Book Title: Jain Tark me Anuman
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-तर्क में अनुमान डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा, वाराणसी..... ज्ञान के प्रमाणों में प्रत्यक्ष के बाद अनुमान का ही है-ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना (To go From Known I, स्थान है। परोक्ष प्रमाणों में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता Unknown)| अनुमान को पाश्चात्य तर्कशास्त्र में ऐसा महा। है। भारतीय दर्शन में मात्र चार्वाक को छोड़कर अन्य सभी दिया गया है कि पूरे तर्कशास्त्र पर यही छाया हुआ है। शाखाओं ने इसे मान्यता दी है। मुनि नथमलजी के शब्दों में-- अनुमान के संबंध में एक समस्या उठ खड़ी होती है "अनुमान तर्क का कार्य है। तर्क द्वारा निश्चित नियम के आधार प्रत्यक्ष के अतिरिक्त स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि जितने भी ज्ञान, पर यह उत्पन्न होता है।.... तर्कशास्त्र के बीज का विकास वे सभी प्रत्यक्ष के बाद ही प्राप्त होते हैं, फिर भी इन्हें भिन्न-भिः। अनुमानरूपी कल्पतरु के रूप में होता है। नामों से संबोधित किया जाता है। इन्हें भी अनुमान की मंज।। 'अनु' और 'मान' के मिलने से अनुमान शब्द बनता है। क्यों नहीं दी जाती है? आखिर वह कौन सा पूर्व ज्ञान है जिस। 'अनु' का अर्थ होता है ‘पश्चात्', 'बाद' तथा 'मान' का अर्थ होता कारण कुछ ज्ञान तो अनुमान की कोटि में रखे जाते हैं और है 'ज्ञान'। इस प्रकार किसी पूर्व ज्ञान के बाद होने वाले ज्ञान को अन्य के लिए विभिन्न नाम प्रस्तुत किए जाते हैं। वात्स्यायन । अनुमान कहते हैं। महर्षि गौतम ने इसीलिए कहा है--'तत्पूर्वकम् अनुमान पर प्रकाश डालते हुए कहा है - मितेन लिंगे। तत्' से तात्पर्य है-प्रत्यक्ष ज्ञान। जो ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान के बाद लिंगिनोऽर्थस्य पश्चान्मानमनुमान्। अर्थात् प्रत्यक्ष से प्राप्त लिंग उत्पन्न हो उसे अनुमान कहते हैं। और लिंगी के ज्ञान के बाद जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे अनुमा। पहाड़ पर अग्नि है कहते हैं। इससे इतनी जानकारी होती है कि लिंग-दर्शन और फिर लिंगी को समझना ही वह ज्ञान है जिससे अनुमान होता।' क्योंकि पहाड़ पर धूम है वह ऐसा पूर्व ज्ञान है जिसके कारण अनुमान किया जाता है। यह जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है बात जैनाचार्य वादिराज के द्वारा अनुमान प्रतिपादन से स्मर अमुक पहाड़ पर धूम है होती है । इसलिए उस पहाड़ पर अग्नि है। 'अनु व्याप्तिनिर्णयस्य पश्चाद्भाविमानमनुमानम्।' धूम के साथ अग्नि का प्रत्यक्ष ज्ञान पहले से प्राप्त है और इसी के आधार पर डा. कोठिया ने कहा है-- उसी आधार पर धूम को पहाड़ पर देखकर यह अनुमान किया जा रहा है कि वहाँ अग्नि भी है। अनुमान शब्द की यह व्युत्पत्ति दो यद्यपि पारम्पर्य से उन्हें (लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण तथा पक्षधा। रूपा म मानी जाती है--(१) अनुमिति: अनमान तथा (२) अनमीयते ज्ञान को) भी अनुमान का जनक माना जा सकता है पर अनमानी अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान व्याप्तिनिश्चय ही है, क्योंकि उन्हें अव्यवहित अनेन अति इनुमानम्। प्रथम प्रक्रिया में अनुमान शब्द भाव रूप में उत्तरकाल में नियम से अनुमान आत्मलाभ करता है। अनुमिति प्रमाण के लिए आता है तथा द्वितीय प्रक्रिया में वह करण रूप में होता है और अनुमान प्रमाण के लिए आता है। जैन परंपरा में प्रतिपादित अनुमान को अच्छी तरह समझ। के लिए अन्य परंपराओं द्वारा विवेचित अनुमान को समझना ॥ अंग्रेजी में अनुमान के लिए इन्फेरेन्स (Inference) शब्द उचित जान पडता है. क्योंकि इससे विषय को स्पष्टता प्राप्त आता है। इन्फर (Infer) से इन्फेरेन्स शब्द बनता है। इन्फर का होती है. तलनात्मक दृष्टि से समानता-असमानता का बोध होना अर्थ होता है-अनुमान करना, तर्क करना, निर्णय करना, निर्णय है। अत: पहले भारतीय दर्शन की जैनेतर शाखाओं की अनुमान पर आना आदि। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में अनुमान से समझा जाता की परिभाषा संबंधी मान्यताओं को देखें-- Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिक भारतीय दर्शन में सर्वप्रथम अनुमान की परिभाषा महर्षि कणाद के द्वारा वैशेषिक सूत्र में प्रस्तुत की गई है - अस्येदं कार्यकारणं संयोगिविरोधिसमवायि चेति लैङ्गिकम् अर्थात् कार्य, कारण, संयोगी, विरोधी तथा समवायी लिङ्गों को देखने के बाद उनसे संबंधित जो ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहते हैं। • यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन न्याय - प्राचीन न्याय में महर्षि गौतम ने अनुमान को जिस रूप में परिभाषित किया है उसे अभी अनुमान के शब्दार्थ को समझते समय हम लोगों ने देखा है। नव्य न्याय के चिंतक गंगेश उपाध्याय ने लिखा है - तत्र व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मता ज्ञानजन्यं ज्ञानमनुमितिः तत्करामनुमानं तच्च लिङ्गपरामर्शो न तु परामृश्यमानं लिङ्गमिति वक्ष्यते । जो ज्ञान व्याप्ति विशिष्ट पक्षधर्मता से उत्पन्न होता है, उसे अनुमिति कहते हैं तथा जो अनुमिति का कारण होता है, उसे अनुमान कहते हैं। अनुमान लिङ्ग विषयक परामर्श होता है, किन्तु वह परामृश्यमान लिङ्ग नहीं हो सकता । सांख्य - महर्षि कपिल ने अनुमान का निरूपण करते हुए कहा है ' प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम् प्रतिबन्ध दर्शन अर्थात् लिङ्ग को देखकर प्रतिबद्ध को जानना अनुमान है। योग - योगसूत्र के भाष्यकार के अनुस अनुमान करने योग्य वस्तु समान जातियों से युक्त करने वाला तथा भिन्न जातियों से पृथक् करने वाला जो संबंध है, तद्विषयक सामान्य रूप से निश्चय करने वाली प्रधान वृत्ति को अनुमान कहते हैं । जैसे - चन्द्रमा, तारागण आदि गतिशील हैं, देशान्तर की प्राप्ति होने से, चैत्र पुरुष के समान तथा देशान्तर प्राप्ति होने वाला न होने के कारण विन्ध्याचल पर्वत गतिमान नहीं है। - मीमांसा - मीमांसासूत्र पर भाष्य लिखते हुए शबर स्वामी ने कहा है १० अनुमानं ज्ञातसंबंधस्यैकदेशदर्शनादेकदेशान्तरेऽसंनिकृष्टेऽर्थेबुद्धिः । -- अर्थात् ज्ञातसंबंध यानी व्याप्ति के संबंधियों में से एक को जान लेने के बाद दूसरे के असन्निकृष्ट अर्थ को जान लेना ही अनुमान है। वेदान्त - वेदान्त - परिभाषा में कहा गया है १९ - अनुमिति करणम् अनुमान्। अर्थात् अनुमिति का जो करण है वह अनुमान है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि उस व्याप्तिज्ञान से जो व्याप्तिज्ञानत्व धर्म से अविच्छिन्न है, उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनुमिति है १२ । For Private बौद्ध - बौद्धाचार्य दिङ्नाग ने अनुमान पर प्रकाश डालते हुए कहा है३ - नान्तरीयकार्थदर्शनं तद्विदोऽनुमानम् इति । अविनाभाव संबंध जो ज्ञात है उसके आधार पर नान्तरीयक अर्थ का दर्शन होना ही अनुमान है ४ । एक वस्तु का जब दूसरे के अभाव में भाव नहीं होता है, तब उनके संबंध को नान्तरीयक कहते हैं। धर्मकीर्ति ने बहुत ही सरल ढंग से अनुमान को परिभाषित किया है। उनके अनुसार धर्मी के संबंध में जो ज्ञान परोक्ष रूप से किसी संबंधी के धर्म के कारण होता है उसे अनुमान कहते हैं १५ ॥ पाश्चात्य तर्क प्राचीनकाल के ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने तर्क की निगमन (Deductive) पद्धति पर अनुमान प्रतिष्ठित किया। आधुनिक युग के बुद्धिवादी तथा अनुभववादी दार्शनिकों ने क्रमशः निगमन तथा आगमन पद्धतियों को अपने-अपने चिंतन का आधार बनाया। काण्ट ने अपनी ज्ञानमीमांसा में दोनों पद्धतियों को समन्वित किया है। निगमन-पद्धति सामान्य से विशेष की ओर बढ़ती है तथा आगमन-पद्धति विशेषों के आधार पर सामान्य का निर्धारण करती है। आ के वे दार्शनिक जो विज्ञान से प्रभावित हैं, आगमन पद्धति को ही अपनाते हैं। अनुमान के संबंध में प्रसिद्ध दार्शनिक मिल का विचार है१६ - अनुमान का मूल रूप है- एक विशिष्ट तथ्य से (या बहुत से विशिष्ट तथ्यों से) दूसरे विशिष्ट तथ्य ( या तथ्यों) की ओर जाना । हम विशिष्ट तथ्यों के प्रेक्षण से प्रारंभ करते हैं, और तब प्रेक्षित एवं अप्रेक्षित तथ्यों को सम्मिलित करने वाला एक सामान्य कथन करते हैं। प्रस्तुत परिभाषाओं के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि निम्नलिखित स्थितियों में ही कोई व्यक्ति अनुमान कर सकता है - (१) पहले से कुछ ज्ञात हो । (२) ज्ञात और जिसे हम जानना चाहते हैं के बीच व्याप्ति या अविनाभाव संबंध हो । इसी को कणाद ने और अधिक स्पष्ट रूप से कहा है कि देखने के बाद ही अनुमान संभव है। मिल के द्वारा दी गई Sambambambino permesine Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन परिभाषा अनुमान की संपूर्ण पृष्ठभूमि पर प्रकाश नहीं डालती है। अभ्रान्त होता है यानी उसमें किसी प्रकार की भ्रान्ति या आशंका यह सिर्फ इतना बताती है कि आगमन-पद्धति को अपनाकर हम नहीं रहती है। इसीलिए अनुमान को साध्य-निश्चायक भी कहते अनुमान कैसे कर सकते हैं। हैं। न्यायावतार के हिन्दी अनुवादक पं. विजयमूर्तिजी ने लिखा है अनुमान की परिभाषा में 'साध्याविनाभु' अर्थात् सांध्य के जैन परंपरा बिना न होने वाले विशेषण को लाकर आचार्य ने दूसरे वादियों अनुमान का प्राचीन रूप - जैन विद्वानों ने ऐसा माना है के द्वारा प्रणीत लिङ्ग के लक्षणों का निराकरण किया है। कि अनुमान का प्रारंभिक रूप अभिनिबोध ज्ञान में मिलता है। अकलंक - जैन न्याय के प्रतीक अकलंक ने अनुमान को तत्त्वार्थ सूत्र में यद्यपि उमास्वाति ने अनुमान की चर्चा नहीं की परिभाषित करते हुए कहा है२०- साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्...। है फिर भी उनके द्वारा प्रतिपादित अभिनिबोध से अनुमान का अर्थात् साधन से साध्य के विषय में जो ज्ञान होता है उसे संकेत मिलता है। अकलंक, विद्यानंद, श्रुतसागर आदि जैनाचार्यों अनुमान कहते हैं। यह ज्ञान लिड्ग ग्रहण और व्याप्तिस्मरण के के मत में इस धारणा को समर्थन प्राप्त है। अकलंक की उक्ति बाद होता है। चूँकि यह ज्ञान अविशद होता है इसलिए परोक्ष है - चिंता अभिनिबोधस्य अनुमानादेः। इससे इसकी पुष्टि होती माना जाता है। किन्तु अपने विषय में यह अविसंवादी है तथा है कि प्राचीनकाल में अनुमान अभिनिबोधरूप में ही था। संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि समारोपों का निराकरण अनुमान का प्रचलित रूप - अनेक जैनाचार्यों ने अपनी- करने में समर्थ होता है, इसलिए इसे प्रमाण की कोटि में स्थान अपनी रचनाओं में स्पष्ट अथवा अस्पष्ट रूप से अनुमान के प्राप्त होता है। लघीयस्त्रय में अकलंक ने कहा है-- विवेचन किये हैं जिन्हें विस्तारपूर्वक यहाँ प्रस्तुत करना संभव लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात् नहीं है, किन्तु प्रमुख चिंतकों के विचार को जानना-समझना तो लिङ्गधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः। सर्वथा आवश्यक है। साध्य का वह ज्ञान जो साध्य-अविनाभूत लिङ्ग के द्वारा समन्तभद्र - आप्तमीमांसा समन्तभद्र की प्रसिद्ध रचना प्राप्त होता है उसे अभिनिबोध या अनुमान कहते हैं और हान है। उसमें यद्यपि उनके द्वारा दी गई अनमान की कोई परिभाषा तो - आदि ज्ञान उसके फल होते हैं। यहाँ भी अनुमान के प्राचीन नाम उपलब्ध तो नहीं है फिर भी उनकी बहुत सी सूक्तियाँ मिलती हैं पर प्रकाश पड़ता है। जिनमें किसी न किसी रूप में अनुमान की झलक मिलती है। उनके संबंध में डा. कोठिया ने स्पष्टत: लिखा है--जिन उपादानों से अनुमान विद्यानन्द - प्रमाण संबंधी अपनी प्रसिद्ध रचना प्रमाणनिष्पन्न एवं संपूर्ण होता है उन उपादानों का उल्लेख भी उनके द्वारा परीक्षा में अनुमान को परिभाषित करते हुए विद्यानन्द ने कहा है२२ - इसमें किया गया है। उदाहरणार्थ - हेतु, साध्य, प्रतिज्ञा, सधर्मा, साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्। अविनाभाव, सपक्ष साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्त जैसे अनुमानोपकरणों इस परिभाषा में मात्र अकलंक के द्वारा दी गई अनुमान का निर्देश इसमें (आप्तमीमांसा में) किया गया है। की परिभाषा की पुनरावृत्ति है। किन्तु अकलंक के विचार को सिद्धसेन दिवाकर - जैन-न्याय में अनुमान की स्पष्ट ही वे तत्त्वश्लोकवार्तिक में प्रस्तुत करते हैं तो उनके कथन से परिभाषा सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर की रचना में मिलती है। अकलंक के मत का पिष्ट-पेषण ही नहीं होता है बल्कि उसमें उन्होंने अनुमान को इन शब्दों में प्रतिपादित किया है उनके अपने भी विचार व्यक्त होते हैं२३-- साध्याविनाभुवों लिङ्गात्साध्यनिश्चायकं स्मृतम्। साध्यभावासम्भवनियम लक्षणात् साधनादेव शक्याभिप्रेता अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत्।। प्रसिद्धत्वलक्षणस्य साध्यस्यैव यद्विज्ञानं तदनुमानम् आचार्या विदुः। अर्थात् साध्य के बिना न होने वाले लिङ्ग से साध्य के आचार्य का कथन है कि उस साधन से जो साध्य के संबंध में निश्चित जानकारी देने वाला जो ज्ञान है उसे ही अनमान अभाव में संभव नहीं है, के द्वारा होने वाला शक्य, अभिप्रेत कहते हैं। वह अनुमान प्रमाण होने के कारण प्रत्यक्ष की तरह तथा अप्रसिद्ध साध्य का विज्ञान ही अनुमान है। ये आचार्य यानी aroorionitorionidmoonsansarbadroomidnirala-G४१]iwarirdivorrowroorbordNGrGorbandrod6d6 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकलंक के वचन हैं, इसे विद्यानंद स्वीकार करते हैं । किन्तु इन वचनों का विवेचन वे अपने ढंग से करते हैं और यह घोषित करते हैं कि साधनज्ञान तथा साध्यज्ञान में समग्रता का भाव होना चाहिए। अर्थात् साधन और साध्य में सब तरह से संबंधत हो तभी अनुमान सही हो सकता है। प्रकारता की दृष्टि से साधन और साध्य में एकता होनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार का साध्य हो उसी प्रकार का साधन होना चाहिए और जिस प्रकार का साधन हो उसी प्रकार का साध्य भी होना चाहिए। यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन माणिक्यनन्दी - इन्होंने भी अकलंक का ही अनुगमन किया और कहा है२५ - साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम ||१०|| अर्थात् साधन से साध्य के विषय में प्राप्त ज्ञान को अनुमान कहते हैं। इस कथन में कोई नवीनता दिखाई नहीं पड़ती है किन्तु विवेचनकर्ता ने इसमें कुछ अपनी विशेषता एवं सार्थकता दिखाने का प्रयास किया है-- यदि अनुमान का लक्षण यह किया जाता कि प्रमाण से जो विज्ञान होता, वह अनुमान है तो आगम आदि से व्यभिचार आता है, अतः उसके निवारण के लिए साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा। फिर भी प्रत्यक्ष से व्यभिचार आता, अतः उसके निवारणार्थ साधन से यह पद दिया है। इस प्रकार लिङ्ग से साध्यरूप लिङ्गी का जो ज्ञान होता है, उसे प्रमाण कहते हैं। जैसे धूम देखकर अग्नि का ज्ञान करना। २६ हेमचंद्र - इन्होंने प्रमाणमीमांसा में कहा है साधनात्साध्यविज्ञानम् अनुमानम् ।।७।। इसका विवेचन करते हुए वे आगे कहते हैं.... दृष्टादुपदिष्टद्वा साधनात् यत् साध्यस्य विज्ञानम् सम्यगर्थनिर्णयात्मकं तदनुमीयतेऽनेनेति अनुमानम् लिङ्गग्रहणसंबंधस्मरणयोः पश्चात् परिच्छेदनम्।।७।। वह अर्थात् साध्य का वह सम्यगर्थ निर्णायक ज्ञान जो अपने द्वारा देखे हुए अथवा अन्य व्यक्ति के कहे हुए साधन के आधार पर होता है, उसे अनुमान कहते हैं। जिससे अनुमिति हो वह अनुमान है, यानी साधन के प्राप्त होने पर तथा अविनाभाव संबंध के याद आने के बाद होने वाला विज्ञान ही अनुमान के नाम से जाना जाता है। ambap धर्मभूषण तथा यशोविजय - इन लोगों ने भी क्रमशः न्यायदीपिका तथा जैनतर्कभाषा में अनुमान-संबंधी विवेचन विश्लेषण प्रस्तुत किए हैं। इन लोगों के विचार भी अपने पूर्वगामी आचार्यों की तरह ही है । इस प्रकार ज्ञात होता है कि अनुमान को परिभाषित करने वाले आचार्यों की एक लंबी कतार है, किन्तु सबने बारी-बारी से अकलंक के द्वारा दी गई परिभाषा को ही परिष्कृत करने का भरपूर प्रयास किया है। यदि अनुमान के मूलरूप को देखें तो न्याय आदि जैनेतर परंपराएँ तथा जैनपरंपरा में भी साधन, साध्य और अविनाभाव संबंध से ही अनुमान का निर्माण होता है। अवयव - अवयव क्या है? इसके सामान्य अर्थ होते हैं-- अंग, अंश आदि। अनुमान के क्षेत्र में भी इसके ये ही अर्थ होते हैं। जिनके सहयोग से अनुमान निरूपित होता है, उसे अवयव कहते हैं। वात्स्यायन ने अवयव को परिभाषित करते हुए कहा है साधनीयार्थस्य यावतिशब्दसमूहे सिद्धिः परिसमाप्यते तस्य पञ्चावयाः प्रतिज्ञादयः समूहापेक्षयाऽवयवा उच्यते । अर्थात् जो साधनीय अर्थ है उसे निश्चित करने के लिए शब्दसमूह के रूप में वाक्यों का प्रयोग करना आवश्यक होता है तथा प्रतिज्ञादि जिन वाक्यों के आधार पर साध्य की सिद्धि होती है, उन्हें समूह की अपेक्षा से अवयव कहते हैं। अनुमान के अवयवों की संख्या के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत मिलते हैं- [२८] न्यायभाष्य न्यायसूत्र - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, जिज्ञासा, संशय, शक्य, प्राप्ति, प्रयोजन तता संशयव्युदास। वैशेषिक भाष्य २९ प्रतिज्ञा, अपदेश, निदर्शन, अनुसंधान तथा प्रत्याम्नाय । - सांख्य ३० • प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन। आचार्यमाठर कभी तीन, कभी पाँच अवयवों के प्रयोग । GamerGambian 8 pmmésmér - मीमांसा पक्ष, हेतु, उदाहरण तथा उपनय । किन्तु शालिकानाथ, नारायणभट्ट, पार्थसारथि आदि कुछ मीमांसक तीन ही अवयव मानते हैं--प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत । For Private Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन वेदान्त३२ - उदाहरण तथा उपनय। अग्नि है, यह प्रतिज्ञा के रूप में जाना जाता है। महर्षि गौतम ने बौद्धदर्शन - दिनाथ आदि प्रारंभिक विचारकर३ - प्रतिज्ञा को परिभाषित करते हुए कहा है२८ - साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा।" पक्ष, हेतु तथा दृष्टांत किन्तु धर्मकीर्ति तथा उनके बाद वाले जिसके द्वारा साध्य का उल्लेख हो उसे प्रतिज्ञा कहते हैं। उदाहरण एवं उपनय । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है - जैनमत - अवयव पर प्रकाश डालते हुए डा. मेहता ने साध्याभ्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाधिनिराकृतः। लिखा है२५ – अवयव का अर्थ होता है-दूसरों को समझाने के तत्प्रयोगोऽत्र कर्तव्यो हेतोर्गोचरदीपकः।।१४।। लिए जो अनुमान का प्रयोग किया जाता है, उसके हिस्से। किस जिसका प्रत्यक्षादि से निराकरण संभव नहीं है ऐसे साध्य ढंग से वाक्यों की संगति बैठानी चाहिए? अधिक से अधिक को ग्रहण करना, मान्यता देना पक्ष है। ऐसे पक्ष का प्रयोग कितने वाक्य होने चाहिए? कम से कम कितने वाक्यों का। परार्थानुमान के संदर्भ में अपेक्षित है, क्योंकि यह हेतु का दीपक प्रयोग होना चाहिए, इत्यादि बातों का विचार अवयवचर्चा में। यानी प्रकाशक होता है। किया जाता है। पक्ष के संबंध में माणिक्यनंदी की उक्ति है - ___ आगमों से अनुमान के अवयव के संबंध में कोई साध्यधर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मो।।२।। जानकारी नहीं प्राप्त होती है। अवयवों की संख्या तथा प्रयोग के विषय में आचार्य भद्रबाहु की उक्ति है ३६--कत्थइ पक्ष इति यावत्।।२२।। पंचावयवयं दसहा वा सव्वहा ण पडिकुत्थंति। वे मानते थे अनुमान में कभी तो धर्म साध्य होता है और कभी धर्म कि आवश्यकता के अनुसार दो से लेकर तीन, पाँच तथा दस विशिष्ट धर्मी। उस धर्मी को ही पक्ष कहते हैं। तक अवयवों की संख्या हो सकती है जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। जहाँ दो-प्रतिज्ञा तथा उदाहरण। अग्नि नहीं होती है। वहाँ धूम नहीं होता। इसमें अग्निरूप धर्म तीन--प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण। साध्य है। इस पर्वत में अग्नि है, क्योंकि वह धूमवाला है। जहां जहाँ धुम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। इसमें अग्नि रूप पांच-प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपसंहार, निगमन। धर्म से विशिष्ट पर्वत (कभी) साध्य है। आचार्य हेमचन्द्र ने (क) दस--प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविशुद्धि, हेतु, हेतुविशुद्धि, दृष्टांत, गौतम की तरह ही सरल और संक्षिप्त रूप में कहा है - दृष्टांतविशुद्धि, उपसंहार, उपसंहारविशुद्धि, निगमन और निगमन साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा--जिस वाक्य से साध्य का निर्देश -विशुद्धि। होता है, उसे प्रतिज्ञा कहते हैं। (ख) दस--प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविभक्ति, हेतु, हेतुविभक्ति, हेतु (हेऊ)-लक्षण-वैशेषिक-सूत्र में कणाद ने कहा हैविपक्ष, प्रतिषेध, दृष्टांत, आशंका, तत्प्रतिषेध और निगमन। हेतुपरदेशोलिङ्गप्रमाणकरणमित्यनर्थान्तरम्।।९/२/४ इन अवयवों के प्रयोग के विषय में जैन विचारक ऐसा मानते हैं कि जो व्यक्ति विवेकी हैं, उन्हें समझाने के लिए दो, ___अर्थात्, हेतु, अपदेश, लिङ्ग, प्रमाण, करण के अर्थ में मन्द बुद्धि वालों के लिए दस तथा सामान्य लोगों को समझाने काई अतर नहीं है। ये पर्यायवाची हैं, ऐसा समझा जा सकता है। के लिए पाँच अवयवों के प्रयोग की आवश्यकता होती है। अपदेश के विषय में उनकी उक्ति है। - प्रतिज्ञा (पहन्ना) - जिसे हम सिद्ध करना चाहते हैं, उसे 'प्रसिद्धिपूर्वकत्वादपदेशस्य।' साध्य कहते हैं और साध्य के प्रथम निर्देश के लिए प्रतिज्ञा शब्द अर्थात् - अपदेश प्रसिद्धिपूर्वक होता है। प्रसिद्धि से मतलब आता है। प्रतिज्ञा को जानते ही हमारा उद्देश्य प्रकाशित हो जाता है व्याप्ति। इससे यह ज्ञात होता है कि अपदेश व्याप्तिपूर्वक है। इस साध्यनिर्देश के लिए दूसरा नाम पक्ष भी है। पर्वत में होता है। जिसमें प्रसिद्ध या व्याप्ति नहीं होती है उसे अनपदेश Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन कहते हैं४३ - अप्रसिद्धोऽनपदेशः। हेतु के लक्षण के संबंध में कारण। पर्वत में धूम है अत: वह पक्षधर्मत्व से युक्त हैं। धर्म नहीं गौतम ने कहा है-४४--उदाहरणसाधात्साध्यसाधनं हेतः। तथा रहने पर जो हेत्वाभास होता है उसे असिद्धहे त्वाभास कहते हैं। वैधात। अर्थात् उदाहरण के साधर्म्य एवं वैधर्म्य के द्वारा साध्य सपनसत्व - हेत या लिङग के लिए सपक्ष में रहना भी को प्रमाणित करना हेतु है। इसके आधार पर हेतु को दो तरह के उतना ही आवश्यक है जितना कि पक्ष में रहना। हेतु सभी सपक्षों प्रयोगों में देखा जाता है-साधर्म्य तथा वैधर्म्य। में रहे अथवा किसी एक सपक्ष में, किन्तु उसका रहना जरूरी सिद्धसेन दिवाकर ने हेतु के लक्षण का निरूपण करते हुए है। पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने से जैसे महानस आदि। कहा है।५ - विपक्षासत्व - हेतु का पक्ष एवं सपक्ष में रहना ही उसे 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्।' अन्यथानुपपन्नत्व सार्थक नहीं बनाता बल्कि विपक्ष में उसका अभाव होना चाहिए। अर्थात् साध्य के बिना उपपन्न न होना हेतु का लक्षण है। साध्य जहाँ-जहाँ नहीं हो वहाँ-वहाँ हेतु को भी नहीं रहना चाहिए। विद्यानन्द ने भी हेतुसंबंधी न्यायदर्शन की मान्यता को खण्डित जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं है, वहाँ-वहाँ धूम नहीं है जैसे तालाब। करते हुए कहा है-अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं पंचभिः कृतम्। अबाधितविषयत्व - बाधितविषय से समझना चाहिए नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं पंचभिः कृतम्।। बाधित साध्य। हेतु का साध्य जब प्रत्यक्ष अथवा आगम से बाधित होता है तब उसे बाधितविषय कहते हैं। अग्नि शीतल जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व न हो वहाँ पर पंचरूपता व्यर्थ है। है कृतक होने से। यहाँ प्रत्यक्ष से अग्नि की शीतलता बाधित इस उक्ति से यह स्पष्ट होता है कि विद्यानंद ने भी अन्यथानुपपन्नत्व है। अतः कृतक हेतु नहीं माना जा सकता। किन्तु जब कहते । को ही हेतु का लक्षण माना है। इसी तरह अन्य जैनाचार्यों ने भी हैं कि पर्वत अग्नियुक्त है, धुमयक्त होने से तो यह प्रत्यक्षादि हेत के संबंध में विचार किए हैं। किन्तु हेमचन्द्र ने हेतु को बहुत से बाधित नहीं होता। ही सरल ढंग से समझाया है। उनके अनुसार हेतु की परिभाषा इस प्रकार है--साधनत्वाभिव्यञ्जकाविभक्त्यन्तं साधनवचनं असत्प्रतिपक्षत्व - हेतु का विरोधी जब विद्यमान रहता है, हेतुः -२/१२ वह साधन कथन जिसके अंत में साधनत्व को तब उसे सत्प्रतिपक्ष कहते हैं। सत्प्रतिपक्षता के कारण हेत सार्थक व्यक्त करने वाली विभक्ति लगी हो उसे हेतु कहते हैं। यहाँ नहाह नहीं हो सकता। अत: उसे असत्प्रतिपक्ष होना चाहिए। जब कहते हैं समस्या आती है कि वैसी कौन-कौन सी विभक्तियाँ हैं? इसके । कि पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने से तो ऐसी कोई भी जगह उत्तर में वे पनः कहते हैं४८--साधनत्वाभिव्यञ्जिकाविभक्तिः नहीं होनी चाहिए जो धूमयुक्त तो हो पर अग्नियुक्त नहीं हो।५० पञ्चमी, तृतीया, वा तदन्तम् साधनस्य उक्तलक्षणस्य वचनम् बौद्धदर्शन - बौद्धाचार्य अर्चट ने न्याय द्वारा प्रतिपादित हेतुः। साधनत्व को व्यक्त करने वाली विभक्तियाँ पंचमी और हेतु के पांच रूपों में से प्रथम तीन को स्वीकार किया है तथा तृतीया होती है। इनके साथ समाप्त होने वाले साधन वाचक शेष दो को अनावश्यक बताया है। वचन हेतु होते हैं। हिन्दी में ऐसी अभिव्यक्ति क्योंकि, चूँकि पक्षसत्व - जहां अग्नि का संदेह है, पक्ष में धूम का आदि शब्दों के सहयोग से होती है। उस पर्वत पर अग्नि है, अस्तित्व५१ क्योंकि वह धूमयुक्त है। साध्य के साथ जिसकी व्याप्ति नहीं। सपक्षसत्व - अग्नि के अस्तित्व में धम का अस्तित्व। होती है, वह हेतु नहीं हो सकता है। हेतु का स्वरूप - न्याय दर्शन में हेतु को पाँच रूपों विपक्ष-असत्व - अग्नि जहाँ नहीं है वहाँ धूम नहीं है। वाला माना गया है ४९ -- पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति शेष दो के संबंध में बौद्धमत जो कहता है उसे महेन्द्र अबाधितविषयत्व तथा असत्प्रतिपक्षत्व। . कुमार जैन के शब्दों में हम अच्छी तरह समझ सकते हैं। पक्षधर्मत्व - हेतु के धर्म के जो पक्ष में रहता है उसे त्रैरूप्यवादी बौद्ध त्रैरूप्य को स्वीकार करके अबाधित पक्षधर्मत्व कहते हैं। पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने के विषयत्व को पक्ष के लक्षण से ही अनुगत कर लेते हैं, क्योंकि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष के लक्षण में प्रत्यक्षाद्यनिराकृत पद दिया गया है। अपने साध्य के साथ निश्चित त्रैरूप्य वाले हेतु में समबल वाले किसी प्रतिपक्षी हेतु की संभावना ही नहीं की जा सकती, अतः असत्प्रतिपक्षत्व अनावश्यक हो जाता है। ww जैन दर्शन बौद्धचिंतक धर्मकीर्ति, अर्चट आदि ने न्याय तथा मीमांसा दर्शनों में हेतु के छह रूपों के प्रतिपादन की बात कही है५३ षड्लक्षणे हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते...। ये षड्लक्षण इस प्रकार हैं-- (१) पक्षधर्मत्व, (२) सपक्षसत्व, (३) विपक्षासत्व, (४) अबाधितविषयत्व, (५) विपक्षितैकसंख्यत्व तथा (६) ज्ञातत्त्व । किन्तु इन षलक्षणों के विषय में किसी प्रकार की मान्यता, जैसा कि डा. कोठिया की राय है, न्याय तथा मीमांसा दर्शनों में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती । उसी तरह से जैनाचार्य वादिराज ने हेतु के षड्लक्षणों को प्रस्तुत किया है*५ । (१) अन्यथानुपपन्नत्व (२) ज्ञातत्त्व (३) अबाधितविषयत्व, (४) असत्प्रतिपक्षत्व तथा (५,६) पक्षधर्मत्वादि । यहाँ डा. कोठिया ने है कि वादिराज ने यह स्पष्टतः प्रकाशित नहीं किया है कि ये षड्लक्षण किनके द्वारा प्रतिपादित हैं। कहा यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन - वास्तव में जैन तर्क में हेतु के एक ही रूप को माना गया है । वह है अविनाभाव । अविनाभाव = अ + विनाभाव । विनाभाव = किसी के अभाव में किसी का अस्तित्व । अविनाभाव किसी के अभाव में किसी के अस्तित्व का निषेध जैसे अग्नि के अभाव में धूम के अस्तित्व का निषेध । यदि अविनाभाव संबंध है साधन और साध्य के बीच तो अनुमान के लिए अन्य किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं होती है। अविनाभाव के अभाव में त्रैरूप्य भी हेतु नहीं बन सकता और यदि अविनाभाव है तो त्रैरूप्य के न रहने पर भी हेतु का निरूपण हो जाता है। इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण दिए जाते हैं - - (१) त्रैरूप्य के अभाव में भी हेतु एक मुहूर्त के बाद शकट नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका का उदय है । कृत्तिका के उदय के बाद शकट का उदय होता है, यह निश्चित है। यद्यपि कृत्तिका के उदय होने तथा शकट के उदय होने में कोई भी त्रैरूप्य नहीं बनता फिर भी यहाँ अविनाभाव संबंध है, जिसके आधार पर अनुमान बनता है। POMEM For Private (२) त्रैरूप्टा होने पर भी हेतु का अभाव (क) गीता का वह पुत्र जो अभी गर्भ में है, श्याम रंग का होगा । (ख) क्योंकि वह गीता का पुत्र है। (ग) जो भी गीता के पुत्र हैं वे श्याम रंग वाले हैं। यहाँ वे तीन रूप हैं जिन्हें बौद्ध विचारकों ने मान्यता दी है, किन्तु गीता का पुत्रत्व जिसे हेतु माना जा रहा है वह अभी गर्भ में है। श्याम होने का आधार गीता का पुत्रत्व ही है। अतः रूप्य होने पर भी अविनाभाव के न रहने से हेतु का निरूपण नहीं हो सकता । विद्यानंद ने बौद्धतर्क में प्रतिपादित अनुमान का खण्डन करते हुए स्पष्ट कहा है५७ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यर्थानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। विद्यानंद से पूर्व सिद्धसेन दिवाकर, पात्रस्वामी, अकलंक आदि जैनाचार्यों के द्वारा इस मत को समर्थन प्राप्त हुआ है, तथा विद्यानंद के परवर्ती जैन-चिंतकों ने भी मात्र अविनाभाव को ही हेतु रूप में स्वीकार किया है। हेतु त्रिरूप या पंचरूप किसी भी अवस्था में हो, किन्तु अविनाभाव के न रहने पर वह हेतु कहलाने के योग्य नहीं होता । हेतु के प्रकार वैशेषिक - इस दर्शन में हेतु के पाँच प्रकारों को मान्यता मिली है*" । कार्य, कारण, संयोगी, समवायी तथा विरोधी । किन्तु अन्य जगहों पर हेतु के ये प्रकार बताए गए हैं" - अभूत, भूतकाभूत - अभूत का और भूत-भूत का । - न्याय - इसके संबंध में डा. शर्मा ने बड़े ही संक्षिप्त और सरल ढंग से विवेचन प्रस्तुत किया है--न्याय परंपरा में महर्षि गौतम ने हेतु के साधर्म्य और वैधर्म्य ये दो भेद प्रदर्शित किए हैं, जिसका समर्थन वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पतिमिश्र एवं जयंत भट्ट आदि सभी दार्शनिकों ने किया है। उदयन ने उद्योतकर प्रणीत अनुमान भेद निरूपण में प्रयुक्त हेतु के अन्वयी, व्यतिरेकी एवं अन्वयव्यतिरेकी इन तीन भेदों को आधार मानकर इसके तीन भेद प्रस्तुत किए हैं -- (१) केवलान्वयी हेतु (२) केवलव्यतिरेकी हेतु तथा (३) अन्वयव्यतिरेकी हेतु । बाद में सभी नैयायिकों ने इनका ही अनुकरण किया है। ४५] 6 ট66 Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन है ६१ बौद्ध धर्मकीर्ति ने हेतु के तीन प्रकारों को प्रस्तुत किया (१) स्वभाव (२) कार्य तथा (३) अनुपलब्धि । स्वभाव - यह अग्नि है। क्योंकि यह उष्ण है। इसमें अग्नि साध्य जिसे सिद्ध होने के लिए उष्णता की अपेक्षा है अथवा अग्नि का स्वभाव है। अतः ऐसे हेतु को स्वभाव हेतु कहते हैं। कार्यहेतु - यहाँ अग्नि है, क्योंकि यहां धूम है। इसमें साध्य अग्नि है और धूम हेतु है । किन्तु धूम अग्नि से पैदा होता है। अतः साध्य से उत्पन्न होने वाले हेतु को कार्यहेतु कहते हैं। अनुपलब्धिहेतु - जो हेतु उपलब्धि को न बताकर अनुपलब्धि को बताए उसे अनुपलब्धिहेतु कहते हैं । किन्तु यह उसकी अनुपलब्धि बताता है जिसमें उपलब्धि की योग्यता है, अर्थात् जो वस्तु उपलब्धि - लक्षण प्राप्त है। घट में उपलब्धि लक्षण है फिर भी इसकी अनुपलब्धि ज्ञात होती है तो जिस कारण से अनुपलब्धि ज्ञात हो रही है उसे अनुपलब्धिहेतु कहते हैं। प्रमाणवार्तिक में अनुलपब्धि के चार विभाग बताए गए हैं-(१) विरुद्धोपलब्धि (२) विरुद्धकार्योपलब्धि (३) कारणानुपलब्धि तथा (४) स्वभावानुपलब्धि । परंतु न्यायबिंदु में इनके अलावा और सात भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं- (१) स्वभावविरुद्धोपलब्धि (२) कार्यानुपलब्धि (३) विरुद्धव्याप्तो लब्धि ( ४ ) व्यापकविरुद्धोपलब्धि ( ५ ) कारणविरुद्धोपलब्धि (६) कार्यविरुद्धोपलब्धि (७) कारण विरुद्धकार्योपलब्धि जैनमत - स्थानाङ्गसूत्र में हेतु के चार प्रकार बताए गए हैं ६३ -- (१) विधि-विधि (२) निषेध - निषेध (३) विधिनिषेध और (४) निषेध-विधि- विधि-विधि - हेतु और साध्य दो के ही सद्भाव रूप हों तो उसे विधि-विधि हेतु कहते हैं, जैसे-यहाँ अग्नि है, क्योंकि यहाँ धूम है। निषेध - निषेध - जब साध्य और साधन दोनों के ही असद्भाव रूप हों तब उस हेतु का निषेध - निषेध रूप होता है। जैसे - यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि यहाँ अग्नि नहीं है। विधि - निषेध - साध्य का सद्भाव तथा साधन का असद्भाव रहने पर हेतु विधि - निषेध कहा जाता है । राम रोग ग्रस्त है, क्योंकि उसमें स्वस्थ चेष्टा का अभाव है। ि निषेध-विधि - साध्य का असद्भाव और साधन का सद्भाव हो तो हेतु निषेध - विधि के रूप में समझा जाता है। जैसे - यहाँ उष्णता है, क्योंकि शीतलता नहीं हैं। षट्खण्डागम - इसके मूल सूत्र में हेतु के भेद-प्रभेद आदि की कोई चर्चा नहीं मिलती है। किन्तु इसके व्याख्याकार वीरसेन ने हेतुवाद (जिसका उल्लेख षटखण्डागम में प्राप्त होता है) का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि हेतु के दो भेद होते हैं - (१) साधन - हेतु तथा (२) दूषण - हेतु । सिद्धसेन दिवाकर - हेतु के दो प्रकार एवं प्रयोग के संबंध में सिद्धसेन दिवाकर की निम्नलिखित उक्ति हैं ६५ तोस्तथोपपत्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति । । १७ । । अर्थात् हेतु के दो प्रकार हैं -- (१) तथोपपत्ति--साध्य के होने पर ही होना। - (२) अन्यथानुपपत्ति - साध्य के अभाव में कभी भी न होना इन भेदों का स्पष्टीकरण न्यायावतार के भाष्यकार सिद्धर्षिगणि के द्वारा होता है। वे इनके लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं "६ तथोपपत्ति - यहाँ अग्नि है, धूम की अग्नि के द्वारा ही उत्पत्ति होने से । - अन्यथानुपपति- यहाँ अग्नि है, क्योंकि अग्नि के अभाव धूम की उत्पत्ति संभव नहीं है। अकलंक - अकलंक ने मुख्य रूप से हेतु के दो ही भेद बताए हैं- विधि और निषेध अर्थात् उपलब्धि और अनुपलब्धि । पुनः उन्होंने उपलब्धि तथा अनुलपब्धि के छह-छह भेद किए हैं उपलब्धि - ( १ ) स्वभावोपलब्धि ( २ ) स्वभावकार्योपलब्धि (३) स्वभावकारणोपलब्धि (४) सहचरोपलब्धि (५) सहचरकार्योपलब्धि तथा (६) सहचरकारणोपलब्धि | अनुलपब्धि- असद्व्यवहारसाधक - ( १ ) स्वभावानुपलब्धि, (२) कार्यानुपलब्धि, (३) कारणानुपलब्धि ( ४ ) स्वभावसहचरानुपलब्धि (५) सहचरकारणानुपलब्धि और सहचरकार्यानुपलब्धि | টিकট४६] सद्व्यवहारनिषेधक - (१) स्वभावविरुद्धोपलब्धि (२) कार्यविरुद्धोपलब्धि (३) कारणविरुद्धोपलब्धि | For Private Personal Use Only क Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन माणिक्यनन्दी - अकलंक के द्वारा प्रतिपादित हेतु तथा (३) विरुद्धकारणोपलब्धि - इस व्यक्ति में सुख नहीं है उसके विभागों का स्पष्टीकरण माणिक्यनन्दी ने किया। उन्होंने कारण हृदय में घाव है। हेतु को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया है-उपलब्धि (४) विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि - एक महूर्त के बाद रोहिणी तथा अनुलपब्धि। पुनः दोनों के दो-दो भेद किए गये। का उदय होना संभव नहीं है कारण अभी रेवती का उदय हो रहा है। उपलब्धि के दो भेद - (१) अविरुद्धोपलब्धि और (५) विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि - एक महर्त पहले भरणी का (२) विरुद्धोपलब्धि। उदय नहीं हुआ है, पुष्य के उदय हो जाने से। अनुपलब्धि के दो भेद - (१) अविरुद्धानपलब्धि और (६) विरुद्धसहचरोपलब्धि - इस दीवार में उस ओर के (२) विरुद्धानुपलब्धि। भाग का अभाव नहीं है, क्योंकि इस और का भाग दिखाई पड इतना ही नहीं बल्कि इन भेदों के प्रभेदों की भी माणिक्यनन्दी रहा है। ने प्रतिष्ठा की। उन्होंने कहा अविरुद्धानुपलब्धि - अविरुद्धानुपलब्धिः - प्रतिषेधे अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा-व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तर सप्तधा - स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तर सहचरभेदात ।।५५।। अर्थात् अविरुद्धोपलब्धि के छह भेद हैं- सहचरानुपलम्भभेदात्।।७४।। (१) अविरुद्धव्याप्योपलब्धि - शब्द परिणामी है, क्योंकि अर्थात् जो प्रतिषेध (अभाव) को सिद्ध करती है उस वह कृतक है। अविरुद्धानुपलब्धि के सात प्रकार हैं--(१) (२) अविरुद्धकार्योपलब्धि - इस शरीरधारक प्राणी में अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि--इस भूतल पर घट नहीं होगा, क्योंकि बुद्धि है, क्योंकि वचन आदि बुद्धि के कार्य हैं। वह अनुपलब्ध है, यद्यपि उसमें उपलब्धि लक्षण है। (३) अविरुद्धकारणोपलब्धि - वे उसमें हैं, यहाँ छाया है, (२) अविरुद्धाव्यापकानुपलब्धि - यहां शीशम नहीं है, चूँकि यहाँ छत्र है। क्योंकि यहां वृक्ष अनुलपब्ध है। (४) अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि - एक महर्त के बाद रोहिणी (३) अविरुद्धाकार्यानुपलब्धि - यहाँ अप्रतिबद्ध सामर्थ्य का उदय होगा, चूंकि इस समय कृत्तिका उदित है। रखने वाली अग्नि नहीं है, क्योंकि धूम अनुलपब्ध है। (५) अविरुद्धोत्तरचरोपलब्धि - एक मुहूर्त पहले भरणी (४) अविरुद्धकारणानुपलब्धि - यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि का उदय हो चुका है, क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय है। अग्नि नहीं है। (६) अविरुद्धसहचरोपलब्धि - मातुलिङ्ग अर्थात् विजौरा (५) अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि--एक मुहूर्त के बाद रूपवान है, क्योंकि रसवान है। रोहिणी का उदय संभव नहीं है, क्योंकि अभी कृत्तिका का विरुद्धोपलब्धि - इसके विषय में माणिक्यनंदी ने कहा उदय नहीं हुआ है। (६) अविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धि--एक मुहूर्त पहले भरणी विरुद्धतदुपलब्धिप्रतिषेधे तथा ।।६७।। उदित नहीं हुआ है क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय नहीं है। अर्थात् विरुद्धोपलब्धि के भी छह प्रकार होते हैं-- (७) अविरुद्धसहचरानुपलब्धि--इस तराजू का एक पलडा (१) विरुद्धव्याप्योपलब्धि - यहाँ शीतलता नहीं है कारण नीचा नहीं है, क्योंकि दूसरा पलड़ा ऊँचा नहीं है। यहां उष्णता है। विरुद्धानुपलब्धि७२ --विरुद्धानुपलब्धिर्विधौ त्रेधा(२) विरुद्धकार्योपलब्धि - यहाँ शीतलता नहीं है कारण विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात्।।८२।. यहाँ धूप है। अर्थात् विरुद्धानपलब्धि के तीन प्रकार हैं - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - (१) विरुद्धकार्यानुपलब्धि--यह व्यक्ति व्याधिग्रस्त है, देखा जाता। सिद्धसेन, दिवाकर ने दृष्टांत, अकलंक ने दृष्टांत और क्योंकि इसकी चेष्टाएँ स्वस्थ जैसी नहीं हैं। निदर्शन, माणिक्यनंदी ने दृष्टांत, निदर्शन और उदाहरण तथा हेमचंद्र _(२) विरुद्धकारणानुपलब्धि--इस व्यक्ति में दःख है, ने दृष्टांत और उदाहरण के प्रयोग किए हैं। क्योंकि इष्ट संयोग नहीं है। दृष्टान्त के प्रकार - ब्राह्मण परंपरा के अक्षपाद ने दृष्टांत (३) विरुद्धस्ववानुपलब्धि--वस्तु अनेकान्तात्मक या निदर्शन के दो भेद माने हैं - साधर्म्य एवं वैधर्म्य १। इसी तरह जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने दृष्टांत के दो प्रकारों साधर्म्य और क्योंकि एकान्त स्वरूप उपलब्ध नहीं होता है।वादिदेवसूरि ने वैधर्म्य पर प्रकाश डाला है। २ माणिक्यनंदी ने उन्हीं दृष्टांत के भेदों अकलंक और माणिक्यनंदी के हेतु संबंधी विचारों का समर्थन को अन्वय और व्यतिरेक के रूपों में व्यक्त किया है। इसी प्रकार किया है, किन्तु माणिक्यनंदी ने विरुद्धोपलब्धि के छह तथा आचार्य हेमचन्द्र ने दृष्टान्त के प्रकारों को साधर्म्य तथा वैधर्म्य और विरुद्धानुपलब्धि के तीन भेद किए हैं। और वादिदेवसूरि ने आचार्य धर्मभूषण ने अन्वय व व्यतिरेक की संज्ञा दी है ५। विरुद्धोपलब्धि का एक भेद स्वभावविरुद्धोपलब्धि अधिक तथा . विरुद्धानुपलब्धि के दो भेद विरुद्धव्यापकानुपलब्धि तथा दृष्टांत की सीमा - दृष्टांत की आवश्यकता को व्यक्त विरुद्धसहचरानुपलब्धि अधिक बताया है। करते हुए आचार्य अकलंक ने यह कहा है कि सभी स्थलों पर दृष्टांत अनिवार्यतः प्रस्तुत किया ही जाए ऐसी बात नहीं देखी जाती आचार्य हेमचन्द्र ने कणाद, धर्मकीर्ति तथा विद्यानंद की है। पदार्थों की क्षीणता सिद्ध करने में किसी पदार्थ को दृष्टांत के तरह हेतुओं का विभाजन किया है, लेकिन इनके द्वारा किए गए रूप में प्रस्तुत करना संभव नहीं है। यदि अमुक पदार्थ दृष्टांत के वर्गीकरण में अनुपलब्धि विधि साधक रूप में नहीं है। धर्मभूषण रूप में हमारे सामने है तो हम उसे क्षणिक कैसे कह सकते हैं। विद्यानंद के हेत संबंधी विचारों से सहमत देखे जाते हैं। इससे यह जाहिर होता है कि दृष्टांत की आवश्यकता सीमित है। यह यशोविजय का वर्गीकरण विद्यानंद, माणिक्यनंदी, देवसूरि और विषयवस्तु को स्पष्ट करने में सहायक है किन्तु सर्वत्र नहीं। धर्मभूषण के वर्गीकरणों के आधार पर हुआ है। विशेषतः उपनय (उपसंहार)- साध्य का उपसंहार उपनय के देवसूरि और धर्मभूषण का प्रभाव उस पर लक्षित होता है। नाम से जाना जाता है दृष्टांत (दिईत) - न्यायसूत्रकार गौतम ने दृष्टान्त को उदाहरण की अपेक्षा से यह उपसंहार दो तरह से होता है। परिभाषित करते हुए कहा है कि - लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे महर्षि गौतम ने जैसा प्रतिपादन किया है। उपसंहार इस प्रकार बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः। होता है-'तथा इति' उसी प्रकार यह भी वैसा है अथवा न तथा, अर्थात् जिसमें लौकिक तथा परीक्षक की बुद्धि समान उसी प्रकार यह भी वैसा नहीं है। उपसंहार एक प्रकार का पुनर्कथन रूप से पाई जाए उसे दृष्टांत कहते हैं। होता है। उपसंहार या उपनय में व्याप्ति उसी अनुपात में देखी जाती है जिस अनुपात में वह साध्य और साधन के बीच दृष्टांत जयंत भट्ट ने लौकिक और परीक्षक के स्थान पर वादी में होती है। न्याय तथा वैशेषिकों दर्शनों में चूँकि पञ्च अवयवों तथा प्रतिवादी शब्दों के प्रयोग किए हैं, और उन्होंने वादीप्रतिवादी को मान्यता मिली है, इसलिए उपनय भी उनमें आ ही जाता है। की समान बुद्धि के विषयभूत पदार्थ को दृष्टान्त कहा है। भट्ट-मीमांसकों ने अवयवों को दो प्रकार से उपयोगी साबित न्यायावतार के भाष्यकार सिद्धर्षिगणि ने कहा है कि जिसमें किया है--प्रतिज्ञा-हेत-उदाहरण तथा उदाहरण-उपनय-निगमन। साध्य साधन रहे वह दृष्टांत है। दृष्टांत के लिए उदाहरण तथा यहाँ उपनय की स्थिति को इस प्रकार समझा जा सकता है-- निदर्शन शब्दों के प्रयोग भी मिलते हैं। इसीलिए हेमचन्द्र ने कहा उदाहरण - जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है जैसेहै --दृष्टांतवचनमुदाहरणम्। पाकगृह। अर्थात् दृष्टांतवचन उदाहरण है। दृष्टांत, उदाहरण तथा निदर्शन उपनय - वह पर्वत भी धमयक्त है। के प्रयोग सभी आचार्यों के द्वारा समान रूप से हए हों ऐसा नहीं निगमन - अतः पर्वत अग्नियुक्त है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन बौद्धपरंपरा के धर्मकीर्ति तथा उनके परवर्ती आचार्यों ने उद्योतकर, वाचस्पतिमिश्र, जयंतभट्ट, भासर्वज्ञ आदि आचार्यों ने उदाहरण और उपनय को तर्क में स्थान दिया है। धर्मकीर्ति ने भी भी माना है। वैशेषिक-दर्शन के प्रशस्तपाद ने न्याय-दर्शन द्वारा उदाहरण तथा उपनय को हेतु के साधर्म्य तथा वैधर्म्य में ही प्रतिपादित पञ्चावयव को स्वीकार किया है किन्तु कुछ रद्दोबदल अन्तर्निहित माना है। के साथ। उन्होंने जिन पञ्चावयवों को स्वीकार किया है। वे इस जैनपरंपरा में उपनय की चर्चा अकलंक के तर्कप्रतिपादन प्रकार हैं--प्रतिज्ञा, अपदेश, निदर्शन, अनुसंधान तथा प्रत्याम्नाय। जिसे गौतम ने निमगन कहा है उसी को प्रशस्तशाद ने प्रत्याम्नाय से देखी जाती है। उनके विचारों में उपनयादिसमम् ९ तो मिलता है, किन्तु उपनय का कोई स्पष्टीकरण नहीं होता है। माणिक्यनंदी कहा है। मीमांसा-सूत्र और और शांकरभाष्य एवं कुमारिल तथा ने बड़े ही सरल ढंग से उपनय को परिभाषित किया है-- प्रभाकर के ग्रन्थो में अनुमान के स्वार्थ-परार्थ भेद उपलब्ध न होने के कारण अवयव-लक्षणों का स्पष्ट विवेचन नहीं किया हेतोरुपसंहारः उपनयः।० गया है। चूँकि निगमन परार्थानमान का अंतिम भाग होता है, . अर्थात् पक्ष में हेतु की पुनरुक्ति उपनय है। प्रभाचंद्र ने इसलिए इसका प्रतिपादन मीमांसादर्शन में नहीं हुआ है ऐसा ही उपनय का निरूपण करते हुए कहा है कि साध्यधर्मी यानी पक्ष मानना चाहिए। बौद्ध-दर्शन के धर्मकीर्ति ने भी निगमन को में कोई विशेष हेतु जब अविनाभाव से दर्शित होता है उसे उपनय कोई महत्त्व नहीं दिया है, बल्कि इसे असाधना कहा है। की संज्ञा दी जाती है। उन्होंने उपनय को उपमान भी कहा है। जैन-प्रमाण में निगमन का प्रारंभ माणिक्यनंदी से होता उपनयउपमानम् दृष्टांतधमिसाध्यमिणोः सादृश्यात् ९२।। है। उन्होंने निगमन को परिभाषित करते हुए कहा है ९८ - उपनय के प्रकार - 'प्रतिज्ञायास्तु निगमनम्।' अर्थात्--प्रतिज्ञा का पुनर्कथन उपनय के दो प्रकार माने जाते हैं--साधर्म्य तथा वैधर्म्य। निगमन है। जो कछ प्रतिज्ञा के रूप में हम घोषित करते हैं. उसी जिससे यह व्यक्त होता है - 'वैसा ही यह है' उसे साधर्म्य कहते को निगमन के रूप में फिर स्पष्टत: प्रस्तत करते हैं। इसे ऐसे भी हैं और जिससे यह ज्ञातहोता है 'वैसा यह नहीं है उसे वैधर्म्य कह सकते हैं कि जिस कथन की प्रतिज्ञा की जाती है उसे कहते हैं। सिद्धसेन दिवाकर के प्रसिद्ध ग्रन्थ न्यायावतार से यह प्रमाणित करके निगमन की संज्ञा देते हैं। वादिदेवसरि ने निगमन ज्ञात होता है कि जिसका धर्म सदृश हो वह साधर्म्य तथा जिसका को इस प्रकार प्रकाशित किया है१९ - धर्म विसदृश हो वह वैधर्म्य होता है। साध्यधर्मस्य पुनर्निगमनम्। यथानस्मादग्निर्न। उपनय की उपयोगिता - जैनाचार्यों में ऐसे भी लोग हैं अर्थात, साध्य को दुहराना निगमन है। जो साध्य है. जिसको जो उपनय को उपयोगितारहित मानते हैं। इस संबंध में हम सिद्ध करना चाहते हैं, जिसे प्रमाणित करना चाहते हैं उसी वादिदेवसूरि ने स्पष्ट कहा है कि जब धर्मी में सिर्फ साध्य-साधन को उपसंहार के रूप में दुबारा प्रस्तुत करना निगमन है। आचार्य के कहने से ही साध्य निश्चित हो जाता है तब उपनयय का हेमचन्द्र का मत भी माणिक्यनंदी के विचार से मिलता हुआ प्रयोग तो सिर्फ दुहराना मात्र है। चूँकि ये उपनय और निगमन है००। प्रभाचंद्र ने कहा है कि प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण और उपनय साध्य को प्रभावित करने में सक्षम नहीं है इसलिए प्रतिज्ञा और को एकबद्ध करने वाला निगमन होता है१०१। यह उक्ति न्याय हेतु को अवयव में मान्यता मिलनी चाहिए। अर्थात् उपनय । दर्शन से प्रभावित जान पड़ती है, क्योंकि न्यायभाष्य में भी और निगमन उपयोगी नहीं हैं। निगमन को ऐसा बताया गया है। किन्तु अनन्तवीर्य ने निगमन निगमन (निगमण)महर्षि गौतम ने कहा है५ - के संबंध में इस प्रकार कहा है९०२ - हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञाया: पुनर्वचनं निगमनम्। 'प्रतिज्ञाया: उपसंहारः - साध्यधर्मविशिष्टत्वेनप्रदर्शनं निगमनम्।' अर्थात् हेतु के कथन द्वारा प्रतिज्ञा का उपसंहारवाक्य निगमन निगमन प्रतिज्ञा का पुनर्कथन है इसमें कोई शक नहीं, है। इसमें प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण तथा उपनय को एकत्र करके किन्त वह कथनविशेष रूप से प्रतिपादित होता है। निगमन के सत्रबद्ध करने की क्षमता होती है। निगमन के इस निरूपण को संबंध में डा. कोठिया की उक्ति इस प्रकार है१०३ - anbronirankarird-dridwardwardrobadeirdrGrowdrin४९Hdiradiod-dridrowdroidroraridword-ordindean Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन ऐसा प्रतीत होता है कि अंतिम दो अवयवों पर जैन तार्किकों व्याप्ति और पक्षधर्मिता को समझे बिना अनुमान का ज्ञान होना ने उतना बल नहीं दिया है। यही कारण है कि माणिक्यनंदी से मुश्किल है। इसलिए इन दोनों के संबंध में विभिन्न आचार्यों के पूर्व इन पर विवेचन प्राप्त नहीं होता। मतों को जानने का प्रयास करेंगे। व्याप्ति शब्द की उत्पत्ति वि + शुद्धियाँ-विभक्तियाँ - आप्ति से होती है। वि का अर्थ विशेष माना जाता है तथा आप्ति का प्रयोग सबंध के लिए होता है। विशेष संबंध उसे कहते हैं जो अवयवों की संख्या निर्धारित करते समय भद्रबाह ने कहा अपवादशून्य या व्याभिचाररहित होता है जैसे सूर्य और उसकी है कि आवश्यकता को देखते हुए अनुमान में दो, तीन, पाँच किरणों के बीच का संबंध। जब भी सर्य होगा उसकी किरणें तथा दस अवयवों का प्रयोग हो सकते हैं। किन्तु दस अवयवों होंगी और किरणें होंगी तो सूर्य भी होगा। हेतु का पक्ष में पाया के संबंध में भी उनका एक निश्चित विचार नहीं है। दस अवयवों जाना पक्षधर्मता के नाम से जाना जाता है। पर्वत पर अग्नि है, के भी दो वर्ग हैं क्योंकि पर्वत पर धूम है। पर्वत है और चूँकि पर्वत पर धूम है प्रथमवर्ग - प्रतिज्ञा - प्रतिज्ञाविशुद्धि इसलिए वहाँ भी अग्नि होगी ऐसा अनुमान किया जाता है। धूम हेतु हेतुविशुद्धि का पर्वत पर होना ही पक्षधर्मता है। जहाँ व्याप्ति होती है वहाँ एक व्याप्य होता है और दूसरा व्यापक होता है। दृष्टान्त दृष्टान्तविशुद्धि उपसंहार - उपसंहारविशुद्धि व्युत्पत्ति के अनुसार वि पूर्वक अप धातु से कर्म अर्थ में ण्यत् प्रत्यय करने पर व्याप्य तथा कर्ता अर्थ में ण्वुल् प्रत्यय निगमन - निगमनविशुद्धि करने पर व्यापक शब्द सिद्ध होता है। व्याप्ति क्रिया द्वारा जिस यहाँ प्रत्येक अवयव में विशद्धि मिलाकर उसे एक से दो विषय की सिद्धि की जाती है, वह व्याप्य और जिसके द्वारा कर दिया गया है। यह विशुद्धि क्या है? और क्यों यह अवयवों उसको व्याप्त किया जाता है, उसे व्यापक कहते हैं। के साथ लग जाती है? इन प्रश्नों के उत्तर में ऐसा यदि प्रतिज्ञा, हेत आदि पंचावयवों के स्वरूप में कोई दोष हो. कोई आशंका व्याप्ति का लक्षण हो तो उन्हें शुद्ध या विशुद्ध करने से ही सही रूप में अनुमान की व्याप्ति के लिए अन्य शब्दों के प्रयोग भी हए हैं। अतः प्रतिष्ठा हो सकेगी। अन्यथा अनुमान में दोष आने की आशंका व्याप्ति को समझने के लिए हमें उन्हीं शब्दों के संदर्भ में अध्ययन होगी। इसलिए किसी भी अवयव का एक सामान्य रूप हो करना होगा। सकता है और दूसरा विशुद्ध रूप। ऐसा मान सकते हैं कि सामान्य वैशेषिकदर्शन - महर्षि कणाद ने व्याप्ति के लिए प्रसिद्धि रूप में दोष की आशंका रहती है किन्तु विशुद्ध रूप में किसी शब्द को काम में लिया है। उनके अनुसार प्रसिद्धि के आधार प्रकार का दोष या आशंका नहीं पाई जाती है। पर ही हेतु अनुमति का बोधक होता है। यदि प्रसिद्धि न हो तो दूसरावर्ग - प्रतिज्ञा - प्रतिज्ञाविभक्ति हेतु किसी काम का नहीं रह जाता। उन्होंने कहा है ०५ हेतुविभक्ति 'प्रसिद्धिपूर्वकत्वादपदेशस्य।' अर्थात् जो हेतु प्रसिद्धिपूर्वक है वही विपक्ष विपक्षप्रतिषेध सद्हेतु है और उसी से ज्ञान होता है। यदि किसी हेतु में प्रसिद्धि नहीं है तो वह अनपदेश हो जाता है - 'अप्रसिद्धोऽनपदेशः।' दृष्टान्त दृष्टान्तविभक्ति अनपदेश से मतलब है हेत्वाभास। हेत्वाभास ज्ञानदायक नहीं आशंका - आशंकाप्रतिषेध होता है। वह आभासमात्र होता है, क्योंकि उसमें व्याप्ति नहीं निगमन- निगमन विभक्ति। होती है। इस तरह प्रसिद्धि और व्याप्ति समानार्थक शब्द हैं ऐसा अनुमान का आधार ज्ञात होता है। सामान्य चिंतन के आधार पर भी हम ऐसा कह अनुमान व्याप्ति तथा पक्षधर्मिता पर आधारित होता है। सकते हैं कि प्रसिद्धि उसी की होती है जिसमें व्यापकता होती है हेतु Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन और जिसमें व्यापकता होती है उसकी प्रसिद्धि होती है। श्रीधराचार्य के अनुसार- किसी एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ स्वभावतः जो संबंध अवधारित किया जाता है, वही उपाधिशून्य व नियत होने के कारण नियम अर्थात् व्याप्ति कहलाता है९६६ । इसका मतलब है कि व्याप्ति को उपाधिशून्य होना चाहिए किन्तु प्रश्न उठता है कि उपाधि क्या है? इसके संबंध में नव्यन्याय के गंगेश उपाध्याय का मत है कि जिससे व्याभिचार ज्ञान होता है वह उपाधि है। इसकी उपस्थिति में व्याप्ति की कोई निश्चित जानकारी नहीं हो सकती है। धूम और अग्नि के बीच संबंध बताया जाता है और धूम को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है। किन्तु धूम और अग्नि के बीच स्वाभाविक संबंध नहीं है । जहाँ धूम है वहाँ अग्नि होती है, किन्तु जहाँ अग्नि होती है, यह आवश्यक नहीं है कि वहाँ धूम ही । गर्म लोहे में अग्नि तो होती है, किन्तु धूम नहीं होता है। यदि धूम और अग्नि में स्वाभाविक संबंध होता तो दोनों सर्वदा साथ रहते। धूम इसलिए होता है कि लकड़ी में गीलापन होता है। यह गीलापन ही धूम का कारण है अथवा अग्नि और धूम का संबंध बताने वाली उपाधि है। मीमांसा - प्रभाकर के अनुसार दो वस्तुओं के बीच जो अव्यभिचरित एवं नियत कार्य-कारण-भाव संबंध होते हैं, उन्हीं को सद्हेतु या व्याप्ति कहते हैं। सांख्य - व्याप्ति को परिभाषित करते हुए महर्षि कपिल ने कहा है१०७ - नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्ति अर्थात् नियतंधर्मसाहचर्य ही व्याप्ति है। अर्थात् साध्य और साधन के बीच पाया जाने वाला संबंध यदि नियत और व्यभिचार - रहित है तो उसी को व्याप्ति के नाम से जानते हैं। योग - इस दर्शनपद्धति में व्याप्ति के लिए संबंध शब्द का प्रयोग हुआ है और वह संबंध क्या है उस पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है१०८-- अनुमेयस्यतुल्यजातीये स्वनुवृत्तौ भिन्नजातीयेभ्यो व्यावृत्तः संबंध: अनुमेयः अर्थात् जिसका हम अनुमान कर रहे हैं, के साथ समान जाति में अनुवृत्ति तथा भिन्न जाति में व्यावृत्ति रखता हो उसे संबंध कहते हैं । अनुवृत्ति अनुकूलता को दर्शाती है तथा व्यावृत्ति प्रतिकूलता को । इससे यह स्पष्ट होता है कि व्याप्ति स्वजातीय में अनुकूलता तथा विजातीय में प्रतिकूलता का बोध कराती है। For Private वेदान्त दर्शन - वेदान्त परिभाषा में व्याप्ति के संबंध में ऐसी उक्ति मिलती है९०९ - - व्याप्तिश्चाशेषसाधनाश्रयाश्रिता साध्यसामानाधिकरण्यरूपा । इसमें तीन बातें प्रस्तुत की गई हैं- (१) साध्य के साथ हेतु के संबंध को व्याप्ति कहते हैं जो अशेष यानी सकल, साधनों में रहने वाला हो। इस तरह यह कहा जा सकता है कि सकल साधनों में रहने वाले साध्य के साथ हेतु का सामान्याधिकरण्य ही व्याप्ति है। बौद्ध-दर्शन - दिङ्नाग ने सद्हेतु पर प्रकाश डाला है उसी से हेतु और साध्य के बीच देखी जाने वाली व्याप्ति की भी जानकारी हो जाती है। किन्तु कर्णगोमिनं व्याप्तिः को स्पष्टतः व्यक्त करने का प्रयास किया है। उन्होंने व्याप्ति के लिए अविनाभाव शब्द का प्रयोग किया है। एक के अभाव में दूसरे का भी अभाव अविनाभाव संबंध होता है, साध्य-धर्म के अभाव में कार्य स्वभाव लिङ्गों (चिन्हों) का न पाया जाना अविनाभाव या व्याप्ति है९१०। इसको यदि दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि साध्य के अभाव में साधन का अभाव या साधन के अभाव में साध्य का अभाव अविनाभाव है जिसे व्याप्ति या व्याप्ति का लक्षण मानते हैं। जैन दर्शन जैन प्रमाण में व्याप्ति के लिए अविनाभाव तथा अन्यथानुपपत्ति शब्द भी आए हैं। व्याप्ति के संबंध में माणिक्यनन्दी ने कहा है१११ - इयमस्मिन् सत्येव भवत्यसति तु न भवत्येव । - यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च । । अर्थात् अमुक के होने पर ही अमुक होता है और नहीं होने पर नहीं होता है उसे अविनाभाव या व्याप्ति कहते हैं, जैसे अग्नि के होने पर ही धूम होता है और अग्नि के नहीं रहने पर धूम नहीं होता है। यदि साध्य के अभाव में साधन अथवा साधन के अभाव में साध्य हो तो दोनों में व्याप्ति नहीं हो सकती, भले ही उसका आभास क्यों न ज्ञात हो । देवसूरि ने व्याप्ति को त्रिकोणवर्ती कहा है अर्थात् यह भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों ही के लिए होती है। ऐसा नहीं देखा जाता कि कोई व्याप्ति भूतकाल में तो थी किन्तु वर्तमान में नहीं है अथवा वर्तमान में है किन्तु भविष्य में इसके होने की आशा नहीं है । व्याप्ति के संबंध में आचार्य हेमचंद्र के विचार को डा. कोठिया ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में रखा है- - व्याप्ति, व्याप्य और व्यापक दोनों का १ ট Personal Use Only Embr Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - धर्म है। जब व्यापक (गम्य) का धर्म व्याप्ति विवक्षित हो तब अकलंक के इस विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष और व्यापक का व्याप्य के होने पर होना ही व्याप्ति है और जब अनुपलम्भपूर्वक सर्वदेश और सर्वकाल के उपसंहाररूप व्याप्य (गमक) का धर्म व्याप्ति अभिप्रेत हो तब व्याप्य का अविनाभाव (व्याप्ति) का निश्चय करने वाला ज्ञान तर्क है और व्यापक के होने पर ही होना व्याप्ति है।१२। धर्मभूषण ने व्याप्ति वह प्रमाण है। तर्कशास्त्र का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है, क्योंकि को सर्वोपसंहावती कहा है अर्थात् व्याप्ति सर्वदेशिक तथा यह सन्निहित असन्नहित, नियत-अनियत, देशकाल में रहने सर्वकालिक होती है। यदि यह कहा जाता है कि जहाँ-जहाँ धूम वाले साध्य-साधन के अविनाभाव को अपना विषय बनाता है, वहाँ-वहाँ अग्नि है तो धूम के साथ अग्नि का भी होना सभी है।१४। अकलंक के बाद में आने वाले जैनाचार्य जैसे विद्यानंद. देश एवं सभी काल के लिए होता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता माणिक्यनन्दी, प्रभा चन्द्र, देवसूरि, हेमचन्द्र, धर्मभूषण आदि कि आज धूम के होने पर अग्नि है और कल धूम के होने पर भी सभी उन्हीं का समर्थन करते हैं। ये लोग भी तर्क को ही व्याप्ति अग्नि नहीं होगी। यह भी मान्य नहीं है कि वाराणसी में तो धूम को ग्रहण करने वाला मानते हैं। के साथ अग्नि है, किन्तु प्रयाग में धूम के बिना अग्नि नहीं देखी व्याप्ति के प्रकार - अन्वय व्याप्ति व्यतिरेक व्याप्ति - व्याप्ति जा सकता है। तात्पर्य है कि व्याप्ति देश और काल की सीमाओं के इस विभाजन पर सर्वप्रथम प्रशस्तपाद ने बल दिया है१९५। के अंतर्गत नहीं आती है। साधन और साध्य के बीच की अनुकूलता या भावात्मक रूप व्याप्ति ग्रहण को अन्वय व्याप्ति कहते हैं और साधन साध्य की प्रतिकूलता या अभावात्मक रूप को व्यतिरेक व्याप्ति कहते हैं। व्याप्ति के 'न्याय-दर्शन में व्याप्तिग्रहण का आधार प्रत्यक्ष को माना इस वर्गीकरण को जयन्त भट्ट, गंगेश, केशव मिश्र आदि तथा गया है। प्रत्यक्ष से लिङ्ग दर्शन होता है फिर लिङ्ग और बौद्ध-दर्शन के धर्मकीर्ति, अर्चट आदि ने मान्यता दी है। लिङ्ग संबंध का बोध होता है उसके बाद लिङ्गस्मृति होती है। इस तरह से अनुमान होता है यह (लिङ्ग-लिङ्गी) संबंधदर्शन समव्याप्ति-विषमव्याप्ति - दो के बीच समान व्याप्ति ही व्याप्ति-दर्शन है। वैशेषिक दर्शन में व्याप्ति-ग्रहण के लिए रहती है, उसे समव्याप्ति रहती है जैसे अभिधेय तथा ज्ञेय के अन्वय तथा व्यतिरेक को महत्त्व दिया गया है। यानी अन्वय बीच समव्याप्ति पाई जाती हैं। जो अभिधेय है वह ज्ञेय है और और व्यतिरेक के माध्यम से ही कोई व्यक्ति व्याप्ति को समझ जो ज्ञेय है वह अभिधेय है। धूम और अग्नि के बीच विषमव्याप्ति सकता है। सांख्य-दर्शन में व्याप्ति-ग्रहण के लिए प्रत्यक्ष को है, क्योंकि धूम के रहने पर अग्नि होती है, परंतु सभी परिस्थितियों आधार माना गया है। अनुकूल तर्क से भी व्याप्ति जानी जा में अग्नि के रहने पर धूम नहीं होता। मीमांसादर्शन के कुमारिल सकती है ऐसा विज्ञानभिक्षु मानते हैं। मीमांसादर्शन के प्रभाकर । विमानभिमानी ने व्याप्ति का ऐसा विभाजन किया है। ने माना है कि जिस प्रमाण से साधन :- संबंध विशेष ग्रहण होता तथोपपत्तिव्याप्ति तथा अन्यथानुपपत्ति - व्याप्ति का यह है उसी प्रमाण से साधन का व्याप्ति संबंध भी जाना जाता है। विभाजन जैन-तार्किकों के द्वारा हुआ है। तथोपपत्ति व्याप्ति धूम और अग्नि के संबंध का प्रत्यक्षीकरण ही दोनों के बीच वहाँ देखी जाती है जहाँ साध्य के रहने पर साधन देखा जाता है। पाई जाने वाली व्याप्ति पर भी प्रकाश डाल देता है। इसे किन्तु साध्य की अनुपस्थिति में ही साधन का पाया जाना असकृद्दर्शन कहते हैं, यही व्याप्तिग्रहण होता है। वेदान्त-दर्शन अन्यथानुपत्ति है। इसके अतिरिक्त जैन-तार्किकों ने एक और में भी व्याप्तिग्रहण के माध्यम के रूप में प्रत्यक्ष को ही स्वीकार वर्गीकरण किया है, जिसके अंतर्गत ये सब नाम आते हैं-- किया गया है। बौद्धदर्शन के धर्मकीर्ति ने यह माना है कि बहिर्व्याप्ति--सपक्ष में जब साध्य और साधन के बीच व्याप्तिग्रहण करने के दो मार्ग हैं--तदुत्पत्ति तथा तादात्म्य। कारण व्याप्ति होती है. उसे बहिर्व्याप्ति कहते हैं। कार्य संबंध को तदुत्पत्ति कहते हैं तथा व्याप्यव्यापक संबंध को तादात्म्य। जैन-दर्शन के प्रमाण-व्यवस्थापक अकलंक ने तर्क सकलव्याप्ति--पक्ष तथा सपक्ष दोनों में ही साध्य और साधन के बीच देखी जाने वाली व्याप्ति को सकल व्याप्ति को ही व्याप्ति-ग्राहक माना है। डा. कोठिया के शब्दों में११३ कहते हैं। dridrowdnironirbnorariadridorariwaroorironiriranid५२ d irowondiriwariwariwaridnirordGirironirandionorarta Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । – यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन अन्तर्व्याप्ति--पक्ष, सपक्ष तथा हेतु के न रहने पर भी वैशेषिक-दर्शन - वैशेषिकसत्र में अनुमान के प्रकारों साध्य और साधन के बीच पाई जाने वाली व्याप्ति अन्तर्व्याप्ति पर प्रकाश नहीं डाला गया है। किन्तु प्रशस्तपाद ने अपने भाष्य होती है। में लिखा है११७--तत्तद्विविधम्। दृष्टं एवं सामान्यतोदृष्टं। अनुमान के दो भेद हैं--दृष्ट एवं सामान्यतोदृष्ट। प्रसिद्ध साध्य एवं अनुमेय अनुमान के प्रकार - इन दोनों में जातितः अत्यंत अभिन्न होने पर (सजातीय होने भारतीय प्रमाणशास्त्र में अनुमान के तीन वर्गीकरण मिलते पर) जो अनुमान किया जाता है, दृष्ट अनुमान कहलाता है। हेतु हैं--(१) पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट। के साथ पहले से ज्ञात रहने वाला साध्य प्रसिद्ध साध्य और जिस (२) स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान। साध्य की सिद्धि अभी अभिप्रेत है वह अनुमेय कहा जाता है। जैसे पूर्व में किसी स्थान विशेष अर्थात् नगरनिष्ठ गाय में ही (३) केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी। केवल सास्ना को देखकर अन्य किसी स्थान अर्थात् वन में इन वर्गों की मान्यता दर्शन की किसी खास शाखा तक ही सास्ना को देखने के पश्चात गायविषयक जो प्रतीति (अनुमिति) सीमित है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। एक ही शाखा के कुछ होती है वह दृष्ट अनमान है११८ ॥ आचार्य प्रथम वर्गीकरण को मानते हैं, तो अन्य कुछ द्वितीय या व्योमशिव आदि आचार्यों ने स्वनिश्चयार्थ (स्वार्थानुमान) तृतीय विभाजन को अंगीकार करते हैं। तथा परार्थानुमान निरूपित किए हैं। किन्तु सप्तपदाथों में न्याय दर्शन - न्याय सूत्रकार गौतम ने अनुमान के भेद केवलान्वयी केवलव्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी की चर्चा पर विचार करते हुए कहा है११६ - अथं तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं मिलती है११९। पूर्वच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टम् अर्थात् अनुमान के तीन भेद हैं-पूर्ववत्, मीमांसा - शबर स्वामी ने अनुमान के प्रकारों को बताते आकाश में बादल को देखकर वर्षा होने का अनुमान करना। हुए प्रत्यक्षतो दृष्ट-संबंध तथा सामान्यतोदृष्ट-संबंध पर प्रकाश शेषवत-नदी की बाढ को देखकर ऐसा अनुमान करना कि वषा हुइ डाला है। प्रभाकर ने अनुमान के जो दो भेद माने है, व इस है। सामान्यतोदृष्ट--एक साथ पाई जाने वाली दो वस्तुओं में से प्रकार हैं-दृष्टस्वलक्षण और अदृष्टस्वलक्षण। किसी एक को देखकर दूसरी का अनुमान करना, जैसे किसी पशु के सींग को देखकर उसकी पूँछ का अनुमान करना। सांख्या - सांख्यकारिका में कहा गया है ५२० - त्रिविधमनुमानमाख्यातम्। उसी के आधार पर आचार्य माठर ने भासवर्ग, केशव मिश्र आदि ने अनुमान को स्वार्थानुमान बताया कि अनुमान के तीन प्रकार होते हैं--पूर्ववत्, शेषवत्, तथा परार्थानुमान के रूप में विभाजित किया है। जब हम स्वयं सामान्यतोदृष्ट। सांख्यतत्त्वकौमुदी में पहले वीत और अवीत के कुछ समझने के लिए अनुमान करते हैं तो उसे स्वार्थानुमान (स्व रूप में अनुमान का विभाजन हुआ है फिर वीत के दो भेद किए + अर्थ+ अनुमान) कहते हैं और जब पर-उपदेश के लिए अनुमान गए हैं-पूर्ववत् तथा सामान्यतोदृष्ट। करते हैं तो उसे परार्थानुमान (पर + अर्थ + अनुमान) कहते हैं। वेदान्त - वेदान्तपरिभाषा में अनुमान के दो भेद बताए . उद्योतकर ने अनुमान का वर्गीकरण अन्वयी, व्यतिरेकी गए हैं--स्वार्थानुमान तथा परार्थानमान। इसी को अर्थदीपिका एवं अन्वय-व्यतिरेकी के रूप में किया है। इन्हीं तीन प्रकारों में कहा गया है कि जो अनुमान अपनी समस्या को सुलझाने में को उदयन ने केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी सहायक होता है वह स्वार्थानुमान तथा जो अन्य की समस्या कहा है। जो अनुमान केवल अन्वय पर आधारित हो उसे केवलान्वयी । को सुलझाने में सहायक होता है, वह परार्थानुमान है। कहते हैं, जो मात्र व्यतिरेक पर आधारित हो उसे केवलव्यतिरेकी तथा जो अन्वय और व्यतिरेक दोनों पर आधारित हो उसे अन्वय बौद्धदर्शन - दिङ्नाग ने अनुमान को दो प्रकारों में व्यतिरेकी कहते हैं। इसे गंगेश ने अच्छी तरह विवेचित किया है। विभाजित किया है--स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। धर्मकीर्ति के द्वारा भी इस विभाजन को समर्थन प्राप्त है। असंग ने अनुमान Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन को पाँच प्रकार का बताया है- (१) लिङ्ग पर आधारित अनुमान, जैसे धूम से अग्नि का अनुमान । (२) स्वभाव पर आधारित अनुमान, जैसे- एक चावल को देखकर हंडे के संपूर्ण चावलों के पकने का अनुमान । (३) कर्म पर आधारित अनुमान, जैसे-सूँघने से नाक का अनुमान । (४) गुण पर आधारित अनुमान, जैसे- अनित्य वस्तु से दुःख का अनुमान । (५) कार्य कारण पर आधारित अनुमान -- जैसे अधिक भोजन से पेट भरने का अनुमान या पेट भरने से अधिक भोजन खाने का अनुमान | जैन- दर्शन - अनुयोगद्वारसूत्र १२१ में अनुमान के प्रकारों का विवेचन करते हुए कहा गया है अनुमान तीन प्रकार के होते हैं -- पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट । पूर्ववत् - - पहले से जाने हुए हेतु को देखकर जो अनुमान किया जाता है उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। इसे समझने के लिए सूत्रकार ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसमें पुत्र संबंधी एक माँ के द्वारा किया गया अनुमान विवेचित है - किसी माँ का पुत्र छोटी अवस्था में घर छोड़कर अन्य किसी स्थान पर चला गया और वह उस समय लौटा जब युवा हो गया था । किन्तु माँ अपने पुत्र की देह के विभिन्न चिन्हों को देखकर पहचान गई। उसने चिन्हों के आधार पर अनुमान करते हुए कहा - यह मेरा पुत्र है १२२ । शेषवत् - उन दो पदार्थों में से किसी एक को देखकर दूसरे का अनुमान करना, जो एक-दूसरे से संबंधित होते हैं तथा साथ रहते हैं। शेषवत् अनुमान के पाँच प्रकार बताए गए हैं- (क) कार्येण - अर्थात् कार्य को देखकर कारण का अनुमान करना ध्वनि से शंख का, ताडन से भेरी का, ढक्कित ध्वनि सुनकर बैल का, केकायित सुनकर मोर का, हिनहिनाना सुनकर घोड़े का, चिंघाड़ना सुनकर हाथी का तथा घणघणाना सुनकर रथ का अनुमान करना आदि कार्यतः अनुमान है। (ख) कारणेन -- कारण को देखकर कार्य का अनुमान करना । तन्तु को देखकर वस्त्र का अनुमान करना क्योंकि तन्तु वस्त्र कारण है, वस्त्र तन्तु का कारण नहीं है। मिट्टी के पिण्ड को টটট देखकर घट का अनुमान करना क्योंकि मिट्टी, पिण्ड घट का कारण है। घट मिट्टी के पिण्ड का कारण नहीं है। इस तरह से बादल को देखकर वृष्टि का अनुमान करना, चंद्रमा के उदित होने से समुद्र में तूफान तथा सूर्य को उगते हुए देखकर कमल के खिलने का अनुमान आदि कारणतः अनुमान है। (ग) गुणेन -- गुण के आधार पर गुणी का अनुमान करना । कसौटी से. स्वर्ण का बोध, गंध से फूल का बोध, रस से स्वाद का बोध, सुगंध से मदिरा का बोध, छूने से वस्त्र का बोध करना गुणतः अनुमान है। (घ) अवयवेन -- अवयव के आधार पर अवयवी का अनुमान करना । अवयव को देखकर अवयवी का या अंग को देखकर अवयवी का अनुमान करना। सींगों को देखकर भैंस का ज्ञान करना, चोटी को देखकर मुर्गे का, दाँतों को देखने के बाद हाथी का, दाढ़ देखकर सूअर का, मोर का पंख देखकर मोर का, खुर देखकर घोड़े का, नखों को देखकर बाघ का बोध करना आदि अवयवतः अनुमान है। (ङ) आश्रितेन -- आश्रित रहने वाली वस्तु को देखकर आश्रय का अनुमान करना, जैसे धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करना । ये सभी आश्रयतः अनुमान है। दृष्टसाधर्म्यवत् - इसके दो प्रकार हैं - (१) सामान्यतोदृष्ट-- किसी एक व्यक्ति को देखकर उसके देश (तद्देशीय) के या उसकी जाति के अन्य लोगों का अनुमान करना सामान्यतोदृष्टअनुमान है। (२) विशेषतोदृष्ट-- विशेष गुण को देखकर किसी व्यक्ति या वस्तु का अनुमान करना विशेषतोदृष्ट अनुमान है, जैसे अनेक व्यक्तियों में से किसी एक को अलग करके उसकी विशेषता पर प्रकाश डालना। कोई व्यक्ति जनसमूह में अपने मित्र को उसकी विशेषता के आधार पर पहचान लेता है। काल के आधार पर अनुमान के भेद--इसके आधार पर अनुमान के तीन भेद किए गए हैं- (१) अतीतकाल - ग्रहण, (२) प्रत्युत्पन्नकाल- ग्रहण तथा (३) अनागतकाल-ग्रहण | सिद्धसेन दिवाकर इन्होंने कहा है १२३ - जब व्यक्ति अपने ही समान दूसरे को भी निश्चय करवाता है तो उसे ही ४onn For Private Personal Use Only - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् लोग परार्थमान कहते हैं । यहाँ पर दो बातें कही गई हैं-(क) स्वनिश्चय अर्थात् स्वयं को ज्ञान देना इसे स्वार्थानुमान कहा जाता है। (ख) परार्थमान अर्थात् परार्थानुमान का अर्थ है ज्ञान। आगे इन्होंने परार्थानुमान को परिभाषित किया है १२४ उस हेतु का जो साध्य के अभाव में कभी भी नहीं होता, प्रतिपादन करने वाला वचन परार्थानुमान के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार सिद्धसेन ने अनुमान के दो प्रकारों पर प्रकाश डाला है। अकलंक अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों के द्वारा अनुमान भेद के संबंध में दिए गए विचारों का अकलंक ने खण्डन किया है। उन्होंने अनुमान के त्रिविध, चतुर्विध तथा पंचविध रूपों को गलत बताया है। क्योंकि उनमें अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्तिदोष देखे जाते हैं। अकलंक के विचार का अध्ययन करने के बाद डा. कोठिया ने कहा है-- निष्कर्ष यह है कि अन्यथानुपपन्नत्वविशिष्ट ही एक हेतु अथवा अनुमान है। वह न त्रिविध है न चतुर्विध आदि । अतः अनुमान का त्रैविध्य और चातुर्विध्य उक्त प्रकार से अव्याप्त एवं अतिव्याप्त है। अकलंक के इस विवेचन से प्रतीत होता है कि अन्यथानुपपन्नत्व की अपेक्षा से हेतु एक ही प्रकार का है और तब अनुमान भी एक ही तरह का संभव है १२५ । यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन - - विद्यानन्द - विद्यानन्द के अनुसार अनुमान के तीन भेद हैं १२६ (क) वीतानुमान -- वह अनुमान जो विधि रूप अर्थ का परिचायक है शब्द अनित्य है क्योंकि उत्पन्न होना इसका धर्म है। (ख) अवीतानुमान -- -- वह अनुमान जो निषेध रूप अर्थ का बोध कराता है जैसे जीवित शरीर को आत्मविहीन नहीं कह सकते, क्योंकि उसमें प्राण का संचार होता है। (ग) वीतावीतानुमान --जो विधि और निषेध दोनों ही रूपों में ज्ञान प्रदान करता है । वह पर्वत अग्नि युक्त है, निरग्नि नहीं है, क्योंकि धूमयुक्त है। इसके अतिरिक्त विद्यानन्द ने अनुमान के त्रिविध रूपोंपूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट को अव्यापक मानते हुए चौथे अनुमान का भी प्रतिपादन किया है जिसे उन्होंने कारणकार्योभयानुमान की संज्ञा दी है। इसमें कारण से कार्य और कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है - बीज और अंकुर | बीज कारण है और अंकुर कार्य, क्योंकि बीज से अंकुर होता है । किन्तु अंकर से ही आगे चलकर बीज भी बनता है । इसलिए बीज के आधार पर अंकुर तथा अंकुर के आधार पर बीज के अनुमान किए जा सकते हैं१२७ । माणिक्यनन्दी माणिक्यनन्दी १२८ ने अनुमान के दो भेदों को प्रकाशित किया है- (क) स्वार्थानुमान --साधन के आधार पर साध्य के संबंध में ज्ञान कराने वाला जो अनुमान है, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। - (ख) परार्थानुमान --- जो ज्ञान स्वार्थानुमान के विषयबोध का प्रतिपादन करने वाले वचनों से होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। वादिराज वादिराज ने अनुमान का वर्गीकरण अपने ढंग से किया है। जो अन्य आचार्यों के द्वारा किए गए वर्गीकरणों से भिन्न है। पहले उन्होंने अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किया है १२९ - - गौण - जो अनुमान के कारण होते हैं। मुख्य - साधन और साध्य के अविनाभावी संबंध के आधार पर साध्य के संबंध में होने वाला ज्ञान । पुनः गौण को वादिराज ने तीन भागों में विभाजित अनुमान किया है-- स्मरण, प्रत्यभिज्ञा तथा तर्क । चूँकि ये अनुमान के कारण होते हैं, इसलिए इन्हें भी अनुमान कहा जा सकता है, किन्तु ये गौण अनुमान ही कहे जा सकते हैं, मुख्य अनुमान नहीं। इस संबंध में अन्य तार्किकों ने यह आशंका व्यक्त की है कि यदि स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को अनुमान मान लिया जाए, क्योंकि ये अनुमान के कारण हैं तो प्रत्यक्ष को भी अनुमान ही क्यों नहीं माना जाए। प्रत्यक्ष भी तो अनुमान का कारण है। इससे लगता है कि वादिराज द्वारा प्रतिपादित अनुमान का वर्गीकरण अन्य आचार्यों को स्वीकार्य नहीं है। प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, देवसूरि, हेमचन्द्र इन सभी ने अनुमान को स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान के रूपों में ही विभाजित किया है९३० । अनुमान के भेदों के संबंध में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है- तद् द्विधा स्वार्थं परार्थच । स्वार्थस्वनिश्चितसाध्याविनाभावैकलक्षणात् साधनात् साध्यज्ञानम् १११ । 44] के कहे जाने ট66 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन इस विवेचन में स्वार्थानुमान के लक्षण में एक विशेष क्योंकि इसके सींग हैं। किन्तु सींग वाले अनेक ऐसे पशु होते हैं, बात बढ़ा दी गई है, वह है स्वनिश्चित। परार्थानुमान का लक्षण जो अश्व नहीं होते। जैसे - गाय, भैंस आदि। अत: सींग वाला वही है, जो पूर्ववर्ती आचार्यों ने प्रतिपादित किया हैं। पशु अश्व होता है। ऐसी कोई प्रसिद्धि नहीं है, फिर तो अनुमान अनुमानाभास - अनुमानाभास (अनुमान + आभास) भा गल भी गलत है। का अर्थ होता है दोषपूर्ण अनुमान। अनुमान का आभास हो किन्तु (२) असद - जो हेत असत हो, जिसकी सत्ता न हो, जो सही अर्थ में अनुमान न हो। जो अनुमान साध्य के विषय में गलत सिद्ध न हो। यदि कोई गधे को अश्व कहता है, यह हेतु दिखाकर बोध कराए वही अनुमानाभास है। यह तब होता है जब अनुमान के कि वह सींग वाला है, तो ऐसा हेत सिद्ध भी नहीं है, क्योंकि गधे आधार पर या अनुमान के अवयवों में दोष होता है। आधार की के सींग होता है, ऐसा किसी ने नहीं देखा है। दृष्टि से विचार करने पर ऐसा माना जा सकता है कि जब हेतु की तो उसके द्वारा दिया गया हेत संदिग्ध है। क्योंकि जितने व्याप्ति एवं पक्ष की पक्षधर्मता में दोष होता है तब अनुमानाभास भी सींग वाले पशु हैं, वे गाय ही नहीं होते। अतः निश्चित रूप होता है। अवयव की दृष्टि से विचार करने पर हम कह सकते हैं कि से यह नहीं कहा जा सकता कि सींग वाले पशु गाय हैं। पञ्चावयव-प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय तथा निगमन में जब दोष पाए जाएँगे तब अनुमानाभास होगा। इसमें आभास होने पर ही न्याय दर्शन - अनुमानाभास होता है। दोष होने पर प्रतिज्ञा- प्रतिज्ञाभास, हेतु इस दर्शन में पांच प्रकार के हेत्वाभास माने गए हैं।१३४ हेत्वाभास, दृष्टान्त-दृष्टान्ताभास, उपनय-उपनयाभास तथा निगमनिगमनाभास हो जाते हैं। इन सब की वजह से पूरा अनुमान ही (१) सव्यभिचार - दो विरोधी वस्तुओं में हेतु का रहना अनुमानाभास हो जाता है। इनमें से कोई भी एक आभास यदि व्यभिचार होता है। साध्य और साध्याभाव दो विरोधी पक्ष हैं। घटित होगा तो अनुमान सही नहीं हो सकता है। यदि हेतु किसी रूप में दोनों में बताया जाए, तो यह व्यभिचार वैशेषिक दर्शन - सामान्यतः अनुमान के पांच अवयव होगा। व्यभिचार युक्त व्यवस्था या व्यभिचार वाले हेतु को माने गए हैं किन्तु उनमें हेतु को अधिक प्रधानता दी गई है। सव्यभिचार कहते हैं। इसलिए बहुत से दार्शनिकों ने अनुमानाभास पर विचार करते (२) विरुद्ध - स्वीकार किए गए सिद्धान्त के विरोध में हुए केवल हेत्वाभास पर ही ध्यान दिया है। महर्षि कणाद ने भी आने वाला हेतु विरुद्ध कहा जाता है। प्रतिज्ञाभास, दृष्टान्ताभास आदि पर प्रकाश नहीं डाला है। उन्होंने (३) प्रकरणसम - "निर्णय के लिए, अपदिष्ट होने पर सिर्फ हेत्वाभास का विवेचन किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से (कथन करने पर) भी, जिसमें प्रकरणचिन्ता बनी रहती है, उसे हेत्वाभास पर विचार करने वाले वे प्रथम व्यक्ति माने जाते हैं, न्यायसत्रकार ने प्रकरणसम कहा है।"१३५ क्योंकि उनसे पहले भारतीय न्याय शास्त्र में किसी ने हेत्वाभास (४) साध्यसम - जो हेतु सिद्ध न हो बल्कि स्वयं साध्य पर विचार नहीं किया है। उन्होंने कहा है१३२ की तरह ही साध्य हो उसे साध्यसम कहते हैं। शब्द भी बताता है "प्रसिद्धिपूर्वक त्वादपदेशस्य।" (साध्य + सम) कि जो साध्य के बराबर हो। जो हेतु प्रसिद्धि पूर्वक होता है यानी जिसमें व्याप्ति होती (५) कालातीत - साधन और साध्य को एक ही काल है, उसे ही अपदेश या सद्हेतु कहते हैं। जिस हेतु में प्रसिद्धि नहीं में होना चाहिए। जो हेतु साध्य की सिद्धि के लिए उस समय होती या जिसकी प्रसिद्धि संदिग्ध होती है, उसे असद् या असिद्ध प्रस्तुत किया जाए, जब उसका समय व्यतीत हो चुका हो, तो हेत्वाभास मानते हैं।१३३ इस प्रकार कणाद ने हेत्वाभास के तीन उसे ही कालातीत हेत्वाभास कहते हैं। प्रकार माने हैं - मीमांसा एवं वेदान्त - मीमांसासूत्र में हेत्वामास की (१) अप्रसिद्ध - जिस हेतु की प्रसिद्धि न हो। कोई चर्चा नहीं मिलती। 'शांकरभाष्य' ने भी इस पर कोई प्रकाश नहीं व्यक्ति गधे को दूर से देखकर कहता है - यह पशु अश्व है, डाला है किन्त कमारिल के विमर्श में असिद्ध अनैकान्तिक एवं Madaaraansaansorsasaraordarsanaroromotoroof ५ ६]ooranslationsansarsawaaridwardindiansudra Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - बाध हेत्वभासों को देखा जाता है।१३६ वेदान्त दर्शन में न्याय दर्शन प्रतिपाद्यसिद्ध पक्षाभास है। जो पक्ष किसी कारण से बाधित हो द्वारा प्रतिपादित हेत्वाभासों का खंडन प्राप्त होता है। १३७ जाए उसे बाधित पक्षाभास कहते हैं। इसके चार भेद होते हैं - बौद्ध दर्शन - नागार्जन ने हेत्वामास के आठ प्रकार (१) प्रत्यक्षबाधित- जो प्रत्यक्ष से बाधित है। जैसे - बताए हैं - १३८ (१) वाक्छल, (२) सामान्यछल, (३) संशयसम, स्वलक्षण निरंश है। (४) कालातीत, (५) प्रकरणसम, (६) वर्ण्यसम, (७) व्यभिचार (२) अनुमानबाधित - जो अनुमान से बाधित है। जैसे तथा (८) विरुद्ध। - सर्वज्ञ नहीं है। (३) लोकबाधित - जो लोक द्वारा बाधित है। जैसे - असङ्ग के मत में हेत्वाभास दो हैं१३९ - अनिश्चित अथवा माता गम्य है। अनैकान्तिक तथा साध्यसम। (४) स्ववचनबाधित - जो अपने वचन के कारण वसुबन्धु के अनुसार हेत्वाभास तीन हैं १४० - असिद्ध, बाधित है। जैसे - सब भाव नहीं हैं। अनिश्चित तथा विरुद्ध हेत्वाभास - जैन दर्शन - "अन्यथानपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम । समन्तभद्र जैनतर्क में हेत्वाभास की स्पष्ट व्याख्या तो सिद्धसेन तत्प्रतीतिसंदेह विपर्यासैस्तदामता।।११४३ दिवाकर की रचना में मिलती है किन्तु उनके पूर्ववर्ती आचार्य अन्यथानुपपन्नत्व हेतु का लक्षण है, अर्थात् साध्य के समन्तभद्र ने विज्ञानाद्वैत के खंडन के सिलसिले में प्रतिज्ञाभास बिना उत्पन्न न होना किन्तु जब इस बात का अभाव होता है, तथा हेत्वाभास की चर्चा की है। उनके विचार को डॉ. कोठिया यानी साध्य के न होने पर भी साधन या हेतु का होना हेत्वाभास इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं १४१ - होता है। "विज्ञप्तिमात्रता की सिद्धि यदि साध्य और साधन के ज्ञान हेत्वाभास के तीन प्रकार हैं - असिद्ध, विरुद्ध तथा से की जाती है, तो अद्वैत की स्वीकृति के कारण न साध्य संभव है अनैकान्तिक। और न हेत्, अन्यथा प्रतिज्ञादोष और हेतदोष प्राप्त होंगे।" "असिद्धस्त्वप्रतीतो यो योऽन्ययैवोपपद्यते। इससे यह कहा जा सकता है कि समन्तभद्र ने प्रतिज्ञादोष विरुद्धो योन्यथाप्यत युक्तोऽनैकान्तिकः स तु।।''१४४ यानी प्रतिज्ञाभास तथा हेतु दोष यानी हेत्वामास को माना है। असिद्ध - जिसकी प्रतीति अन्यथानुपपन्नत्व से नहीं होती है। सिद्धसेन दिवाकर - विरुद्ध - जो साध्य के न होने पर ही उत्पन्न होता है, यानी सिद्धसेन दिवाकर ने तीन प्रकार के आभासों को मान्यता विपक्ष में उत्पन्न होता है, उसे विरुद्ध कहते हैं। दी है और उनके विवेचन-विश्लेषण किए हैं - (१) पक्षामास अनैकान्तिक - साध्य तथा साध्यविपर्यय दोनों ही के (२) हेत्वाभास तथा (३) दृष्टान्ताभास। साथ जो हो, उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। पक्षाभास - जो पक्ष के स्थान पर आता है किन्तु पक्ष दृष्टान्तामास - का काम नहीं करता, जो पक्ष जैसा लगता है, उसे पक्षाभास कहते हैं। "साधर्म्यणात दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिता। अपलक्षणहेतूत्याः साध्यादि विकलादयः।।' १५४५ "प्रतिपाद्यस्य यः सिद्धः पक्षामासोऽक्षलिङ्गतः। लोकस्ववचनाभ्याम् च बाधितोऽनेकधा मतः।।'१४२ जिन हेतुओं में हेतु के लक्षण नहीं हैं, उनसे उत्पन्न होने के पक्षामास के दो प्रकार होते हैं - (१) प्रतिपाद्यसिद्ध पक्षाभास कारण दृष्टान्त आभास हो जाता है। जो दृष्टान्त दोष साधर्म्य के तथा (२) बाधित पक्षामास। प्रतिवादी को सिद्ध होने वाला द्वारा होता है उसे साधर्म्य दृष्टान्ताभास कहते हैं। इसके छह भेद होते हैं।१४६ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - (१) साध्यविकल - अनुमान भ्रान्त है, क्योंकि प्रमाण (४) संदिग्धसाध्यव्यतिरेकी - साध्य का अभाव संशय है. जैसे - प्रत्यक्षा यहाँ दृष्टान्त प्रत्यक्ष है। साध्य भ्रान्तता है। यक्त हो। किन्तु भ्रान्तता प्रत्यक्ष में नहीं है। यदि प्रत्यक्ष भ्रांत होगा, तो (५) संदिग्धसाधनव्यतिरेकी - साधन के अभाव में सभी प्रकार के व्यवहार रुक जाएँगे, क्योंकि न कोई प्रमाण होगा संशय। और न प्रमेय ही। अत: ऐसा दृष्टान्त दोषपूर्ण है। इसे साध्य - (६) संदिग्धसाध्यसाधनव्यतिरेकी - जहाँ साध्य तथा विकल कहते हैं। यह सकल नहीं है। साधन के दोनों के ही अभाव संदिग्ध हों। (२) साधनविकल - जागने की स्थिति का संवेदन जब भी अनुमान संबंधी कोई विवेचन होता है, तब भारतीय भ्रान्त है, क्योंकि प्रमाण है। जैसे - स्वप्नसंवेदन। जाग जाने पर परम्परा में न्याय दर्शन में व्याख्यायित अनुमान तथा पाश्चात्य स्वप्नसंवेदन नहीं होता। इसलिए इसमें प्रमाणता साधन नहीं हो परम्परा में ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के द्वारा प्रतिपादित निगमन सकती है। तर्क (Deductive Logic) के उल्लेख सामने आते हैं किन्तु जैन (३) उभयविकल - सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से न्याय जिसे कभी-कभी अकलंक-न्याय के नाम से जाना जाता उपलब्ध नहीं होता। घड़े की तरह इसलिए साध्य नहीं है। घड़ा है, में विवेचित अनुमान आदि किसी से कम नहीं हैं। अनुमान लेनिन । प्रत्यक्ष से उपलब्ध है, इसलिए इसमें साधन नहीं है। मूलतः साध्य-साधन अविनाभाव संबंध पर आधारित होता है। (४) संदिग्धसाध्यधर्म - जिसमें साध्य धर्म संदिग्ध दस बात से तो सभी सहमत देखे जाते हैं लेकिन अनमान की हो। यह वीतरागी है, क्योंकि इसमें मृत्युधर्म है। जैसे राह पर सरलता एवं स्पष्टता के लिए मान्य उसके विभिन्न अवयवों की चलने वाला पुरुष। यह संदिग्ध है कि राह पर चलने वाला संख्या के संबंध में मतैक्य नहीं पाया जाता है। किसी ने अवयवों व्यक्ति वीतरागी हो। की संख्या दो तो किसी ने तीन तो किसी ने पाँच बताई है। न्याय (५) संदिग्धसाधनधर्म - साधन धर्म की संदिग्धता भाष्य में अवयवों की संख्या दस है। इस संबंध में जैन-अनुमान जिसमें हो, यह व्यक्ति मरणशील है, क्योंकि रागुयक्त है, जैसे की अपनी विशेषता है। इसने अवयवों की संख्या दो, तीन, पाँच राह पर चलने वाला व्यक्ति। किन्तु राह पर चलने वाला वीतराग और दस मानी है और इसकी सार्थकता भी बताई है। जैन चिन्तकों भी हो सकता है। के अनुसार बुद्धिमान व्यक्तियों के लिए दो तथा मंद बुद्धिवालों के (६) संदिग्धोभयधर्म - जिसमें साध्य-साधन दोनों ही लिये दस अवयवों की आवश्यकता होती है। बीच वाले यानी संदिग्ध हों। यह व्यक्ति असर्वज है. रागी होने से पथिक की सामान्य लोगों को अनुमान के लिए तीन या पाँच अवयवों की तरह। किन्तु पथिक में साध्य-साधन दोनों ही संदिग्ध हैं। ही आवश्यकता होती है। इस तरह अनुमान की उपयोगिता को सरल बनाने का प्रयास जैन-न्याय की अपनी विशेषता है। "वैधयेणात्र दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिताः। साध्यसाधनयुग्मानामनिवृन्तेश्च संशयात् ।।'१४७ सन्दर्भ वैर्धम्य दृष्टान्तामास तब बनता है, जब साध्य-साधन तथा (१) जैनदर्शन-मनन और मीमांसा, पृष्ठ ५९१ साध्य-साधन दोनों के अभाव हों। ये दोष छह प्रकार के होते हैं - (२) न्यायसत्र- १/१/५ (१) साध्यव्यतिरेकी - जहाँ साध्य का अभाव सिद्ध न (३) न्यायभाष्य- १/१/३ हो सके। (४) न्या. वि.वि. भा. २/१ (२) साधनव्यतिरेकी - जिसमें साधन का अभाव (५) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार-पृष्ठ ९० सिद्ध न हो। (६) वैशेषिकसूत्र-९/२/१ (३) साध्य-साधनव्यतिरेकी - जहाँ न साध्य और न (७) तत्त्वचिन्तामणि- पृष्ठ २४ साधन किसी का अभाव प्रमाणित न हो। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनीन्द्रसरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - (८) सांख्यसूत्र-१/१०० (३२) वेदान्तपरिभाषा, पृष्ठ १८४-१८९ (९) योगभाष्य-पृष्ठ ११ तथा (३३) न्याय प्रवेश, पृष्ठ १ भारतीय-दर्शन में अनुमान-डॉ. बृजनारायण शर्मा, पृष्ठ २४ (३४) वही (१०) मीमांसासूत्र, भाष्यकार-शबरस्वामी, पृष्ठ, ३६ (३५) जैन-धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृष्ठ ३०३ (११) वेदान्तपरिभाषा, पृष्ठ १५९ (३६) दशवैकालिकनियुक्ति ५० (१२) आनुमितिश्च व्याप्तिज्ञानत्वेन व्याप्तिज्ञानजन्या-वेदान्त - (३७) जैन-धर्म-दर्शन, पृष्ठ ३२८ परिभाषा, पृष्ठ १६१ (३८) न्यायसूत्र - १/१/३३ तथा भारतीयदर्शन, अनु. पृष्ठ २४ (३९) न्यायावतार, कारिका-१४ (१३) प्रमाणवार्तिक-२/६२ (४०) प्रमेयरत्नमाला, तृतीय समुद्देश (१४) प्रमाण समुच्चय-अध्याय २ तथा (४१) प्रमाणमीमांसा-२/१/११ भारतीय दर्शन में अनुमान, डा. बृजनारायण शर्मा, पृष्ठ २६ (४२) वैशेषिक-सूत्र ३/१/१४ (१५) प्रमाणवार्तिक (४३) वही - ३/१/१५ (१६) आधुनिक तर्कशास्त्र की भूमिका-डॉ. संकटाप्रसाद सिंह, (४४) न्यायसूत्र - १/१/३४-३५ पृष्ठ १८६ (४५) न्यायावतार, कारिका - २२ (१७) लघीयस्त्रये स्वो. कृति, कारिका-१० (४६) प्रमाणपरीक्षा - ११६, ११७ (१८) आप्तमीमांसा, कारिका १६-१९, २६,२७ आदि (४७) प्रमाणमीमांसा, द्वितीयोऽध्यायः तथा जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ ९१ (४८) १२वें सूत्र का विवेचन (१९) न्यायावतार, कारिका-५ (४९) न्यायवार्तिक, पृष्ठ १४४-१४५ तथा न्यायावतार, अनु. पं. विजयमूर्ति शास्त्राचार्य, पृष्ठ ४९ ।। (५०) प्रमाणवार्तिक - ३/२ (२०) न्यायविनिश्चय, श्लोक १७० (द्वितीयः अनुमानप्रस्ताव:) (५१) हेतुबिन्दुटीका, पृष्ठ २०४-२१३ (२१) जैन-दर्शन, डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ २३४ (५२) जैनदर्शन, डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ २४२ (२२) प्रमाणपरीक्षा, १०९ अनुमानस्य प्रमाण्य-निरूपणम्।। (५३) हेतुबिन्दुटीका, पृष्ठ २०५ (२३) श्लोकवार्तिक १/१३/१२९ (५४) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ १९२ (२४) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ ९४ (५५) न्यायविनिश्चयवृत्ति - २/१५५ (२५) परीक्षामुख सूत्र-१०, तृतीयः समुद्देशः (५६) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ १९४ (२६) प्रमेयरत्नमाला, व्याख्याकार-पं. हीरालाल जैन, पृष्ठ १४० (५७) प्रमाणपरीक्षा, सम्पादक-डा. कोठिया, पृष्ठ ४९ (२७) न्यायभाष्य, पृष्ठ ४७ (५८) वैशेषिक-सूत्र ९/२/१ (२८) न्यायसूत्र, १/१/३२ (५९) जैनदर्शन, डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ २४५ (२९) अवयवाः पुनः प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धान प्रत्याम्नायाः- (६०) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ५६ प्रशस्तपादभाष्य, पृष्ठ ३३५ (६१) प्रमाणवार्तिक-३/२ (३०) पञ्चावयवयोगात्, सुखसंवित्ति: ५/२७ सांख्यसूत्र (६२) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृ. ६३-६४ (३१) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ ४६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) स्थानांगसूत्र, पृष्ठ ३०९, ३१० (६४) भूतबली, पुष्पदन्त, षट्खण्डागम ५/५/५१ तथा जैनतर्कशास्त्र में अनुमानविचार, पृष्ठ २०६, २०७ (६५) न्यायावतार, कारिका - १७ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन (९२) वही - ३/३७ (६६) न्यायावतार, पृ. ७० (६७) प्रमाण-संग्रह, चतुर्थ प्रस्ताव, कारिका २९-३० (६८) प्रमेय-रत्नमाला, ३/५४, पृष्ठ १७८ (६९) वही, ३ / ५५ (७०) वही, ३/६७ (७१) वही, ३/७४ (७२) वही, ३/८२ (७३) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ६८ (७४) प्रमाणमीमांसा १/२/१२ तथा जैन - तर्कशास्त्र में अनुमान - विचार, पृष्ठ २२० (७५) न्यायदीपिका, पृष्ठ ९५-९९ (७६) जैन - तर्कशास्त्र में अनुमान - विचार, पृष्ठ २२० (७७) न्यायसूत्र १ / २ /२५ (७८) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ २८० (७९) न्यायावतार, अनु. विजयमूर्ति शास्त्राचार्य, पृष्ठ ७१ (८०) प्रमाणमीमांसा २/१/१३ (८१) न्यायसूत्र - १/१/२५, १/१/३६, ३७ (८२) न्यायावतार - १८ (८३) वही - १९ (८४) परीक्षामुख - १३ / ४७ (८५) प्रमाणमीमांसा - १/२/२०-२३ (८६) न्याय - दीपिका - ३८१ (८७) न्यायसूत्र - १/१/३८ (८८) जैन - तर्कशास्त्र में अनुमान, पृ. ५५, १८२ (८९) प्र.स., का. ५१, अकलंक ग्रन्थ, पृष्ठ १११ (९०) परीक्षामुख - ३ / ५० (९१) प्रमेयकमलमार्तण्ड - ३/५०, पृष्ठ ३७७ (९३) परीक्षामुख - ३/४० (९४) स्याद्वादरत्नाकर, पृष्ठ ६३ (९५) न्यायसूत्र - १ / १/३९ (९६) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ २८५ (९७) जैन - तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृष्ठ १८५ (९८) परीक्षामुख - ३ / ५१ (९९) प्रमाणनयतत्त्वालोक ३/५१-५२ (१००) प्रमाणमीमांसा - २ /१/१५ (१०१) प्रमेयकमलमार्तण्ड - ३ / ५१ (१०२) प्रमेयरत्नमाला - ३/४७ (१०३) जैन- तर्कशास्त्र में अनुमान - विचार, पृष्ठ १८६ (१०४) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ७५ (१०५) वैशेषिकसूत्र - ३/१/१४-१५ (१०६) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ८७ (१०७) सांख्यसूत्र - ५ / २९ (१०८) योगभाष्य, पृष्ठ ११ (१०९) वेदान्तपरिभाषा, पृष्ठ १७२ (११०) कार्यस्य स्वभावस्य च लिङ्गस्थाविनाभावः साध्यधर्मविना न भाव इत्यर्थः, भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ २२० (१११) परीक्षामुख - ३/१२, १३ (११२) जैन - तर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ १५१ (११३) जैन - तर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ १४८ (११४) वही, पृष्ठ १४९ ( ११५) प्रशस्तपादभाष्य, पृष्ठ १०२ (११६) न्यायसूत्र १/२/५ ( ११७) प्रशस्तपादभाष्य, पृष्ठ ३०४ (११८) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ २२९ (११९) सप्तपदार्थी - ३४ (१२०) सांख्यकारिका ५ (१२१) अनुयोगद्वारसूत्र টf ६० Indrট Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन (122) माया पुत जहा नटुं, जुवाणं पुणरागयं। (134) न्यायसार, पृष्ठ 35 काई पच्चभिजाजेज्जा पव्वलिंगेण केणई।। (135) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ 334 तथा (123) न्यायावतार - 10 न्यायसूत्र - 1/2/7 (124) वही - 13 (136) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ 353 (125) साधनं प्रकृतभावेऽनुपपन्नं ततो परे। (137) खण्डनखण्डखाद्य, पृष्ठ 375-78 विरुद्धसिद्धसंदिग्धअकिंचित्करविस्तराः। (138) उपायहृदय, पृष्ठ 14-17 न्या.वि-२/१०१, 102, पृष्ठ 102, 127 (139) Buddhist Logic before Dinnag, Page 480 (126) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 1/13/202 तथा (140) bid, Page 481 प्रमाणपरीक्षा, पृष्ठ 208 (141) जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ 226 तथा (127) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1/13/203, 204 साध्यसाधनविज्ञप्तेर्यदि विज्ञप्तिमात्रता। (128) परीक्षामुख - 3/52-56 न साध्यं न च हेतुश्च प्रतिज्ञाहेतुदोषत: 80 आप्तमीमांसा (129) प्रमाणनिर्णय, पृष्ठ 33, 36 (130) (क) प्रमेयकमलमार्तण्ड - 3/52-56 (142) न्यायावतार - 21 (ख) प्रमेयरत्नमाला - 3/48-52 (143) वही - 22 (ग) प्रमाणनयतत्त्वालोक - 3/9, 10, 23 (144) वही - 23 (131) प्रमाणमीमांसा - 1/2 8,9 (145) न्यायावतार - 24 (132) वैशेषिकसूत्र - 3/1/14 (146) वही, पृष्ठ 80 (133) वैशेषिकसूत्र - 3/1/15 (147) न्यायावतार - 25