Book Title: Jinsutra Lecture 01 Jin Shasan ki Adharshila Sankalp
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रवचन जिन-शासन की आधारशिलाः संकल्प For Private Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BLOUDHARE An0A C.5 . 5 5 RESTHA BHERI NAL सूत्र जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं।।१।। अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए। किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइ न गच्छेजा।।२।। खणामित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।।३।। सुट्ठवि मग्गिज्जतो, कत्थवि केलीइ नत्थि जह सारो। इंदिअविसएसु तहा, नत्थि सुहं सुट्ठ वि गविट्ठ।।४।। जह कच्छुल्लो कच्छं, कंडयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं। मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं विंति।।५।। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ daws NRANIRUBHETANAKAMVARTA REET. ने द कहते हैं, परमात्मा अकेला था। एकाकीपन उसे साक्षात का सूत्रपात हुआ। वह ठीक वेद से उलटा है। 1 खला, अकेलेपन से ऊबा। सोचा उसने, बहुत हो | वेद कहते हैं, वह अकेला था, ऊबा, उसने बहुत को रचा। जाऊं। फिर उसने बहुत रूप धरे। ऐसे संसार | महावीर बहुत से ऊब गए, भीड़ से थक गए और उन्होंने चाहा, निर्मित हुआ। सृष्टि की यह कथा है। अकेला हो जाऊं। परमात्मा का उतरना संसार में, फैलना और स एकाकी न रेमे, एकोऽहं बहुस्याम्! महावीर का लौटना वापिस परमात्मा में! इसलिए अकेला वह ऊबने लगा। सोचा बहुत रूपों को सृजूं, बहुत श्रमण-संस्कृति के पास अवतार जैसा कोई शब्द नहीं है। रूपों में रमूं। तीर्थंकर! अवतार का अर्थ है: परमात्मा उतरे, अवतरित हो। ब्राह्मण-संस्कृति इसी सूत्र का विस्तार है-परमात्मा का तीर्थंकर का अर्थ है : उस पार जाए, इस पार को छोड़े। अवतार अवतरण, परमात्मा का फैलाव। ब्रह्म शब्द का यही अर्थ है : जो का अर्थ है: उस पार से इस पार आए। तीर्थंकर का अर्थ है : फैलता चला जाए, जो बहुत रूप धरे, जो बहुत लीला करे, जो घाट बनाए इस पार से उस पार जाने का। संसार कैसे तिरोहित अनेक-अनेक ढंगों से अभिव्यक्त हो, सागर जैसे अनंत-अनंत हो जाए, स्वप्न कैसे बंद हो, भीड़ कैसे विदा हो; फिर हम लहरों में विभाजित हो जाए। अकेले कैसे हो जाएं-वही श्रमण-संस्कृति का आधार है। एक अनेक बनता है, एक अनेक में उत्सव मनाता है। एक | वर्द्धमान कैसे महावीर बने, फैलाव कैसे रुके; क्योंकि जो अनेक में डूबता है, स्वप्न देखता है। माया सर्जित होती है। फैलता चला जा रहा है उसका कोई अंत नहीं है। वह पसारा बड़ा संसार परमात्मा का स्वप्न है। संसार परमात्मा के गहन में उठी है। वह कहीं समाप्त न होगा। स्वप्न फैलते ही चले जाएंगे, विचार की तरंगें हैं। फैलते ही चले जाएंगे और हम उनमें खोते ही चले जाएंगे। ब्राह्मण-संस्कृति ने परमात्मा के इस फैलाव के अनूठे गीत जागना होगा! गाए। उससे भक्ति-शास्त्र का जन्म हुआ। भक्ति-शास्त्र का | भक्ति-शास्त्र ने परमात्मा के इस संसार के अनेक-अनेक अर्थ है : परमात्मा का यह फैलता हुआ रूप, अहोभाग्य है। रूपों के गीत गाए, महावीर ने इस फैलती हुई ऊर्जा से संघर्ष परमात्मा का यह फैलता हुआ रूप परम आनंद है। इसलिए | किया-इसलिए 'महावीर' नाम-लड़े, धारा के उलटे बहे। भक्ति में रस है, फैलाव है। एक शब्द में कहें तो महावीर का जो गंगा बहती है गंगोत्री से गंगासागर तक-ऐसी बचपन का नाम है, वह ब्राह्मण-संस्कृति का सूचक है। महावीर | ब्राह्मण-संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति का सूत्र है: समर्पण; का बचपन का नाम था: वर्द्धमान—जो फैले, जो विकासमान छोड़ दो उसके हाथ में, जहां वह जा रहा है; चले चलो; भरोसा हो। फिर महावीर को दूसरी ऊर्जा का, दूसरे अनुभव का, दूसरे करो; शरणागति ! Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः pron महावीर की सारी चेष्टा ऐसी है जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ | मालूम होंगे। घबड़ाना मत। श्रवण और ब्राह्मण मिलकर ही पूर्ण बहे-मूलस्रोत की तरफ, उत्स की तरफ। लड़ो! दुस्साहस | संस्कृति का जन्म होता है। नहीं हो पाया ऐसा, होना चाहिए था। करो-संघर्ष, समर्पण नहीं। महान संघर्ष से गुजरना होगा, अब भी कुछ देर नहीं हुई, हो सकता है। जहां नारद और क्योंकि धारा को उलटा ले जाना है, विपरीत ले जाना है। वर्द्धमान महावीर राजी हो जाते हैं, वहां पूर्ण वर्तुल पैदा होता है। धारा का अर्थ है : जाए गंगोत्री से गंगा सागर की तरफ। धारा पर महावीर की भाषा संघर्ष की है। महावीर के पास को उलटा करना है-राधा बनाना है। गंगा चले, बहे उलटी, शरणागति जैसा कोई शब्द ही नहीं है। महावीर कहते हैं, ऊपर की तरफ, पानी पहाड़ चढ़े। मूल उदगम की खोज हो। अशरण-भावना। किसी की शरण मत जाना। अपनी ही शरण ब्राह्मण-संस्कृति आधी है। श्रमण-संस्कृति भी आधी है। लौटना है। घर जाना है। किसी का सहारा मत पकड़ना। सहारे दोनों से मिलकर पूरा वर्तुल निर्मित होता है। और इसलिए इस | से तो दूसरा हो जाएगा। सहारे में तो दूसरा महत्वपूर्ण हो देश में ब्राह्मण और श्रमणों के बीच जो संघर्ष चला, उसने दोनों जाएगा। नहीं, दूसरे को तो त्यागना है, छोड़ना है, भूलना है। को पंगु किया। तब ब्राह्मणों के पास फैलने के सूत्र रह गए, | बस एक ही याद रह जाए, जो अपना स्वभाव है, जो अपना श्रमणों के पास सिकुड़ने के सूत्र रह गए। दोनों ही अधूरे हो गए; | स्वरूप है-इसलिए कोई शरणागति नहीं। सत्य आधा-आधा कट गया। मेरे देखे, जहां ब्राह्मण और श्रमण महावीर गुरु नहीं हैं। महावीर कल्याणमित्र हैं। वे कहते हैं, मैं राजी होते हैं, सहमत होते हैं, मिल जाते हैं, वहीं परिपूर्ण धर्म का कुछ कहता हूं, उसे समझ लो; मेरे सहारे लेने की जरूरत नहीं आविर्भाव होता है। | है। मेरी शरण आने से तुम मुक्त न हो जाओगे। मेरी शरण आने निश्चित ही परमात्मा थक गया अकेलेपन से, बहुत रूप उसने से तो नया बंधन निर्मित होगा, क्योंकि दो बने रहेंगे। भक्त और धरे; लेकिन फिर बहुत रूप से भी तो थकेगा, फिर विश्राम भी तो भगवान बना रहेगा। शिष्य और गुरु बना रहेगा। नहीं, दो को तो मांगेगा। इसलिए महावीर के वचन वेद-विरोधी मालूम होंगे; मिटाना है। क्योंकि वेद बह रहा है गंगोत्री से गंगासागर की तरफ। इसलिए इसलिए महावीर ने भगवान शब्द का उपयोग ही नहीं किया। हिंदुओं ने समझा कि महावीर वेद-विरोधी हैं-प्रतीत होते हैं। कहा कि भक्त ही भगवान हो जाता है। | परमात्मा अपने घर वापिस लौटने लगा। ऊब गया बाजार से, इसे समझना। विपरीत दिखाई पड़ते हुए भी ये बातें विपरीत देख ली भीड़-भाड़, बहुत रूप धर लिये, थक गया उनसे भी। नहीं हैं। उसने फिर कहा, अब हो गया बहुत अनेक, अब एक होना। नारद कहते हैं, भक्त भगवान में लीन हो जाता है। भगवान ही चाहता हूं। इसलिए महावीर के पास एक शब्द है जो बड़ा बचता है, भक्त खो जाता है। महावीर कहते हैं, भक्त जाग जाता बहुमूल्य है। महावीर ने कहा, मनुष्य बहुचित्तवान है; है अपनी परिपूर्णता में, भगवान खो जाता है, भक्त में लीन हो रूपों में बंटा है-उसे संगृहीत होना है। इस संगृहीत चैतन्य का गया। स्वरूप को पहचान लेना भगवत्ता है। इसलिए महावीर के नाम ही महावीर की भाषा में परमात्मा है। वर्द्धमान को महावीर धर्म में भगवान नहीं है, शरणागति नहीं है। शरण जाने को ही होना है। फैलते को वापिस लौटना है, क्योंकि सब फैलाव | कोई नहीं है, जिसकी शरण चले जाओ। कोई प्रार्थना नहीं, कोई कामना का है। परमात्मा भी फैला संसार में कामना से। कामना | पूजा नहीं-हो नहीं सकती; क्योंकि पूजा में तो दूसरा जरूरी ही फैलती है। तो जिसे मुक्त होना है, उसे सिकुड़ना होगा। उसे | होगा। 'पर' चाहिए पूजा को। मूल स्वभाव में लौट आना होगा। महावीर की भाषा ध्यान की है, पूजा की नहीं। और ध्यान और परमात्मा उतरा है, हिंदु विचार में-अवतरण हआ। महावीर प्रार्थना में यही फर्क है। प्रार्थना में दूसरा चाहिए। ध्यान में दूसरे कहते हैं, ऊर्ध्वगमन, वापिस लौटना है घर; देख लिया संसार! को मिटाना है, भुलाना है। इस तरह भुला देना है कि बस अकेले इसलिए महावीर के सूत्र भक्ति-सूत्र से बिलकुल विपरीत तुम ही बचो, शुद्ध चैतन्य बचे; दूसरे की रेखा भी न रहे, छाया ain Education International Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MASTER न-शासन की आधारशिला : सेकल्प भी न पड़े। पर दोनों ही रास्तों से वहीं पहुंचना हो जाता है। जो जाए, तुम्हारे बेटे को गुलाब भा जाए, तो झगड़ा मत करना। जो समर्पण से बहते हैं, जो धारा बनते हैं, आखिर सागर से बादलों तुम्हें भा जाए, वही तुम्हारे लिए मार्ग है। पर चढ़ कर गंगोत्री पहुंच ही जाते हैं। उन्होंने सुगम मार्ग चुना। लोग अकसर उलटा करते हैं। लोग सोचते हैं, 'कौन नारद की यात्रा बड़ी सरल है। महावीर की यात्रा बड़ी कठिन ठीक?' गलत प्रश्न उठा लिया। 'महावीर ठीक कि नारद है। इसीलिए तो 'महावीर'! वह योद्धा का मार्ग है, प्रेमी का ठीक?'-तुमने प्रश्न ही गलत पूछ लिया। यही पूछो, कौन नहीं; संघर्ष का। लेकिन कुछ हैं जिनके लिए वही स्वाभाविक जंचता है। ठीक-गलत, तुम कैसे निर्णय करोगे? उस परम की है। इसलिए अपने भीतर देखना। इसकी फिक्र मत करना कि बातें, वे ही जानें जो परम को उपलब्ध हुए हैं। तुम तो इतना ही किस घर में पैदा हुए। वह तो सांयोगिक है। जैन घर में पैदा हुए तय कर लो, कौन-सा तुमको जंचता है, कौन-सा तुम्हारे मन को कि हिंदू घर में कि मुसलमान घर में कि ईसाई घर में, वह तो भा जाता है। सांयोगिक है। अपने जीवन की अंतर्दशा समझना। योद्धा बनने | मैं, अगर मुझसे पूछो, तो कहूंगा, सभी ठीक। लेकिन सभी की रुझान है? योद्धा बनने की तरफ सहज प्रवाह है? योद्धा ठीक से तो हल न होगा। क्योंकि सभी रास्तों पर तो तुम चल न होने में लगता है स्वरूप खिलेगा? तो योद्धा बनना! तो फिर सकोगे। द्वार तो तुम्हें चुनना ही होगा। सभी द्वार उसी के मंदिर महावीर के पीछे चलना। और लगे कि लड़ना अपने से न होगा, के हैं। लेकिन फिर भी तुम एक ही द्वार से गुजर सकोगे, सभी वह अपनी भाषा नहीं है, लगे कि समर्पण ही उचित है, तो फिर | द्वारों से न गुजर सकोगे। सभी द्वारों से गुजरने में तो तुम बड़ी नारद को चुन लेना। मुश्किल में पड़ जाओगे। एक पैर एक द्वार में डाल दोगे, एक नारद एक छोर हैं, महावीर दूसरे छोर हैं। और कहीं न कहीं हाथ दूसरे द्वार में डाल दोगे—तुम अटक जाओगे। एक से नारद और महावीर के बीच सारे महापुरुष हैं—बुद्ध हों, कृष्ण ज्यादा द्वार चुन लिये तो द्वार पहुंचाएंगे न, अटकाएंगे। तुम हों, राम हों, मुहम्मद हों, जरथुस्त्र हों, जीसस हों-महावीर अपना द्वार चुन लेना। तुम अपना फूल चुन लेना। तुम अपनी और नारद के बीच कहीं न कहीं! लेकिन महावीर और नारद रुझान को पहचानो। तुम्हें जो भा जाए वही सत्य है। जो तुम्हारे परम छोर हैं। और इसलिए जैसा नारद ने भक्ति को उसकी परम काम आ जाए वही सत्य है। जो द्वार तुम्हें पहुंचा दे वही गुरुद्वारा प्रगाढ़ता में प्रगट किया है, शरणागति को आखिरी रूप दिया, | है। पहुंचकर तो तुम भी पाओगे, अरे! सभी द्वार यहीं आ गए। आखिरी परिभाषा दे दी-उसके पार परिष्कार संभव नहीं पहुंचकर तो तुम मिलोगे उनसे जो दूसरे द्वारों से आते थे और है-वैसे महावीर ने संघर्ष को आखिरी रूप दिया है। अब दुश्मन मालूम पड़ते थे। क्योंकि मैंने तो उस मंदिर में महावीर उसको और ऊपर उठाने का कोई उपाय नहीं है। महावीर ने और नारद को आलिंगन करते देखा है। लेकिन तुम चुन लेना। आखिरी बात कह दी है संघर्ष के रास्ते पर। चुनाव तुम्हें यह नहीं तुम्हारा चुनाव यह न हो कि कौन ठीक है। वह तो बात ही अभद्र करना है कि कौन ठीक है। दोनों ठीक हैं। चुनाव तुम्हें यह करना हो गई। तुम्हारा चुनाव तो बस इतना होः है कि कौन हमें जंचता है। फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत! पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत। जब देखिए कुछ और ही आलम है तुम्हारा —इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कितने फूल खिले! हर बार अजब रंग है, हर बार अजब रूप! फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे। बहत रूपों में सत्य प्रगट हआ है। बहत रंगों में. बहत ढंगों में चंपा है, चमेली है, जूही है, केतकी है, गुलाब है, कमल है। प्रगट हआ है। और हर बार जब प्रगट हआ है तो अजब ही। तो फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे बड़ा आश्चर्यचकित करनेवाला है, अवाक कर जानेवाला है। पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत! नारद को समझोगे, अवाक रह जाओगे। महावीर को समझोगे, फिर तुम्हें जो भा जाए वही तुम्हारा फूल है। तुम्हें कमल भा ठगे रह जाओगे। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 1 - जब देखिए कुछ और ही आलम है तुम्हारा लौटने लगे तो वह कहने लगा, 'ऐसा आशीर्वाद दें कि एक दफा हर बार अजब रंग है, हर बार अजब रूप बंबई देखनी है!' मगर ये रूप सब एक के ही हैं। यह यात्रा एक ही है। 'तू बंबई देखकर क्या करेगा?' ईसाइयत कहती है, अदम को परमात्मा ने स्वर्ग से बहिष्कृत उसने कहा, 'यहां मन नहीं लगता। और बंबई बिना देखे मर किया। निकाला स्वर्ग के राज्य से; क्योंकि आज्ञा उसने न मानी | गए तो एक आस रह जाएगी।' / थी, अनाज्ञाकारी था। फिर जीसस ने आज्ञा मानी। जीसस जो मेरे साथ आए थे, वे बंबई के मित्र थे। वे चौंके। वे आए वापिस समारोहपूर्वक स्वर्ग में प्रविष्ट हुए। जिसे अदम में थे कश्मीर। वे आए थे हिमालय की शरण में। और जो हिमालय निकाला था, वही जीसस में लौटा। अदम पहला आदमी है, की शरण में पैदा हुआ था, वह बंबई आना चाह रहा था। जीसस आखिरी आदमी हैं। अदम संसार की तरफ यात्रा तुम अगर अपने मन को भी पहचानोगे तो यही पाओगे। है-धारा। जीसस संसार से विपरीत यात्रा है-राधा। परमात्मा की कथा वस्तुतः तुम्हारी ही कथा है। कोई परमात्मा यहूदियों की कथाएं थोड़ी कठोर हैं। पूरब में लोग ज्यादा | और तो नहीं। तुम कोई और तो नहीं। परमात्मा की कथा शुद्ध कोमल भाषा बोलते हैं। चेतना के स्वभाव की कथा है। ठीक ही कहते हैं वेद, 'ऊब यहदी कहते हैं, परमात्मा ने बहिष्कृत किया अदम को। हम गया, अकेला था। कहा, बहत को रचं / उसने बहत रचे।' ऐसा नहीं कहते। हम कहते हैं, स एकाकी न रेमे। वह अकेला | महावीर कहते हैं, अब हम बहुत से ऊब गए; अब घर वापिस था। एकोऽहं बहुस्याम। उसने कहा, बहुत को रचूं। बहिष्कृत | जाने की आकांक्षा पैदा होती है। नहीं हुआ, अवतरित हुआ। आया, मर्जी से आया। इसलिए महावीर के सूत्रों में लौटती यात्रा के सूत्र हैं। निश्चित और इसे भी समझ लेना जरूरी है। तुम जहां हो, अपनी मर्जी | ही वे भिन्न होंगे। रस की बात न होगी यहां। यहां विरसता की से हो। संसार में हो तो अपनी मर्जी से हो। तुम्हारे भीतर के | बात होगी। यहां कामना की, वासना की बात न होगी। यहां परमात्मा ने यही चुना। कुछ परेशान होने की बात नहीं। बेमर्जी | त्याग, वैराग्य की बात होगी। यहां राग नहीं, वीतरागता लक्ष्य से तुम नहीं हो। अपने ही कारण हो। अपनी ही आकांक्षा से हो। होगा। मगर ध्यान रखना, राग ही वीतरागता बनता है। वही है और यह बड़े सौभाग्य की बात है कि बेमर्जी से नहीं हो। क्योंकि ऊर्जा, जो सागर की तरफ जाती है। वही है ऊर्जा, जो गंगोत्री की जिस दिन चाहो, उसी दिन घर का द्वार खुला है, लौट आ सकते | तरफ जाती है। ऊर्जा वही है। पर महावीर का मार्ग थोड़ा कठिन हो। जब तक चाहो, जा सकते हो दूर। जिस दिन निर्णय करोगे, | है, क्योंकि धारा के विपरीत लड़ना होगा। उसी दिन लौटना शुरू हो जाएगा। किश्ती को भंवर में घिरने दे, मौजों के थपेड़े सहने दे ब्राह्मण-संस्कृति परमात्मा के फैलाव की कथा है। जिंदों में अगर जीना है तुझे, तूफान की हलचल रहने दे श्रमण-संस्कृति परमात्मा के घर लौटने की कथा है। तो निश्चित धारे के मुआफिक बहना क्या, तौहीने-दस्तो-बाजू है ही, जो अकेले में थक गया था, वह भीड़ में भी थक ही जाएगा। परवर्द-ए-तूफां किश्ती को धारे के मुखालिफ बहने दे! तुमने अपने भीतर भी देखा! यही होता है। बाजार में थक जाते किश्ती को भंवर में घिरने दे! हो, मंदिर की आकांक्षा पैदा होती है। भीड़ में ऊब जाते हो, महावीर कहते हैं, संघर्ष न हो तो सत्य आविर्भूत न होगा। जैसे बस्ती से ऊब जाते हो, हिमालय जाने की आकांक्षा पैदा होती है। सागर के मंथन से अमृत निकला, ऐसे जीवन के मंथन से सत्य हिमालय पर जो बैठे हैं, एकांत में, उनके मन में बाजार आकर्षण निकलता है। सत्य कोई वस्तु थोड़े ही है कि कहीं रखी है, तुम निर्मित करता है। गए और उठा ली, कि खरीद ली, कि पूजा की, प्रार्थना की और मैं कुछ मित्रों को लेकर कश्मीर की यात्रा पर था। कश्मीर के मांग ली! सत्य तो तुम्हारे जीवन का परिष्कार है। सत्य तो तुम्हारे वे बडा आनंद अनभव कर रहे थे। डल | ही होने का शद्धतम ढंग है। सत्य कोई संज्ञा नहीं है, क्रिया है। झील पर उनके साथ मैं ठहरा था। हमारा जो माझी था, जब हम सत्य कोई वस्तु नहीं है, भाव है। तो तुम जितने संघर्ष में उतरोगे, Jan Education International Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प - जितने मथे जाओगे, जितने जलोगे, जितने तूफानों की टक्कर है! जैनों के चौबीस ही तीर्थंकर क्षत्रिय थे। लड़ाकों की बात है। लोगे, उतना ही तुम्हारे भीतर सत्य आविर्भूत होगा; उतनी ही | लड़ना ही जानते थे। तूफान में ही किश्ती पली थी। तलवार ही तुम्हारी धूल झड़ेगी; गलत अलग होगा; निर्जरा होगी व्यर्थ से। | उनकी भाषा थी। युद्ध ही उनका अनुभव था। यद्यपि सब युद्ध झाड़-झंखाड़ ऊग गए हैं, घास-फूस ऊग आया है-आग | छोड़ दिया, अहिंसक हो गए। पर क्या होता है, इससे क्या फर्क लगानी होगी, ताकि वही बचे, जिसके मिटने का कोई उपाय | पड़ता है? चींटी को भी नहीं मारते थे, लेकिन योद्धा होना तो नहीं। अमृत ही बचे; मृत्यु को तो खाक कर देना होगा। यह जारी रहा। अपने स्वभाव से कोई भिन्न हो नहीं पाता। संसार भी बैठे-बैठे न होगा। इसके लिए बड़े प्रबल आह्वान की, बड़ी छोड़ दिया, प्रतियोगिता के सारे स्थान भी छोड़ दिये, जहां-जहां प्रगाढ़ चुनौती की जरूरत है। संघर्ष, युद्ध की बात थी, हिंसा थी, सब छोड़ दिया लेकिन किश्ती को भंवर में घिरने दे, मौजों के थपेड़े सहने दे! फिर भी योद्धा तो नहीं मिट पाता। भंवर दुश्मन नहीं है। महावीर के रास्ते पर भंवर मित्र है, जैनों के सारे तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। यह आकस्मिक नहीं है। एक क्योंकि उसी से लड़कर तो तुम जगोगे; उसी से उलझकर तो तुम | भी ब्राह्मण तीर्थंकर न हुआ। ब्राह्मण की भाषा लड़ने की भाषा उठोगे। उसी की टक्कर को झेलकर, संघर्ष करके, विजय | नहीं है; समर्पण की भाषा है; शरणागति की भाषा है। करके, तुम उसके पार हो सकोगे। इसलिए महावीर का मार्ग | बड़ी मधुर कहानी है। झूठ ही होगी, पर मधुर है। और माधुर्य कहा जाता है, 'जिन का मार्ग', जिनों का मार्ग; उनने, जिन्होंने इतना गहरा है उसमें कि झूठ की मैं फिक्र नहीं करता; मेरे लिए न शब्द का अर्थ है : जिसने जीता। जैन शब्द उसी | मधुर ही सत्य है। इतनी सुंदर है कि सत्य होनी ही चाहिए। वही जिन से बना। जिन का अर्थ है : जिसने जीता। कसौटी है सत्य की। सभी शब्द बड़े अर्थपूर्ण होते हैं। बुद्ध का अर्थ है : जो जागा। कहानी है कि महावीर का जन्म तो हुआ था एक ब्राह्मणी के जिन का अर्थ है जो जीता। गर्भ में पैदा तो हुए थे ब्राह्मणी के गर्भ में लेकिन देवताओं ने जिंदों में अगर जीना है तुझे, तूफान की हलचल रहने दे। कहा, 'ऐसा कभी हुआ है कि जैन तीर्थंकर और ब्राह्मण के घर -यह प्रार्थना मत कर कि तूफान को हटा लो! फिर तू क्या पैदा हो? ऐसा तो कभी सुना नहीं। और ब्राह्मण के घर पैदा करेगा? होगा तो फिर जिन तीर्थंकर कैसे होगा? फिर तूफान में किश्ती | धारे के मुआफिक बहना क्या, तौहीने-दस्तो-बाजू है। पल ही न पाएगी। फिर संघर्ष की भाषा ही न होगी। फिर उसके -यह तो तेरे बाहुओं का अपमान हो जाएगा, अगर तू धारा | जीवन में तलवार की धार और चमक न होगी। देवता बड़े के साथ बहा। बिबूचन में पड़े। और दुनिया का पहला आपरेशन हआ। उन्होंने धारे के मुआफिक बहना क्या... निकाल लिया ब्राह्मणी के गर्भ से महावीर को। तीन या चार -फिर तेरे हाथों का क्या होगा? फिर तेरी बाजुओं का क्या | महीने के थे, तब उन्होंने गर्भ निकाल लिया। बदल दिया गर्भ होगा? फिर तेरे बल को चुनौती कहां मिलेगी? यह तो अपमान एक क्षत्राणी के गर्भ से। वहां एक लड़की पैदा होने को थी, उसे होगा तेरी ऊर्जा का! समर्पण-नहीं! निकालकर ब्राह्मणी के गर्भ में रख दिया, महावीर को एक क्षत्रिय परवर्द-ए-तूफां किश्ती को धारे के मुखालिफ बहने दे! के गर्भ में रख दिया। यह किश्ती तो तूफान से ही पैदा होती है। यह किश्ती तो तूफान | यह भी बड़ी सूचक है बात। स्त्री स्वभावतः समर्पण की भाषा में ही पलती है। यह किश्ती तो जन्मती ही तूफान में है। जानती है। इसलिए ठीक ही किया कि स्त्री को निकाल लिया परवर्द-ए-तूफां किश्ती को.... क्षत्रिय के गर्भ से, ब्राह्मण के गर्भ में रख दिया। स्त्रैण भाषा - इस तूफान में पैदा हुई जीवन की किश्ती को, धार के समर्पण की है। मुखालिफ बहने दे, उलटा चलने दे। चल गंगोत्री की यात्रा पर! | जिनके मन कोमल हैं, फूल जैसे कोमल हैं, उनके लिए नारद महावीर का मार्ग योद्धा का मार्ग है-क्षत्रिय थे, स्वाभाविक का ही मार्ग है। पर जिनके हृदय में तलवार की चमक और कौंध 9 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र है, उनके लिए महावीर का मार्ग है। कहानी सुंदर है, अर्थपूर्ण आसान होता जाएगा। है। इतना कहती है कहानी कि 'ब्राह्मण के घर कभी कोई योद्धा | जब परमात्मा ने सोचा कि अकेला हूं, थक गया हूं, बहुत हो पैदा हुआ? योद्धा पैदा होने के लिए रोएं-रोएं में, खून-खून में, जाऊं, तो जीवन पैदा हुआ। निश्चित ही महावीर मृत्यु का साधन हड्डी-मांस-मज्जा में युद्ध का स्वर चाहिए। करेंगे। उलटे लौटना है। तो जिस तरह परमात्मा ने जीवन के दूसरी मजे की बात है कि चौबीस ही जैनों के तीर्थंकर क्षत्रिय धागे फैलाए थे, उसी तरह उनको मृत्यु के धागे फैलाने हैं, या घर में पैदा हुए और चौबीस ही तीर्थंकर अहिंसक हो गए, उन्होंने जीवन के धागे काटने हैं। वृक्ष खड़ा है, तो वासना की जड़ें हिंसा छोड़ दी। तलवार लेकर भी क्या लड़ना! वह कमजोर के फैलती हैं पृथ्वी में, तो ही खड़ा है। रस लेता है, आकाश में लड़ने का ढंग है; कमजोरी को तलवार से पूरा कर लेता है। फैलाता है शाखाओं को, सूरज की किरणें पीता है। वृक्ष को | इसलिए आदमी जितना कमजोर होता गया है, उतने ही उसके मरना हो, वृक्ष को सिकड़ना हो, बीज में बना हो, वापिस | शस्त्र मजबूत होते चले गए हैं। अब आज तो लड़ने के लिए लौटना हो, तो फिर जड़ों को खींच लेगा, फिर शाखाओं को झुका कमजोर और ताकत का कोई सवाल ही नहीं है; एटमबम गिराना | लेगा, क्योंकि फिर सूर्य की ऊर्जा की कोई जरूरत न रही। फिर हो, बच्चा भी गिरा दे सकता है। एक बटन दबा देगा हवाई पृथ्वी के रस की कोई जरूरत न रही। जहाज में से, एटमबम गिर जाएंगे। जिस आदमी ने एटम महावीर के सारे सूत्र एक गहन अर्थ में आत्मघात के सूत्र हैं। गिराया हिरोशिमा, नागासाकी पर, वह कोई बलशाली आदमी इसलिए तुम चकित होओगे कि महावीर अकेले जाग्रत पुरुष हैं थोड़े ही था; साधारण आदमी! और एक लाख आदमी क्षण में | जिन्होंने अपने संन्यासी को आत्मघात की भी आज्ञा दी है। मार डाले! यह कमजोर की बात हो गई। दुनिया में किसी ने नहीं दी। आत्मघात की भी आज्ञा ! दुनिया का महावीर कहते हैं, जो जितना ही योद्धा होता जाएगा उतने ही कोई कानून और दुनिया का कोई शास्त्र स्वीकार नहीं करता कि शस्त्र छोड़ देगा; उसका खुद होना ही पर्याप्त है। फिर वह आदमी को हक है कि वह मरना चाहे तो मर जाए; महावीर मारेगा भी नहीं, क्योंकि मारने की भाषा भी कमजोर की भाषा है। स्वीकार करते हैं—करना ही पड़ेगा। यह तर्कयुक्त है, क्योंकि वे तुम दूसरे को मिटाना चाहते हो, क्योंकि तुम दूसरे से डरते सिकुड़ने की तरफ जा रहे हैं, लौट रहे हैं वापिस, तो जीवन के हो-कहीं उसे जीवित छोड़ दिया, हानि न करे; कहीं तुम्हें न | सब तरफ से संबंध तोड़ देने हैं। अगर कोई यह भी चाहे कि मुझे मार डाले! तुम उसी को मारते हो जिससे तुम्हें डर है कि कहीं पूरे संबंध अभी छोड़ देने हैं, तो कौन दूसरा उसे रोकने का हकदार तुम्हारी मौत न आ जाए। महावीर ने कहा, वह भी कमजोर की है! महावीर ने आखिरी स्वतंत्रता आदमी को दी है कि वह भाषा है, हम किसी को मारेंगे नहीं। अगर कोई मारने भी आएगा | आत्मघात करना चाहे तो भी निर्णायक स्वयं है। अगर वह तो हम मरने को राजी रहेंगे, भागेंगे नहीं, लड़ेंगे भी नहीं। मरना चाहे तो भी हक है उसका! मृत्यु मनुष्य का जन्म-सिद्ध साधारणतः दो उपाय हैं : जब भी तुम पर कोई हमला करे तो या अधिकार है। लेकिन ये सब बातें संगत हैं उनके साथ। और तो भागो या जूझो-दोनों ही कमजोर के हैं। जो बहुत कमजोर उनके सारे सूत्र, कैसे जीवन से हमारे संबंध छिन्न-भिन्न हो जाएं, है, वह भाग जाता है; जो उतना कमजोर नहीं है, वह लड़ता है। कैसे यह फैलाव बंद हो जाए, कैसे हम वापिस घर की तरफ लौट लेकिन हैं दोनों ही कमजोर। | पड़ें, इसके ही सूत्र हैं। यह सारा शास्त्र मृत्यु का शास्त्र है। महावीर कहते हैं, जो सच में कमजोरी के पार हो गया, अभय तबीबों से मैं क्या पूछू इलाजे-दर्दे-दिल। हो गया, वह न तो भागता है न लड़ता है। वह कहता है, 'खड़े मरज जब जिंदगी खुद हो तो फिर उसकी दवा क्या है! हैं! हम यहीं खड़े हैं। तुम्हें मारना हो मार डालो।' वह मर जाता | महावीर के लिए जीवन ही रोग है। और रोग तो गौण हैं। और है, लेकिन उसके हृदय में हिंसा का भाव नहीं उठता। वह मर रोग तो मूल रोग की छायाएं हैं। जीवन ही रोग है। जीवन ही जाता है, लेकिन उसके हृदय में प्रतिहिंसा नहीं उठती। बंधन है। उसी से मुक्त हो जाना है। . यहां एक बात और समझ लें, क्योंकि फिर सूत्रों को समझना तो महावीर का जो मोक्ष है, वह महामृत्यु है—जहां तुम 10 Jair Education International Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANSAR शासन की आधारशिला : संकल्प। बिलकुल ही मिट गए हो; जहां कुछ भी नहीं बचा; जहां परम क्योंकि मजा ही इसमें था कि जो मेरे पास हो, मेरे पड़ोसियों के शून्य अवतरित होता है। . पास न हो। आशीर्वाद तो मिल गया। आशीर्वाद में कोई कमी न अब हम सूत्रों को लें: थी। देवता ने कहा, जो तू चाहेगा उसी क्षण पूरा होगा। इसमें महावीर ने कहा है, 'जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों | कुछ रुकावट न थी। लेकिन मन सुखी न हुआ, प्रसन्न न हुआ, के लिए भी चाहो। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह फूल खिले नहीं। बड़ा उदास हो गया। बड़े उदास मन से देखा दूसरों के लिए भी मत चाहो। यही जिन शासन है। तीर्थंकर का कि देखें, वरदान काम भी करता है या नहीं। यह कोई वरदान यही उपदेश है। हुआ! यह तो खाली, चली हुई कारतूस जैसा वरदान हुआ। समझें। साधारणतः तम जो अपने लिए चाहते हो, वह तम इसमें कुछ रस ही न रहा। दूसरों के लिए नहीं चाहते; क्योंकि फिर तो अपने लिए चाहने का फिर भी उसने कहा, देखें शायद...। कहा कि एक महल बन कोई अर्थ ही न रहा। तुम एक महल बनाना चाहते हो अपने जाए। एक महल बन गया। लेकिन जब बाहर आकर देखा तो लिए, तो बहुत गहरे में तुम पाओगे कि तुम चाहते हो कि दूसरा बड़ा मुश्किल में पड़ गया : दो-दो महल बन गए थे पड़ोसियों कोई ऐसा महल न बना ले, अन्यथा मजा ही गया। अगर सभी के। छाती पीट ली। यह कोई वरदान हुआ! यह तो अभिशाप के पास महल हों तो तुम्हारे पास महल होने का अर्थ ही क्या हो गया। इससे तो पहली ही भले थे। अपनी ही मेहनत से कर रहा! तुम एक सुंदर स्त्री चाहते हो कि सुंदर पुरुष चाहते हो, तो लेते। लेकिन उसने रास्ते खोज लिये। आदमी की हिंसा बड़ी तुम भीतर यह भी चाहते हो कि ऐसी सुंदर स्त्री किसी और को न | गहन है! उसने कहा, 'ठीक है! देवता धोखा दे गये, हम.भी | मिल जाए, अन्यथा कांटा चुभेगा। तुम ऐसी सुंदर स्त्री चाहते हो रास्ता खोज लेंगे!' मिला होगा वकीलों से, सलाह ली होगी। जो बस तुम्हारी हो, और वैसी सुंदर स्त्री किसी के पास न हो। किसी वकील ने सुझा दिया कि इसमें कुछ घबड़ाने की बात नहीं सुंदर स्त्री में भी तुम अपने अहंकार को ही भरना चाहते हो। है। जहां-जहां कानून हैं वहां-वहां निकलने का उपाय है। तू अपने महल में भी अहंकार को भरना चाहते हो। ऐसा कर, तू जाकर मांग कि मेरे घर के सामने दो कुएं खुद जाएं। तुम जो अपने लिए चाहते हो, वह तुम दूसरे के लिए कभी नहीं | उसने कहा, 'इससे क्या होगा?' उसने कहा, 'तू पहले चाहते। उससे विपरीत तुम दूसरे के लिए चाहते हो-अपने कोशिश तो कर।' दो कुएं उसके घर के सामने खुद गए, लिए सुख, दूसरे के लिए दुख। लाख तुम कुछ और कहो, लाख पड़ोसियों के सामने चार-चार कुएं खुद गए। वकील ने कहा, तुम ऊपर से कहो कि नहीं, ऐसा नहीं है, हम सब के लिए सुख | 'अब तू प्रार्थना कर कि मेरी एक आंख फूट जाए।' तब समझा चाहते हैं लेकिन जरा गौर से खोजना! सब के लिए सुख तो वह राज। उसने कहा, अरे! मुझे खयाल में ही न आया। एक तुम तभी चाह सकते हो जब तुमने जीवन से अपनी जड़ें तोड़नी आंख फोड़ने का वरदान मांग लिया, पड़ोसियों की दोनों आंखें शुरू कर दी, उसके पहले नहीं। क्योंकि जीवन प्रतिस्पर्धा है, फूट गईं। अब अंधे पड़ोसी और चार-चार कुएं घर के समाने; प्रतियोगिता है, महत्वाकांक्षा है, पागलपन है, छीन-झपट है, | जो हुआ, वह हम समझ सकते हैं। गलाघोंट संघर्ष है। लेकिन सुख हमारा दूसरे के दुख में है। और जीवन हमारा बड़ी पुरानी कहानी है कि एक आदमी ने बड़ी प्रार्थना-पूजा की दूसरे की मौत में है। और हमारी सारी प्रसन्नता किसी की उदासी और किसी देवता को प्रसन्न कर लिया। वर्षों की साधना के बाद पर खड़ी है। हमारा सारा धन दूसरे की निर्धनता में है। लाख तुम देवता बोला और देवता ने कहा, 'क्या चाहते हो?' उसने दूसरे के दुख में सहानुभूति प्रगट करो, जब भी दूसरा दुखी होता कहा, 'जो भी मैं मांगू वह मुझे मिल जाए।' देवता ने कहा, है, कहीं गहरे में तुम सुखी होते हो। और तुम्हारी सहानुभूति में 'निश्चित मिलेगा। लेकिन एक शर्त है : तुमसे दुगुना तुम्हारे भी तुम्हारे सुख की भनक होती है। पड़ोसियों को भी मिल जाएगा।' बस सब पूजा-प्रार्थना व्यर्थ हो तुमने कभी पकड़ा अपने को सहानुभूति प्रगट करते हुए? गई। वह आदमी उदास हो गया। यह भी क्या आशीर्वाद हआ! | किसी का दिवाला निकल गया, तुम सहानुभूति प्रकट करने जाते Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1.1 हो। कहते हो, बड़ा बुरा हुआ! लेकिन कभी अपना चेहरा आईने यानी लड़ना है दूसरे से। एक-एक इंच जमीन के लिए लड़ना में देखा, जब तुम कहते हो, बड़ा बुरा हुआ, तो कैसी रसधार | है। एक-एक इंच पद के लिए लड़ना है। एक-एक इंच धन के बहती है! तुम कभी गए, जब किसी को लाटरी मिल गई हो, तब | लिए लड़ना है। तुम कहने गए कि बहुत अच्छा हुआ? / महावीर इस पहले सूत्र में ही तुम्हें मौत का पहला पाठ देते हैं। जब कोई सुखी होता है तब तुम अपना सुख प्रगट करने नहीं वे कहते हैं, जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी जाते; तब तो ईर्ष्या पकड़ती है, जलन पकड़ती है। अंगारे छाती चाहो। चाह मरेगी ऐसे। फिर चाह जी न सकेगी। चाह की जड़ में बैठ जाते हैं। फफोले उठ आते हैं भीतर, घाव महसूस होते हैं, ही काट दी। जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए पीड़ा होती है कि फिर कोई आगे निकल गया। तब तो तुम दूसरी | भी चाहो। बातें करते हो। तुम तो कहते हो, धोखेबाज है, बेईमान है। तब जरा सोचो तुम चाहते थे कि एक महल बन जाए-दूसरों के तो तुम परमात्मा से कहते हो, 'यह क्या हो रहा है तेरे जगत में? | लिए भी! उस चाह में ही तुम पाओगे कि तुम्हारे महल बनाने की अन्याय हो रहा है। यहां पापी और व्यभिचारी जीत रहे हैं और चाह गिर गई। तुम चाहते थे, ऐसा हो वैसा हो, वही सबको भी पुण्यात्मा हार रहे हैं।' पुण्यात्मा यानी तुम! पापी यानी वे सब हो जाए–अचानक तुम पाओगे, पैरों के नीचे से किसी ने जमीन जो जीत रहे हैं! खींच ली। तुमने कभी खयाल किया, जब भी कोई जीत जाता है, तुम और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत अपने को समझाते हो, सांत्वना देते हो कि जरूर किसी गलत चाहो। लोगों ने अपने लिए तो स्वर्ग की कल्पनाएं की हैं, और ढंग से जीत गया होगा, कोई बेईमानी की होगी, रिश्वत दी होगी, | दूसरों के लिए नर्क का इंतजाम किया है। जब भी तुम सोचते हो चालबाजी की होगी, कोई रिश्तेदारी खोज ली होगी कहीं। अपने लिए तो स्वर्ग में सोचते हो, कल्पना करते हो। नहीं, अगर एक महिला मेरे पास आई। उसका बच्चा फेल हो गया। वह | तुम अपने लिए नर्क नहीं चाहते तो दूसरे के लिए भी मत चाहो। कहने लगी कि बड़ा अन्याय हो रहा है। ये सब शिक्षक और यह क्यों महावीर इस सूत्र को इतना मूल्य देते हैं? यह उनका सब शिक्षा की व्यवस्था, सब धोखेबाज, बेईमान हैं। जिन्होंने आधार-सूत्र है। यह बड़ा सीधा और सरल दिखता है ऊपर, शिक्षकों को रिश्वतें खिला दीं, वे तो सब उत्तीर्ण हो गए, मेरा लेकिन इसका जाल बहुत गहरा है और सूत्र बड़ी गहराई में तुम्हारे लड़का फेल हो गया। मैंने कहा, इसके पहले भी तेरा लड़का अचेतन को रूपांतरित करने वाला है। अगर तुम एक सूत्र को भी पास होता आया था, तब तू कभी भी न आई कहने कि मेरा पालन कर लो तो तुम्हें पूरा धर्म उपलब्ध हो जाएगा। अपने लिए लड़का पास हो गया, जरूर किसी न किसी ने रिश्वत खिलाई | वही चाहो जो तुम दूसरे के लिए भी चाहते हो और जो तुम अपने होगी। जब तेरा लड़का पास होता है, तब अपनी मेहनत से पास लिए नहीं चाहते वह दूसरे के लिए भी मत चाहो-अचानक तुम होता है; जब दूसरों के लड़के पास होते हैं, तब रिश्वत से पास | पाओगे, तुम्हारे जीवन की आपाधापी खो गई। अचानक तुम होते हैं! पाओगे, प्रतिस्पर्धा मिट गई, महत्वाकांक्षा को जगह न रही, बीज तुमने कभी देखे ये दोहरे मापदंड? जब तुम सफल होते हो तो सूखने लगे, जलने लगे। होना ही था, तुम प्रतिभाशाली हो। और जब दूसरा सफल होता यही जिन शासन है। है, बेईमान! कहीं कोई धोखे का रास्ता निकाल लिया। कोई | एतियगं जिणसासणं। यही तीर्थंकर का उपदेश है। जिन्होंने चालबाजी कर गया। जब तुम हारते हो तो अपने पुण्यात्मा होने | जीता है स्वयं को, उनका यह उपदेश है। की वजह से हारते हो। और जब दूसरा हारता है तो पापी है, 'अध्रुव, अशाश्वत और दुखबहुल संसार में ऐसा कौन-सा अपने कर्मों की वजह से हारता है। तुमने कभी ये दोहरे मापदंड | कर्म है जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं?' देखे? पर यह मापदंड ठीक हैं फैलाव के रास्ते पर, क्योंकि महावीर पूछते हैं, अध्रुव, अशाश्वत... / सभी चीजें प्रतिक्षण फैलाव यानी प्रतिस्पर्धा। फैलाव यानी गलाघोंट संघर्ष। फैलाव बदली जाती हैं। यहां कुछ भी तो शाश्वत नहीं। पानी पर खींची . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प लकीर जैसा है जीवन। यहां तुम खींच भी नहीं पाते लकीर कि वस्तुओं का भरोसा है, न देह का भरोसा है, न मन का भरोसा मिट जाती है। यहां तुम बना भी नहीं पाते महल कि विदा होने का | है...। क्षण आ जाता है। साज-सामान जुटा पाते हो, गीत गा भी नहीं मुझे दिल की धड़कनों का नहीं एतिबार 'माहिर' पाते कि विदाई उपस्थित हो जाती है। जीवन की तैयारी ही करने। | कभी हो गईं शिकवे, कभी बन गईं दुआएं। में जीवन बीत जाता है और मौत आ जाती है। यहां अपने ही दिल का भरोसा नहीं है। क्षणभर में प्रसन्न है, _ 'अध्रुव, अशाश्वत, दुखबहुल...।' और जहां दुख ज्यादा क्षणभर में रोता है। क्षणभर पहले दुआएं दे रहा था, क्षणभर बाद है और सुख तो केवल आशा है जहां; जहां सुख के केवल सपने शिकायतों से भर गया। क्षणभर पहले ऐसा प्रकाशोज्ज्वल हैं, सत्य तो जहां दुख है-यहां ऐसे इस जगत में कौन-सा ऐसा मालूम होता था और क्षणभर बाद गहन अंधकार से घिर गया। कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं? क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि यहां अपने ही दिल का भरोसा नहीं, जो इतने करीब है! दिल व्यर्थ लकीरें खींचने में मैं अपने लिए दुर्गति बना रहा होऊं। हम यानी तुमसे जो करीब से करीब है। उसका भी भरोसा नहीं है। बना रहे हैं। व्यर्थ की आकांक्षा में हम अपने लिए ऐसा जाल बुन यहां किस और चीज का भरोसा करें! रहे हैं, जैसे कभी-कभी मकड़ा जाल बुनता है और खुद ही उसमें कलियों के जिगर अफसुर्दा हैं, कांटों की जबानें सूखी हैं फंस जाता है। और जो हम बुन रहे हैं उससे कुछ मिलने का नहीं हम बाग के धोखे में शायद, जंगल के किनारे आ बैठे। है। उससे कुछ खो जाता है। कहीं कुछ धोखा हो गया है। सभी लोग सुख चाहते हैं, धन पाने के लिए लोग कितना दौड़ते हैं! पाकर भी क्या पाते मिलता दुख है। सभी लोग फूल मांगते हैं, मिलते कांटे हैं। सभी हैं? क्या मिल पाता है? हाथ तो खाली के खाली रह जाते हैं। लोग आनंद के लिए आतुर और व्यथित हैं, पाते संताप हैं। मरते वक्त निर्धन के निर्धन ही रहते हैं। मगर सारा जीवन गंवा | कलियों के जिगर अफसुर्दा हैं, कांटों की जबाने सूखी हैं देते हैं। वही जीवन ध्यान भी बन सकता था, जिसे तुमने धन हम बाग के धोखे में शायद, जंगल के किनारे आ बैठे। बनाया। वही जीवन-ऊर्जा ध्यान भी बन सकती थी, जिसे तुमने कहीं कुछ भूल हो गई है। कहीं कोई बुनियादी चूक हो गई है। धन में गंवाया। वही जीवन-ऊर्जा तुम्हारे जीवन का आत्यंतिक हम शायद समझ नहीं पा रहे। हम शायद रेत से तेल निकालने समाधान बन सकती थी, समाधि बन सकती थी, और तुम व्यर्थ | की चेष्टा में संलग्न हैं, अन्यथा इतना दुख कैसे होता? सभी सामान जुटाने में लगे रहे। और सामान भी ऐसा जुटाया जो मौत सुख चाहते हों, इतना दुख कैसे होता? सभी लोग अमृत चाहते के क्षण में साथ न ले जा सकोगे, मौत जिसे छीन लेगी। और हों और मौत ही घटती है, अमृत तो घटता दिखाई नहीं पड़ता। सामान भी ऐसा जुटाया कि न मालूम कितनों को दुख दिया, न सभी लोग चाहते हैं कि नाचते, प्रसन्न होते; लेकिन रसधार मालूम कितनों की पीड़ा निर्मित की, न मालूम कितनों के लिए रोज-रोज सूखती चली जाती है। न नाच है जीवन में, न उमंग है, नर्क बनाया। इतना दुख देकर तुम सुखी हो कैसे सकोगे? इतना न कोई उत्सव है। दुख तुम पर लौट-लौट आएगा, अनंत गुना होकर बरसेगा। 'ऐसा कौन-सा कर्म करूं, जिससे इस दुर्गति से बचूं।' क्योंकि जगत तो एक प्रतिध्वनि है। तम गीत गाओ, तुम्हारा ही क्या करूं? क्या करना मुझे इस उपद्रव के गीत प्रतिध्वनित होकर तुम पर बरस जाता है। तुम गालियां | ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देनेवाले बको, तुम्हारी ही गालियां लौटकर तुम पर बरस जाती हैं, छिद | हैं; बहुत दुख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं; संसार-मुक्ति के जाती हैं। विरोधी, और अनर्थों की खान हैं।' यह जगत तो एक प्रतिध्वनि मात्र है। थोड़ा-सा सुख! ऐसे ही है जैसे कोई मछलियों को पकड़ने तो महावीर कहते हैं, मौलिक सवाल यह है कि मैं कौन-सा जाता है, कांटे पर आटा लगा देता है। मछलियां आटे के लिए रूं! इस दखबहल संसार में, इस अशाश्वत संसार में, आती हैं, कांटे के लिए नहीं मिलता कांटा है। ऐसा ही लगता है जहां सभी कुछ क्षण-क्षण में बदला जा रहा है, जहां न तो कि जैसे कोई मछुआ मजाक किए जा रहा है। सभी दौड़ते हैं सुख Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः19 के लिए और आखिर में पाते हैं, कांटे छिद गए। कि मैं सब कुछ देने को तैयार हूं; जो भी तुम्हारी फीस हो ले लो, तुमने भी कितनी बार सुख नहीं चाहा! पाया है? महावीर लेकिन चौबीस घंटे मुझे और जिला लो; जिससे मैं पैदा हुआ हूं कहते हैं, शायद थोड़ा-सा आभास मिला हो, प्रथम क्षण में, | उससे विदा तो ले लेने दो; मां को देखकर जाना चाहता हूं। शायद उल्लास के क्षण में कि मिल गया, तुमने अपने को धोखा | चिकित्सकों ने कहा, असंभव है। सिकंदर ने कहा, अपना आधा दे लिया हो; पर जल्दी ही झूठी पर्ते उघड़ जाती हैं। जल्दी ही पता | साम्राज्य दे दूंगा। उदास खड़े चिकित्सक! उसने कहा, पूरा ले चल जाता है। लो। काश! मुझे पहले पता होता कि पूरा साम्राज्य देकर भी एक मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने दफ्तर में अपने मालिक से सांस नहीं मिलती, तो अपने जीवनभर की सांसें इस साम्राज्य के बोला कि शादी की है, हनीमून के लिए पहाड़ जाना चाहता | लिए क्यों खराब करता! हं—दो सप्ताह, तीन सप्ताह की छुट्टी! मालिक ने कहा, लेकिन इसी आपा-धापी में, इसी दौड़-धूप में सब गया। हनीमून कितने दिन चलेगा--एक सप्ताह, दो सप्ताह, तीन एक-एक सांस इतनी बहुमूल्य है, तुम्हें पता नहीं। इसलिए सप्ताह! उतनी छुट्टी ले लो। मुल्ला ने कहा, आप ही बता दें। महावीर कहते हैं, सोच लो, कहां लगा रहे हो अपनी श्वासों मालिक ने कहा, मैंने तुम्हारी पत्नी को अभी देखा ही नहीं, मैं | को! जो मिलेगा, वह पाने योग्य भी है? कहीं ऐसा न हो कि बताऊं कैसे कितनी देर चलेगा? गंवाने के बाद पता चले कि जो मूल्य दिया था, बहुत ज्यादा था, देर-अबेर हो सकती है, पर जल्दी ही घड़ी आ जाती है, जब और जो पाया वह कुछ भी न था। असली हीरों के धोखे में प्रेम राख हो जाता है। कोई थोड़ी देर तक अपने को भुलाए रखता | नकली हीरे ले बैठे! है, कोई थोड़ी जल्दी जाग जाता है। पर देर-अबेर सभी जाग कम से कम मौत से ऐसी मझे उम्मीद नहीं जाते हैं। इस संसार में जो भी प्रेम है, वह चाहे धन का हो, चाहे जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा! रूप का हो, चाहे पद का हो, वह देर-अबेर उखड़ ही जाता है। जिंदगी सिलसिला है : धोखे पर धोखा। असलियत कब तक छिपाए छिपेगी? 'बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं असलियत दुख है। सख तो ऊपर का रंग-रोगन है: जरा वर्षा देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सख दिखाई नहीं देता।' पड़ी, बह गया रंग-रोगन। वह तो कागज के फूलों जैसा है; जरा लगता है-लगता है, मुर्छा के कारण। वर्षा पड़ी, बिखर गये, गल गए। / कभी किसी कुत्ते को देखा, सूखी हड्डी को चबाते! चबाता है 'ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देनेवाले कितने रस से! तुम बैठे चकित भी होओगे कि सूखी हड्डी में हैं; बहुत दुख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं; संसार-मुक्ति के चबाता क्या होगा! सूखी हड्डी में कोई रस तो है नहीं। सूखी हड्डी विरोधी...' संसार से मुक्त होने के विरोधी हैं, क्योंकि इन्हीं की में चबाता क्या होगा! लेकिन होता यह है कि जब सूखी हड्डी को आशा में तो लोग अटके रहते हैं, क्यू लगाए खड़े रहते हैं : अब कुत्ता चबाता है तो उसके ही जबड़ों, जीभ से, तालू से मिला, अब मिला! अब तक नहीं मिला, मिलता ही होगा! लहू-सूखी हड्डी की टकराहट से लहू बहने लगता है। उसी लोग राह ही देखते रहते हैं, बिना यह सोचे कि जिस क्यू में खड़े लहू को वह चूसता है। सोचता है, हड्डी से रस आ रहा है। हड्डी हैं उसमें किसी को भी कभी मिला? माना कि कुछ लोग क्यू में से कहीं रस आया है! अपना ही खून पीता है। अपने ही मुंह में बिलकुल आगे पहुंच गए हैं-कोई सिकंदर-मगर सिकंदर से घाव बनाता है। भ्रांति यह रखता है कि हड्डी से रस आता है। भी तो पूछो, मिला? / हड्डी से खून आ रहा है। जिन्होंने भी जागकर देखा है, थोड़ा सिकंदर मर रहा था तो उसने अपने चिकित्सकों से कहा कि मैं | अपना मुंह खोलकर देखा है, उन्होंने यही पाया है कि इंद्रिय-सुख अपनी मां को बिना देखे नहीं मरना चाहता हूं। लेकिन मां दूसरे सूखी हड्डियों जैसे हैं, उनसे कुछ आता नहीं। अगर कुछ आता गांव में थी। या तो वह आए या सिकंदर वहां तक पहुंचे। भी मालूम पड़ता है तो वह हमारी ही जीवन की रसधार है। और चौबीस घंटे की कम से कम जरूरत थी। और सिकंदर ने कहा | वह घाव हम व्यर्थ ही पैदा कर रहे हैं। जो खून हमारा ही है, उसी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन की आधारशिला : संक को हम घाव पैदा कर-कर के वापिस ले रहे हैं। फिर भटकोगे। काम-भोग में जो सुख मिलता है, वह सुख तुम्हारा ही है जो मनुष्य अनुभव से सीखता ही नहीं। जो सीख लेता है, वही तुम उसमें डालते हो। वह तुम्हारे काम-विषय से नहीं आता। जाग जाता है। मनुष्य अनुभव से निचोड़ता ही नहीं कुछ। तुम्हारे स्त्री को प्रेम करने में, पुरुष को प्रेम करने में तुम्हें जो सुख की अनुभव ऐसे हैं जैसे फूलों का ढेर लगा हो, तुमने उनकी माला झलक मिलती है, वह न तो स्त्री से आती है न पुरुष से आती है, नहीं बनाई। तुमने फूलों को किसी एक धागे में नहीं पिरोया कि तुम्हीं डालते हो। वह तुम्हारा ही खून है, जो तुम व्यर्थ उछालते तुम्हारे सभी अनुभव एक धागे में संगृहीत हो जाते और तुम्हारे हो। पर भ्रांति होती है कि सुख मिल रहा है। कुत्ते को कोई कैसे | जीवन में एक जीवन-सूत्र उपलब्ध हो जाता, एक जीवन-दृष्टि समझाए! कुत्ता मानेगा भी नहीं। कुत्ते को इतना होश नहीं। आ जाती। लेकिन तुम तो आदमी हो! तुम तो थोड़े होश के मालिक हो __ अनुभव तुम्हें भी वही हुए हैं जो महावीर को। अनुभव में कोई सकते हो! तुम तो थोड़े जाग सकते हो! भेद नहीं। तुमने भी दुख पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। तुमने 'बहत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं भी सुख में धोखा पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। फर्क कहां देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।' | है? अनुभव तो एक से हुए हैं। महावीर ने अनुभवों की माला 'खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता बना ली। उन्होंने एक अनुभव को दूसरे अनुभव से जोड़ लिया। है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।' | उन्होंने सारे अनुभवों के सार को पकड़ लिया। उन्होंने उस सार खुजली हो जाती है। जानते हो, खुजलाने से और दुख होगा, का एक धागा बना लिया। उस सूत्र को हाथ में पकड़कर वे पार लहू बहेगा, घाव हो जाएंगे, खुजली बिगड़ेगी और, सुधरेगी न। हो गए। तुमने अभी धागा नहीं पिरोया। अनुभव का ढेर लगा सब जानते हुए, फिर भी खुजलाते हो। एक अदम्य वेग पकड़ है, माला नहीं बनाई। माला बना लेना ही साधना है। उसी की लेता है खुजलाने का। जानते हुए, समझते हुए, अतीत के तरफ ये इशारे हैं। अनुभव से परिचित होते हुए, पहले भी ऐसा हुआ है, बहुत बार 'खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता ऐसा हुआ है। फिर भी कोई तमस, कोई मोह-निद्रा, कोई अंधेरी है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।' रात, कोई मूर्छा मन को पकड़ लेती है, फिर भी तुम खुजलाए थोड़ा समझो। हमारी मान्यता से बड़ा फर्क पड़ता है। हमारी चले जाते हो! मान्यता से, हमारी व्याख्या से बहुत फर्क पड़ता है। तुमने कभी खयाल किया, लोग जब खुजली को खुजलाते हैं तुमने कभी खयाल किया? एक स्त्री को तुम आलिंगन कर तो बड़ी तेजी से खुजलाते हैं। क्योंकि वे डरते हैं। उन्हें भी पता है लेते हो, सोचते हो, सुख मिला। सोचने का ही सुख है। ऐसा ही कि अगर धीरे-धीरे खुजलाया तो रुक जाएंगे। बड़े जल्दी तो सपने में भी तुम सोच लेते हो, तब भी सुख मिल जाता है। खुजला लेते हैं, अपने को ही धोखा दे रहे हैं। मांस निकल आता सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हीं होते हो। सपने में कोई स्त्री है, लहू बह जाता है। पीड़ा होती है, जलन होती है। फिर वही तो नहीं होती, तुम्हारी ही धारणा होती है। हो सकता है, अपनी अनुभव ! लेकिन दुबारा फिर खुजली होगी तो तुम भरोसा कर ही दुलाई को छाती से चिपटाए पड़े हो, सपना देख रहे हो। सकते हो कि तुम न खुजलाओगे? जागकर हंसते हो कि कैसा पागलपन है! कितनी बार तुमने क्रोध किया, कितनी बार क्रोध से तुम विषाद लेकिन सपने में भी उतना ही सुख मिल जाता है; शायद थोड़ा से भरे, कितनी बार तुम काम में गए, कितनी बार हताश वापिस ज्यादा ही मिल जाता है, जितना कि जागने की स्त्री से मिलता है। आए, कितनी बार आकांक्षा की और हर बार आकांक्षा टूटी और | क्योंकि जागते हुए स्त्री की मौजूदगी कुछ बाधा भी पैदा करती बिखरी, कितनी बार स्वप्न संजोए-हाथ क्या लगा? बस राख. है। सपने में तो कोई भी नहीं, तुम अकेले ही हो, तुम्हारा ही सारा ही राख हाथ लगी। फिर भी, दुबारा जब आकांक्षा पकड़ेगी, - भावनाओं का खेल है। दुबारा जब क्रोध आएगा, दुबारा जब काम का वेग उठेगा, तुम सपने में तुम सुख ले लेते हो स्त्री को आलिंगन करने का, तो 15 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सत्र भागः1 थोड़ा सोचो तो! सुख तुम्हारी ही धारणा का होगा। जागते में भी उसने कहा, 'मैं हंस रहा हूं इसलिए कि अब किसके लिए इतना सुख नहीं मिलता, क्योंकि जागते में एक जीवित स्त्री उस रोऊ! अभी सपने में बारह लड़के थे, बड़े सुंदर थे, यह कुछ भी तरफ खड़ी है। जीवित स्त्री में पसीने की बदबू भी है। जीवित नहीं। बड़े स्वस्थ, बलिष्ठ थे। जैसे उनकी मौत कभी आएगी ही स्त्री में कांटे भी हैं। जैसे तुममें हैं, ऐसे उसमें हैं। जीवित स्त्री की न, ऐसे थे। अमृत-पुत्र थे। और बड़ा महल था, यह महल मौजूदगी थोड़ी बाधा भी डालती है। दूसरे व्यक्ति की मौजूदगी झोपड़ा है! सोने का बना था। राह पर हीरे-जवाहरात लगे थे। परतंत्र भी करती है। परतंत्रता की पीड़ा भी होती है। स्त्री हो तेरी चीख ने सब गड़बड़ कर दिया। न तेरा मुझे पता था, न इस सकता है, अभी राजी न हो कि आलिंगन करो, हाथ से हटा दे। बेटे का मुझे पता था; सपने में तुम ऐसे ही खो गए थे, जैसे अब लेकिन सपने में तो कोई तुम्हें हाथ से न हटा सकेगा। सपना खो गया। अब मैं सोचता हूं, किसके लिए रोना! उन एक आदमी एक मनोवैज्ञानिक के पास गया और उसने कहा | बारह के लिए रोऊ पहले कि इस एक के लिए रोऊं? इसलिए कि मेरी बड़ी मुसीबत है, मेरी सहायता करें। मैं रात सपना | हंसी आती है। हंसी आती है कि रोना व्यर्थ है। हंसी आती है कि देखता हूं कि हजारों सुंदरियां नग्न मेरे चारों तरफ नाचती हैं। वह भी एक सपना था, यह भी एक सपना है। वह आंख-बंद मनोवैज्ञानिक अपनी कुर्सी से टिका बैठा था, सम्हलकर बैठ का सपना था, यह आंख-खुली का सपना है।' गया। उसने कहा, 'यह परेशानी है? अरे पागल! और क्या तुम जिसे सुख मान लेते हो, वह सुख मालूम पड़ता है। कई चाहता है ? इसमें परेशानी कहां है? तू अपना राज बता, कैसे तू दफा दुख को भी तुम सुख मान लेते हो; सुख मालूम पड़ता है। यह सपना पैदा करता है? क्या तेरी फीस है, बोल!' पहली दफा जब कोई सिगरेट पीता है तो सुख नहीं मिलता, दुख उस आदमी ने कहा, 'परेशानी यह है कि सपने में मैं भी ही मिलता है, खांसी आ जाती है, धुआं सिर में चढ़ जाता है, लड़की होता हूं। यही झंझट है। मुझे किसी तरह सपने में आदमी चक्कर मालूम होता है, घबड़ाहट लगती है। आखिर धुआं ही रहने दो। यही पूछने आया हूं।' है-गंदा धुआं है। उसको भीतर ले जाने से सुख कैसे हो सकता सपनों में सुख मिल जाता है। सपने में तुम कभी सम्राट हुए? | है? लेकिन फिर धीरे-धीरे अभ्यास करने से... जरूर हए होओगे। कोई कमी नहीं रह जाती। _ 'रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान।' फिर चीन में एक बड़ा सम्राट हुआ। उसका एक ही लड़का था। घिसते-घिसते रस्सी के, अभ्यास करते-करते...'करत-करत वह मरणासन्न पड़ा था। वह उसके पास तीन दिन से बैठा था, | अभ्यास के जड़मति होत सुजान।' पहले जड़मति थे, अकल न तीन रात से बैठा था। सारी आशा वही था। सारी महत्वाकांक्षा | थी, इसलिए धुआं पीया और मजा न आया। फिर बुद्धि आ वही था। फिर झपकी लग गई उसकी; तीन दिन का जागा हुआ | जाती है अभ्यास से। फिर मजे से पीने लगते हैं। फिर बिना पीए सम्राट, बैठे-बैठे सो गया। उसने एक सपना देखा कि उसके | कष्ट मिलने लगता है। शराब पहली दफे पीकर देखी, बेस्वाद बारह लड़के हैं—एक से एक सुंदर, बलिष्ठ, प्रतिभाशाली, है, तिक्त है। फिर धीरे-धीरे वही मधुर होने लगती है। शराब मेधावी। बड़ा उसका स्वर्ण से बना हुआ महल है। महल के | जैसी तिक्त वस्तु मधु जैसी मधुर मालूम होने लगती है। रास्ते पर हीरे-जवाहरात जड़े हैं। बड़ा उसका साम्राज्य है। वह | अभ्यास...। चक्रवर्ती है। तभी बाहर जो बेटा बिस्तर पर पड़ा था, वह मर तुम अगर अपने जीवन के सुख-दुख की ठीक से छानबीन गया। पत्नी चीख मारकर चिल्लाई, सपना टूटा और सम्राट ने | करोगे तो तुम पाओगे जो तुमने सुख मान लिया, वह सुख; जो सामने मरे हुए लड़के को पड़ा देखा। पत्नी को चीखते देखा। तुमने दुख मान लिया, वह दुख। पत्नी जानती थी कि पति को बड़ा सदमा पहुंचेगा। घबड़ा गई, पूरब, सुदूर पूर्व में कुछ छोटे-छोटे कबीले हैं। वे चुंबन नहीं क्योंकि पति देखता ही रहा। न केवल रोया नहीं, हंसने लगा। करते। उन्हें पता ही न था जब तक वे सभ्यता के संपर्क में न आए पत्नी समझी कि पागल हो गया। उसने कहा, 'यह तुम्हें क्या कि लोग चुंबन भी करते हैं। और जब उन्होंने देखा कि हुआ? तुम हंस क्यों रहे हो?' स्त्री-पुरुष चुंबन करते हैं तो वे बहुत घबड़ाए, बड़ा वीभत्स उन्हें lain Education International Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प मालूम हुआ। यह भी कोई बात हुई! ओंठ, झूठे ओंठ, गंदे फिर से तो विचार करो! फिर से एक बार पुनर्विचार करो। ओंठ, लार और थूक से सने ओंठ, एक-दूसरे पर रगड़ रहे हैं तटस्थ भाव से, वैज्ञानिक दृष्टि से निरीक्षण करो। तुम बहुत और कहते हैं, मजा आ रहा है। उन्होंने कभी सदियों में चुंबन हैरान हो जाओगे, तुम्हारे सुख तुम्हारी मान्यताओं के सुख हैं। जो नहीं लिया। उन्हें पता ही न था। वे जो करते हैं, अगर तुम करोगे मान लिया, जो पकड़ लिया अचेतन में, वही सुख मालूम हो रहा तो बहुत हैरान होओगे। वे एक-दूसरे से नाक रगड़ते हैं। तुमने | है। जैसे ही जागोगे, वैसे ही तुम्हारे सुख विदा हो जाएंगे। तुम कभी रगड़ी नाक? रगड़ोगे तो पागल मालूम पड़ोगे, यह क्या | इस जीवन में दुख ही दुख पाओगे। कर रहे हो। कोई देख न ले! अपनी प्रेयसी से भी नाक न महावीर का सारा साधना-शास्त्र इस अनुभूति पर निर्भर है कि रगड़ोगे, क्योंकि वह भी सोचेगी कि तुम्हारा दिमाग खराब है, तुम्हें जीवन में परम दुख का अनुभव हो जाए। नाक रगड़ते हो! लेकिन वह कबीला सदियों से नाक रगड़ता रहा खुदा की देन है जिसको नसीब हो जाए है। वही उनका चुंबन है। ज्यादा हाइजिनिक! अगर हर एक दिल को गमे-जाविंदा नहीं मिलता चिकित्साशास्त्रियों से पूछो तो तुमसे बेहतर है। कम से कम नाक -यह जो परम दुख है, यह परमात्मा की अनुकंपा से मिलता ही रगड़ते हैं, कोई कीड़ों का और कीटाणुओं का आदान-प्रदान है। यह परम दुख, यह स्थायी दुख का बोध कि यहां सब दुख तो नहीं करते। अब चुंबन में तो कोई लाखों कीटाणुओं का है-'गमे-जाविंदा'-यह स्थायी गम... आदान-प्रदान हो जाता है। खुदा की देन है जिसको नसीब हो जाए मैंने सुना, एक आदमी अपने डाक्टर के पास गया। बड़ा हर एक दिल को गमे-जाविंदा नहीं मिलता घबड़ाया हुआ था। और उसने कहा कि यह चेचक की बीमारी महावीर को मिला। तुम्हें भी मिल सकता है। है तो, मिला तो बड़े जोर से फैल रही है। और मेरे लड़के को भी लग गई है। है। तुम देखते ही नहीं। तुम छिटकते हो। तुम देखने से बचना डाक्टर ने कहा, 'घबड़ाने की कोई बात नहीं है। फैली है। चाहते हो। महाकोप उसका है। सावधान रहो, संक्रामक है, पर घबड़ाने की लोग अपने जीवन के सत्य को देखने से बचना चाहते हैं, कोई बात नहीं। लड़का भी ठीक हो जाएगा।' उसने कहा, क्योंकि डरते हैं। और डर उनका स्वाभाविक है। डरते हैं कि 'ठीक हो जाएगा जब, बात अलग। लड़का मेरी नौकरानी को कहीं जीवन का सत्य देखा तो कहीं दुख ही दुख हाथ में न रह चूमता है, इससे मुझे घबड़ाहट हो गई है।' जाए। इसलिए पीठ किए रहते हैं। इसलिए आंख बचाए चले 'और तुम समझाये नहीं?' जाते हैं। इसलिए आंख बंद कर लेते हैं। मगर ऐसे तुम किसे उसने कहा कि अब समझाने का क्या है, मैं भी उसको चूम धोखा दे रहे हो? यह धोखा स्वयं को ही दिया गया धोखा है। लिया हूं। और इतना ही नहीं है...।' | एक कहानी मैंने सुनी है। एक शहर में एक नई दुकान खुली। फिर भी डाक्टर ने कहा, 'घबड़ाओ मत, ठीक हो जाएगा।' जहां कोई भी युवक जाकर अपने लिए एक योग्य पत्नी ढूंढ़ पर उसने कहा, 'इतना ही मामला नहीं है, मैंने पत्नी को भी सकता था। एक युवक उस दुकान पर पहुंचा। दुकान के अंदर चूम लिया है।' डाक्टर घबराया। उसने कहा कि 'रुको जी, उसे दो दरवाजे मिले। एक पर लिखा था, युवा पत्नी और दूसरे बकवास बंद करो! पत्नी को भी चूमा है? पहले मैं अपनी जांच पर लिखा था, अधिक उम्र वाली पत्नी! युवक ने पहले द्वार पर करवाऊं, क्योंकि तुम्हारी पत्नी को मैं भी चूम बैठा हूं!' धक्का लगाया और अंदर पहुंचा। फिर उसे दो दरवाजे मिले। अब तक शांत था। बीमारियां...लेन-देन हो रहा है! लोग पत्नी वगैरह कुछ भी न मिली। फिर दो दरवाजे! पहले पर कह रहे हैं, बड़ा सुख मिल रहा है। चुंबन जैसा सुख...! पर लिखा था, सुंदर; दूसरे पर लिखा था, साधारण। युवक ने पुनः कभी तुमने सोचा, कभी जागकर देखा? सुख क्या हो सकता | पहले द्वार में प्रवेश किया। न कोई सुंदर था न कोई साधारण, है? तुम भी चौंकोगे, क्योंकि तुमने कभी जागकर सोचा नहीं, वहां कोई था ही नहीं। सामरे फिर दो दरवाजे मिले, जिन पर ध्यान नहीं किया। तुमने जिन-जिन बातों में सुख माना है, उनमें लिखा था : अच्छा खाना बनानेवाली और खाना न बनानेवाली। www.jainelibrar corg Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H जन सूत्र भागः1. युवक ने फिर पहला दरवाजा चुना। स्वाभाविक, तुम भी यही तरह, निशाना चूक गया। यह देखकर कि लड़का बहुत ध्यान से करते। उसके समक्ष फिर दो दरवाजे आए, जिन पर लिखा था : | उड़ते पक्षी की ओर देख रहा है, मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, 'देख अच्छा गाने वाली और गाना न गाने वाली। युवक ने पुनः पहले बेटे, देख! आश्चर्य देख! मरकर भी पक्षी उड़ान भर रहा है!' द्वार का सहारा लिया और अब की उसके सामने दो दरवाजों पर मगर कोई मानने को राजी नहीं है कि निशाना अपना चूक गया लिखा था : दहेज लानेवाली और न दहेज लानेवाली। युवक ने है। बाप का निशाना चूक गया है, लेकिन बेटे से कह रहा है, फिर पहला दरवाजा चना। ठीक हिसाब से चला। गणित से 'देख, बेटे देख! निशाना तो लग गया, चमत्कार देख। फिर चला। समझदारी से चला। परंतु इस बार उसके सामने एक कभी मौका मिले न मिले। पक्षी मरकर भी उड़ रहा है।' दर्पण लगा था, और उस पर लिखा था, 'आप बहुत अधिक अगर तुम्हारा निशाना चूक गया हो तो किसी को भूलकर भी गुणों के इच्छुक हैं। समय आ गया है कि आप एक बार अपना यह आभास मत देना कि लग गया है। अपनी हार को स्वीकार चेहरा भी देख लें।' कर लेना। इससे तुम्हें भी लाभ होगा, औरों को भी लाभ होगा। ऐसी ही जिंदगी है : चाह, चाह, चाह! दरवाजों की टटोल। अपनी पराजय को मान लेना, क्योंकि तुम्हारी पराजय ही तुम्हारी भूल ही गए, अपना चेहरा देखना ही भूल गए। जिसने अपना विजय-यात्रा का पहला कदम बनेगी। धोखा मत दिये चले चेहरा देखा, उसकी चाह गिरी। जो चाह में चला, वह धीरे-धीरे जाना। यह अकड़ व्यर्थ है। इस अकड़ अपने चेहरे को ही भूल गया। जिसने चाह का सहारा पकड़ महावीर इस अकड़ को तोड़ने के लिए ही ये सूत्र कह रहे हैं। लिया, एक चाह दूसरे में ले गई, हर दरवाजे दो दरवाजों पर ले हम वही-वही मांगे चले जाते हैं। हर बार हारते हैं, फिर वही गए, कोई मिलता नहीं। जिंदगी बस खाली है। यहां कभी कोई मांगते है। कभी-कभी तो हमारी मांगें ऐसी असंगत और किसी को नहीं मिला। हां, हर दरवाजे पर आशा लगी है कि और | मूढ़तापूर्ण होती हैं, लेकिन चूंकि हमारी मांगें हैं, हम न तो उनकी दरवाजे हैं। हर दरवाजे पर तख्ती मिली कि जरा और चेष्टा मूढ़ता देखते, न असंगति देखते हैं। करो। आशा बंधाई। आशा बंधी। फिर सपना देखा। लेकिन एक भिखारी ने लाटरी का टिकट खरीदा और भगवान से खाली ही रहे। अब समय आ गया, आप भी दर्पण के सामने प्रार्थना की कि हे प्रभु! मझे लाटरी का पहला इनाम दे दो, खड़े होकर देखो। अपने को पहचानो! जिससे मैं कार खरीद सकें। पैदल भीख मांगते-मांगते तो मेरी जिसने अपने को पहचाना वह संसार से फिर कुछ भी नहीं टांगें टूटी जाती हैं। मांगता। क्योंकि यहां कछ मांगने जैसा है ही नहीं। जिसने अपने कार में भी भीख ही मांगेगा। जैसे हमें कोई होश ही नहीं है। को पहचाना, उसे वह सब मिल जाता है जो मांगा था, नहीं मांगा तुम क्या मांग रहे हो? तुम जो मांगते हो, उसमें फिर तुम वही था। और जो मांगता ही चलता है, उसे कुछ भी नहीं मिलता है। मांग रहे हो, वही पुराना ढांचा जिसमें तुम जन्मों-जन्मों से जी रहे इस जिंदगी में तुम न केवल अपने को धोखा दे रहो हो; तुम्हारे, हो; और जिसमें सिवाय दुख, सिवाय पीड़ा और संताप के कुछ जिनको तुम अपने कहते हो, उनको भी धोखा दे रहे हो। घर में भी नहीं पाया है। एक बच्चा पैदा होता है। तुम तो धोखे में जीए ही, तुम यही एक छोटे शहर के चौधरी घूमने के खयाल से दिल्ली पहुंचे। धोखा उसको भी सिखाते हो। तुम तो दुख में जीए ही, तुम इसी तो एक मामूली से परिचित सज्जन के घर जा धमके और बातें दुख का शिक्षण उसे भी देते हो। ऐसे पागलपन हटता नहीं संसार करने लगे। बीमारियां दसरों को दिये चले जाते हैं। बहत देर तक, जब उसने वहां से जाने का नाम न लिया तो घर मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने लड़के पर रौब गांठने के लिए एक वाले सज्जन ने अपने नौकर को आवाज देकर बुलाया और कहा, दिन शिकार पर उसे साथ ले गया। वहां एक पक्षी पर निशाना 'भाई सामान बांधो और चलने की तैयारी करो।' साधते हुए लड़के से बोला, 'देख बेटे! मेरा निशाना कितना चौधरी और नौकर दोनों आश्चर्य में पड़ गए कि एकाएक कहां अचूक होता है।' यह कहकर उसने गोली दागी। हमेशा की जाने की तैयारी है। आखिर में चौधरी के पूछने पर कि इस वक्त 18 Jelin Education International - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प कहां जा रहे हैं, सज्जन ने कहा, 'भाई! मकान पर तो आपने जरा गौर से देखो, तुम्हारी सब तालियां व्यर्थ गई हैं। क्रोध अधिकार कर ही लिया है। कहीं सामान भी हाथ से न जाता रहे, करके देखा, लोभ करके देखा, मोह करके देखा, काम में डूबे, इसलिए यहां से भागना अच्छा है।' | धन कमाया, पद पाया, शास्त्र पढ़े, पूजा की, प्रार्थना की-कोई इससे उलटी हालत तुम्हारी है। मकान पर तो अधिकार हो ही ताली लगती है? गया है संसार का, सामान पर भी अधिकार हो गया है! तुम ही महावीर कहते हैं, संसार की कोई ताली लगती नहीं। और जब बचे हो, और तो सब खो दिया है। अब अपने को ही खो रहे हो। तुम सब तालियां फेंक देते हो, उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं। भागो! महावीर की साधना-विधि जीवन में आग लगी है, ऐसा संसार से सब तरह से वीतराग हो जाने में ही ताली है, चाबी है। देखकर तुम्हें जगाने की और इस घर को छोड़ देने के लिए है। बाहर आओ! लोग तुमसे कहेंगे, 'पलायनवादी हो रहे हो?' आज इतना ही। महावीर कहते हैं, घर में जब आग लगी हो तो पलायन ही समझदारी है। जहां दुख हो, वहां से भाग जाना ही समझदारी और ध्यान रखना, अगर तुम दुख से बच सको तो सुख की संभावना का द्वार खलता है। लेकिन सख कहीं बाहर नहीं है। सुख तुम्हारा स्वभाव है। संसार बाहर है। सुख तुम्हारा स्वभाव है। जितने तुम बाहर जाओगे उतने सुख से दूर होते चले जाओगे। जितने तुम बाहर न जाओगे उतनी ही सुख की धुन बजने लगेगी। सुख का सितार बजने को तैयार रखा है, सिर्फ तुम घर आओ। ___ मुल्ला नसरुद्दीन एक धनपति के घर नौकरी करता था। एक दिन उसने कहा, 'सेठ जी, मैं आपके यहां से नौकरी छोड़ देना चाहता है। क्योंकि यहां मुझे काम करते हुए कई साल हो गए, पर अभी तक मुझ पर आप को भरोसा नहीं है।' सेठ ने कहा, 'अरे पागल! कैसी बात करता है! नसरुद्दीन होश में आ! तिजोरी की सभी चाबियां तो तुझे सौंप रखी हैं। और क्या चाहता है? और कैसा भरोसा?' नसरुद्दीन ने कहा, 'बुरा मत मानना, हुजूर! लेकिन उसमें से एक भी ताली तिजोरी में लगती कहां है।' जिस संसार में तुम अपने को मालिक समझ रहे हो, तालियों का गुच्छा लटकाए फिरते हो, बजाते फिरते हो, कभी उसमें से ताली कोई एकाध लगी, कोई ताला खुला? कि बस तालियों का गुच्छा लटकाए हो। और उसकी आवाज का ही मजा ले रहे हो। कई स्त्रियां लेती हैं, बड़ा गुच्छा लटकाए रहती हैं। इतने ताले भी मुझे उनके घर में नहीं दिखाई पड़ते जितनी तालियां लटकाई हैं। मगर आवाज, खनक सुख देती है।