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जैन विवाह विधि
तथा शारदा पूजन विधि
लेखक
मुनि सौभाग्यविजयजी म. सा.
ह
हिन्दी अनुवादक मुनि मुक्तिविजयजी म. सा.
प्रकाशक :श्री नन्दीश्वर दीप स्टेशन रोड, जालोर
22334
विक्रम संवत 2055
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प्रस्तावना
'आचारः परमो धर्मः' इस नियमानुसार प्रथम अपने आचार को शुद्ध बनाना यह हर एक जैन श्रावक का खास कर्तव्य है। बिना आचार शुद्धि के गृहस्थ धर्म नहीं झलक उठता इसीलिये जैन आचार्य वर्धमानसूरि ने अपने आचार दिनकर ग्रंथ में गृहस्थों के गर्भाधान आदि १६ संस्कार बताये हैं उनमें १४ वां संस्कार विवाह विधि भी शामिल है, प्रकृत पुस्तक में विवाह विधि का अच्छी तरह बयान किया गया है, इसमें लिखे मुताबिक जैन मंत्रों से विवाह की क्रिया करानी चाहिये इसका प्रचार जैन समाज में बहुतायत से होना जरूरी है।
आजकल जहां देखते हैं, वहां ज्यादातर ब्राह्मण लोगों की विधि से तमाम विवाह शादी की क्रिया कराई जाती है मगर धार्मिक दृष्टि से तो जैन शैली से ही होनी चाहिये कारण कि प्राचीन आचार्यों ने जो विधि बताई है उसका मतलब यह नहीं कि ग्रंथों में पड़ी रहे बल्कि उसका यथा समय उपयोग करना चाहिये ।
यह विवाह विधि मूल संस्कृत भाषा में है उसका गुजराती भाषांतर कराकर बहुत अर्से पहले 'जैन विवाह विधि' तथा 'जैन लग्न विधि' इस नाम से छोटी सी पुस्तकें गुजराती महाशयों ने छपवाई थी वे पुस्तकें तमाम फरोक्त हो चुकीं अब वे किसी बुकसेलर के यहां नहीं मिलती।
इन पुस्तकों की आजकल मारवाड़ में पुछताछ होने लगी है
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इसलिये इस गुजराती पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत पुस्तक मैनें तैयार की है।
इस पुस्तक में लग्न के शुरू के दिन से लेकर आखिर तक तमाम विधि मय मंत्रों में दी गई है । इसमें में कोई-कोई विधि कहीं-कहीं नहीं कराई जाती है जैसा कि 'मातृका स्थापन' करना तथा वरकन्या को 'अभिषेक' कराना गुजरात में रिवाज है और मारवाड़ में नहीं है तो इसके लिये यहीं समझना चाहिये कि जहाँ जैसा रिवाज हो उस मुताबिक विधि कराकर शेष विधि छोड़ देवे, पुस्तक लिखने वाले का फर्ज है कि जितनी विधि हो उतनी पूरी लिखे बिना अधूरी नहीं छोड़ सकता कारण कि पुस्तक वहीं लिखी जाती है जो आम पब्लिक के लिये उपयोगी हो, मैनें इस ख्याल से सर्व साधारण के लिये इसका अनुवाद किया है, आशा है क्रिया कारक महाशय जिस-जिस प्रान्त में जैसा रिवाज हो उस मुताबिक इसमें से अलग-अलग छांटकर क्रिया कराते रहेंगे।
इस 'जैन विवाह विधि' पुस्तक के पीछे जैन शारदा पूजन की विधि भी दी गई है सो इसके मुताबिक विधि कराना जैन समाज के लिये उचित है । इत्यलं सुज्ञेषु । ॐ शांतिः ।
ता. १०-६-३१ मु. कवराड़ा. (मारवाड़)
-- लेखक मुनि सौभाग्यविजय
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देवें ।
|| ॐ अर्हं नमः ।।
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श्री जैन विवाह विधि
विवाह सम्बन्ध (सगाई)
वर और कन्या का विवाह संबंध निश्चय करने के बाद उसके विषय में लेख लग्न के मुहूर्त पहले करना चाहिये और वह लेख कन्या पक्ष के बडेरे पुरुष को चाहिये कि वर के पक्ष के बडेरे पुरुष को स्वजन जाति के रूबरू कुंकुम के छटि डालकर चावल सुपारी और दुर्वा (धरो) से पूजन कर श्रीफल तथा रूपये के साथ अर्पण करे और उस वक्त विवाह विधि कारक (विवाह की विधि कराने वाला) नीचे लिखे मुजब शुद्ध मंत्र पढ़े ।
ॐ अर्हं परम सौभाग्याय परमसुखाय परमभोगाय परमधर्माय परमयशसेपरमसंतानाय भोगोपभोगान्तरायव्यवच्छेदाय अमुक नाम्नी कन्या अमुकगोत्रां अमुकनाम्ने वराय अमुकगोत्राय ददाति प्रति गृहाण अहं ॐ ।
इस मुजब बोलकर हमेशा के रिवाज मुजब पान सुपारी सबको
वर के पक्ष वालों का फर्ज है कि कन्या के लिये अच्छे कपड़े व जेवर भेजे और परस्पर आमंत्रण देकर अपनी हैसियत के मुताबिके संबंधियों को जिमाकर उनका सत्कार करें ।
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जैन विवाह विधि
लग्न निश्चय लग्न के कुछ रोज पहले दोनों पक्ष के संबंधी इकट्ठे होकर ज्योतिषशास्त्री को बुलावें और उसके पास लग्न लिखाकर उस पर कुंकुम के छांटे फूल पान सुपारी श्रीफल पैसा वगैरह से पूजा करे और ज्योतिषी का अच्छा सत्कार करे (इस प्रसंग पर मांगलिक गुड़ बेंचा जाता है, और वर को पेहरामणी भी दी जाती है) ।
....
मातृ का स्थापन लग्न के पांच या सात रोज पहले शुभ मुहुर्त में वर और कन्या के वहां मातृ का स्थापन यानि कुलदेवी की स्थापना करनी चाहिये । बाद उसकी पूजा कर वर अथवा कन्या को पाट पर बिठाकर उनकी माता, उनके ललाट में तिलक करें चावल भी उस पर लगावे और हाथ पावं के कुंकुंम छिडक कर श्रीफल, पान, सुपारी तथा रूपये से खोबा (अंजलि) भरा दे और चार सुहागिन स्त्रियां तिलककर पीठी की मालिश कर अक्षत से वधाती है । जिनको पान सुपारी देकर उनका सम्मान किया जाता है। यहां पर कोरे शराबलो मे जवारे बोने का भी अधिकार है । मातृका स्थापना के दिन से लगाकर लग्न के दिन तक हमेशा सुगन्ध तेल और पीठी लगाकर वर को स्नान करावें तथा उसको जिन मंदिर में देव पुजा भी कराते रहे।
मण्डप का मुहर्त मंडप का मुहुर्त यह वेदिका का खास मुहुर्त है। उसकी विधि आचार दिनकर ग्रन्थ मे नहीं लेकिन श्री आदिनाथ चरित्र में विवाह
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जैन विवाह विधि
मंडप का वर्णन है और उस मंडप के भीतर जो वेदिका (चवडी) होती है उसकी स्थापना विधि आचार दिनकर ग्रन्थं में है, लग्न या महोत्सव के मौके पर मंडप का मुहुर्त किया जाता है । वर के घर पर मंडप का मुहुर्त नहीं होता, जहां लग्न होने का हो वहां वेदिका प्रतिष्ठा मुझब करने में कोई हर्ज मालुम नहीं होता है, अगर लग्न के दिन ही मंडप का मुहुर्त किया जाये तो ज्यादा बेहतर होगा ।
चवरी बांधने लायक ६-८ या १० हाथ समचोरस जमीन पसन्द कर उसको शुद्ध करावें और उसके बीच में वेदिका बनावे, उसके चारों तरफ तीन-तीन बांस खड़े कर उसमें सोने के, चांदी के, तांबे के और मिट्टी के साथ-साथ छोटे बड़े घड़े एक दुसरे के उपर रखने चाहिये। उसके चारो तरफ ऊपर बन्ध लेकर कपड़े से या लकड़े से तोरण बांधे, और दक्षिण तरफ अशोक वृक्ष (अशोकापल्लवका तोरण बांधे) । वेदिका के मध्य भाग में अग्नि स्थापना के लिये ऐसे त्रिकोणाकार अग्निकुंड बनावे । बाद वर कन्या को दक्षिण द्वार से प्रवेश करवाकर बायीं (डाबी) और दाहिनी (जिमणी) तरफ पुर्व दिशा सम्मुख पट्टे पर बिठावें यानि भीतर प्रवेश करते बायी तरफ वर और दाहिनी तरफ कन्या बिठावे । उस वक्त विवाह विधि कारक नीचे मुजब समान तैयार रखें।
चवरीका सामान शुद्ध जल का कलश, श्रीफल ३, चन्दन, अक्षत, सुपारी, पुष्प, मधु (शहद)।
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जैन विवाह विधि
होम का सामान
समी (खेजड़ी), पीपला, केथ, इन्द्रजव बीली, आम इनमें से जो मिले उसका काष्ट इसके सिवाय घी सुपारी जौ और तिल ।
वेदिका प्रतिष्ठा मंत्र
ॐ नमः क्षेत्रदेवतायै शिवायै क्षां क्षीं क्षं क्षौ क्षः इस विवाह मंडपे आगच्छ २ इह बलि परिभोगं गृहाण २ भोगं देहि २ सुखं देहि यशो देहि सन्ततिं देहि ऋद्धि देहि वृद्धि देहि सर्वसमीहितं देहि २
स्वाहा ।
यह मंत्र बोल कर चंदन पुष्प आदि वेदि के चारो तरफ फिकवावें बाद क्रियाकारक कन्या के पिता वगैरह के हाथ में चंदन, पुष्पादि रखवाकर नीचे मुजब तोरण चढ़ाने का मंत्र पढ़ें ।
तोरण का मंत्र
ॐ ह्रीं श्री नमः द्वारश्रिये सर्वपुजिते सर्वमानिते सर्वप्रधाने इह तोरण स्था सर्वसमीहितं देहि २ स्वाहा ।
यह मंत्र पढकर चंदन, पुष्पादि तोरण पर डालकर उसे बारसाख पर बंधावें ।
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इसके बाद चदंरूवा बांध कर उस पर वांसी सुपड़े में सफेद कपड़ा बिछाकर साथिया करे । सुहागिन स्त्रियों से तैयार की हुई बड़िया आदि रखी जाती है और उस वक्त मंडप के मुहुर्त करने वाले को सुपारी वगैरह दी जाती है ।
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जैन विवाह विधि
गृह शांति इस बात का पुर्ण ध्यान रखना चाहिये कि लग्न हो वहां तक सात स्मरण और गृहशांति का पाठ हमेशा कराते रहे शायद हमेशा न बन सके तो लग्न के दिन तो अवश्य ही पाठ करावें ।
लग्न के समय से पहले वर को तेल, पीठी की मालिश कराने के साथ स्नान कराकर शरीर को अंगोछे से पोंछ कर कपड़े, गहने पहनाकर ललाट मे कुंकुम का तिलक कर घोड़े पर बिठावें । उसके पीछे उसकी बहन को बिठाकर लुंग उतारे और ढोल, नगाड़ा, ताशा
आदि बाजे गीत नाच वगैरह लवाजमे के साथ वरघोड़ा चले । रास्ते मे 'जैन मंदिर हो वर को दर्शन कराते चले । रास्ते में क्रिया कारक नीचे मुजब मंत्र बोलता चलें।
। वरघोड़े में मंत्रपाठ ॐ अहँ आदिमोऽर्हन्, आदिमो नृपः, आदिमो दाता, आदिमो नियन्ता, आदिमो गुरूः, आदिमः श्रेष्ठः, आदिमः कर्ता, आदिमो भर्ता, आदिमो जयी, आदिमोः नयी, आदिमः शिल्पी, आदिमो विद्वान्, आदिमो जल्पाकः, आदिमः शास्ता, आदिमो रौद्रः, आदिमः सौम्यः, आदिमः काम्यः, आदिमः करूण्यः, आदिमो वन्यः, आदिमः स्तुत्यः, आदिमो ज्ञेयः, आदिमो ध्येयः, आदिमो भोक्ता, आदिमः सोढा, आदिम एक, आदिमोऽनेक, आदिमः कर्मवान्, आदिमोऽकर्मा, आदिमो धर्म वित्, आदिमोऽनुष्ठेयः, आदिमोऽनुष्ठता, आदिमः सहजः, आदिमो दशावाम्, आदिमः सकलत्रः, आदिमो निष्कलत्रः, आदिमो विवोढा, आदिमः, ख्यापकः, आदिमो ज्ञापकः, आदिमो विदुरः, आदिमः कुशलः आदिमो वेज्ञानिक आदिमः सेव्यः, आदिमो
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जैन विवाह विधि
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गम्यः, आदिमो विमृश्यः, आदिमो विम, सुरासुरनरोरगप्रणतः प्राप्तविमलकेवलो यो गीयते सकल प्राणिगणहितः दयालुः अपरापेक्षः, परात्मा परं ज्योतिः परं ब्रह्म, परमैश्वर्यभाकू परंपरः, परापरोऽपरपरः, जगदुत्तमः सर्वगः सर्ववित्, सर्वजित सवीर्यः, सर्वप्रशस्यः सर्ववन्द्यः सर्वपूज्यः, सर्वात्मा, असंसारः, अव्ययः अवार्यवीर्यः, श्रीसश्रयः, श्रेयः संश्रयः, विश्वाश्यायहृत्, संशयहृत्, विश्वसारः, निरजनः, निर्ममः, निष्कलंकः, निष्पापः, निर्मनाः, निर्वचाः, निर्देहः, निःसंशयः, निराधारः, निरवधिप्रमाणप्रमेयप्रमाता, जीवाजीवाश्रवसंवरबष्ट निर्जरामोक्षप्रकाशकः, स एव भगवान् शांति करोतु तुष्टिं करोतु पुष्टिं करोतु वृॠि करोतु सुखं करोतु श्रियं करोतु लक्ष्मी करोतु अर्ह ॐ ।
इस तरह मंत्र बोलते जब वरघोड़ा कन्या के वहां आ पहुंचे उसके पहले ही कन्या को मातृगृह ( कन्या की माता का घर) में स्नान कराकर कपड़े और गहने पहना कर तैयार रखें ।
इधर वर के आने पर उसको घर के दरवाजे के अगाडी पट्टे पर खडा रखे बाद में कन्या की माता वहां आकर अर्ध्यप्रदान करें ।
इसके बाद झेरणा घूँसरा इंडीपीडी वगैरह लेकर वर को पोंखे पोछे वर के प्रवेश करते दाहिनी ( जीमणी) तरफ शराब यानी कोडाये में अंगारा लूंण अथवा कपासिये या चावल डाल कर उसके ऊपर दूसरा शराब (कोडाया) ऊंधा रखकर उसके मोली लपेट कर रखे वर उसको दाहिने पावं से दबाता हुआ भीतर प्रवेश करे उस वक्त कन्या की माता वर के गले में लाल कपडा तथा वरमाला डाले और वर को घर के भीतर ले जाकर पूर्व सन्मुख कन्या की बायी तरफ मंचे पर बिठावे, वहां पर धूप शुरू रखे अब हस्तमिलाप के मुहुर्त की देरी हो तो उतनी वक्त क्रिया कारक नीचे मुजब मंगलिक स्तोत्र पढें ।
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मंगलम् स्तोत्र
मंगलम् भगवान् वीरो, मंगलम् गौतमः प्रभुः । मंगलम् स्थूली भद्राद्याः, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ||१|| नाभेयाद्या जिना: सर्वे, भरताद्याश्च चक्रिणः । कुर्वन्तु मंगल सर्वे, विष्णवः प्रतिविष्णवः ।।२।। नाभि सिद्धार्थभूपाद्या, जिनानां पितरः समे । पालिताखण्ड साम्राज्याः जनयन्तु जय मम || ३ || मरुदेवी त्रिशलाद्या, विख्याता जिनमातरः । त्रिजगज्जनितानन्दा, मंगलाय भवन्तु में || ४ || श्रीपुंडरीकेन्द्रभूति - प्रमुखा गणधारिणः । श्रुतकेवलिनोऽपीह मंगलानि दिशन्तु में ||५|| ब्राह्मीचंदनबालाद्याः, महासत्यो महत्तराः । अखंडशीललीलाढया, यच्छन्तु मम मंगलम् ||६|| चक्रेश्वरी सिद्धायिका, मुख्याः शासनदेवताः । सम्यग्दृशं विघ्नहरा, रचयंतु जयश्रियम् ॥७।। कर्पादिं मातंगमुख्या, यक्षा विख्यातविक्रमः । जैन विघ्नहरा नित्यं दिशन्तु मंगलानि मे ||८|| हस्तमिलाप के मुहुर्त के आने पर क्रिया कारक वर कन्या के हाथ में कंकणडोरा बांधे चंदन तथा खेजडी का लेप करे और दोनो के गले में वरमाला डाल छेडा बांध वर के हाथ पर कन्या का हाथ रखना उस हस्त सपुट में कन्या का पिता चांदी का सिक्का रखे और उस वक्त क्रियाकारक नीचे मुजब मंत्र पढे ।
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जैन विवाह विधि
हस्तमिलाप का मंत्र
ॐ अर्हं आत्मासि जोवेऽसि समकालोऽसि समचित्तोऽसि ससमकर्माऽसि समाश्रयोऽसि समदेहोऽसि समक्रियोऽसि समस्नोहोऽसि समचेष्टितोऽसि समाभिलाषोऽस्ति समेच्छोऽसि समप्रमोदोऽसि समविषादोऽसि समावस्थोऽसि समनिमित्तोऽसि समवचा असि समक्षुत्तृष्णोऽसि समगयोऽसि समागमोऽसि समविहारोऽसि समविषयोऽसि समशब्दोऽसि समरूपोऽसि समरसोऽसि समगंधोऽसि समस्पर्शोऽसि समेन्द्रियो ऽसि समाश्रयोऽसि समसंवरोऽसि समबंधोऽसि समनिर्जरोऽसि तदेही एकत्वमिदानीं अहं ॐ ।
यह बोलने के बाद संपुट किये हुए वर और कन्या के हाथों पर वर के माता पिता दूध और जल की धार दिलाते हैं और जल्दी ही हाथ छुटे कराते हैं, वर कन्या के माता पिता वर कन्या के पास स्वस्तिवाचन (यानी पानी के लोटे पर श्रीफल पर रख कर उसकी पूजा) कराते है ।
बास की चवरी बनाकर उसमें मिट्टी के रंगे हुए वर बहेडे एक दूसरे पर रखे, मंडप के मुहुर्त के अधिकार में पेस्तर दिये हुए वेदिप्रतिष्ठा का मंत्र पढ कर चारों दिशा में अक्षत (चावल) फिकवावें, तोरण प्रतिष्ठा का मंत्र पढकर दक्षिण तरफ तोरण बंधावे, वर कन्या को उस द्वार से चवरी में प्रवेश कराकर बायीं व दाहिनी तरफ बिठावें चवरी के बीच में अग्निकुंड बनाकर क्रियाकारक नीचे मुजब मंत्र पढे ।
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अग्नि स्थापना का मंत्र
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हः नमोऽग्नये नमो बृहद्भानवे नमोऽनन्ततेजसे नमोऽनन्तवीर्याय नमोऽनंतगुणाय नमो हिरण्यतेजसे नमः छागवाहनाय
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जैन विवाह विधि
नमो हव्याशनाय अत्र कुंडे आगच्छ २ अवतर २ तिष्ठ २ स्वाहाः ।
यह मंत्र बोल कर अग्निकोने में अग्नि थापन करे पीछे क्रिया कारक उत्तर सन्मुख बैठ कर नीचे मुजब मंत्र बोलता हुआ घी गुड तिल सुपारी वगैरह का होम करे ।
होम का मंत्र ॐ अहँ ॐ अग्ने प्रसन्नः सावधानो भवतवाऽयमवसरः, तदाहारय इन्द्रं यम नैर्ऋतं, वरूणं वायुं कुबेरं ईशानं नागं ब्रह्माणं लोकपालान, ग्रहांश्च सूर्य सोम मंगल बुध गुरू शनि राहु केतून, सुरांश्च असुर सुपर्ण विद्युदग्नि द्वीपोदधि दिग्वायु स्तनितकुमारान् । भुवनपतीन भूतपिशाचयक्षराक्षस किन्नर किं पुरूष्महोरगगंधर्वान् व्यंतरान, चंद्रार्कग्रह नक्षत्रतारकान ज्योतिष्कान्, सौधर्मेशान सनत्कुमारमाहेन्द्र ब्रह्मलातक शुक्रसहस्त्राराऽऽनतप्राणताऽऽरणाऽच्युतप्रैवे यकानुत्तरभवान् वैमानिकान्। इन्द्रसामानिकपार्षद्यप्रायस्त्रिश्ल्लोकपालानीकप्रकीर्णकला - कान्तिकाभियोगिकभेदभिन्नान् चतुर्निकायानपि सभार्यान् सायुधबलवाहनान् स्वस्वोपलक्षितचिह्यनू अप्सरसश्च परिगृहीतापरिगृहीतभेदभिन्नाः स सखीकाः सदासीकाः साभरणा रूचकवासिनो दिक्कुमारिकाश्च । सर्वाः समुद्रनदी गिर्याकरवनदेवताः, तदेतान् सर्वान् सर्वाश्च इदमर्थ्य पाद्यमाचमनीयं बलिं चरूं हुतं न्यस्तं ग्राह्य २ स्वयं गृहाण २ स्वाहा अहँ ॐ ।
इस तरह होम कर क्रियाकारक कन्या के सामने बैठकर नीचे दिया हुआ मंत्र पढता हुआ डाभ के अग्रभाग से तीर्थजल से वर कन्या को अभिषेक करावें।
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जैन विवाह विधि
पहले अभिषेक का मंत्र ॐ अर्ह इदमासनमध्यासीनौ स्वाध्यासीनौ स्थिती सुस्थितौ तदस्तु वां सनातनः संगमः अर्ह ॐ ।
यह मंत्र बोलकर क्रियाकारक हाथ में धरो चावल लेकर नीचे मुजब वर कन्या के दोनो पक्ष (माता का पक्ष तथा पिता का पक्ष) के गोत्र आदिका नाम बोलना और आशीर्वाद देकर वर कन्या को धरो चोखें से बंधावें।
ॐ नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः ॐ अर्ह अमुकगोत्रीयः इयत्प्रवरः अमुकज्ञातीय अमुकवंशीयः प्रपौत्रः-पौत्रः-पुत्रः अमुक प्रदौहित्रः अमुकदोहित्रः अमुकमात्रीयः अमुकनाम । वरः ।
(इसमें वर का गोत्र वंश आदि बताया है।) अब कन्या के गोत्र वंश आदि का मंत्र पढ़िये -
अमुक गोत्रीया इयत्प्रवरा अमुकज्ञातीया अमुकवंशीया अमुक प्रपौत्री अमुक पौत्री अमुक पुत्री अमुक प्रदौहित्री अमुक दोहित्रो अमुक मात्रीया अमुक नाम्नी वर्या (कन्या) । तदेतयोर्वर्यावरर्यानिबिडो विवाहसंबंधोऽतु शांतिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु धृतिरस्तु बुद्धिरस्तु धनसतानवृद्धिरस्तु अर्ह ॐ।
पीछे वर और कन्या के पास गंध पुष्प और नैवेद्य से अग्नि को पूजा करावे तथा उसमे व्रीहि पान सुपारी डलवावे ।
उसके बाद क्रियाकारक नीचे दर्ज किया हुआ मत्र पढकर कन्या को अगाड़ी रखकर वर के हाथ पर कन्या का हाथ रखवा कर वर और कन्या दोनों को अग्नि की पहली प्रदक्षिणा दिलावे ।
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पहले फेरे का मंत्र
ॐ अर्हं अनादि विश्वं अनादिरात्मा अनादि कालः अनादिकर्म अनादिसंबधः, देहिनां देहानुगतानां क्रोधाहंकार छद्मलोभैः संज्वलन प्रत्याख्याना प्रत्याख्यानन्तानुबन्धिभिः शब्दरूपरसं गधस्पर्शे रिच्छाऽनिच्छापरिसंकलतैः सम्बन्धोऽनुबधः संयोगः सुगमः सुकृतः स्वनुष्ठितः सुप्राप्तः सुलब्धो द्रव्यभावविशेषेण अर्हं ॐ ।
तदस्तु वां सिद्धप्रत्यक्षं केवलिप्रत्यक्षं चतुर्निकायदेवप्रत्यक्षं विवाहविधानाग्निप्रत्यक्षं नागप्रत्यक्षं नरनारोप्रत्यक्षं नृपप्रत्यक्षं जनप्रत्यक्षं गुरूप्रत्यक्षं मातृप्रत्यक्षं पितृप्रत्यक्षं मातृपक्षप्रत्यक्षं पितृपक्षप्रत्यक्षं ज्ञातिस्वजनप्रत्यक्ष सबंधः सुकृतः सदनुष्ठितः सुप्राप्तः सुसंबद्ध सुसंगतः ।
फिर व्रीहि (बगैर छीले चावल) सुपारी वगैरह अग्नि में डालकर नीचे मुजब मंत्र पढता हुआ दूसरी प्रदक्षिणा दिलावें ।
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दूसरे फेरे का मंत्र
ॐ अर्ह कर्माऽस्ति मोहनीयमस्ति दीर्घस्थित्यस्ति निबिडमस्ति दुच्छेद्यमस्ति अष्टाविशतिप्रकृत्यस्ति क्रोधोऽस्ति मानोऽस्ति मायाऽस्ति लोभोऽस्ति सज्वलनोऽस्ति प्रत्याख्यानावरणोऽस्ति अप्रत्याख्या नावरणोऽस्ति अनंतानुबंध्यस्ति चतुश्चतुर्विधो ऽस्ति हास्यमस्ति रतिरस्ति अरतिरस्ति भयमस्ति जुगुप्साऽस्ति शोकोऽस्ति पुंवेदोऽस्ति स्त्रीवेदोऽस्ति नपुंसकेवेदोऽस्ति मिश्रमस्ति साम्यक्त्वमस्ति सप्ततिकोटाकोटिसागर स्थित्यस्ति अहं । तदस्तु वा निकाचित निबिडबद्धमोहनीयकर्मोदयकृतः स्नेहः
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जैन विवाह विधि
सुकृतोऽस्तु स्वनुष्ठितोऽस्तु सुसंबद्धोऽस्तु आभवमक्षयोऽस्तु ।
फिर सुपारी वगैरह अग्नि में डाल कर तीसरी प्रदक्षिणा दिलावे ।
(तीसरे फेरे का मंत्र ॐ अहँ कर्मास्ति वेदनीयमस्ति सातमस्ति असातमस्ति सुवेद्य सातं दुर्वेद्यमसातं सुवर्गणाश्रवणं सातं दुर्वग्रणाश्रवणमसात शुभपुद्गलदर्शनं सातं दुःपुद्गलदशैनम सातं शुभषट्रसास्वादन सातं अशुभषट्रसास्वादनम सातं शुभगंधाघ्राणं सातं अशुभगधाघ्राणम सातं शुभपुद्गलस्पर्शनं सातं अशुभपुद्गलस्पर्शनम सातं सर्व सुखकृत् सातं, सर्व दुःखकृद सातं अर्ह ॐ ।
तदस्तु वां सातवेदनीयं माभूदसातवेदनीयम् ।
(चौथे फेरे का मंत्र
ॐ अर्ह सहजोऽस्ति स्वाभावोऽस्ति संम्बधोस्ति प्रतिबद्धोऽस्ति मोहनीयमस्ति वेदनीयमस्ति नामास्ति गोत्रमस्ति आयुरस्ति हेतुररस्ति आश्रवबद्धमस्ति क्रियाबद्धमस्ति कायबद्धमस्ति तदस्ति सांसारिक संबंधः अहं ॐ।
अब कन्या का पिता दाहिने हाथ में तिल जव डाभ धरो और जल देकर क्रियाकारक मंत्र पढे ।
अद्य अमुक वर्ष अयने ऋतौ मासे पक्षे तिथौ वासरे नक्षत्रे योगे करणे मुहूते पूर्वकर्मसंकंधानुबद्धां वस्त्रगंधमाल्यालंकृतां
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जैन विवाह विधि
स्वर्णरूप्यमणिभूषणभूषितां कन्यां ददात्ययं प्रतिगृण्हीय ।।
यह मंत्र क्रियाकारक पढ रहे तब कन्या का पिता अपने हाथ में रखे हुए तिल वगैरह वर कन्या के जुड़े हुए हाथ में रखे ।
यहां पर वरराजा को चाहिये कि 'प्रतिगृहामि प्रतिगृहीता' ऐसा बोले। क्रियाकारक कहता है कि 'सुप्रतिगृहीताऽस्तु शांतिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु ऋद्धिरस्तु वृद्धिरस्तु धनसंतानवृद्धिरस्तु।
इसके बाद कन्या का हाथ नीचे वर का हाथ ऊपर इस तरह रखाकर उनके पास चावल का हवन करावे और वर को अगाडी कन्या को पीछे इस तरीके से चौथी प्रदक्षिणा दिलावे ।
पीछे वर को दाहिनी तरफ और कन्या की बायीं तरफ बिठाकर क्रियाकारक अपने हाथ मे डाभ धरो चावल और वासखेप लेकर मंत्र पढे।
येनानुष्टानेनाऽऽद्योऽर्हन् शुक्रादिदेवकोटिपरिवृतो भोगाय संसारिजीवव्यवहारमार्गसंदर्शनाय सुनंदा सुमंगले पर्यणैषीत् ज्ञातमज्ञातं वा तदनुष्ठानमनुष्ठितमस्तु। ____ यह मंत्र पढकर वर कन्या के मस्तक पर वासखेप डाले पीछे कन्या का पिता जब तिल डाभ और जल हाथ में लेकर वर के हाथ मे देकर नीचे मुजब पढे -
'सुदाय ददामि, प्रतिगृहाण' वर कहता है - 'प्रतिगृहामि परिगृहामि प्रतिगृहीतं परिगृहीतम्' क्रियाकारक कहता है कि -
'सुप्रतिगृहीतमस्तु सुपरिगृहीतमस्तु' । बाद क्रियाकारक नीचे दिया हुआ मंत्र पढकर वर कन्या के मस्तक पर डाभ के अग्र भाग से तीर्थजल छिडके ।
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जैन विवाह विधि
आखिरी अभिषेक मंत्र वधूवरौ वां पूर्वकर्मानुबन्धेन निबिडेन निकाचितबद्धेन अनुपवर्तनीयेन अपातनीयेन अनुपायेन अश्लेषेण अवश्यभोग्येन विवाहः प्रतिबंधो बभूव
तदस्तु अखंडितोऽक्षयो निरपायो निर्व्याबाधः सुखदोऽस्तु शांतिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु ऋद्धिरस्तु वृद्धिरस्तु धनसन्तानवृद्धिरस्तु ।
यहां पर रिवाज मुजब क्रियाकारक चावल के सात ढेर (ढगले) करा कर उन पर एक एक पैसा पान सुपारी रखवा कर पूजा कराता है और पीछे वर का हाथ कन्या के पांव को चुभाकर कन्या के पांव से सातों ढेर को गवा देता है, उसके बाद उत्तर दिशा में धूव के तारे तरफ कंकु के छांटे तथा चावल नखा कर दर्शन कराते हैं।
बाद मातृगृह (कन्या का घर) में कुलदेव की पूजा कराकर नीचे मुजब मंत्र पढे ।
अनुष्ठितो वां विवाहो वत्सौ समस्नेही समभोगौ समायुषी, समधर्मो समदुःखसुखौ समशत्रुमित्री समगुणदोषौ समवाडनः कायौ समाचारौ समगुणी भवताम् ।
यहां पर वर कन्या के हाथ छुटे करने की विधि शास्त्र में बतलाई है इसलिये कन्या के पिता के कहने पर क्रिया कारक नीचे का मंत्र पढे ।
हाथ छुडाने का मंत्र ॐ अहं जीवस्त्व कर्मणा बद्धः ज्ञानावरणेन बद्धः दर्शनावरणेन बद्धः वेदनीयेन बद्धः मोहनीयेन बद्धः आयुषा बद्धः नाम्ना बद्धः गोत्रेण बद्धः अन्तरायेण बद्धः प्रकृत्या बद्धः स्थित्या बद्धः रसेन बद्धः प्रदेशेन बद्धः ।
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जैन विवाह विधि
__ तदस्तु ते मोक्षो गुणस्थानारोहक्रमेण अहँ ॐ । मुक्तयोः करयोरस्तु वां स्नेहसंबन्धोऽखडितः ।
ऐसा मंत्र बोलते हाथ अलग करने चाहिये इस वक्त जमाइ को दायजे में मुताबिक हैसियत के भेट करनी चाहिये, पीछे वर कन्या को वापस चवरी में ले जाकर क्रिया कारक नीचे मुजब आशीष दे ।
आशीर्वाद पूर्व युगादिभगवान विधिनैव येन; विश्वस्य कार्यकृतये किल पर्यणैषीत् । भार्याद्वयं तदमुना विधिनाऽस्ति युग्मं,
एतत्सुकामपरिभोगफलानुबंधि ।। १ ।। यह श्लोक पढ़ कर कपडे की गांठ छोडकर नीचे मुजब आशीष वचन कहे।
"वत्सौ लब्धविषयौ भवताम्" यहां पर वर कन्या को कंसार (लापसी) जिमाने का रिवाज है, उसके बाद दोनों पक्ष की (वर तथा कन्या पक्ष की) सुहागिन स्त्रियों के पास कंकु का तिलक और चावल से बधाकर अखंड सुहाग का आशीर्वाद दिलाकर खुशी मनाई जाती है ।
इतनी तमाम विधि होने के बाद नीचे मुजब क्षमा प्रार्थना करे - आज्ञाहीनं, क्रियाहीनं, मंत्रहीनं च यत्कृतम् । तत्सर्वं कृपया देव! क्षमस्व परमेश्वर ! ।। १ ।।
यह बोलकर चवरी के कुंकुम के छांटे दिलाकर च विल से बंधाकर वर कन्या को गाजे बाजे के साथ विदा करे, वर के वहां वर की माता वथा कर भीतर प्रवेश करावे ।
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जैन विवाह विधि
इस तरह ऊपर दी हुई विधि के साथ लग्न ओछव करते इतना ध्यान रहना चाहिये कि जहा तक बन सके जिन मंदिर में अट्ठाई महोत्सव करे अगर इतना न बन सके तो कम से कम एक पूजा तो अवश्य ही पढावे |
॥ इति जैन लग्न विधि समाप्त ॥
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जैन विवाह विधि
जैन शारदा पूजन विधि
अच्छे मुहूर्त में अच्छे चोघडीये मे नये चोपडे को बाजोठ पर पूर्व या उत्तर दिशा तरफ स्थापन करे पास में घी का दीपक तथा अगरबत्ती रखे बाद पूजा करने वाला अपने दाहिने हाथ में मोली बांध कर नई कलम लेकर नीचे मुजब नये चोपडे में लिखना शुरू करें।
"श्री परमात्मने नमः श्रीगुरुभ्यो नमः श्रीसरस्वत्यै नमः श्री गौतमस्वामि की लब्धि होइजो श्रीकेशरीयाजी का भंडार भरपूर होइजो श्री भरतचक्रवर्ती की ऋद्धि होइजो श्रीबाहुबली का बल होइजो श्री अभयकुमार की बुद्धि होइजो श्रीकयवन्नाशेठ का सौभाग्य होइजो श्रीष्ट नाशालिभद्र की सम्पत्ति होइजो"
इतना लिखने के बाद नवीन वर्षे नवीन महिना तिथि वार तारीख वगैरह लिखने के बाद उसके नीचे एक से नौ तक नीचे मुताबिक 'श्री' अक्षर देहरी के आकार में लिखे ।
श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री
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जैन विवाह विधि
ध्यान रहे कि अगर चोपडा छोटा हो तो ५ या ७ ही श्री करना उसके बाद उसके नीचे स्वस्तिक (साथीया) कंकु से करे और उस पर नागरवैल का पान सुपारी इलायची लबंग रूपा नाणा वगैरह रखे बाद चोपडे के आसपास फिरती जल की धारा देकर वासखेप चावल पुष्प की कुसुमांजलि हाथ में ले कर नीचे मुजब श्लोक बोलता हुआ चढावे ।
मंगलं भगवान वीरो, मंगल गौतम प्रभु ।
मंगलं स्थूली भद्राद्या, जैन धर्मोऽस्तु मंगलं ।। १ ।। फिर पंचपरमेष्ठी स्तवन पढे -
पंचपरमेष्ठि स्तवन स्व.श्रियं श्रीमदर्हन्तः, सिद्धाः सिद्धिपुरीपदम् । आचार्याः पंचधाचारं, वाचका वाचनां वराम् ।।१।। साधवः सिद्धिसाहाय; वितन्वन्तु विवेकिनाम् । मंगलानां च सर्वेषा-माद्यं भवति मंगलं ।।२।। अर्हमित्यक्षरं माया-बीजं च प्रणवाक्षरम् । एनं नानास्वरूपं च, ध्येयं ध्यायन्ति योगिनः ।।३।। हृत्पद्मषोडशदल-स्थापितं षोडशाक्षरम् । परमेष्ठिस्तुतेर्बीजं, ध्यायेदक्षरदं मुदा ।।४।। मंत्रणामादिमं मंत्र, तंत्र विध्नौघनिग्रहे । ये स्मरन्ति सदैवनं, ते भवन्ति जिनप्रभाः ।।५।।
इसके बाद नीचे दिया हुआ मंत्र बोलते जाना और हर एक द्रव्य से शारदा पूजन करते जाना ।
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जैन विवाह विधि
मत्र
ॐ हीं श्रीं भगवत्यै केवलज्ञानस्वरूपार्य लोकलोकप्रकाशिकायै सरस्वत्यै जलं समर्पयामि स्वाहा । इति जलपूजा ।
इसी तरह आगे मंत्र बोलते जाना और 'जल समर्पयामि' की जगह जो द्रव्य चढाना हो उसका नाम लेकर पूजा करते जाना तात्पर्य यह हुआ कि जल पूजा करने के बाद चंदन-पुष्प-धूप, दीप-अक्षत (चावल) नैवेद्य (शक्कर या मिठाई) फल इन अष्ट द्रव्य का नाम बोलकर पूजा करना बाद दोनों हाथ जोडकर नीचे दर्ज किया हुआ स्तोत्र पढे ।
सरस्वती स्तोत्र
(दुतविलंबित छन्द) कलमरालविहगमवाहना, सितदुकूलविभूषणलेपना। प्रणतभूमिरूहामृतसारिणी, प्रवरदेहप्रभाभरधारिणिी ।। १ ।। अमृतपूर्णकमंडलुधारिणी, त्रिदशदानवमानवसेविता । भगवती परमैव सरस्वती, मम पुनातु सदा नयनाम्बुदम् ।। २ ।। जिनपतिप्रथिताखिलवाडंयी, गणधराननमंडपनर्तकी। गुरूमुखाम्बुजखेलनहंसिका, विजयते जगति श्रुतदेवता ।। ३ ।। अमृतदीधितिबिम्बसमाननां, त्रिजगतीजननिमितमाननाम् । नवरसामृतवीचिसरस्वती, प्रमुतिदः प्रणमामि सरस्वतीम् ।। ४ ।। विततकेतकपत्रविलोचने, विहितसंसृतिदुष्कृतमोचने । धवनपक्षविहंगमलाछिते, जय सरस्वति! पूरितवांछिते ।। ५ ।। भवदनुग्रहलेशतरडिंता-स्तदुचितं प्रवदन्ति विपश्चितः । नृपसभासु यत- कमलाबला, कुचरकलाललनानि वितन्वते ।। ६ ।। गतधना अपि हि त्वदनुग्रहात, कलितकोमलवाक्यसुधोर्मयः ।
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जैन विवाह विधि
चकितबालकुरंगविलोचना, जनमनांसि हरन्तितरां नराः ।। ७ ।। करसरोरुहखेलनचंचला, तव विभाति वरा जपमालिका । श्रुतपयोतिधिमध्यविकस्वरो, ज्वलतरंगकदाग्रहसाग्रहा ।। ८ ।। द्विरदकेसरिमारिभुजंगमाऽसहनतस्करराजरूजां भयम् । तव गुणावलिगानतरंगिणां, न भविनां भवति श्रुतदेवते ।। ६ ।। ॐ ह्रीं क्ली ल्बी ततः श्रीं तदनु हसकल हीमथोएँ नमोऽन्ते । लक्षं साक्षाज्जपेद्यः करसमविधिना सत्तपा ब्रह्मचारी । निर्यान्ती चन्द्रबिम्बात्कलयति मनसा त्वा जगच्चन्द्रिकामा । सोऽत्यर्थ वहिकुंडे विहितघृतहुतिः स्यादृशांसेन विद्वान् ।। १० ।। रे रे लक्षणकाव्यनाटककथाचम्पूसमालोकने, क्वायासं वितनोषि बालिश ! मुथा किं नम्रवक्राम्बुजः । भकत्याऽऽराधयमंत्रराजमहसा तेनानिशं भारती, येन त्वं कवितावितानसविता द्वैतप्रबुद्धायसे ।। ११ ।। चंचच्चन्द्रमुखी प्रसिद्धमहिमा स्वाच्छन्द्यराज्यप्रदा नायासेन सुरासुरेश्वरगणैरभ्यर्थिता भक्तितः । देवी संस्तुतवैभवा मलयजालेपांगरत्नद्युतिः सा मां पातु सरस्वती भगवती त्रैलोक्यसंजीविनी ।। १२ ।। स्तवनमेतदनेकगुणान्विंत, पठति यो भविकः प्रमनाः प्रगे।
स सहसा मधुरैर्वचनामृतै-नूपगणानपि रब्जयति स्फुटम् ।। १३ ।। ___इसके बाद आरती उतारना है फिर नीचे मुजब गौतम स्वामी का स्तोत्र पढना।
गौतम स्वामी का अष्टक श्रीइन्द्रभूतिं वसुभूतिपुत्रं, पृथ्वीभवं गौतमगोत्ररत्नम् ।
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जैन विवाह विधि
स्तुवन्ति देवासुरमानवेन्द्राः, स गौतमो यच्छतु वाछितं में ।। १ ।। श्री वर्धमानत्रिपदीमवाप्य, मुहूर्तमात्रेण कृतानि येन । अंगानि पूर्वाणि चतुर्दशापि, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ।।२ श्री वीरनाथेन पुरा प्रणीतं, मंत्रं महानन्दसुखाय यस्य । ध्यायन्त्यमी सूरिवराः समग्राः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥३ यस्याभिधान मुनयोऽपि सर्वे, गृहन्ति भिक्षाभ्रमणस्यकाले । मिष्टान्नपानाम्बरपूर्णकामाः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ।।४ अष्टापदाद्री गगने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवन्दनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ।।५ त्रिपंचसंख्याशततापसानां, तपः कृशानामपुनर्भवाय । अक्षीणलब्ध्या परमान्नदाता, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ।।६ सदक्षिणं भोजनमेवदेयं, साधर्मिकं संघसपर्ययेति कैवल्यवस्त्रं प्रददौ मुनीनां, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥७ शिवं गते भर्तरि वीरनाथे, युगप्रधानत्वमिहैव मत्वा । पट्टाभिषेको विदधे सुरेन्द्रैः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ।।८ त्रैलोक्यबीजं परमेष्ठिबीजं, संज्ञात्रबीजं जिनराजबीजमं । यन्नामचोक्तं विदधाति सिद्धिं, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ।। श्री गौतमस्याष्टकमादरेण, प्रबोधकाले मुनिपुंगवा ये। पठन्ति ते भूरिपदं सदैवा-नंदं लभन्ते सुतरां क्रमेण ।। १०
इस तरह गौतमस्वामी का संस्कृत स्तोत्र बोलना चाहिये अथवा इसके बदले नीचे दिया हुआ भाषा स्तोत्र भी पढ सकते हैं ।
अंगुठे अमृत वसे, लब्धि तणो भंडार । तें गुरू गौतम समरिये, वंछित फल दातार ।।१।। प्रभुवचने त्रिपदी लही, सूत्र रचे तेणी वार । यउदे पूर्वमा रचे, लोकालोक विचार ।।२।।
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__ जैन विवाह विधि भगवती सूत्रे कर नमी, बंभी लिपि जयकार । लोक लोकोत्तर सुख भणी, भाषा लिपि अढार ।।३।। वीरप्रभु सुखिया थया, दीवाली दिन सार । अन्तमुहूर्त तत्क्षणे, सुखियो सहु संसार ।।४।। केवलज्ञान लहे तदा, श्री गौतम गणधार । सुरनर हरख धरी प्रभु, करे अभिषेक उद्धार ।।५।। सुरनर परषदा आगले, भाषे श्रीश्रुतनाण । नाण थकी जब जाणिये, द्रव्यदिक चोठोण ।।६।। ते श्रुतज्ञानने पूजिये, दीप धूप मनोहार । वीर आगम अविचल रही वरस एकवीस हजार ।।७।।
।। इति श्री शारदा पूजन विधि सम्पूर्ण ।।
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