। वर्षा हो जये, धन की वर्षा हो जायेगी। | आशा कहे चली जाती है, 'अरे! और कर दूं! तुम घबड़ा क्यों उस आदमी ने तत्क्षण-शिव को तो भूल ही गया-प्रयोग रहे हो? अगर इतने दिन बेकार गये, कोई फिक्र नहीं, आगे किया कि हीरे-जवाहरात बरस जाएं, बरस गए। घर, आंगन, देखो, भविष्य में देखो। अतीत का हिसाब मत रखो। सूरज द्वार सब भर गए। यह खबर धीरे-धीरे आसपास फैलने लगी। ऊगेगा! चंदा चमकेगा! जरा आगे देखो!' क्योंकि अचानक वह आदमी ऐसी शान से रहने लगा कि दूर-दूर आशा तुम्हें आगे खींचे लिये चली जाती है। तक उसकी सुगंध फैल गई। एक संन्यासी उसके दर्शन को इसलिए महावीर कहते हैं, 'राग की उत्पत्ति...।' जहां से आया। वह रात ठहरा। संन्यासी ने कहा कि मुझे पता है कि तुम्हें आशा का जन्म होता है, वहीं समझने की जरूरत है, वहीं जागने शंख मिल गया है, क्योंकि मुझे भी मिल गया है। मैंने भी शिव की जरूरत है। वहीं आशा को मत सहारा देना। कहना, 'ठीक की भक्ति की थी। मगर तुम्हारा शंख मुझे पता नहीं, मेरा शंख ढपोरशंख, तुझे जो कहना हो, कह। हम कुछ मांगते ही नहीं। न तो महाशंख है। इससे जितना मांगो, दुगना देता है। कहो लाख हम लाख मांगते न दो लाख मांगते। हमने मांग ही छोड़ दी।' मिल जायें दो लाख...। थोड़े दिन में तुम पाओगे कि जब तुम न मांगोगे तो ढपोरशंख तो उसने कहा, देखें तुम्हारा शंख! लोभ बढ़ा। इतना सब दुगना न कर पाएगा। क्योंकि वह दुगना तभी करता है, जब तुम मिल रहा था उसे, लेकिन फिर भी लोभ पकड़ा। उसने कहा, मांगते हो। तुम न मांगो तो वह चुप हो जाएगा। तुम न मांगो तो देखें तुम्हारा शंख। उस संन्यासी ने शंख दिखलाया और वासना आशा न बंधाएगी। तुम मांगते हो, इसलिए बंधाती है। संन्यासी ने शंख से कहा कि एक करोड़ रुपये चाहिए। शंख भूल तुम्हारे मांगने में हो जाती है। तुमने मांगा कि तुम आशा के बोला, एक क्या करोग, दो ले लो! वह भक्त तो...कहा कि चक्कर में पड़े। आशा कहती है, दुगना दिला देंगे! बस ठीक है। आप तो संन्यासी हैं, आपको क्या करना! छोटे जड़ से महावीर पकड़ते हैं। शंख से भी काम चल जायेगा, छोटा मेरे पास है। छोटा तो उसने हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है। फिर संन्यासी को दे दिया। संन्यासी तो भाग गया उसी रात। उसने कोई जीव मरे या न मरे, जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है।' सुबह उठते ही से पूजा-प्रार्थना की, अपने महाशंख को निकाला यह बड़ा बहुमूल्य सूत्र है। इस सूत्र को गीता के परिप्रेक्ष्य में और कहा, 'हो जाये करोड़ रुपयों की वर्षा !' शंख बोला, दो | समझने की जरूरत है, क्योंकि गीता का सारा संदेश यही है। करोड़ की कर दूं? मगर हुआ कुछ भी नहीं। उस आदमी ने | कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, न कोई मरता है न कोई मारता है, तो तू 2851
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________________ R m जिन सत्र भागः1 R -5 / बेफिक्री से मार। क्योंकि आत्मा तो अमर है। न हन्यते हन्यमाने लोगों ने खोजबीन करनी शुरू की कि ऐसा मालूम पड़ता है कि मिट्टी है, गिरेगी, गिर जायेगी। लेकिन जो इसके भीतर छिपा है, वाले लोगों को उसी पैर के स्थान पर तीर चुभाने से फायदा देखा वह तो रहेगा और रहेगा। गया। और सिरदर्द के बीमार भी ठीक हो गए उसी जगह तीर कृष्ण बिलकुल ठीक कह रहे हैं, आत्मा मरती नहीं। महावीर चुभाने से। तो फिर बिंदु खोजे गए अकुपंचर के, सात सौ बिंदु कुछ और बात प्रवेश करते हैं। महावीर कहते हैं, हिंसा करने के शरीर में। तो कुछ बिंदु हैं जिनको दबाने से कुछ बीमारियां ठीक अध्यवसाय से...हिंसा करने के विचार से, भाव से, कर्म का हो जाती हैं। कुछ बिंदु हैं जिनको दबाने से कुछ और बीमारियां बंध होता है। फिर कोई जीव मरे या न मरे...। किसी के मरने से | ठीक हो जाती हैं। तो शरीर विद्युत का मंडल है। उसमें एक तरफ हिंसा नहीं होती; तुमने मारना चाहा, इससे हिंसा होती है। से विद्युत को दबाने से कहीं दूसरी तरफ विद्युत में परिणाम होते कृष्ण बिलकुल ठीक कहते हैं कि काट डालो, कोई मरेगा | हैं। बड़ा रहस्यमय है। लेकिन अकुपंचर काम करता है। नहीं; क्योंकि आत्मा मरणधर्मा नहीं है। लेकिन महावीर कहते अब सवाल यह है कि जिस आदमी ने तीर मारा था, उसने पाप हैं, तुमने काट डालना चाहा! कटा कोई या नहीं कटा, यह किया या पुण्य ? क्योंकि जीवनभर का सिरदर्द चला गया। सवाल नहीं है; तुमने काटना चाहा, तुम्हारी उस चाह में हिंसा | अगर हम फल को देखें, तब तो पुण्य किया। लेकिन अगर है। फिर कोई मरा न मरा, यह बात अप्रासंगिक है। तुमने मारना | उसके भाव को देखें, तो तो पाप ही है। क्योंकि वह तो मारना चाहा था, तुम फंस गए। तुम्हारी मारने की चाह ने बीज बो चाहता था। वह कोई इसका सिरदर्द ठीक करना नहीं चाहता दिया। तुम दुख पाओगे। तुम्हें दुख मिलेगा। इसलिए नहीं कि | था। उसने तो मारना चाहा था। इसलिए उसने तो हिंसा की। तुमने लोग मारे, क्योंकि लोग तो मरे ही नहीं, लेकिन तुमने यह बात अप्रासंगिक है कि यह आदमी ठीक हो गया। इससे मारना चाहे। वस्तुतः हिंसा घटती है या नहीं घटती है, यह उसका कोई संबंध नहीं है। यह तो दुर्घटना है। सवाल नहीं है। गहरा सवाल यही है कि तुम्हारी आकांक्षा मारने तो तुम्हारा कृत्य फल के द्वारा निर्धारित नहीं होता कि पाप है या की थी। कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि तुम्हारी आकांक्षा पुण्य है, तुम्हारे अभिप्राय के द्वारा निर्धारित होता है, इन्टेशन। कुछ थी, हो कुछ जाता है। | कभी ऐसा भी हो सकता है, बुरे अभिप्राय से ठीक घट जाये, ऐसा हुआ, चीन में कोई पांच हजार साल पहले इस तरह | और कभी ऐसा भी हो सकता है कि ठीक अभिप्राय से बुरा घट अकुपंचर की विद्या का जन्म हुआ। एक आदमी को जिंदगी भर जाये। लेकिन फल से निर्णय नहीं होता; निर्णय तुम्हारे अभिप्राय से सिरदर्द था। वह बड़ा तकलीफ में पड़ा था। वह बड़ा परेशान से होता है-तुम्हारे अंतर्तम में तमने क्या चाहा था। कभी ऐसा था। सब इलाज कर चुका था, कोई इलाज नहीं होता था। कोई भी हो सकता है कि तुम कुछ भला करने गए थे और बुरा हो दवा नहीं मिलती थी। कोई चिकित्सक ठीक नहीं कर पाता था। | गया। तो भी वह पाप नहीं है। कभी तुम बुरा करने गए थे और पत्थर के बोझ की तरह उसका सिर चौबीस घंटे भारी था। और भला हो गया, तो भी वह पाप है। जैसे बिजली कौंधती हो, ऐसे उसके सिर में तड़फन थी। वह न | महावीर का विश्लेषण फल पर नहीं ले जाता। कृष्ण और बैठ सकता था, न काम कर सकता था। जीना उसका दूभर हो महावीर दोनों राजी हैं कि आत्मा मरती नहीं। फिर भी महावीर गया था। आत्महत्या करने का उपाय किया था तो लोगों ने करने | कहते हैं, मारने की आकांक्षा, मारने की आकांक्षा में हिंसा है। न दिया। कोई दुश्मन था उसका, किसी से झगड़ा हो गया, उस मारने की आकांक्षा ही बंधन का कारण है। दुश्मन ने एक तीर उसे मारा। वह तीर उसके पैर में लगा और पैर धन नहीं बांधता। धन तुम्हारे चारों तरफ पड़ा रहे, लेकिन धन में तीर के लगते ही सिरदर्द चला गया। वह चिकित्सकों के पास को पकड़ने की, परिग्रह की आकांक्षा बांधती है। पत्नी, स्त्री नहीं गया। उसने कहा, 'यह हुआ क्या? यह तीर पैर में लगा और बांधती, भोगने की कामना बांधती है। ऐसा ठीक से देखोगे तो उसी क्षण दर्द चला गया।' ऐसे अकुपंचर का जन्म हुआ। तब सारा जाल भीतर है, बाहर नहीं। 286 .
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________________ र वासना ढपारशख है लोग मुझसे कहते हैं कि संसार छोड़ना है। जैसे संसार कहीं दिलवाने की कोई तुम्हारी आकांक्षा है। तुम टाल रहे हो कि झंझट बाहर है! संसार से उनका मतलब है-दुकान, बाजार, पत्नी, मिटाओ, जाओ। और तुम कह रहे हो कि ठीक है मलहम-पट्टी बच्चे-इनको छोड़ना है। संसार भीतर है। संसार तुम्हारे कर दी, अब तुम आशा में जीयो। अभिप्राय में है। संसार तुम्हारी कामना और वासना में है। पूरब में यही शिष्टाचार है, सांत्वना बंधा दो। कोई मर गया, 'हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है। फिर | तुम पहुंच जाते हो कहने कि कोई हर्जा नहीं, आत्मा तो अमर है। कोई जीव मरे या न मरे, जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है। तुम्हें पता है! लेकिन तुम कहते हो, पता हो या न हो, अब यह तो आशा के स्वभाव को समझने की कोशिश करो। अनुभव को कोई दुख में पड़ा है, इसको तो सांत्वना दो! जिताओ, आशा को हराओ। जो तुमने जीवन के अनुभव से यूं तो नहीं कहता कि सचमुच करो इंसाफ जाना है उसका भरोसा करो। जो तुम्हारा मन फैलाव करता है, झूठी भी तसल्ली हो तो जीता ही रहूं में। सपनों के, उनका भरोसा मत करो। और ऐसी झूठी तसल्ली के धागे पर लोग जीते रहते हैं। यही यूं तो नहीं कहता कि सचमुच करो इंसाफ तुम्हारे साधु-संन्यासी कर रहे हैं। वे तुम्हें झूठी तसल्ली बंधाए झूठी भी तसल्ली हो तो जीता ही रहूं मैं। जाते हैं। तुम उनके पास जाओ और तुम कहो कि मन में बड़ी तुम भी झूठी तसल्लियों में जी रहे हो। तुम दूसरों से झूठी | अशांति है, वह कहता है, 'कोई फिक्र न करो। यह राम-राम तसल्ली मांगते हो। जपना, सब ठीक हो जायेगा।' अब राम-राम जपने से कोई भी पश्चिम से जब लोग पूरब आते हैं तो बड़े हैरान होते हैं। संबंध अशांति का नहीं है। अशांति तुम पैदा कर रहे हो, राम का क्योंकि पूरब के आदमी झूठी तसल्लियां देने में बड़े कुशल हैं। इसमें कुछ हाथ नहीं है। अशांति तुम पैदा किये चले जाओगे, यहां इस मुल्क में अगर तुम किसी के पास जाओ और कहो कि राम-राम भी जपोगे, क्या होगा? थोड़ी और अशाति बढ़ फलां काम करना है, आप करवा देंगे। वह कहता है, बिलकुल जाएगी, बस। उसने तुम्हारे मूल कारण को न पकड़ा। मूल करवा देंगे। पश्चिम में ऐसा नहीं है। अगर वह करवा सकेगा तो कारण पकड़ना झंझट की बात है, मुश्किल बात है, कठिन बात ही कहेगा। फिर भी वह शर्त के साथ कहेगा कि मैं कोशिश है। शायद उसको भी पता न हो, लेकिन तुम्हारी तसल्ली उसने करूंगा। होगा कि नहीं होगा, यह मुश्किल है। मैं अपनी तरफ | बंधा दी। तुम भी प्रसन्न लौटे। तुम भी आनंदित हुए कि चलो। से कोशिश करूंगा। अगर नहीं करवा सकेगा तो स्पष्ट 'नहीं' तुम गए कि आशीर्वाद दे दो कि शांत हो जाये चित्त। कहेगा कि नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा, क्षमा करें! पूरब में __ भारत में साधु हैं, जो तैयार बैठे हैं, हाथ तैयार ही रखते हैं वे ऐसा नहीं है। तुम किसी से भी कहो, वह कहता है, हां करवा आशीर्वाद देने को। वे कहते हैं, यह लो आशीर्वाद। न कुछ देंगे! चाहे वह करवा सकता हो, चाहे उसकी क्षमता में हो चाहे लेना है, न कुछ देना है। न उनका कुछ हर्जा हो रहा है और न न हो; लेकिन वह यह कहता है कि क्यों नाहक तुम्हें दुखी तुम्हें कुछ मिल रहा है; लेकिन बात हो गई, तसल्ली बंध गई। करना। जब होगा तब होगा, अभी तो तसल्ली! तुम अपने घर लौट गए, जैसे के तैसे, जैसे आये थे। थोड़ी और जब पश्चिम से लोग पूरब आते हैं, धंधे और व्यवसाय के | आशा मजबूत लेकर लौट गए कि अब सब ठीक हो जायेगा। लिए, तो वे बड़े हैरान होते हैं। उनको समझ में ही नहीं आता कि अगर तुम ईमानदारी से जीवन का रूपांतरण चाहते हो तो उनके किसकी मानें, किसकी न मानें; क्योंकि सभी 'हां' कहते हैं। पास जाना जो तसल्ली बंधाते न हों; जो तुम्हारे जीवन का निदान 'नहीं तो कोई मुश्किल से कहता है। 'नहीं' तो जैसे सीधा कर के रख देते हों सामने—चाहे चोट भी लगती हो; चाहे अशिष्टाचार है। तुम्हारा घाव भी छू जाता हो और तुम्हारी मलहम-पट्टी उखड़ तुमने भी कभी खयाल किया? कोई तुम्हारे पास आता है कि जाती हो; चाहे तुम्हारे नासूर से मवाद निकल आती हो। लेकिन नौकरी चाहिए, तुम कहते हो कि हां, कोशिश करेंगे, दिलवा उनके पास जाना जो तसल्ली बंधाने के आदी नहीं हैं; जो तुम्हारे देंगे। ऐसा कहते वक्त तुम क्षणभर को भी सोच नहीं रहे हो कि जीवन के सत्य को वैसा का वैसा रख देते हैं जैसा है। पीड़ा होती 287 www.jainelibrar.org
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________________ जिन सूत्र है। लेकिन जीवन-रूपांतरण में पीड़ा छुपी है। और अगर तुमने में लिख दिया होता। मुझे भी पता नहीं, गोडोड कौन है। बात सुनी और समझने की कोशिश की और जीवन में लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। ठीक से पूछो, किसकी प्रतीक्षा कर रहे वैसा आचरण और व्यवहार किया तो तुम बदल जाओगे। हो? उनको भी पता नहीं है। गोडोड यानी वह, जिसका पता तसल्ली उन्होंने नहीं बंधाई, लेकिन तुम्हारे जीवन को क्रांति दे देंगे। नहीं, लेकिन प्रतीक्षा कर रहे हैं। सभी लोग उत्सुकता से बैठे हैं वे। लेकिन तुम मुफ्त तसल्ली में घूमते हो। फिर एक साधु चुक दरवाजे खोले हुए—कोई आनेवाला है। जाता है, क्योंकि कई दफे तसल्ली बंधा चुका, अब तुम्हें उसमें यह गोडोड की कहानी बड़ी प्यारी है। दो आदमी बैठे हैं। ऐसे भरोसा नहीं रहा, फिर तुम दूसरा साध खोज लेते हो। साधओं | नाटक शुरू होता है। और वे एक-दूसरे से पूछते हैं कि क्यों भई, की कोई कमी नहीं है। जिंदगी बड़ी छोटी है, साधु बहुत हैं। क्या हाल है? वह कहता है, 'सब ठीक है। आज आयेगा, तसल्ली, तसल्ली, तसल्ली। तम घमते फिरते हो। ऐसा मालम पड़ता है।' कौन आयेगा. इसकी तो कोई बात ही बंद करो। जीवन के सत्य को पकड़ो। जीवन का सत्य सुगम | नहीं- आज आयेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।' दूसरा कहता नहीं है, सांत्वना नहीं है। जीवन का सत्य कठोर है। कांटा चुभा है, 'सोचता तो मैं भी हूं। आना चाहिए। कब से हम राह देख है तुम्हारी छाती में, उसे निकालने में पीड़ा होगी। तुम चीखोगे, रहे हैं! और भरोसा बंधवाया था। और आदमी ऐसा गैर-भरोसे चिल्लाओगे। लेकिन वह चीख-चिल्लाहट जरूरी है। और का नहीं है। देखें शायद आज आए।' ऐसी बात चलती है। वे तुम्हें जो उस पीड़ा से गुजारने में साथी हो सके, उसे मित्र मानना। दोनों देखते रहते हैं रास्ते की तरफ, रास्ते के किनारे बैठे। कोई सदगुरु तसल्ली नहीं देता। सदगुरु सत्य देता है, फिर चाहे | आता नहीं। दोपहर हो जाती है। सांझ हो जाती है। वे कहते हैं, कितना ही कड़वा हो। आखिर वैद्य अगर यह सोचने लगे कि 'फिर नहीं आया। हद्द हो गयी बेईमानी की! आदमी ऐसा तो न मीठी ही दवा देनी है, तो चिकित्सा न होगी, मरीज चाहे प्रसन्न हो था, कुछ अड़चन आ गई होगी, कोई बीमार हो गया!' बाकी जाये क्षणभर को। शरबत पिला दे मरीज को, लेकिन इससे | कौन है इसकी कोई बात नहीं चलती। कई दफे वे परेशान हो बीमारी ठीक न होगी; मरीज प्रसन्न होकर घर लौट जायेगा, जाते हैं। वे कहते हैं, 'अब बहत हो गया, बंद करो जी लेकिन बीमारी और बढ़ जायेगी। नहीं, कड़वी दवा भी देनी इंतजार!' मगर दोनों बैठे हैं। कभी-कभी कहते हैं 'अब मैं पड़ती है, जहर जैसी दवा भी देनी पड़ती है। मरीज नाराज भी | चला। तुम ही करो।' एक कहता है कि बहुत हो गया, एक होता है, तो भी देनी पड़ती है। सीमा होती है। मगर जाता-करता कोई नहीं, क्योंकि जाएं भी आशा ने सारे संसार को भटकाया हुआ है। और आशाएं मत कहां! कहीं और जाओगे, वहां भी इंतजार करना पड़ेगा। रहते खोजो। जहां आशा टूटती हो, जहां तसल्ली उखड़ती हो, जहां | वहीं हैं। बैठे वहीं हैं। बात भी करते रहते हैं, कभी यह भी नहीं तुम्हारे सांत्वना के सब जाल बिखरते हों, जहां तुम्हारा सारा एक-दूसरे से पूछते कि किसका इंतजार कर रहे हो? मान लिया व्यक्तित्व जो अब तक झूठ पर खड़ा था तहस-नहस होकर है कि किसी का इंतजार कर रहे हैं। खंडहर हो जाता हो-वहां जाना। दर्धर्ष है मार्ग। यह जो गोडोड है, यह सब को पकड़े हुए है। लोग कहते हैं मौत से बदतर है इंतजार तुमने कभी पूछा है, किसकी राह देख रहे हो? कौन मेरी तमाम उम्र कटी इंतजार में आनेवाला है? किसके लिए द्वार खोले हैं? और किसके लिए सभी की कटती है। तुम कर क्या रहे हो सिवाय इंतजार के? / घर सजाए बैठे हो? नहीं, तुम कहोगे यह तो हमें पक्का पता सैमुअल बैकेट का एक छोटा नाटक है-वेटिंग फार गोडोड, नहीं है, कौन आनेवाला है; लेकिन कोई आनेवाला है, ऐसा गोडोड की प्रतीक्षा। यह गोडोड कौन है? किसी ने सैमुअल लगता है। बैकेट को पूछा कि आखिर यह गोडोड कौन है! क्योंकि पूरा मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम क्या खोज रहे हैं, नाटक पढ़ जाओ, पता ही नहीं चलता कि गोडोड कौन है। हमें पता ही नहीं; मगर खोज रहे हैं। अब खोजोगे कैसे अगर सैमुअल बैकेट ने कहा कि अगर मुझे ही पता होता तो मैंने नाटक यह ही पता नहीं कि क्या खोज रहे हो? 288
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________________ A STRRIAL वासना ढपोरशंख है / लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कुछ पूछना है; लेकिन हमें की आदत है। अहिंसा की शैली को बोधपूर्वक स्वीकार करना मालूम नहीं कि क्या पूछना है। और वे गलत नहीं कहते, बड़े पड़ेगा। उसे जीवन की साधना बनाना होगा। नहीं तो जब कोई ईमानदार लोग हैं। यही स्थिति है। लोग पूछना चाहते हैं, कुछ हिंसा करने को तैयार हो जाएगा, तुम अचानक भूल जाओगे। पूछना जरूर है। ऐसा आभास मालूम होता है। कहीं प्राणों में तुमने सोचा भी न था हिंसा करने के लिए, लेकिन हिंसा होगी। ऐसी घुमड़ मालूम होती है, कुछ पूछना है लेकिन क्या? कुछ पुरानी आदत है, पुराने संस्कार हैं। पुराने संस्करों को गिराने के पकड़ में नहीं आता। कुछ रूप नहीं बनता। कुछ आकार नहीं लिए बोधपूर्वक निर्णय चाहिए। हिंसा से विरत होने का निर्णय बैठता। खोजना है-लेकिन क्या? यह गोडोड कौन है? | चाहिए। किसी को मालूम नहीं। "हिंसा में विरत न होना, हिंसा का परिणाम रखना हिंसा ही इस इंतजार से जागो! यह प्रतीक्षा बहुत हो चुकी। न कभी कोई है...।' आया है, न कभी कोई आयेगा। बंद करो दरवाजे। अब तो संभावना भी बचा लेना हिंसा है। उसको खोजो जो तुम हो। कभी धन में प्रतीक्षा की, कभी पद में 'इसलिए जहां प्रमाद है, वहां नित्य हिंसा है...।' प्रतीक्षा की; कभी लोगों की आंखों में सम्मान चाहा, कभी यह गहरी से गहरी पकड़ है, जो हो सकती है। प्रार्थना की, आकाश की तरफ देखा, किसी परमात्मा को __'जहां प्रमाद है वहां नित्य हिंसा है...।' खोजा लेकिन सब गोडोड! तम्हें साफ नहीं, तुम क्या खोज प्रमाद यानी मुर्छा। जहां सोया-सोयापन है; जहां चले जा रहे रहे हो, तुम क्या मांग रहे हो! अब तो उचित है कि अपने में हैं नींद में, आंखें खुली हैं, लेकिन मन सोया, बेहोश है; जहां हम डूबो। उसे देखें जो हम हैं। किसी और की प्रतीक्षा करनी उचित मूर्छा में चल रहे हैं-वहां हिंसा है। क्योंकि मूछित व्यक्ति नहीं है। क्या करेगा? हजार परिस्थितियां रोज आती हैं हिंसा की, _ 'हिंसा में विरत न होना, हिंसा का परिणाम रखना हिंसा ही मूर्च्छित व्यक्ति क्या करेगा? होश तो है नहीं कि कुछ नया जीवन-उदबोध, कुछ नयी जीवन-उमंग, कोई नई किरण फूट अगर तुमने हिंसा का बोधपूर्वक त्याग नहीं किया है तो हिंसा सके। बेहोश है तो पुरानी आदत से चलेगा, बेहोश आदमी जारी रहेगी। महावीर और सूक्ष्म तल पर ले जाते हैं। वे कहते हैं, आदत से चलता है। होशवाला आदमी प्रतिपल होश से चलता दूसरे को मारने का, दूसरे को दुख देने का भाव तो हिंसा है ही; है, आदत से नहीं। लेकिन अगर तुमने बोधपूर्वक दूसरे को दुख देने की समस्त किसी ने गाली दी, तुम्हें याद भी न रहेगा कि तुम्हारा चेहरा संभावना का त्याग नहीं किया है, अगर तुमने अहिंसा को तमतमा गया। यह तमतमा जाएगा, तब पता चलेगा कि अरे, बोधपूर्वक अपनी जीवनचर्या नहीं बनाया है, तो भी हिंसा है। फिर हो गया! यह एक क्षण में हो जाता है, क्षण के खंड में हो हिंसा में विरत न होना, जागकर होशपूर्वक, निर्णयपूर्वक अपने जाता है। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी, कोई चीज हिल गई सामने यह साफ न कर लेना कि मैं हिंसा से विरत हुआ, तो भीतर। अभी खाली बैठे थे तो कुछ बात न थी। स्त्री का खयाल खतरा है। जिससे तुम विरत नहीं हुए हो, वह पैदा हो सकता है। ही न था। अभी बैठे वृक्षों की हरियाली देखते थे; खिले फूलों किसी घड़ी, किसी असमय में, किसी परिस्थिति में, जिससे तुम को, आकाश के तारों को देखते थे-कुछ पता भी न था, लेकिन विरत नहीं हुए हो, उसके पैदा होने की संभावना है। माना कि परिणाम तो भीतर पड़ा है। आदत तो पुरानी भीतर पड़ी है। एक तुमने सोचा भी नहीं कि किसी को मारना है; लेकिन कोई छुरी स्त्री पास से गुजर गई, क्षणभर में बिजली कौंध गई। भीतर कुछ लेकर सामने आ गया तो तुम भूल जाओगे। तुम्हारे पास अहिंसा हिल गया। भीतर कोई तूफान उठ आया। भीतर कोई वासना की कोई शैली नहीं है। तुम हिंसा की शैली को पकड़ लोगे, | सजग हो गई। बीज तो पड़े ही हैं, जब भी वर्षा हो जायेगी, अंकुर क्योंकि वह पुरानी आदत है। हो जायेंगे। तो महावीर यह कह रहे हैं कि हिंसा की शैली तो जन्मों-जन्मों शला ता जन्मा-जन्मों तो महावीर कहते हैं, 'वस्तुत तो महावीर कहते हैं, 'वस्तुतः मच्छो ही हिंसा है और अमच्छों। 289
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________________ जिन सत्र भार अहिंसा है। आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है। जब वापिस लौटता है झटके के बाद, तो उसे याद नहीं रहती कि वह आत्मा मूर्छित है तो हिंसा; जब आत्मा जाग्रत है तो अहिंसा। अभी थोड़ी देर पहले पागल था, अब उसको पागल रहना है। यह सिद्धांत का निश्चय है।' आदत से संबंध छूट गया। तो अकसर लाभ हो जाता है। अत्ता चेव अहिंसा-आत्मा ही अहिंसा, आत्मा ही हिंसा। अकसर पागल ठीक हो जाता है। लेकिन यह तुम खुद अपने यह सिद्धांत का निश्चय है। लिए कर सकते हो। 'जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है।' और हम सब पागल हैं। और हमारा सारा व्यवहार सोया हुआ जो जागा हुआ है, जो होशपूर्वक जीता है, अवेयरनेस, सम्यक है। जिस भांति बन सके, जगाने की चेष्टा अपने को करनी है। बोध, एक-एक कदम बोधपूर्वक रखता है, विवेकपूर्वक रखता कई तरह से झटके दिये जा सकते हैं। कोई भी छोटा स्मरण भी है-वह अहिंसक है। सहयोगी हो सकता है। तुम्हें मैंने माला दी है। इसको ही एक 'जो प्रमत्त है, वह हिंसक है।' जो नशे में जी रहा है, जिसे नयी स्मरण की आदत बना लो कि जब कोई कामवासना उठने ठीक पता भी नहीं है-कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं—चला | लगे, तत्क्षण माला को हाथ में पकड़ लेना। किसी को पता भी न जा रहा है! तुम अपने को पकड़ो। अपने को हिलाओ, डुलाओ, चलेगा। लेकिन उस माला को पकड़ना तुम्हें याद दिला देगा कि जगाओ! झटका दो! अरे! फिर गिरे, फिर गिरने को तैयार हुए। तुम्हें मैंने गैरिक वस्त्र सूफियों में एक प्रक्रिया है-झटका देने की। सूफियों का एक दिये हैं, वे याददाश्त के लिए हैं; अन्यथा गैरिक वस्त्रों से क्या वर्ग साधकों को कहता है कि जब भी तुम्हें लगे कि तंद्रा आ रही | होता जाता है! है, जोर से एक झटका शरीर को दो। जैसे कोई वृक्ष तूफान में एक आदमी शराबी है, वह संन्यास लेने आ गया था। वह हिल जाता है, आंधी में कंप जाता है, धूल-धंवास गिर जाती है, कहने लगा कि मैं शराबी हं, अब आपसे कैसे छिपाऊं! संन्यास ऐसा कभी अपने को झटका दो। भी लेना है। घबड़ाहट यही है कि गैरिक वस्त्रों में फिर तम कभी कोशिश करके देखना। क्षणभर को तम पाओगे एक शराब-घर कैसे जाऊंगा। ताजगी, एक होश, अपनी याद, मैं कौन हं! चैतन्य थोड़ी देर को __ 'वह तेरी फिक्र है। वह हमारी क्या फिक्र है? तू चिंता प्रखर होगा, झलकेगा; फिर खो जायेगा। ऐसे झटके अपने को करना। हमने अपना काम कर दिया, तुझे संन्यास दे दिया। अब देते रहना। इसमें हम क्या फिक्र करें, कहां तू जायेगा कहां नहीं। तेरे पीछे कभी-कभी छोटी चीजें काम की हो जाती हैं। बहुत छोटी चीजें हम कोई चौबीस घंटे घूमेंगे नहीं। अब तू ही निपट लेना।' काम की हो जाती हैं। तो जब भी कोई गाली दे, एक झटका | उसने कहा कि झंझट में डाल रहे हो आप। अपने को देना। इसको धीरे-धीरे अपने जीवन की व्यवस्था बना झंझट तो है। क्योंकि सोए-सोए जीते थे, जागना एक झंझट लेना। कोई गाली देगा, तुम अपने को झटका दोगे। झटका देकर है। पर वह हिम्मतवर आदमी है। साफ-सुथरा आदमी है। तुम पाओगे कि आदत से संबंध छूट गया। यही तो 'इलेक्ट्रो | अन्यथा कहने की कोई जरूरत ही नहीं थी, छिपा जाता। शराब शाक...' मनोविज्ञान इसी को कहता है। आदमी पागल हो पीते हैं, कौन कहता है। लेकिन कुछ दिन बाद आया और उसने जाता है, कोई उपाय नहीं सूझता, कैसे ठीक करें, तो उसके कहा कि मुश्किल हो गई। अब पैर रुकते हैं। ऐसा नहीं कि मस्तिष्क में बिजली दौड़ा देते हैं। होता क्या है? जब बिजली | शराब पीने का मन अब नहीं होता; होता है, लेकिन अब ये तेजी से दौड़ती है तो उसके मस्तिष्क में एक झंझावात आता है। गैरिक वस्त्र झंझट का कारण हैं। वहां पहुंच जाता हूं तो लोग एक झटका लगता है। उस झटके के कारण, वह जो पागलपन | चौंककर देखते हैं जैसे कि कोई अजूबा जानवर हूं। सिनेमा-घर उस पर सवार था, उससे उसका संबंध क्षणभर को टूट जाता है। में खड़ा था कतार में, तो चारों तरफ लोग देखने लगे। दो क्षणभर को वह भूल जाता है कि मैं पागल हूं। सातत्य टूट जाता आदमियों ने आकर पैर छू लिये तो मैं भागा कि अब यहां...जहां है, कंटीन्यूटी टूट जाती है। फिर उसे याद नहीं रहती। फिर जब लोग पैर छू रहे हैं, अब यहां सिनेमा में जाना योग्य नहीं है। 290
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________________ veer वासना ढपोरशंख है तुमने कहानी सुनी है पुरानी? एक चोर भागा। उसके पीछे अहिंसा है। लेकिन महावीर एक-एक शब्द को बहुत सोचकर लोग लगे थे। उसे कोई भागने का, बचने का उपाय नहीं दिखाई बोले हैं, तुम्हारी तरफ देखकर बोले हैं। क्योंकि प्रेम के साथ पड़ा। वह एक नदी के किनारे पहुंचा। वहां कुछ राख का ढेर | तुम्हारा पुराना एसोसिएशन है, पुराना संबंध है। तुमने प्रेम से पड़ा था। उसने जल्दी से कपड़े उतारकर तो फेंके नदी में, नग्न हो अब तक जो मतलब समझे हैं वे राग के हैं, काम के हैं। तुम्हारे गया, डुबकी मारी, राख ऊपर से डाल ली और झाड़ के नीचे लिए प्रेम का एक ही मतलब होता है: वासना। तुमने प्रेम का आंख बंदकर के बैठ गया। पद्मासन लगा लिया। पकड़नेवाले दूसरा गहनतम अर्थ नहीं जाना। आ गये, कोई वहां दिखाई नहीं पड़ता-एक साधु महाराज। प्रेम का वास्तविक अर्थ होता है। इतने स्वस्थ हो जाना कि तुम उन्होंने सबने पैर छुए। चोर ने कहा, 'अरे हद्द हो गई! मैं झूठा न किसी को दुख पहुंचाना चाहते हो, न स्वयं को दुख पहुंचाना साधु हूं और मेरे लोग पैर छू रहे हैं।' लेकिन एक झटका लगा चाहते हो। तुम अपने को भी प्रेम करते हो, दूसरे को भी प्रेम कि काश! मैं सच्चा होता तो क्या न हो जाता! लेकिन उस करते हो। और यह प्रेम अब कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी दशा है। झटके में क्रांति हो गई। लोग तो चले गए पैर छूकर, लेकिन वह कोई न भी हो तो भी तुम्हारे चारों तरफ प्रेम फैलता रहता है। जैसे सदा के लिए साधु हो गया। उसने कहा, जब झूठे तक को, जब अकेले में खिले विजन में फूल, तो भी तो सुगंध बिखरती रहती झूठी साधुता तक को ऐसा सम्मान मिल गया, जब झूठे में ऐसा है। दीया जले अकेले अंधकार में, अमावस की रात में, तो भी रस, तो सच्चे की तो कहना क्या! तो प्रकाश फैलता रहता है। दीया यह थोड़े ही सोचता है कि कोई स्मरण के साधन हैं। गैरिक वस्त्र है तुम्हारा, किसी को मारने यहां है ही नहीं, तो फायदा क्या! फूल यह थोड़े ही सोचता है, के लिए हाथ उठने लगेगा तो अपना गैरिक वस्त्र भी दिखाई पड़ इस रास्ते से कोई गजरता ही नहीं, कोई नासापट आएंगे ही नहीं जायेगा। बस उतना ही काफी होगा। हाथ को नीचे छोड़ देना। यहां, तो किसके लिए गंध बिखेरूं! छोड़ो, क्या सार है। ऐसे ही शराब का प्याला हाथ में उठा लो, पास लाने लगो, तो गैरिक | प्रेम को जो उपलब्ध है, वह यह थोड़े ही सोचता है कि कोई लेगा वस्त्र दिखाई पड़ जायेगा। फिर हाथ को वहीं वापिस लौटा देना। तब दं, या किसी खास को दूं। प्रेम उसका स्वभाव है। धीरे-धीरे तुम पाओगे, एक नए बोध की दशा तुम्हारे भीतर सघन | लेकिन महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। उस शब्द होने लगी, जो पुरानी आदतों को काट देगी। के कारण उन्होंने पुरानी एक भ्रांति से बचाना चाहा आदमी को, "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल ताकि लोग उनके ही प्रेम को न समझ लें कि महावीर उन्हीं के प्रेम कुछ भी नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।' का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन एक दूसरी भ्रांति शुरू हो गयी। इसलिए महावीर ने अहिंसा को परम धर्म कहा है। आकाश से आदमी इतना उलझा हुआ है कि तुम उसे बचा नहीं सकते। तब विशाल, मेरुओं से भी ऊंचा! अहिंसा शब्द के साथ एक नयी भ्रांति शुरू हो गयी। 'अहिंसा' शब्द सोचने जैसा है। महावीर ने प्रेम शब्द का अब जैन मुनि हैं, उनके जीवन में प्रेम दिखाई ही नहीं पड़ेगा। उपयोग नहीं किया, यद्यपि ज्यादा उचित होता कि वे प्रेम शब्द का उनने अहिंसा का ठीक-ठीक मतलब ले लिया, हिंसा नहीं उपयोग करते। लेकिन उन्होंने किया नहीं। उनके न करने के पीछे करनी; तो नकारात्मक, विधायक कुछ भी नहीं, पाजिटिव कुछ कारण हैं। क्योंकि प्रेम शब्द से तुम कुछ समझे बैठे हो जो कि भी नहीं। चींटी नहीं मारनी, मगर चींटी के प्रति कोई प्रेम नहीं है। बिलकुल गलत है। उसी शब्द का उपयोग करने से कहीं ऐसा न चींटी नहीं मारनी, क्योंकि मारने से नर्क जाना पड़ता है। यह तो हो, महावीर को डर रहा, कि तुम अपना ही प्रेम समझ लो कि लोभ ही हुआ। किसी को नहीं मारना, किसी को गाली नहीं देना, तुम्हारे ही प्रेम की बात हो रही है। तो महावीर को एक क्योंकि गाली देने से मोक्ष खोता है। यह तो लोभ ही हुआ, प्रेम नकारात्मक शब्द उपयोग करना पड़ा: अहिंसा; हिंसा नहीं। नहीं। इस फर्क को समझना। लेकिन महावीर का मतलब प्रेम से है। सूफी जिसको 'इश्क' तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अहिंसा का महावीर का कहते हैं, जीसस ने जिसको प्रेम कहा है—वही महावीर की अर्थ है : प्रेम। तुम्हारा प्रेम नहीं; क्योंकि एक और प्रेम है। 291
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________________ - जिन सूत्र भाग: 1 - Si लेकिन जैन मुनियों की अहिंसा भी नहीं, क्योंकि वह बिलकुल ऐसा समझो कि एक झरना है, उसके मार्ग पर पत्थर रखे हैं। मुर्दा है। वह मर गयी। नकार में कहीं कोई जी सकता है? सिर्फ तो हम कहते हैं, पत्थर हटा लो, तो झरना फूट जाये। नकार-नकार में कोई जी सकता है? नकार में कोई घर बना | लेकिन पत्थर का हटा लेना ही झरना नहीं है। क्योंकि कई सकता है? कुछ विधायक चाहिए। | जगह और जगह भी पत्थर पड़े हैं, वहां हटा लेना, तो झरना नहीं विधायक का अर्थ है: कुछ ऊर्जा तुम्हारे भीतर जगनी चाहिए। फूटेगा; तुम बैठे रहना कि पत्थर तो हटा लिये, बस झरना हो सिकुड़ने से ही थोड़े ही काम चलेगा! किसी को मारो मत, | गया। पत्थर का हटाना झरने के लिए जरूरी हो सकता है, बिलकुल ठीक; लेकिन क्यों न मारो किसी को? क्योंकि तुम्हें लेकिन पत्थर के हटने में ही झरना नहीं है। झरना तो कुछ प्रेम है, इसलिए। इसलिए नहीं कि मारोगे तो नर्क जाना पड़ेगा। विधायक बात है। हो तो पत्थर के हटने पर प्रगट हो जायेगा; न यह कोई प्रेम हुआ? यह तो अपना ही लोभ हुआ। लोगों को | हो तो तुम पत्थर हटाए बैठे रहना जैसे जैन मुनि बैठे हुए हैं। यह मत मारो, क्योंकि तुम्हारा प्रेम तुम्हें बताएगा कि दूसरे को मारना, नहीं करते, वह नहीं करते-सब नहीं करने पर है। चोरी नहीं दूसरे को दुख देना...तो तुम कैसे आशा बांधते हो कि तुम्हारे करते, लेकिन अचोर नहीं हैं। लोभ नहीं करते, लेकिन अलोभी जीवन में प्रेम का फैलाव हो सकेगा? नहीं हैं। हिंसा नहीं करते, लेकिन अहिंसक नहीं हैं। क्योंकि प्रेम फैलता है, बढ़ता है। महावीर कहते हैं, 'आकाश जैसा! विधायक चूक रहा है। सुमेरू पर्वत से भी ऊंचा, आकाश से भी विशाल!' जिंदगी जिंगारे-आईना है, आईना है इश्क। तो यह कुछ विधायक घड़ी हो तो ही बढ़ सकती है। कुछ हो तो संग है मामूरए-कौनेन और शोला है इश्क। बढ़ सकता है। इल्म बरबत है, अमल मिजराब है, नग्मा है इश्क। अहिंसा का तो अर्थ है : हिंसा का न होना। यह तो ऐसे ही जर्रा-जरी कारवां है, इश्क खिजे-कारवां। हुआ जैसे कि चिकित्सा-शास्त्र में अगर पूछा जाये कि स्वास्थ्य प्रेम स्वच्छ दर्पण है। और प्रेम के सिवाय जीवन में जो कुछ है, क्या है, तो वे कहते हैं बीमारी का न होना। लेकिन मुर्दा भी वह दर्पण पर मैल है, धूल है। सांसारिक वस्तुएं तो पत्थर हैं। बीमार नहीं होता, लेकिन उसको तुम स्वस्थ न कह सकोगे। वह प्रेम प्रकाश है। ज्ञान वाद्य है। आचरण मिजराब है। प्रेम संगीत स्वास्थ्य की परिभाषा पूरी करता है, क्योंकि बीमार नहीं है। जिंदा है। जीवन का कण-कण यात्री है। प्रेम यात्री-दल का ही बीमार होता है, मुर्दा कैसे बीमार होगा? बीमार होने के लिए पथ-प्रदर्शक है। जिंदा होना जरूरी है। तो यह स्वास्थ्य की परिभाषा पर्याप्त नहीं महावीर ने जिसे अहिंसा कहा है, वह सूफियों का इश्क है। मार न होना। यह तो नकारात्मक हुई। हां, स्वस्थ इस बात को अब दोहरा देने की जरूरत पड़ी है। क्योंकि जैसी आदमी बीमार नहीं होता, यह बात जरूर सच है। लेकिन | मुश्किल महावीर को मालूम पड़ी थी प्रेम के साथ, वैसी ही स्वास्थ्य कुछ और भी है। बीमारी न होने से ज्यादा कुछ है, कुछ मुश्किल मुझे मालूम पड़ती है अहिंसा के साथ। महावीर प्रेम विधायक है। जब तुम स्वस्थ रहे हो, क्या तुमने अनुभव नहीं शब्द का उपयोग न कर सके, क्योंकि गलत धारणा लोगों के मन किया, क्या तुम इतना ही जानते हो कि न टी.बी., न कैंसर, न में प्रेम की थी। आज मुझे अहिंसा शब्द का उपयोग करने में और रोग? क्या जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुमको इनकी याद | अड़चन होती है, क्योंकि बड़ी गलत धारणा लोगों के मन में है। आती है कि देखो, कितना मजा आ रहा है, न टी. बी. है, न हमारे सभी शब्द हमारे कारण खराब हो जाते हैं, गंदे हो जाते कैंसर है? ऐसा होता है? जब तुम स्वस्थ होते हो, न तो टी. हैं; क्योंकि हमारे शब्दों में भी हमारी प्रतिध्वनि होती है। जब बी. की याद आती है, न कैंसर की, न नकार की। | कामी प्रेम की बात करता है तो उसका प्रेम भी काम से भर जाता स्वास्थ्य का अपना ही रस है। स्वास्थ्य का अपना ही है। जब निषेधात्मक वृत्तियों का व्यक्ति अहिंसा की बात करता है अहोभाव है। स्वास्थ्य की अपनी ही प्रफुल्लता है। स्वास्थ्य का तो उसकी अहिंसा निषेधात्मक हो जाती है। अहिंसा यानी प्रेम, झरना फूटता है। यह कोई बीमारी की बात नहीं है। परम प्रेम। 292 Jain Eucation International .
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________________ HERI वासना ढपारशख है है अब जिंदगी सायए इश्क में हम तो सोचते हैं, क्रोध बलवान है। बस यही धार्मिक और ज़रा मोत दामन बचा कर चले अधार्मिक आदमी का अंतर है। वह शोलों से अकसर रहे हमकिनार अगर तुम मुझ से पूछो तो धार्मिक आदमी वह है जो यह जान जो फूलों से दामन बचा कर चले। गया कि कोमल अंततः जीतता है; जिसका भरोसा फूल पर आ -जिंदगी अब प्रेम के साथ है, प्रेम की छाया में है। गया और पत्थर से जिसकी श्रद्धा उठ गई। और अधार्मिक है अब जिंदगी सायए इश्क में आदमी वह है, जो भला फूल की प्रशंसा करता हो, लेकिन जब ज़रा मौत दामन बचा कर चले। समय आता है तो पत्थर पर भरोसा करता है। -अब जरा मौत होशियारी से चले, क्योंकि जो प्रेम के साये महावीर की अहिंसा अनुयायियों के हाथ में पड़कर विकृत हो में आ गया उसकी कोई मौत नहीं। वह अमृत को उपलब्ध हो गयी, निषेध हो गयी है। वह बड़ा विधायक जीवन-स्रोत था। जाता है। | लेकिन हमारी अड़चन है। जो भी हम सुनते हैं, उसका हम अर्थ और प्रेम फूल जैसा है। मौत अंगार जैसी है। लेकिन इस | अपने हिसाब से लगाते हैं। अगर कोई मर गया-किसी का जीवन की, अस्तित्व की यही महत्वपूर्ण राजभरी बात है कि प्रेमी मर गया, किसी की प्रेयसी मर गई तो हम अपने हिसाब अंततः फूल जीतते हैं, अंगार हार जाते हैं। अंततः कोमल जीतता से अर्थ लगाते हैं। जिसकी प्रेयसी मर गई है या प्रेमी मर गया है, है, कठोर हार जाता है। गिरता है पहाड़ से जल, कोमल जल, उसे अगर हम रोता नहीं देखते, आंख में आंसू नहीं देखते, तो क्षीणदेह जलधार, बड़ी-बड़ी चट्टाने मार्ग में पड़ी होती हैं—कौन हम सोचते हैं, 'अरे! तो कुछ दर्द नहीं हुआ, दुख नहीं हुआ? सोचेगा कि ये चट्टानें कभी कट जायेंगी! लेकिन एक दिन रोई भी नहीं? तो कोई लगाव न रहा होगा। तो कोई चाहत न रही धीरे-धीरे धीरे-धीरे चट्टानें कटती जाती हैं और रेत होती जाती होगी। तो कोई प्रेम न रहा होगा।' हैं। धार बड़ी कोमल है। चट्टानें बड़ी कठोर हैं। लेकिन कोमल लेकिन तुम्हें पता है, अगर सच में ही गहरी पीड़ा हो तो आंसू सदा जीत जाता है। अंतिम विजय कोमल की है। आते नहीं! आंसू भी रुक जाते हैं। और आंसू बहुत गहरी पीड़ा वह शोलों से अकसर रहे हमकिनार के सबूत नहीं हैं—पीड़ा के सबूत हैं-बहुत गहरी पीड़ा के जो फूलों से दामन बचा कर चले। सबूत नहीं हैं। अब बड़ी कठिनाई है। आंसू तब भी नहीं आते, और जिन्होंने अपने को फूलों से बचाया, कोमलता से बचाया, | जब पीड़ा नहीं होती; और आंसू तब भी नहीं आते जब महान उनकी जिंदगी में अंगारे ही अंगारे रहे, जलन ही जलन रही। पीड़ा होती है। तो भूल-चूक की संभावना है। कभी यह भी हो तुम फूल को कमजोर मत समझना। तुम फूल को | सकता है कि रूखी आंखों को देखकर तुम सोचो कि कोई पीड़ा महाशक्तिशाली समझना। पत्थर कमजोर हैं; यद्यपि दिखाई नहीं हुई; और कभी यह भी हो सकता है, क्योंकि मैं कहता हूं यही पड़ता है कि पत्थर बड़े मजबूत, बड़े शक्तिशाली हैं। रूखी आंखों में बड़ी गहरी पीड़ा है कि आंसू भी नहीं बह रहे, तो लेकिन पत्थर मुर्दा हैं, शक्तिशाली हो कैसे सकते हैं? फूल | फिर उसको भी तुम समझ लो कि बड़ी गहरी पीड़ा हो रही है जीवंत है। उसके खिलने में जीवन है। उसकी सुगंध में जीवन | जिसको कोई पीड़ा नहीं हुई। जिंदगी में शब्द सीमित हो जाते हैं। है। उसकी कोमलता में जीवन है। अस्तित्व में शब्दों की कोई सीमा नहीं है। वहां तो हमें प्रत्येक अकसर हम हिंसा के लिए राजी हो जाते हैं, क्योंकि हिंसा | घटना को उसके निजी व्यक्तित्व में देखना चाहिए। कोई पुरानी लगती है ज्यादा मजबूत, शक्तिशाली! अहिंसा, प्रेम लगता है | परिभाषा से नहीं चलना चाहिए। कमजोर। हम जल्दी भरोसा कर लेते हैं हिंसा पर; अहिंसा पर | शक न कर मेरी खुश्क आंखों पर भरोसा नहीं कर पाते, क्योंकि फूलों पर हमारा भरोसा उठ गया | यूं भी आंसू बहाए जाते हैं। है। कोमल की शक्ति को हम भूल ही गये हैं। विनम्र की शक्ति | -यह भी एक ढंग है। को हम भूल गए हैं। प्रेम बलवान है, यह हमें याद भी न रहा है। तो तुम जल्दी से निर्णय मत लेना। महावीर ने प्रेम की ही बात 293
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________________ 1जिन सूत्र भाग: 1MUMBAI कही, लेकिन प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया। प्रेम शब्द का का ठीक-ठीक अर्थ प्रेम है। सूफी जिसे इश्क कहते हैं, उसी को उपयोग न करने के कारण अतीत की भूल तो बचा ली, लेकिन महावीर अहिंसा कहते हैं। जीसस ने कहा है, प्रेम परमात्मा है। भविष्य की भूल हो गयी। तो पीछे जो आये, उन्होंने अहिंसा को उसी को महावीर ने कहा है : सिर्फ निषेध बना लिया। शब्द में निषेध है। सारे शब्द तुगं न मंदराओ, आगासाओ विसालय नत्थि। निषेधात्मक हैं। अचौर्य, अपरिग्रह, अहिंसा, अकाम, / जह तह जयंमि जाणसु, धम्महिंसासमं नत्थि।। अप्रमाद-सारे शब्द निषेधात्मक हैं। तो ऐसा लगा उनको कि 'जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा कोई और पर्वत नहीं, और | महावीर कहते हैं : नहीं, नहीं, नहीं। हां की कोई जगह नहीं है। आकाश से विशाल कोई और आकाश नहीं, वैसे ही अहिंसा के इसी कारण हिंदुओं ने तो महावीर को नास्तिक ही कह दिया; समान कोई धर्म नहीं है।' क्योंकि परमात्मा नहीं और फिर सारा शास्त्र 'नहीं' से भरा है। नहीं, लेकिन उस 'नहीं' के भीतर बड़ी गहरी 'हां' छिपी है। आज इतना ही। 'नहीं' का उपयोग करना पड़ा, क्योंकि लोगों ने 'हां' वाले शब्दों का दुरुपयोग कर लिया था। लेकिन भूल फिर हो गयी। महावीर का कोई कसूर नहीं है। शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा। और आदमी कुछ ऐसा है, तुम जो भी शब्द उसे दो वह उसका ही दुरुपयोग कर लेगा। क्योंकि सुनते तुम वही हो जो तुम सुन सकते हो। तो महावीर के पीछे निषेधात्मक लोगों की कतार लग गई। इसलिए तो महावीर का धर्म फैल नहीं सका। कहीं निषेध के आधार पर कोई चीज फैलती है? महावीर का धर्म सिकड़कर रह गया। 'नहीं-नहीं' पर कोई जिंदगी बनती है? 'नहीं-नहीं' से कोई जिंदगी के गीत बनते हैं? तो सिकुड़ गया। लेकिन कुछ रुग्ण लोग, जो नकारात्मक थे, उनके पीछे इकट्ठे हो गये। उनकी कतार लगी है। उनका सारा हिसाब इतना है कि बस 'नहीं' कहते जाओ। जो भी चीज हो उसे इनकार करते जाओ। इनकार कर-कर के वे कटते जाते हैं, मरते जाते हैं। तो उनकी प्रक्रिया करीब-करीब आत्मघात जैसी हो गयी। इसलिए जैन मुनियों के पास जीवन का उत्सव न मिलेगा, जीवन का अहोभाव न मिलेगा। इसलिए जैन मुनियों के पास तुम्हें जीवन की सुरभि न मिलेगी। तुम्हें जैन मुनियों के पास कोई गीत और नृत्य न मिलेगा। यह भी क्या धर्म हुआ, जिससे नृत्य पैदा न हो सके! यह भी | क्या धर्म हुआ जिससे गीत का जन्म न हो सके, जिसमें फूलन खिलें! यह सिकुड़ा हुआ धर्म हुआ। यह बीमारों को उत्सुक करेगा। निषेधात्मक और नकारात्मक लोगों को बुला लेगा। यह एक तरह का अस्पताल होगा, मंदिर नहीं। इसलिए मैं तुमसे कह देना चाहता है कि महावीर की अहिंसा