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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन माणिक्यनन्दी - अकलंक के द्वारा प्रतिपादित हेतु तथा (३) विरुद्धकारणोपलब्धि - इस व्यक्ति में सुख नहीं है उसके विभागों का स्पष्टीकरण माणिक्यनन्दी ने किया। उन्होंने कारण हृदय में घाव है। हेतु को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया है-उपलब्धि (४) विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि - एक महूर्त के बाद रोहिणी तथा अनुलपब्धि। पुनः दोनों के दो-दो भेद किए गये। का उदय होना संभव नहीं है कारण अभी रेवती का उदय हो रहा है। उपलब्धि के दो भेद - (१) अविरुद्धोपलब्धि और (५) विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि - एक महर्त पहले भरणी का (२) विरुद्धोपलब्धि। उदय नहीं हुआ है, पुष्य के उदय हो जाने से। अनुपलब्धि के दो भेद - (१) अविरुद्धानपलब्धि और (६) विरुद्धसहचरोपलब्धि - इस दीवार में उस ओर के (२) विरुद्धानुपलब्धि। भाग का अभाव नहीं है, क्योंकि इस और का भाग दिखाई पड इतना ही नहीं बल्कि इन भेदों के प्रभेदों की भी माणिक्यनन्दी रहा है। ने प्रतिष्ठा की। उन्होंने कहा अविरुद्धानुपलब्धि - अविरुद्धानुपलब्धिः - प्रतिषेधे अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा-व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तर सप्तधा - स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तर सहचरभेदात ।।५५।। अर्थात् अविरुद्धोपलब्धि के छह भेद हैं- सहचरानुपलम्भभेदात्।।७४।। (१) अविरुद्धव्याप्योपलब्धि - शब्द परिणामी है, क्योंकि अर्थात् जो प्रतिषेध (अभाव) को सिद्ध करती है उस वह कृतक है। अविरुद्धानुपलब्धि के सात प्रकार हैं--(१) (२) अविरुद्धकार्योपलब्धि - इस शरीरधारक प्राणी में अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि--इस भूतल पर घट नहीं होगा, क्योंकि बुद्धि है, क्योंकि वचन आदि बुद्धि के कार्य हैं। वह अनुपलब्ध है, यद्यपि उसमें उपलब्धि लक्षण है। (३) अविरुद्धकारणोपलब्धि - वे उसमें हैं, यहाँ छाया है, (२) अविरुद्धाव्यापकानुपलब्धि - यहां शीशम नहीं है, चूँकि यहाँ छत्र है। क्योंकि यहां वृक्ष अनुलपब्ध है। (४) अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि - एक महर्त के बाद रोहिणी (३) अविरुद्धाकार्यानुपलब्धि - यहाँ अप्रतिबद्ध सामर्थ्य का उदय होगा, चूंकि इस समय कृत्तिका उदित है। रखने वाली अग्नि नहीं है, क्योंकि धूम अनुलपब्ध है। (५) अविरुद्धोत्तरचरोपलब्धि - एक मुहूर्त पहले भरणी (४) अविरुद्धकारणानुपलब्धि - यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि का उदय हो चुका है, क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय है। अग्नि नहीं है। (६) अविरुद्धसहचरोपलब्धि - मातुलिङ्ग अर्थात् विजौरा (५) अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि--एक मुहूर्त के बाद रूपवान है, क्योंकि रसवान है। रोहिणी का उदय संभव नहीं है, क्योंकि अभी कृत्तिका का विरुद्धोपलब्धि - इसके विषय में माणिक्यनंदी ने कहा उदय नहीं हुआ है। (६) अविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धि--एक मुहूर्त पहले भरणी विरुद्धतदुपलब्धिप्रतिषेधे तथा ।।६७।। उदित नहीं हुआ है क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय नहीं है। अर्थात् विरुद्धोपलब्धि के भी छह प्रकार होते हैं-- (७) अविरुद्धसहचरानुपलब्धि--इस तराजू का एक पलडा (१) विरुद्धव्याप्योपलब्धि - यहाँ शीतलता नहीं है कारण नीचा नहीं है, क्योंकि दूसरा पलड़ा ऊँचा नहीं है। यहां उष्णता है। विरुद्धानुपलब्धि७२ --विरुद्धानुपलब्धिर्विधौ त्रेधा(२) विरुद्धकार्योपलब्धि - यहाँ शीतलता नहीं है कारण विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात्।।८२।. यहाँ धूप है। अर्थात् विरुद्धानपलब्धि के तीन प्रकार हैं - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210649
Book TitleJain Tark me Anuman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size3 MB
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