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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
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बौद्ध धर्मकीर्ति ने हेतु के तीन प्रकारों को प्रस्तुत किया (१) स्वभाव (२) कार्य तथा (३) अनुपलब्धि । स्वभाव - यह अग्नि है। क्योंकि यह उष्ण है। इसमें अग्नि साध्य जिसे सिद्ध होने के लिए उष्णता की अपेक्षा है अथवा अग्नि का स्वभाव है। अतः ऐसे हेतु को स्वभाव हेतु कहते हैं।
कार्यहेतु - यहाँ अग्नि है, क्योंकि यहां धूम है। इसमें साध्य अग्नि है और धूम हेतु है । किन्तु धूम अग्नि से पैदा होता है। अतः साध्य से उत्पन्न होने वाले हेतु को कार्यहेतु कहते हैं।
अनुपलब्धिहेतु - जो हेतु उपलब्धि को न बताकर अनुपलब्धि को बताए उसे अनुपलब्धिहेतु कहते हैं । किन्तु यह उसकी अनुपलब्धि बताता है जिसमें उपलब्धि की योग्यता है, अर्थात् जो वस्तु उपलब्धि - लक्षण प्राप्त है। घट में उपलब्धि लक्षण है फिर भी इसकी अनुपलब्धि ज्ञात होती है तो जिस कारण से अनुपलब्धि ज्ञात हो रही है उसे अनुपलब्धिहेतु कहते हैं। प्रमाणवार्तिक में अनुलपब्धि के चार विभाग बताए गए हैं-(१) विरुद्धोपलब्धि (२) विरुद्धकार्योपलब्धि (३) कारणानुपलब्धि तथा (४) स्वभावानुपलब्धि । परंतु न्यायबिंदु में इनके अलावा और सात भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं- (१) स्वभावविरुद्धोपलब्धि (२) कार्यानुपलब्धि (३) विरुद्धव्याप्तो लब्धि ( ४ ) व्यापकविरुद्धोपलब्धि ( ५ ) कारणविरुद्धोपलब्धि (६) कार्यविरुद्धोपलब्धि (७) कारण विरुद्धकार्योपलब्धि
जैनमत - स्थानाङ्गसूत्र में हेतु के चार प्रकार बताए गए हैं ६३ -- (१) विधि-विधि (२) निषेध - निषेध (३) विधिनिषेध और (४) निषेध-विधि-
विधि-विधि - हेतु और साध्य दो के ही सद्भाव रूप हों तो उसे विधि-विधि हेतु कहते हैं, जैसे-यहाँ अग्नि है, क्योंकि यहाँ धूम है।
निषेध - निषेध - जब साध्य और साधन दोनों के ही असद्भाव रूप हों तब उस हेतु का निषेध - निषेध रूप होता है। जैसे - यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि यहाँ अग्नि नहीं है।
विधि - निषेध - साध्य का सद्भाव तथा साधन का असद्भाव रहने पर हेतु विधि - निषेध कहा जाता है । राम रोग ग्रस्त है, क्योंकि उसमें स्वस्थ चेष्टा का अभाव है।
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निषेध-विधि - साध्य का असद्भाव और साधन का सद्भाव हो तो हेतु निषेध - विधि के रूप में समझा जाता है। जैसे - यहाँ उष्णता है, क्योंकि शीतलता नहीं हैं।
षट्खण्डागम - इसके मूल सूत्र में हेतु के भेद-प्रभेद आदि की कोई चर्चा नहीं मिलती है। किन्तु इसके व्याख्याकार वीरसेन ने हेतुवाद (जिसका उल्लेख षटखण्डागम में प्राप्त होता है) का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि हेतु के दो भेद होते हैं - (१) साधन - हेतु तथा (२) दूषण - हेतु ।
सिद्धसेन दिवाकर - हेतु के दो प्रकार एवं प्रयोग के संबंध में सिद्धसेन दिवाकर की निम्नलिखित उक्ति हैं ६५
तोस्तथोपपत्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति । । १७ । । अर्थात् हेतु के दो प्रकार हैं -- (१) तथोपपत्ति--साध्य के होने पर ही होना।
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(२) अन्यथानुपपत्ति - साध्य के अभाव में कभी भी न होना इन भेदों का स्पष्टीकरण न्यायावतार के भाष्यकार सिद्धर्षिगणि के द्वारा होता है। वे इनके लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं "६ तथोपपत्ति - यहाँ अग्नि है, धूम की अग्नि के द्वारा ही उत्पत्ति होने से ।
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अन्यथानुपपति- यहाँ अग्नि है, क्योंकि अग्नि के अभाव धूम की उत्पत्ति संभव नहीं है।
अकलंक - अकलंक ने मुख्य रूप से हेतु के दो ही भेद बताए हैं- विधि और निषेध अर्थात् उपलब्धि और अनुपलब्धि । पुनः उन्होंने उपलब्धि तथा अनुलपब्धि के छह-छह भेद किए हैं
उपलब्धि - ( १ ) स्वभावोपलब्धि ( २ ) स्वभावकार्योपलब्धि (३) स्वभावकारणोपलब्धि (४) सहचरोपलब्धि (५) सहचरकार्योपलब्धि तथा (६) सहचरकारणोपलब्धि |
अनुलपब्धि- असद्व्यवहारसाधक - ( १ ) स्वभावानुपलब्धि, (२) कार्यानुपलब्धि, (३) कारणानुपलब्धि ( ४ ) स्वभावसहचरानुपलब्धि (५) सहचरकारणानुपलब्धि और सहचरकार्यानुपलब्धि |
টিकট४६]
सद्व्यवहारनिषेधक - (१) स्वभावविरुद्धोपलब्धि (२) कार्यविरुद्धोपलब्धि (३) कारणविरुद्धोपलब्धि |
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