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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - (१) साध्यविकल - अनुमान भ्रान्त है, क्योंकि प्रमाण (४) संदिग्धसाध्यव्यतिरेकी - साध्य का अभाव संशय है. जैसे - प्रत्यक्षा यहाँ दृष्टान्त प्रत्यक्ष है। साध्य भ्रान्तता है। यक्त हो। किन्तु भ्रान्तता प्रत्यक्ष में नहीं है। यदि प्रत्यक्ष भ्रांत होगा, तो (५) संदिग्धसाधनव्यतिरेकी - साधन के अभाव में सभी प्रकार के व्यवहार रुक जाएँगे, क्योंकि न कोई प्रमाण होगा संशय। और न प्रमेय ही। अत: ऐसा दृष्टान्त दोषपूर्ण है। इसे साध्य -
(६) संदिग्धसाध्यसाधनव्यतिरेकी - जहाँ साध्य तथा विकल कहते हैं। यह सकल नहीं है।
साधन के दोनों के ही अभाव संदिग्ध हों। (२) साधनविकल - जागने की स्थिति का संवेदन
जब भी अनुमान संबंधी कोई विवेचन होता है, तब भारतीय भ्रान्त है, क्योंकि प्रमाण है। जैसे - स्वप्नसंवेदन। जाग जाने पर
परम्परा में न्याय दर्शन में व्याख्यायित अनुमान तथा पाश्चात्य स्वप्नसंवेदन नहीं होता। इसलिए इसमें प्रमाणता साधन नहीं हो
परम्परा में ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के द्वारा प्रतिपादित निगमन सकती है।
तर्क (Deductive Logic) के उल्लेख सामने आते हैं किन्तु जैन (३) उभयविकल - सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से
न्याय जिसे कभी-कभी अकलंक-न्याय के नाम से जाना जाता उपलब्ध नहीं होता। घड़े की तरह इसलिए साध्य नहीं है। घड़ा
है, में विवेचित अनुमान आदि किसी से कम नहीं हैं। अनुमान
लेनिन । प्रत्यक्ष से उपलब्ध है, इसलिए इसमें साधन नहीं है।
मूलतः साध्य-साधन अविनाभाव संबंध पर आधारित होता है। (४) संदिग्धसाध्यधर्म - जिसमें साध्य धर्म संदिग्ध दस बात से तो सभी सहमत देखे जाते हैं लेकिन अनमान की हो। यह वीतरागी है, क्योंकि इसमें मृत्युधर्म है। जैसे राह पर सरलता एवं स्पष्टता के लिए मान्य उसके विभिन्न अवयवों की चलने वाला पुरुष। यह संदिग्ध है कि राह पर चलने वाला संख्या के संबंध में मतैक्य नहीं पाया जाता है। किसी ने अवयवों व्यक्ति वीतरागी हो।
की संख्या दो तो किसी ने तीन तो किसी ने पाँच बताई है। न्याय (५) संदिग्धसाधनधर्म - साधन धर्म की संदिग्धता भाष्य में अवयवों की संख्या दस है। इस संबंध में जैन-अनुमान जिसमें हो, यह व्यक्ति मरणशील है, क्योंकि रागुयक्त है, जैसे की अपनी विशेषता है। इसने अवयवों की संख्या दो, तीन, पाँच राह पर चलने वाला व्यक्ति। किन्तु राह पर चलने वाला वीतराग और दस मानी है और इसकी सार्थकता भी बताई है। जैन चिन्तकों भी हो सकता है।
के अनुसार बुद्धिमान व्यक्तियों के लिए दो तथा मंद बुद्धिवालों के (६) संदिग्धोभयधर्म - जिसमें साध्य-साधन दोनों ही लिये दस अवयवों की आवश्यकता होती है। बीच वाले यानी संदिग्ध हों। यह व्यक्ति असर्वज है. रागी होने से पथिक की सामान्य लोगों को अनुमान के लिए तीन या पाँच अवयवों की तरह। किन्तु पथिक में साध्य-साधन दोनों ही संदिग्ध हैं। ही आवश्यकता होती है। इस तरह अनुमान की उपयोगिता को
सरल बनाने का प्रयास जैन-न्याय की अपनी विशेषता है। "वैधयेणात्र दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिताः। साध्यसाधनयुग्मानामनिवृन्तेश्च संशयात् ।।'१४७
सन्दर्भ वैर्धम्य दृष्टान्तामास तब बनता है, जब साध्य-साधन तथा (१) जैनदर्शन-मनन और मीमांसा, पृष्ठ ५९१ साध्य-साधन दोनों के अभाव हों। ये दोष छह प्रकार के होते हैं - (२) न्यायसत्र- १/१/५
(१) साध्यव्यतिरेकी - जहाँ साध्य का अभाव सिद्ध न (३) न्यायभाष्य- १/१/३ हो सके।
(४) न्या. वि.वि. भा. २/१ (२) साधनव्यतिरेकी - जिसमें साधन का अभाव
(५) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार-पृष्ठ ९० सिद्ध न हो।
(६) वैशेषिकसूत्र-९/२/१ (३) साध्य-साधनव्यतिरेकी - जहाँ न साध्य और न
(७) तत्त्वचिन्तामणि- पृष्ठ २४ साधन किसी का अभाव प्रमाणित न हो।
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