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________________ जिन-शासन की आधारशिला : संक को हम घाव पैदा कर-कर के वापिस ले रहे हैं। फिर भटकोगे। काम-भोग में जो सुख मिलता है, वह सुख तुम्हारा ही है जो मनुष्य अनुभव से सीखता ही नहीं। जो सीख लेता है, वही तुम उसमें डालते हो। वह तुम्हारे काम-विषय से नहीं आता। जाग जाता है। मनुष्य अनुभव से निचोड़ता ही नहीं कुछ। तुम्हारे स्त्री को प्रेम करने में, पुरुष को प्रेम करने में तुम्हें जो सुख की अनुभव ऐसे हैं जैसे फूलों का ढेर लगा हो, तुमने उनकी माला झलक मिलती है, वह न तो स्त्री से आती है न पुरुष से आती है, नहीं बनाई। तुमने फूलों को किसी एक धागे में नहीं पिरोया कि तुम्हीं डालते हो। वह तुम्हारा ही खून है, जो तुम व्यर्थ उछालते तुम्हारे सभी अनुभव एक धागे में संगृहीत हो जाते और तुम्हारे हो। पर भ्रांति होती है कि सुख मिल रहा है। कुत्ते को कोई कैसे | जीवन में एक जीवन-सूत्र उपलब्ध हो जाता, एक जीवन-दृष्टि समझाए! कुत्ता मानेगा भी नहीं। कुत्ते को इतना होश नहीं। आ जाती। लेकिन तुम तो आदमी हो! तुम तो थोड़े होश के मालिक हो __ अनुभव तुम्हें भी वही हुए हैं जो महावीर को। अनुभव में कोई सकते हो! तुम तो थोड़े जाग सकते हो! भेद नहीं। तुमने भी दुख पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। तुमने 'बहत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं भी सुख में धोखा पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। फर्क कहां देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।' | है? अनुभव तो एक से हुए हैं। महावीर ने अनुभवों की माला 'खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता बना ली। उन्होंने एक अनुभव को दूसरे अनुभव से जोड़ लिया। है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।' | उन्होंने सारे अनुभवों के सार को पकड़ लिया। उन्होंने उस सार खुजली हो जाती है। जानते हो, खुजलाने से और दुख होगा, का एक धागा बना लिया। उस सूत्र को हाथ में पकड़कर वे पार लहू बहेगा, घाव हो जाएंगे, खुजली बिगड़ेगी और, सुधरेगी न। हो गए। तुमने अभी धागा नहीं पिरोया। अनुभव का ढेर लगा सब जानते हुए, फिर भी खुजलाते हो। एक अदम्य वेग पकड़ है, माला नहीं बनाई। माला बना लेना ही साधना है। उसी की लेता है खुजलाने का। जानते हुए, समझते हुए, अतीत के तरफ ये इशारे हैं। अनुभव से परिचित होते हुए, पहले भी ऐसा हुआ है, बहुत बार 'खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता ऐसा हुआ है। फिर भी कोई तमस, कोई मोह-निद्रा, कोई अंधेरी है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।' रात, कोई मूर्छा मन को पकड़ लेती है, फिर भी तुम खुजलाए थोड़ा समझो। हमारी मान्यता से बड़ा फर्क पड़ता है। हमारी चले जाते हो! मान्यता से, हमारी व्याख्या से बहुत फर्क पड़ता है। तुमने कभी खयाल किया, लोग जब खुजली को खुजलाते हैं तुमने कभी खयाल किया? एक स्त्री को तुम आलिंगन कर तो बड़ी तेजी से खुजलाते हैं। क्योंकि वे डरते हैं। उन्हें भी पता है लेते हो, सोचते हो, सुख मिला। सोचने का ही सुख है। ऐसा ही कि अगर धीरे-धीरे खुजलाया तो रुक जाएंगे। बड़े जल्दी तो सपने में भी तुम सोच लेते हो, तब भी सुख मिल जाता है। खुजला लेते हैं, अपने को ही धोखा दे रहे हैं। मांस निकल आता सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हीं होते हो। सपने में कोई स्त्री है, लहू बह जाता है। पीड़ा होती है, जलन होती है। फिर वही तो नहीं होती, तुम्हारी ही धारणा होती है। हो सकता है, अपनी अनुभव ! लेकिन दुबारा फिर खुजली होगी तो तुम भरोसा कर ही दुलाई को छाती से चिपटाए पड़े हो, सपना देख रहे हो। सकते हो कि तुम न खुजलाओगे? जागकर हंसते हो कि कैसा पागलपन है! कितनी बार तुमने क्रोध किया, कितनी बार क्रोध से तुम विषाद लेकिन सपने में भी उतना ही सुख मिल जाता है; शायद थोड़ा से भरे, कितनी बार तुम काम में गए, कितनी बार हताश वापिस ज्यादा ही मिल जाता है, जितना कि जागने की स्त्री से मिलता है। आए, कितनी बार आकांक्षा की और हर बार आकांक्षा टूटी और | क्योंकि जागते हुए स्त्री की मौजूदगी कुछ बाधा भी पैदा करती बिखरी, कितनी बार स्वप्न संजोए-हाथ क्या लगा? बस राख. है। सपने में तो कोई भी नहीं, तुम अकेले ही हो, तुम्हारा ही सारा ही राख हाथ लगी। फिर भी, दुबारा जब आकांक्षा पकड़ेगी, - भावनाओं का खेल है। दुबारा जब क्रोध आएगा, दुबारा जब काम का वेग उठेगा, तुम सपने में तुम सुख ले लेते हो स्त्री को आलिंगन करने का, तो 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340101
Book TitleJinsutra Lecture 01 Jin Shasan ki Adharshila Sankalp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size32 MB
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