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अकलंक के वचन हैं, इसे विद्यानंद स्वीकार करते हैं । किन्तु इन वचनों का विवेचन वे अपने ढंग से करते हैं और यह घोषित करते हैं कि साधनज्ञान तथा साध्यज्ञान में समग्रता का भाव होना चाहिए। अर्थात् साधन और साध्य में सब तरह से संबंधत हो तभी अनुमान सही हो सकता है। प्रकारता की दृष्टि से साधन और साध्य में एकता होनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार का साध्य हो उसी प्रकार का साधन होना चाहिए और जिस प्रकार का साधन हो उसी प्रकार का साध्य भी होना चाहिए।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
माणिक्यनन्दी - इन्होंने भी अकलंक का ही अनुगमन किया और कहा है२५ -
साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम ||१०|| अर्थात् साधन से साध्य के विषय में प्राप्त ज्ञान को अनुमान कहते हैं।
इस कथन में कोई नवीनता दिखाई नहीं पड़ती है किन्तु विवेचनकर्ता ने इसमें कुछ अपनी विशेषता एवं सार्थकता दिखाने का प्रयास किया है-- यदि अनुमान का लक्षण यह किया जाता कि प्रमाण से जो विज्ञान होता, वह अनुमान है तो आगम आदि से व्यभिचार आता है, अतः उसके निवारण के लिए साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा। फिर भी प्रत्यक्ष से व्यभिचार आता, अतः उसके निवारणार्थ साधन से यह पद दिया है। इस प्रकार लिङ्ग से साध्यरूप लिङ्गी का जो ज्ञान होता है, उसे प्रमाण कहते हैं। जैसे धूम देखकर अग्नि का ज्ञान करना। २६
हेमचंद्र - इन्होंने प्रमाणमीमांसा में कहा है
साधनात्साध्यविज्ञानम् अनुमानम् ।।७।।
इसका विवेचन करते हुए वे आगे कहते हैं.... दृष्टादुपदिष्टद्वा साधनात् यत् साध्यस्य विज्ञानम् सम्यगर्थनिर्णयात्मकं तदनुमीयतेऽनेनेति अनुमानम् लिङ्गग्रहणसंबंधस्मरणयोः पश्चात् परिच्छेदनम्।।७।।
वह अर्थात् साध्य का वह सम्यगर्थ निर्णायक ज्ञान जो अपने द्वारा देखे हुए अथवा अन्य व्यक्ति के कहे हुए साधन के आधार पर होता है, उसे अनुमान कहते हैं। जिससे अनुमिति हो वह अनुमान है, यानी साधन के प्राप्त होने पर तथा अविनाभाव संबंध के याद आने के बाद होने वाला विज्ञान ही अनुमान के नाम से जाना जाता है।
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धर्मभूषण तथा यशोविजय - इन लोगों ने भी क्रमशः न्यायदीपिका तथा जैनतर्कभाषा में अनुमान-संबंधी विवेचन विश्लेषण प्रस्तुत किए हैं। इन लोगों के विचार भी अपने पूर्वगामी आचार्यों की तरह ही है ।
इस प्रकार ज्ञात होता है कि अनुमान को परिभाषित करने वाले आचार्यों की एक लंबी कतार है, किन्तु सबने बारी-बारी से अकलंक के द्वारा दी गई परिभाषा को ही परिष्कृत करने का भरपूर प्रयास किया है।
यदि अनुमान के मूलरूप को देखें तो न्याय आदि जैनेतर परंपराएँ तथा जैनपरंपरा में भी साधन, साध्य और अविनाभाव संबंध से ही अनुमान का निर्माण होता है।
अवयव - अवयव क्या है? इसके सामान्य अर्थ होते हैं-- अंग, अंश आदि। अनुमान के क्षेत्र में भी इसके ये ही अर्थ होते हैं। जिनके सहयोग से अनुमान निरूपित होता है, उसे अवयव कहते हैं। वात्स्यायन ने अवयव को परिभाषित करते हुए कहा है साधनीयार्थस्य यावतिशब्दसमूहे सिद्धिः परिसमाप्यते तस्य पञ्चावयाः प्रतिज्ञादयः समूहापेक्षयाऽवयवा उच्यते । अर्थात् जो साधनीय अर्थ है उसे निश्चित करने के लिए शब्दसमूह के रूप में वाक्यों का प्रयोग करना आवश्यक होता है तथा प्रतिज्ञादि जिन वाक्यों के आधार पर साध्य की सिद्धि होती है, उन्हें समूह की अपेक्षा से अवयव कहते हैं।
अनुमान के अवयवों की संख्या के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत मिलते हैं-
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न्यायभाष्य
न्यायसूत्र - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, जिज्ञासा, संशय, शक्य, प्राप्ति, प्रयोजन तता संशयव्युदास। वैशेषिक भाष्य २९ प्रतिज्ञा, अपदेश, निदर्शन, अनुसंधान तथा प्रत्याम्नाय ।
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सांख्य ३० • प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन। आचार्यमाठर कभी तीन, कभी पाँच अवयवों के प्रयोग ।
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मीमांसा पक्ष, हेतु, उदाहरण तथा उपनय । किन्तु शालिकानाथ, नारायणभट्ट, पार्थसारथि आदि कुछ मीमांसक तीन ही अवयव मानते हैं--प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत ।
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