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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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(३) जैन काल-गणना विषयक एक तीसरी प्राचीन परंपरा
[ लेखक - श्री मुनि कल्याणविजय ]
काल-गणना संबंधी दो प्राचीन परंपराओं का वर्णन हमने मूल लेख में कर दिया है और उनके विवेचन में उपलब्ध सामग्री का यथेच्छ उपयोग भी कर दिया है, पर मेटर प्रेत में भेजने के बाद हमें इस विषय की एक नई परंपरा उपलब्ध हुई है जिसका संक्षिप्त परिचय इस लेख में दिया जाता है ।
कुछ दिन पहले मुझे मालूम हुआ कि कछ देश के किसी पुस्तक भांडार में प्राचार्य हिमवत्-कृत " थेरावली” विद्यमान है । मैंने इस प्राकृत भाषामयी मूल थेरावलो की प्राप्ति के लिये उद्योग किया और कर रहा हूँ, पर अब तक मूल पुस्तक मेरे हस्तगत नहीं हुई, केवल उसका जामनगर निवासी पं० हीरा. लाल हंसराज - कृत गुजराती भाषांतर प्राप्त हुआ है, प्रस्तुत लेख उसी भाषांतर के आधार पर लिखा जा रहा है 1
प्राचार्य हिमवान् एक प्रसिद्ध स्थविर थे । प्रसिद्ध अनुयोगप्रवर्तक स्कंदिलाचार्य और नागार्जुन वाचक का सत्तासमय ही इन हिमवान् का सत्ता समय था इसमें कोई संदेह नहीं है; क्योंकि देवर्द्धिगण की नंदी - येरावली में इनका स्कंदिल के बाद और नागार्जुन के पहले उल्लेख
* यह पूर्व - प्रकाशित लेख का परिशिष्ट है ।
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७६ .
नागरीप्रचारिणी पत्रिका है और प्रस्तुत येरावली में इनको स्कंदिल का शिष्य लिखा है। पर यह निश्चय होना कठिन है कि यह थेरावली प्रस्तुत हिमवत्कृत है या अन्य कर्तृक। इसमें कई प्राचीन और अश्रुतपूर्व बातें ऐसी हैं जिनका प्राचीन शिलालेखों से भी समर्थन होता है , और इन बातों का प्रतिपादन इसमें देखकर इसे प्राचीन मानने को जी चाहता है, पर कतिपय बातें ऐसी भी हैं जो इस थेरावली की हिमवत्-कर्तृकता में शंका उत्पन्न करती हैं , वस्तुतः यह थेरावली हिमवत्-कृत है या नहीं यह प्रश्न अभी अनिर्णीत है, इसका निर्णय किसी दूसरे लेख में किया जायगा। यहाँ पर तो इसमें दी हुई काल-गणना
और मुख्य मुख्य अन्य घटनाओं का दिग्दर्शन कराना ही पर्याप्त होगा।
थेरावली की विशेष वाते थेरावली की प्रथम गाथा में भगवान महावीर और उनके मुख्य शिष्य इंद्रभूति गौतम को नमस्कार किया गया है और बाद में १० गाथाओं में प्रसिद्ध स्थविरावलियों के क्रम से सुधर्मा, जंबू, प्रभव, शय्यं भव, यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु, स्थूलभद्र, आर्य महागिरि,
१ राजा खारवेल का वंश-इसके बाप दादों के नाम, इसके पुत्र वक्रराय और पौत्र विदुहराय के नाम इत्यादि अनेक बातों का पता शिलालेखों से मिलता है, इसकी चर्चा उन स्थलों के टिप्पणों में यथास्थान की जायगी।
२ रत्नप्रभसूरि द्वारा उपकेश वंश की स्थापना का उल्लेख, विक्रमार्क और गर्दभिल्ल संबंधी घटना, दो तीन जगह विक्रम सवती के प्रकार वगैरह ऐसी बातें हैं जो इस थेरावली की आर्य हिमवत् केन्द्रकान में संशय उत्पन्न करती हैं।
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जैन काल-गणना
प्रार्य सुस्ती और सुस्थित- सुप्रतिबुद्ध-- इन स्थविरों
की वंदना की है ।
प्रारंभ की मूल गाथा इस प्रकार है
Pe
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गाथा ७वीं में भद्रबाहु सूत्रनिर्युक्तिकार लिखा है ।
1
"नंमिण वद्धमाणं, तित्थयरं तं परं पयं पत्तं । इंद्रभू गणनाहं, कहेमि थेरावलिं कमसेो ॥ १ ॥” गाथा ६ठी में एक महत्त्वपूर्ण बात की सूचना है। स्थविर यशोभद्र के वर्णन में लिखा है कि उनके समय में प्रतिलोभी आठवाँ नंद मगध का राजा था। देखा निम्नलिखित गाथा
"जसमद्दो मुणि पवरो, तप्पय सोहंकरो परो जायो । अटुमणंदा मगद्दे, रज्जं कुइ तथा इलाही || ६ |
भद्र का स्वर्गवास इस थेरावली में तथा दूसरी सब पट्टावलियों में वीर निर्वाण से १४८ वर्ष बीतने पर होना लिखा है । इसी समय की सूचना आठवें नंद के होने की इस गाथा में की है । इस थेरावली में प्रागे जो निर्वाण से १५४ के बाद चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण लिखा है तथा आचार्य हेमचंद्र ने परिशिष्ट पर्व में निर्वाण से १५५ वें वर्ष में चंद्रगुप्त का जो राजा होना लिखा है उसका इस उल्लेख से समर्थन होता है ।
को अंतिम चतुर्दशपूर्वी और
७७
गाथावों में प्रार्य महागिरि को जिनकल्पी और सुस्ती को स्थविरकल्पी लिखा है ।
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गाथा १०वीं में आर्य सुहस्ती के शिष्य युगल सुस्थित सुप्रतिबुद्ध का वर्णन है; इसमें इन दोनों स्थविरों को कलिंगाधिप- भिक्षुराज- सम्मानित लिखा है । देखा आगे की गाथा
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नागरीप्रचारिणी पत्रिका "सुद्विय सुपडिबुद्धे, प्रज्जे दुन्ने वि ते नमसामि । भिक्खुराय-कलिंगा-हिवेण सम्माणिए जिढें ॥ १०॥"
इसके बाद इन्हीं गाथाओं में वर्णित प्राचार्यों की पट्ट-परंपरा का गद्य में वर्णन किया है, और कौन प्राचार्य निर्वाण पीछे कितने वर्षों के बाद स्वर्गप्राप्त हुए इसका स्पष्ट निर्देश किया गया है। इन संवत्सरों का उल्लेख हम आगे घटनावली में करेंगे। ___ यहाँ पर भद्रबाहु के स्वर्गवास के संबंध में एक नई बात देखने में आई है। श्रुतकेवली भद्रबाहु का स्वर्गवास किस स्थान पर हुआ, इसका वृत्तांत मेरुतुंगीय अंचलगच्छ पहावली के अतिरिक्त किसी श्वेतांबर जैन ग्रंथ में मेरे देखने में नहीं पाया था। दिगंबर जैन साहित्य में भी इस बात का निर्णय नहीं है। बहुतेरे दिगंबर लेखक इनका स्वर्गवास मैसूर राज्य के हासन जिले में श्रवणबेलगोल के पास चंद्रगिरि नामक पहाड़ो पर हुआ बताते हैं, पर अन्य कतिपय ग्रंथकार इनका स्वर्गवास अवंति (मालवा) में हुआ ऐसा प्रतिपादन करते हैं; किंतु हमें इन उल्लेखां पर कोई विश्वास नहीं है; क्योंकि ये उल्लेख वराहमिहिर के भाई द्वितीय भद्रबाहु को श्रुतकेवली समझकर किए गए हैं, जैसा कि मूल लेख में प्रतिपादित किया गया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु का स्वर्गवास किस स्थान पर हुमा, इसका वृत्तांत पूर्वोक्त पट्टावली के सिवा कहीं भी नहीं मिलने से हम सशंक थे, पर इस थेरावली में इस विषय का स्पष्ट उल्लेख मिल जाने से इस संबंध में अब हमें कोई शंका नहीं रही। इस थेरावली के लेखानुसार भी श्रुतकेवली भद्रबाहु कलिंग देश में कुमार पर्वत पर (आजकल का 'खंडगिरि' जो विक्रम की १०वीं
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जैन काल-गणना तथा ११वीं शताब्दो तक कुमार पर्वत कहलाता था ) ही स्वर्गवासी हुए थे।
थेरावली का शब्दानुवाद इस प्रकार है
"अंतिम चतुर्दश पूर्वधर स्थविर श्री प्रार्य भद्रबाहु भी शकटाल मंत्री के पुत्र प्रार्य श्रीस्थूलभद्र को अपने पट्ट पर स्थापित करके श्रीमहावीर प्रभु के बाद १७० वर्ष व्यतीत होने पर पंद्रह दिन का निर्जल अनशन कर कलिंग देश के कुमार नामक पर्वत पर प्रतिमा ( ध्यान ) धारी होकर स्वर्गवासी हुए।" ___ इसके बाद प्रार्य स्थूलभद्र, महागिरि और सहस्ती का जिक्र है। आर्य महागिरि की प्रशंसा में “वुच्छिन्ने जिणकप्पे०" तथा "जिणकप्पपरीकम्म" ये दो प्रसिद्ध गाथाए दी हैं, जिनमें दूसरी गाथा के तृतीय चरण में कुछ पाठांतर है। टीकाओं और दूसरी पट्टावलियों में इसका तृतीय चरण "सिट्ठिघरम्मि सुहत्थी" इस प्रकार है, तब यहाँ पर "कुमरगिरिम्मि सुहस्थी,'' यह पाठ है। चूर्णियों में जो आर्य महागिरि का वृत्तांत मिलता है उससे तो प्रथम प्रसिद्ध पाठ ही ठीक ऊँचता है, पर यहाँ तो साफ लिखा है कि प्रार्य सुहस्ती ने कुमार पर्वत पर भार्य महागिरि की स्तुति की थी, इसलिये यह भी एक स्पष्ट मतभेद ही समझना चाहिए।
मगध के राजवंश आर्य महागिरि और सुहस्ती का प्रसंग छोड़कर मागे बिंबिसार (श्रेणिक) और अजातशत्रु ( कोणिक ) तथा उदायी, नवनंद और मौर्य राज्य-संबंधी कतिपय
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नागरीप्रचारिणी पत्रिका घटनाओं का गद्य में वर्णन दिया है जो अवश्य दर्शनीय होने से हम उसका शब्दानुवाद नीचे देते हैं
"उस काल और समय में, जब कि श्रमण भगवान् महावीर विचरते थे, राजगृह नगर मे बिंबिसार उपनाम श्रेणिक राजा भगवान महावीर का श्रेष्ठ अमयोपासक था, पावनाथ आदि के चरण युगलों से पवित्रित तथा साधु-साध्वियों से सेवित कलिंग देश के भूषण समान और तीर्थ-स्वरूप कुमार कुमारी नामक दोनो पर्वत पर उस श्रेणिक राजा ने भगवान् ऋषभस्वामी तीर्थकर का अति मनोहर प्रासाद बनवाया और उसमें श्री ऋषभदेव प्रभु की सुवर्णमयी प्रतिमा सुधर्मस्वामि द्वारा प्रतिष्ठित कराकर स्थापित की थी। इसके अतिरिक्त श्रेणिक ने उन दोनों पर्वतों में निर्मथ निग्रंथियों के चातुर्मास्य में रहने योग्य अनेक गुफाएँ खुदवाई थीं, जिनमें अनेक निग्रंथ और निग्रंथियाँ धर्म, जागरण, ध्यान, शास्त्राध्ययन और विविध तपस्या के साथ स्थिरतापूर्वक चातुर्मास्य करते हैं।
श्रेणिक का पुत्र अजातशत्र अपर नाम काणिक हुआ जिसने अपने बाप को पिंजड़े में कैदकर चंपा को मगध की राजधानी बनाया। काणिक भी श्रेणिक की भाँति जैनधर्म का अनुयायी उत्कृष्ट श्रावक था। उसने भी कलिंग देश के कुमार तथा कुमारी पर्वत पर अपने नाम से अंकित पाँच गुफाएँ खुदवाई। पर पिछले समय में काणिक ने अति लोभ और अभिमान में आकर चक्रवर्ती बनने की इच्छा की, जिसके परिणाम स्वरूप उसे कृतमाल देव ने मार डाला। ___ भगवान महावीर के निर्वाण से ७० वर्ष के बाद पार्श्वनाथ की परंपरा के ६ठे पट्टधर प्राचार्य रत्नप्रभ
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जैन काल-गणना
८१
ने उपकेश नगर में १८०००० क्षत्रिय - पुत्रों को उपदेश देकर जैनधर्मी बनाया, वहाँ से उपकेश नामक वंश चला ।
भगवान् महावीर के निर्माण के बाद ३१ वर्ष बीतने पर काणिक पुत्र उदायी ने पाटलिपुत्र नगर बसाया और उसे मगध की राजधानी बनाकर वह राज्य का कारोबार वहाँ ले गया ।
उस समय में उदायो को दृढ़ जैन श्रावक जानकर साधु-वेशधारी किसी दुश्मन ने धर्मकथा सुनाने के बहाने एकांत में ले जाकर मार डाला ।
प्रभु महावीर के निर्वाण के अनंतर ६० वर्ष व्यतीत होने पर नंद नाम के नापितपुत्र को मंत्रियों ने पाटलिपुत्र नगर में राज्यासन पर बिठाया । उसके वंश में क्रमश: जंद नामक नव राजा हुए। उनमें का आठवाँ नंद अत्यंत लोभी था । मिध्यात्व से अंधे बने हुए उस नंद ने विरोचन नामक अपने ब्राह्मण मंत्री की प्रेरणा से कलिंग देश का नाश किया और तीर्थस्वरूप पर्वत पर कुमार श्रेणिक राजा के बनवाए हुए ऋषभदेव प्रासाद का नाश कर वह उसमें से ऋषभदेव की सुवर्णमयी प्रतिमा को उठाकर पाटलिपुत्र में ले गया ।
महावीर - निर्वाण से १५४ वर्ष बीतने के बाद चाणक्य से प्रेरित मौर्यपुत्र चंद्रगुप्त नवें नंद राजा को पाटतिपुत्र से निकालकर मगध का राजा हुआ। चंद्रगुप्त पहले जैन श्रम का द्वेषी बौद्ध धर्मी था पर पीछे से चाणक्य के समझाने पर वह जैन धर्म कः दृढ़ श्रद्धावान् श्रावक हो गया था ।
११
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नागरीप्रचारिणी पत्रिका ___ अति पराक्रमी चंद्रगुप्त ने सिलीकस नामक यव । राजा के साथ मित्रता करके अपने राज्य का विस्तार किया और अपने राज्य में मौर्य संवत्सर स्थापित किया।
भगवान महावीर से १८४ वर्ष व्यतीत होने पर चंद्रगुप्त का स्वर्गवास हुआ और उसका पुत्र बिंदुसार पाटलिपुत्र के राज्यासन पर बैठा। बिंदुसार भी जैनधर्म का पाराधक परम श्रावक था। उसने २५ वर्ष तक राज्य किया और वोर निर्वाण से २० वर्ष के बाद वह धर्मी राजा स्वर्गवासी हुआ।
निर्वाण से २०६ वर्ष के अंत में बिंदुसार का पुत्र अशोक पाटलिपुत्र के राज्यासन पर बैठा। अशोक पहले जैनधर्म का अनुयायी था, पर राज्यप्राप्ति से ४ वर्ष के बाद उसने बौद्धधर्म का पक्ष किया, और अपना नाम "प्रियदर्शी', २ रखकर वह बौद्ध धर्म की आराधना में तत्पर हुआ ।
अशोक बड़ा पराक्रमी राजा था। उसने अपने अतुल पराक्रम से पृथिवी मंडल को जीतकर कलिंग, महाराष्ट्र, सौराष्ट आदि देशों को अपने अधीन किया और वहाँ बौद्ध धर्म का विस्तार करके अनेक बौद्ध विहारों की स्थापना की; पश्चिम पर्वत तथा विंध्याचल आदि में चौद्ध श्रमण
(१) महावंश आदि बौद्ध ग्रंथों से भी इस बात की पुष्टि होती है । वहाँ लिखा है कि ३ वर्ष तक अशोक अन्यान्य दर्शनों को मानता रहा और पीछे से वह बौद्धधर्मो हो गया।
(२) अशोक के प्रसिद्ध शिलालेखों में सर्वत्र इस "प्रियदर्शी" नाम का ही व्यवहार किया गया है। केवल 'मस्की' के एक शिलालेख में "देवानंपियस असोकस" इस प्रकार 'अशोक' नाम का व्यवहार किया गया है।
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जैन काल-गणना श्रमणियों को चातुर्मास्य में रहने के लिये अनेक गुफाएँ खुदवाई
और विविध प्रासनेवाली बुद्ध की मूर्तियाँ उनमें स्थापित की। गिरनार आदि अनेक स्थानों में अशोक ने अपने नाम से अंकित प्राज्ञालेख स्तूप तथा खडकों पर खुदवाए; सिंहल द्वीप, चीन, तथा ब्रह्मदेश आदि द्वीपों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के विचार से पाटलिपुत्र में बौद्ध अमर्णा की सभा की और उस सभा की सम्मति के अनुसार राजा अशोक ने अनेक बौद्ध श्रमणों को वहाँ ( सिंहलादि द्वीपों में ) भेजा। अशोक जैनधर्म के निम्रब-निग्रंथियों का भी सम्मान करता, पर उनका द्वेष कभी नहीं करता था।
अशोक के अनेक पुत्र थे। उनमें कुणाल नामक पुत्र राज्य के योग्य था। वह भावी राजा होने की संभावना से अपनी सौतेली माताओं की आँखों का काँटा था, इसलिये अशोक ने उसको अपने मंत्रियों के साथ उज्जयिनी नगरी में रखा, पर वहाँ पर भी सौतेली माँ के षड्यंत्र से कुणाल अंधा हो गया। यह वृत्तांत सुनकर अशोक बहुत क्रुद्ध हुआ और उसने उस प्रपंची रानी तथा कतिपय नालायक राजकुँवरों को मरवा डाला और पीछे से कुणाल के पुत्र संग्रति को अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाया। महावीर-निर्वाण से २४४ वर्ष के बाद अशोक परलोकवासी हुआ।
संप्रति पाटलिपुत्र में राज्याभिषिक्त हुमा, पर वहाँ रहने में अपने विरोधियों की ओर से शंकित होकर उसने राजधानी पाटलिपुत्र का त्याग किया और अपने बाप को जागीर में मिली हुई उज्जयिनी में जाकर वह सुखपूर्वक राज्य करने लगा।
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८४
नागरीप्रचारिणी पत्रिका - इसके बाद थेरावस्तीकार ने संप्रति का पूर्वभव संबंधी वृत्तांत और प्रार्य सुहस्ती द्वारा उसके जैन धर्म स्वीकार करने का हाल लिखा है, जो अति प्रसिद्ध होने से यहाँ नहीं लिखा जाता है। संति ने जैनधर्म के प्रचारार्थ जो काम किया उसका वर्णन थेरावली के ही शब्दों में नीचे दिया जाता है
"प्राचार्यजी (प्रार्य सुहस्ती जी) ने कहा-हे राजन् ! अब तुम प्रभावनापूर्वक फिर जैन धर्म का पाराधन करो जिससे भविष्य में वह तुम्हें स्वर्ग और मोक्ष देने में समर्थ हो।
प्राचार्य का उपदेश सुनकर राजा ने उज्जयिनी में साधु-साध्वियों की बृहत् सभा की और अपने राज्य में जैन धर्म का प्रचार करने के निमित्त अनेक गाँव नगरों में उपदेशक साधुओं को विहार करवाया; यही नहीं, अनार्य देशों में भी उसने जैनधर्म का प्रचार करवाया और अनेक जिन मंदिर तथा प्रतिमाओं से पृथिवी को अलंकृत कर दिया।
महावीर-निर्वाण से २६३ वर्ष पूरे हुए तब जैन धर्म का परम उपासक राजा संप्रति स्वर्गवासी हुआ।
महावीर-निर्वाण से २४६ वर्षों के बाद अशोक का पुत्र पुण्यरथ पाटलिपुत्र का राजा हुआ।' यह राजा बौद्ध धर्म का प्राराधक था।
(१) यह पुण्यरथ और पुराणों का दशरथ एक ही व्यक्ति है। दशरथ के नाम के तीन शिलालेख खलतिक पर्वत पर आजीविक साधुओं को गुफाओं का दान करने के संबंध में लिखे हुए मिले हैं उनसे भी यह मालूम होता है कि प्रियदर्शि ( अशोक ) के बाद पाटलिपुत्र में दशरथ का राज्याभिषेक हुआ था । (देखो आगे का लेख ।)
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जैन काल-गणना
८५
राजा पुण्यरथ महावीर निर्वाण से २८० व के बाद अपने पुत्र वृद्धरथ' को राज्य देकर परलोकवासी हुआ ।
बौद्ध धर्म के अनुयायी राजा वृद्धरथ को मारकर उसका सेनापति पुष्यमित्र महावीर निर्वाण से ३०४ वर्ष के बाद पाटलिपुत्र के राज्यासन पर बैठा । "
राजा खारवेल और उसका वंश
पाटलिपुत्रीय मौर्य राज्य शाखा को पुष्यमित्र तक पहुँचाने के बाद थेरावलीकार ने कलिंग देश के राजवंश का वर्णन दिया है। हाथीगुंफा के लेख से कलिंग चक्रवर्ती खारवेल का तो थोड़ा बहुत परिचय विद्वानों को अवश्य है, पर उसके वंश और उसकी संतति के विषय में अभी तक कुछ भी प्रामाणिक निर्णय नहीं हुआ था। हाथीगुंफा के लेख के " चेतवसवधनस" इस उल्लेख से कोई कोई विद्वान् खारवेल को "चैत्रवंशीय" समझते थे, तब कोई उसे " चे दिवंश" का राजा कहते थे । हमारे प्रस्तुत थेरावलीकार ने इस विषय को बिलकुल स्पष्ट कर दिया है। येरावली के लेखानुसार खारवेल न तो चैत्रदश्य था और न चेदिवंश्यः वह तो "चेटवंश्य " था; क्योंकि वह वैशाली के प्रसिद्ध राजा चेटक के पुत्र कलिंगराज शोभनराय की वंश परंपरा में जन्मा था ।
अजातशत्रु के साथ की लड़ाई में चेटक के मरने पर उस का पुत्र शोभनराय वहाँ से भागकर किस प्रकार
"हियका कुभा दषलयेन देवानं प्रियेनानंतलियं श्रभिषितेना [ श्राजीवकेहि ] भदंतेहि वाष निषिदियाये निषिवे" ।
( प्रियदर्शि प्रशस्तयः, टिप्पण विभाग, पृष्ठ ३८ ) ( १ ) पुराणों में इसका नाम "बृहद्रथ" मिलता है ।
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८६
नागरीप्रचारिणी पत्रिका
व लिंगराज के पास गया और कलिंग का राजा हुआ इत्यादि वृत्तांत थेरावली के शब्दों में ही नीचे लिख देते हैं । विद्वान लोग देखेंगे कि कैसी अपूर्व घटना है ।
"वैशाली का राजा चटक तीर्थंकर महावीर का उत्कृष्ट श्रमणोपासक था। चंपा नगरी का अधिपति राजा काणिक, जो कि चटक का भानजा था, (अन्य श्वेतांबर जैन संप्रदाय के ग्रंथों में काणिक को चटक का दोहिता लिखा
) वैशाली पर चढ़ आया और उसने लड़ाई में चटक को हरा दिया । लड़ाई में हारने के बाद अन्न-जल का त्याग कर राजा चेटक स्वर्गवासी हुआ। चेंटक का शोभनराय नाम का एक पुत्र वहाँ से ( वैशाली नगरी से ) भागकर अपने वर कलिंगाधिपति सुलोचन की शरण में गया । सुलोचन के पुत्र नहीं था इसलिये अपने दामाद शोभनराय को कलिंग देश का राज्यासन देकर वह परलोकवासी हुआ ।
भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद १८ वर्ष बीतने पर शोभनाय का कलिंग की राजधानी कनकपुर में राज्याभिषेक हुआ । शोभनराय जैन धर्म का उपासक था। वह कलिंग देश में तीर्थस्वरूप कुमार पर्वत पर यात्रा करके उत्कृष्ट श्रावक बन गया ।
शोभनराय के वंश में पाँचवीं पीढ़ो में चंडराय नामक राजा हुआ जो महावीर के निर्वाण से १४८ वर्ष परलिंग के राज्यासन पर बैठा था ।
चंडराय के समय में पाटलिपुत्र नगर में आठवाँ नंद राजा राज्य करता था, जो मिथ्याधर्मी और प्रति लोभी था। वह कलिंग देश को नष्ट भ्रष्ट करके तीर्थ स्वरूप
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जैन काल-गणना कुमारगिरि पर नेणिक के बनवाए हुए जिन-मंदिर को तोड़ उसमें रखी हुई ऋषभदेव की सुवर्णमयी प्रतिमा को उठाकर पाटलिपुत्र में ले पाया। इसके बाद शोभनराय की ८वीं पीढ़ी में क्षेमराज' नामक कलिंग का राजा हुआ। वीर निर्वाण के बाद जा २२७ वर्ष पूरे हुए तब कलिग के राज्यासन पर क्षेमराज का अभिषेक हुआ और निर्वाण से २३६ वर्ष बीतने पर मगधाधिपति अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई की' और वहाँ के राजा क्षेमराज को अपनी आज्ञा मनाकर वहाँ पर उसने अपना गुप्त संवत्सर चलाया।
(७) हाथीगुफावाले खारवेल के शिलालेख में भी पंक्ति १६ वीं में “ खेमराजा स" इस प्रकार खारवेल के पूर्वज के तौर से क्षेमराज का नामोल्लेख किया है।
(२) कलिंग पर चढ़ाई करने का जिक्र अशोक के शिलालेख में भी है। पर वहां पर अशोक के राज्याभिषेक के आठवे वर्ष के बाद कलिंग विजय का उल्लेख है। राज्यप्राप्ति के बाद ३ अथवा ४ वर्ष पीछे अशोक का राज्याभिषेक हुअा मान लेने पर कलिंग का युद्ध अशोक के राज्य के १२-१३ वें वर्ष में आयगा । थेरावली में अशोक की राज्यप्राप्ति निर्वाण से २०६ वर्ष के बाद लिखी है। अर्थात् २१० में इसे राज्याधिकार मिला और २३६ में उसने कलिंग विजय किया। इस हिसाब से कलिंग विजयवाली घटना अशोक के राज्य के ३० वे वर्ष के अंत में प्राती है, जो कि शिलालेख से मेल नहीं खाती।
(३) अशोक के गुप्त संवत्सर चलाने की बात ठीक नहीं जंचती। मालूम होता है, थेरावली-लेखक ने अपने समय में प्रचलित गुप्त राजाओं के चलाए गुप्त संवत् को अशोक का चलाया हुआ मान लेने का धोखा खाया है। इसी उल्लेख से इसकी अति प्राचीनता के संबंध में भी शंका उत्पन्न होती है।
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नागरीप्रचारिणी पत्रिका महावीर-निर्वाण से २७५ वर्ष के बाद क्षेमराज का पुत्र वुड्ढराज' कलिंग देश का राजा हुअा। वुड्ढराज जैनधर्म का परम उपासक था। उसने कुभारगिरि और कुमारीगिरि नामक दो पर्व पर श्रमण और निर्गथियो के चातुर्मास्य करने योग्य ११ गुफाएँ खुदवाई थी। ___ भगवान महावीर के निर्वाण को जब ३०० वर्ष पूरे हुए तब वुड्ढराय का पुत्र भिक्खुराय कलिंग का राजा हुआ।
भिक्खुराय के नीचे लिखे अनुसार तीन नाम कहे जाते हैं
निग्रंथ भिक्षुओं की भक्ति करनेवाला होने से उसका एक नाम "भिक्खुराय" था। पूर्वपरंपरागत "महामेघ' नामक हाथो उसका वाहन होने से उसका दूसरा नाम "महामेघः वाहन" था। उसकी राजधानी समुद्र के किनारे पर होने से उसका तीसरा नाम "खारवेलाधिपति" था।'
भिक्षुराज अतिशय पराक्रमी और अपनी हाथी आदि की सेना से पृथिवी-मंडल का विजेता था। उसने मगा देश के राजा पुष्यमित्र को पराजित करके अपनी प्राज्ञा मनवाई। पहले नंदराजा ऋषभदेव की जिस प्रतिमा को उठा ले गया था उसे वह पाटलिपुत्र
(१) 'वुडढराज' का भी खारवेल के हाथीगुफावाले लेख में "वुड्ढराजा स" इस प्रकार उल्लेख है।
(२) हाथीगुफा के लेख में भी भिनुराजा, महामेघवाहन और खारवेलसिरि इन तीनों नामों का प्रयोग खारवेल के लिये हुआ है।
(३) खारवेल के शिलालेख में भी मगध के राजा बृहस्पतिमित्र (पुष्यमित्र का पर्याय ) को जीतने का उल्लेख है।
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जेन काल-गणना नगर से वापिस अपनी राजधानी में ले गया और कुमारगिरि तीर्थ में श्रेणिक के बनवाए हुए जिन-मंदिर का पुनरुद्धार कराके आर्य सुहस्ती के शिष्य सुप्रतिबुद्ध नाम के स्थविरों के हाथ से उसे फिर प्रतिष्ठित कराकर उसमें स्थापित किया । ___ पहले जो बारह वर्ष तक दुष्काल पड़ा था उसमें पार्य महागिरि और आर्य सुहस्तीजी के अनेक शिष्य शुद्ध आहार न मिलने के कारण कुमारगिरि नामक तीर्थ में अनशन करके शरीर छोड़ चुके थे। उसी दुष्काल के प्रभाव से तीर्थकरो के गणधरो द्वारा प्ररूपित बहुतेरे सिद्धांत भी नष्टप्राय हो गए थे, यह जानकर भिक्खुराय ने जैन-सिद्धांतों का संग्रह और जैन धर्म का विस्तार करने के लिये संमति राजा की नाई श्रमण निग्रंथ तथा निषियों की एक सभा वहाँ कुमारी पर्वत नामक तीर्थ पर इकट्ठो की, जिसमें आर्य महागिरिजी की परंपरा के बलिस्सह, बोधिलिंग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य, प्रादिक दो सौ जिनकल्प की तुलना करनेवाले जिनकल्पी साधु, तथा आर्य सुस्थित, आर्य सुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति, श्यामाचाय प्रभृति तीन सौ स्थविरकल्पी निग्रंथ पाए । प्रार्या पाणी प्रादिक तीन सौ निग्रंथी साध्वियां भी वहाँ इकट्ठी हुई थीं। भिक्खुराय, सीवंद, चूर्णक,
(१) नंदराज द्वारा ले जाई गई जिन-मूति को कलिंग में वापिस ले जाने का हाथीगुफा में इस प्रकार स्पष्ट उल्लेख है___ "नंदराजनीतं च कालिंग जिनं संनिवेसं...गृह रतनान पडिहारे हि अंगमागध-वसुच नेयाति [1]"
(हाथीगुफा लेख पंक्ति १२, बिहार-श्रोरिसा जर्नल, वॉल्युम ४ भाग ४)।
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६०
नागरीप्रचारिणी पत्रिका सेलक आदि सात सौ श्रमणोपासक और भिक्खुराय की स्रो पूर्णमित्रा आदि सात सौ श्राविकाएँ, भी उस सभा में उपस्थित थीं।
पुत्र, पौत्र और रानियों के परिवार से सुशोभित भिक्खुराय ने सब निग्रंथों और निग्रंथियों को नमस्कार करके कहामहानुभावो ! अब आप वर्धमान तीर्थकर प्ररूपित जैन धर्म की उन्नति और विस्तार करने के लिये सर्व शक्ति से उद्यमवंत हो जायँ"।
भिक्खुराय के उपर्युक्त प्रस्ताव पर सर्व निर्मथ और निर्गथियों ने अपनी सम्मति प्रकट की और भिक्खुराय से पूजित सत्कृत और सम्मानित निग्रंथ और निग्रंथियाँ मगध, मथुरा, वंग प्रादि देशों में तीर्थकर-प्रयीत धर्म की उन्नति के लिये निकल पड़े। ____ उसके बाद भिक्खुराय ने कुमारगिरि और कुमारी. गिरि नामक पर्वत पर जिन प्रतिमाओं से शोभित अनेक गुफाएँ खुदवाई', वहाँ जिनकल्प की तुलना करनेवाले निग्रंथ वर्षाकाल में कुमारी पर्वत की गुफाओं में रहते और जो स्थविरकल्पी निग्रंथ होते वे कुमार पर्वत की गुफाओं में वर्षाकाल में रहते। इस प्रकार भिक्खुराय ने निग्रंथों के लिये विभिन्न व्यवस्था कर दी थी। ___ उपर्युक्त सर्व व्यवस्था से कृतार्थ हुए भिक्खुराय ने बलिस्सह, उमास्वाति, श्यामाचार्यादिक स्थविरों को नमस्कार करके जिनागमों में मुकुट-तुल्य दृष्टिवाद अंग का संग्रह करने के लिये प्रार्थना की।
भिक्खुराय की प्रेरणा से पूर्वोक्त स्थविर प्राचार्यों ने प्रवशिष्ट दृष्टिवाद को श्रमण-समुदाय से थोड़ा थोड़ा एकत्र
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जैन काल-गणना
१ कर भोजपत्र, ताड़पत्र और वल्कल पर अक्षरों से लिपिबद्ध करके भिक्खुराय का मनोरथ पूर्ण किया और इस प्रकार वे प्रार्य सुधर्म-रचित द्वादशांगी के संरक्षक हुए। ___ उसी प्रसंग पर श्यामाचार्य ने निग्रंथ साधु साध्वियों के सुख बोधार्थ ‘पन्नवणा सूत्र' की रचना की। __ स्थविर श्री उमास्वातिजी ने उसी उद्देश से नियुक्ति सहित 'तत्वार्थ सूत्र' की रचना की।
स्थविर आर्य बलिस्सह ने विद्याप्रवाद पूर्व में से 'अंगविद्या' आदि शारों की रचना की।
इस प्रकार जिनशासन की उन्नति करनेवाला भिक्खुराय अनेकविध धर्म कार्य करके महावीर-निर्वाण से ३३० वर्षों के बाद स्वर्गवासी हुमा।
भिक्खुराय के बाद उसका पुत्र वक्रराय कलिंग का अधिपति हुप्रा।
वक्रराय भी जैनधर्म का अनुयायी और उन्नति करने
(१) श्यामाचार्य कृत 'पनवणा सूत्र' अब तक विद्यमान है।
(२) उमास्वाति कृत 'तत्वार्थ सूत्र' और इसका स्वोपज्ञ भाष्य अभी तक विद्यमान है। यहाँ पर उल्लिखित 'नियुक्ति' शब्द संभवतः इस भाष्य के ही अर्थ में प्रयुक्त हुअा जान पड़ता है।
(३) अंगविद्या प्रकीर्णक भी हाल तक मौजूद है। कोई नौ हजार श्लोक प्रमाण का यह प्राकृत गद्य पद्य में लिखा हुआ 'सामुद्रिक विद्या' का ग्रंथ है।
(४) कलिंग देश के उदयगिरि पर्वत की मानिकपुर गुफा के एक द्वार पर खुदा हुआ वक्रदेव के नाम का शिलालेख मिला है जो इसी चक्रराय का है । लेख नीचे दिया जाता है
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१२
नागरीप्रचारिणी पत्रिका वाला था। धर्माराधन और समाधि के साथ यह वीर-निर्वाण से तीन सौ बासठ वर्ष के बाद स्वर्गवासी हुआ।
वक्रराय के बाद उसका पुत्र 'विदुहराय' कलिंगदेश का अधिपति हुमा ।
विदुहराय ने भी एकाग्र चित्त से जैन धर्म को पाराधना की। निग्रंथ समूह से प्रशंसित यह राजा महावीरनिर्वाण से तीन सौ पंचानबे वर्ष के बाद स्वर्गवासी हुआ ।"
उज्जयिनी की मौर्य राज्यशाखा महान् राजा अशोक के बाद मौर्य राज्य के दो हिस्से हो जाने का विद्वानों का अनुमान है, इस अनुमान का इस थेरावली से भी समर्थन होता है। भगा के राजवंशों के निरूपण में संप्रति के प्रसंग में कहा गया है कि संप्रति अपने विरोधियों के भय से पाटलिपुत्र को छोड़कर उज्जयिनी में चला गया था। उसी प्रसंग में यह भी कहा गया है कि निर्वाण से २४४ वर्षों के ऊपर अशोक का स्वर्गवास हुआ था और २४६ में पुण्यरथ (पुराणों का दशरथ) पाटलिपुत्र के राज्यासन पर बैठा था। इसका अर्थ यह है कि अशोक के बाद संप्रति पाटलिपुत्र का राजा
"वेरस महाराजस कलिंगाधिपतिना महामेधवाहन वक्रदेव सिरिना लेणं" । (जिनविजय संपादित प्राचीन जैन लेखसंग्रह पृ० ४६ ।)
(१) उदयगिरि की मंचपुरीगुफा के सातवें कमरे में विदुराय के नाम का एक छोटा लेख है । उसमें लिखा है कि यह लयन [ गुफा] 'कुमार विदुराय' की है। लेख के मूल शब्द नीचे दिए जाते हैं-- "कुमार वदुरवस लेन"
(एपिग्राफिका इंडिका जिल्द १३ )
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८३
जैन काल-गणना हुआ था पर विरोधियों से तंग आकर दो वर्ष के बाद उसके उज्जयिनी में चले जाने पर पाटलिपुत्र का सिंहासन पुण्यरथ (दशरथ) को मिला था।
संप्रति के स्वर्गवास पर्यत का वृत्तांत पहले दिया जा चुका है, इसलिये यहाँ पर संप्रति के बाद के मौर्य राजाओं का जिक्र थेरावली के ही शब्दों में दिया जाता है___"उज्जयिनी के राजा संप्रति के कोई पुत्र नहीं था इसलिये उसके मरने पर वहाँ का राज्यासन अशोक के पुत्र तिष्यगुप्त के पुत्र बलमित्र और भानुमित्र नामक राजकुमारों को मिला।
ये दोनों भाई जैन धर्म के उपासक थे। ये वीर-निर्वाण से २६४ वर्ष के बाद उज्जयिनी के राज्य पर बैठे और निर्वाण से ३५४ व के बाद स्वर्गवासी हुए। ___ इसके बाद बलमित्र का पुत्र नभोवाहन उज्जयिनी में राज्याभिषिक्त हुश्रा। नभोवाहन भी जैनधर्मी था। वह निर्वाण से तीन सौ चौरानबे वर्ष के बाद स्वर्गवासी हुआ।
उसके बाद नावाहन का पुत्र गर्दभिल्ल--जो गर्दभी विद्या जाननेवाला था--उज्जयिनी के राज्यासन पर बैठा।"
इसी प्रसंग में कालकाचार्य का वृत्तांत, उनकी बहन सरस्वती साध्वी का गर्दभिल्ल द्वारा अपहार और लड़ाई करके साध्वी को छुड़ाने आदि का वृत्तांत दिया हुआ है जो प्रति प्रसिद्ध होने से यहाँ पर नहीं लिखा जाता है। हाँ, यहाँ पर एक बात विशेष है, सब चूर्णियों और कालक
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६४
नागरीप्रचारिणी पत्रिका कथाओं में यह लिखा गया है कि कालक ने 'पारिसकुल में जाकर वहाँ के साहि अथवा शाखि नामधारी १६ राजा को हिंदुस्तान में लाकर गर्दभिल्ल के ऊपर चढ़ाई करवाई', तब इसमें इस प्रसंग में इतना ही कहा है कि 'सिंधु देश में सामंत नामक शक राजा राज्य करता था, उसके पास कालक गए और उसे उज्जयिनी पर चढ़ा लाए।' इस लड़ाई में गर्दभिल्ल मारा जाता है, उज्जयिनी पर शक राजा अधिकार करता है और सरस्वती को फिर दीक्षा देकर कालक भरोच की तरफ विहार करते हैं। कालांतर में गर्दभिल्ल का पुत्र विक्रमादित्य शक राजा को जीत कर उज्जयिनी का राज्य अपने हाथ में कर लेता है, यह बात थेरावली के शब्दों में नीचे लिखी जाती है। ___ "उसके बाद गर्दभिल्ल का पुत्र विक्रमार्क शक राजा को जीतकर महावीर-निर्वाण से चार सौ दस वर्ष बीतने पर उज्जयिनी के राज्यासन पर बैठा।।
विक्रमार्क प्रति पराक्रमी, जैनधर्म का प्राराधक और परोपकारनिष्ठ होने से प्रत्यंत लोकप्रिय हो गया।" ___ यहाँ पर विक्रमार्क-राज्यारंभ वीर-निर्वाण संवत् ४१० के अंत में लिखा है और मेरुतुंग की विचार-श्रेणि प्रादि के अनुसार विक्रमादित्य ने ६० वर्ष तक राज्य किया था, इस हिसाब से विक्रमादित्य का मरण निर्वाण से ४७० वर्ष के बाद हुआ। प्राचार्य देवसेन, अमितगति आदि जो विक्रम मृत्युसंवत् का उल्लेख करते हैं उसका खुलासा इस लेख से स्वय हो जाता है। वीर और विक्रम का अंतर ती ४७० वर्ष का ही है पर प्रस्तुत परंपरा के अनुसार
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जैन काल-गणना यह अंतर महावीर के निर्वाण और विक्रम के मरण का है, तब अन्य गणना-परंपरानों में यह अंतर वीर-निर्वाण और विक्रम-राज्यारोहण का अथवा विक्रम संवत्सर-प्रवृत्ति का माना गया है।
प्रस्तुत थेरावली की गणना के अनुसार महावीर-निर्वाण से विक्रम-राज्यारंभ तक के ४१० वर्षों का हिसाब नीचे के विवरण से ज्ञात होगा।
निर्वाण के बाद कोणिक तथा उदाथी' नवनंद चंद्रगुप्त बिंदुसार अशोक संप्रति
बलमित्र-भानुमित्र नभोवाहन
तथा शक
(१) तित्थोगाली पइन्नय की गणना में ६० वर्ष पालक के लिये हैं, पर इसमें पालक का कहीं भी नाम-निर्देश नहीं है।
(२) संप्रति २६३ के बाद स्वर्ग गया और २६४ के बाद बलमित्र भानुमित्र राजा हुए। इससे मालूम होता है, बीच में १ वर्ष तक कोई राजा नहीं रहा होगा-अराजकता रही होगी।
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नागरीप्रचारिणी पत्रिका विक्रमादित्य के राज्य प्रारंभ का उल्लेख करके थेरा. वलीकार ने राज-प्रकरण को छोड़ दिया है और आर्य महागिरि से लेकर आर्य स्कंदिल तक के स्थविरों का गाथाओं से वंदन किया है। ये गाथाएँ नंदी थेरावली की "एलावञ्चसगुत्तं' इस गाथा से लेकर "जेसि इमो अणुअोगो" यहाँ तक की गाथाओं से अभिन्न होगी, ऐसा इसके भाषांतर से ज्ञात होता है। ___ आगे इन्हीं गाथाओं का सार गद्य में दिया है जैसा कि नन्दीचूर्णिकार ने दिया है, इसलिए इसकी चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है। इसमें जो विशेष हकीकत है उसका वर्णन थेरावली के ही शब्दों में नीचे दिया जाता है। ___"आर्य रेवती नक्षत्र के आर्य सिंह नामक शिष्य हुए, जो ब्रह्मद्वीपक सिंह के नाम से प्रसिद्ध थे। स्थविर प्रार्य सिंह के दो शिष्य हुए---मधुमित्र और आर्य स्कंदिल । आर्य मधुमित्र के प्रार्य गंधहस्ती नामक बड़े प्रभावक और विद्वान् शिष्य हुए। पूर्व काल में महास्थविर उमास्वाति वाचक ने जो तत्त्वार्थसत्र नामक शास्त्र रचा था उस पर आर्य गंधहस्ती ने ८०००० श्लोक प्रमाणवाला महाभाष्य बनाया। इतना ही नहीं, स्थविर आर्य स्कंदिलजी के आग्रह से गंधहस्तीजी ने ग्यारह अंगों पर टीका रूप विवरण भी लिखे, इस विषय में प्राचारांग के विवरण के अंत में लिखा है कि___"मधुमित्र नामक स्थविर के शिष्य तीन पूर्वो के ज्ञाता मुनियों के समूह से वंदित, रागादि-दोष-रहित ॥ १॥ और ब्रह्मद्वीपिक शाखा के मुकुट समान प्राचार्य गंधहस्ती ने
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जैन काल-गणना विक्रमादित्य के बाद २०० वर्ष बीतने पर यह (पाचारांग का ) विवरण बनाया ।"
आर्य स्कंदिल थेरावली के अंत में आर्य स्कंदिल का वृत्तांत और उनके किए हुए सिद्धांतोद्धार का वर्णन दिया है, पाठकगण के अवलोकनार्थ यह वर्णन भी हम थेरावली के ही शब्दों में नीचे उद्धृत करते हैं
" अब प्रार्य स्कंदिलाचार्य का वृत्तांत इस प्रकार हैउत्तर मथुग में मेघरथ' नामक उत्कृष्ट श्रमणोपासक और जिनाज्ञा-प्रतिपालक ब्राह्मण था, उसके रूपसेना नाम की शीलवती की थी और सेमरथ नामक पुत्र था। ___ एक बार ब्रह्मद्वीपिका शाखा के प्राचार्य सिंह स्थविर विहार-क्रम से मथुरा में पधारे और उनके उपदेश से वैराग्य पाकर ब्राह्मण सेमरथ ने उनके पास दीक्षा ली।
उस अवसर में प्राधे भारतवर्ष में बारह वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ा जिसके प्रभाव से भिक्षा न मिलने के कारण कितने ही जैन निर्मथ वैभार पर्वत तथा कुमारगिरि आदि तीर्थो में अनशन करके स्वर्गवासी हो गए। उस समय जिनशासन के अाधारभूत पूर्व संगृहीत ग्यारह अंग नष्टप्राय हो गए। पोछे से दुष्काल का अंत होने पर विक्रम संवत् १५३ में स्थविर
आर्य स्कंदिल ने मथुरा में जैन निग्रंथों की सभा एकत्र की। सभा में स्थविरकल्पी मधुमित्राचार्य तथा आर्य गंधहस्ती
(१) प्राचीन जैन ग्रंथकार अाजकल की 'मथुरा' को उत्तर मथुरा कहते थे और दक्षिण देश की आधुनिक 'मदुरा' को दक्षिण मथुरा।
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६८
नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रभृति १२५ निग्रंथ एकत्र हुए। उस समय उन निग्रंथों के अवशेष मुख-पाठों ( कंठस्थ पाठों) को मिलाकर प्राचार्य गंधहस्ती आदि स्थविर की सम्मतिपूर्वक आर्य स्कंदिलजी ने ग्यारह अंगों की संकलना की और स्थविरप्रवर स्कंदिल की प्रेरणा से प्राचार्य गंधहस्ती ने भद्बाहु नियुक्ति के अनुसार उन ग्यारह अंगों पर विवरण की रचना की। तब से सर्व सूः भारतवर्ष में माथुरी वाचना के नाम से प्रसिद्ध हुए।
मथुरा - निवासी शिवालवंश - शिरोमणि श्रावक पालाक ने गंधहस्ती विवरण सहित उन सर्व सूत्रों को ताड़पत्र प्रादि में लिखवाकर पठन-पाठन के लिये निर्ग्रथों को अर्पण किया। इस प्रकार जैनशासन की उन्नति करके स्थविर प्रार्य स्कंदिल विक्रम संवत् २०२ में मथुरा में ही अनशन कर के स्वर्गवासी हुए।"
आर्य स्कंदिल के वृत्तांत के साथ ही इस थेरावली की समाप्ति होती है। इसमें जिन जिन विशेष बातों का वर्णन है उनका यथास्थान उल्लेख किया जा चुका है।
इस थेरावली में जो गणना-पद्धति दी है वह कहाँ तक टीक है, यह कहना कठिन है: हाँ, इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि यह पद्धति भी है प्राचीन। आचार्य देवसेनादि ने विक्रम मृत्यु संवत् का जो निर्देश किया है उसका बीज इसी गणनापद्धति में संनिहित है, यह पहले कहा जा चुका है।
हमने “वीर निर्वाण संवत् और जैन कालगणना" नामक निबंध में और उसके टिप्पण में जिन जिन बातों की चर्चा की है उनमें से कतिपय बातों का इस थेरावली से समर्थन होता
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जैन काल-गणना है और कतिपय का खंडन भी, तो भी जब तक इस थेरावली की मूल पुस्तक परीक्षा की कसौटी पर चढ़ाकर प्रामाणिक नहीं ठहराई जाती, इसके उल्लेखों से चितित विषय में रद्दो-बदल करना उचित नहीं है। वस्तुतः हमारी गाना से वीर निर्वाण संवत् विषयक जो मुख्य सिद्धांत स्थापित होता है उसका, यह गणना भी वीर और विक्रम का मृत्यु-अंतर ४७० वर्ष का बताकर समर्थन ही कर रही है। अस्तु ।
थेरावली में जो जो नई बातें दृष्टिगोचर हुई हैं उनकी सत्यता के विषय में हमें अधिक संशय करने की आवश्यकता नहीं है। इनमें से कतिपय घटनाओं का तो पुराने से पुराने शिलालेखों और ग्रंथों से भी समर्थन होता है। श्रेणिक
और काणिक के जैन होने की बात जैनसूत्रों में प्रसिद्ध है, इनके द्वारा कलिंग के तीर्थरूप पर्वत पर जिन-प्रासाद और स्तूपों का बनना काई आश्चर्य का विषय नहीं है। नंद राजा द्वारा कालिग से जिन-प्रतिमा का पाटलिपुत्र में ले जाना और वहाँ से खारवेल द्वारा उसका फिर कलिंग में ले पाना खारवेल के लेख से ही सिद्ध हे। कुमारी पर्वत पर खारवेल के कराए हुए धार्मिक कार्य तथा अंग सूत्रों के
(१) खारवेल के, अपन राज्य के तेरहवें वर्ष में, कुमारी पर्वत ( उदयगिरि ) की निपद्याओं (स्तूपों) में रहनेवालों के लिये राज्य की क से आप बांधने के संबंध में इस प्रकार उल्लेख है ---
"तेरसमे च बसे लुपवत विजयित्र कुमारी परते अहितेय ॥ ५-खिमत्र्यसंताहि कारयनिसीदीवाय यापजावकेहि राजभितिनि चिनवतानि वो सासितानि वो सासितानि [] पूजनि कत-उवासा खारवेल सिरिना जीवदेवसिरिकल्पं राखिता [1]" (बि. श्रो० ५० पु० ४ भा०४)
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१०० नागरीप्रचारिणी पत्रिका उद्धार का उल्लेख भी खारवेल के ही लेख में पाया जाता है । खारवेल के पुत्र वक्रराय और पौत्र विदुहराय के नाम भी कलिंग के उदयगिरि पर्वत की गुफा में पाए गए हैं और खारवेल के आदि-पुरुष चेटक का नाम भी उसके लेख के प्रारंभ में दृष्टिगत हो रहा है।
मौर्यराज्य की दो शाखा होने के संबंध में पुरातत्त्वज्ञों ने पहले ही अनुमान कर लिया था, जिसको थेरावली के लेख से समर्थन मिला है। स्कंदिलाचार्य के सिद्धांतोद्धार का उल्लेख नंदीचूर्णि प्रादि अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलता ही है, गंधहस्ती के सूत्र विवरणों के अस्तित्व का साक्ष्य शीलांक की प्राचारांग टीका दे रही है और उनकी तत्त्वार्थ-भाष्य रचना के विषय में भी अनेक मध्यकालीन
(१) हाथीगुफा लेख की १६वीं पंक्ति में अंगों का उद्धार करने के संबंध में उल्लेख है, ऐसा विद्यावारिधि के० पी० जायसवालजी का मत है। अापके वाचनानुसार वह उल्लेख इस प्रकार है
"मुरियकालवोछिनं च चोयटि-अंग-सतिकं तुरियं उपदियति [I]'' अर्थात् मार्यकाल में विच्छेद हुए चोसहि ( चौसठ अध्यायवाले ) अंगसप्तिक का चौथा भाग फिर से तैयार करवाया ।
पर मैं इस स्थल को इस प्रकार पढ़ता हूँ
"मुरियकाले वोछि ने च चोयटिअग-सतिके तुरियं उपादयति []" अर्थात् मौर्यकाल के १६४ वर्ष के बीतने पर तुरंत (खारवेल ने) उपयुक्त कार्य किया।
(२) गंधहस्तिकृत सूत्रविवरण अब किसी जगह नहीं मिलते, संभवतः वे सदा के लिये लुप्त हो गए हैं, पर ये विवरण किसी समय विद्वद्भोग्य साहित्य में गिने जाते थे इसमें कोई संदेह नहीं है । विक्रम की दशवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की कृति प्राचारांग टीका में उसके कर्ता शीलाचार्य गंधहस्तिकृत विवरण का उल्लेख इस प्रकार करते हैं
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१०१
जैन काल-गणना ग्रंथकारों ने उल्लेख किए हैं। इसलिये इस थेरावली में वर्णित खास घटनाओं की सत्यता के संबंध में शंका करने का हमें कोई अवसर नहीं है। हाँ, इसमें यदि कुछ शंकनीय स्थल हो तो वह घटनावली का सत्ता-समय हो सकता है। इसमें अनेक घटनाओं के अतिरिक्त अनेक राजाओं और प्राचार्यों की सत्ता और उनके स्वर्गवास के सूचक जो संवत्सर दिए हुए हैं उनमें कतिपय संवत्सर अवश्य ही चिंतनीय हैं, पर जब तक थेरावलो की मल प्रति हस्तगत नहीं होती, इस विषय की समालोचना करना निरर्थक है।
विद्वानों के विचारार्थ नीचे हम उन घटनाओं की सूची देते हैं जिनका सत्ता-समय थेरावली में स्पष्ट लिखा गया है।
"शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गंधहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ, गृह्णाम्यहमञ्जसा सारम् ॥३॥"
(कलकत्तामुद्रित आचारांग टीका) उपयुक्त पद्य में केवल आचारांग सूत्र के एक अध्ययन-'शस्त्र. परिज्ञा' के विवरण का उल्लेख होने से यह भी कल्पना हो सकती है कि शायद शीलाचार्य के समय तक गंधहस्ति कृत विवरण छिन्न भिन्न हो चुके होंगे। इसी कारण से शीलांक को अंगों की नई टीकाएं लिखने की जरूरत महसूस हुई होगी।
(१) गंधहस्ति कृत तत्वार्थभाष्य के संबंध में मध्यकालीन साहित्य में कहीं कहीं उल्लेख है पर इस भाष्य का कहीं भी पता नहीं है। धर्मसंग्रहणी टीका आदि में “यदाह गंधहस्ती-प्राणापानौ उच्छ वासनिश्वासा।" इत्यादि गंधहस्ती के ग्रंथ के प्रतीक भी दिए हुए मिलते हैं, पर इस समय गंधहस्ति कृत कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता।
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१०२
वीर-गताब्द
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नागरीप्रचारिणी पत्रिका घटनावली
०
* गौतम इंद्रभूति का केवलज्ञान हुआ ।
१२* गौतम इंद्रभूति का निर्वाण |
१८ शोभनराय का कलिग के राज्यासन
पर प्रारोहण !
२०* आर्य सुधर्मा का निर्वाण |
३१ उदायी ने पाटलिपुत्र नगर को
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बलाया ।
६०* नंद राजा का पाटलिपुत्र में राज्याभिषेक |
*४* मतांतर से आर्य जंबू का निर्वाण |
७० प्रार्य जंबू का निर्वाण |
७०* रत्नप्रभ सूरि द्वारा उपकेश वंश
स्थापना ।
७५* भार्य प्रभव का स्वर्गवास ।
पयार्य शय्यंभव का स्वर्गवास 1
१४८* आर्य यशोभद्र का स्वर्गवास ।
१४६ चंडराय का कलिंग में राज्याभिषेक ।
१४ आठवें नंद की कलिंग देश पर चढ़ाई |
१५४* चंद्रगुप्त मगध का राजा बना । १५६* आर्य भूतिविजयजी का स्वर्गवास । १७०* आर्य भद्रबाहु स्वामी का स्वर्गवास ।
१८४ सम्राट चंद्रगुप्त का स्वर्गवास 1
१८४ बिंदुसार का राज्याधिकार |
२०६ बिंदुसार का स्वर्गगमन 1
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जैन काल-गणना
१०३ वीर-गताब्द २०६ अशोक का राज्यारंभ। " " २२७ क्षेमराज का कलिंग में राज्यारोहण " " २३६ अशोक राजा की लिग पर चढ़ाई। " " २४४ अशोक का परलोकवास ।
२४४ संशति का पाटलिपुत्र में राज्या
धिकार। ___ २४६ संप्रति का उज्जयिनी को जाना। २४६ पाटलिपुत्र में पुण्यरथ का राज्या
धिकार ।
२७५ वुडढराज का कलिंग में राज्यारोहण । " "
२८० पुण्यरथ का मरण । २८० वृद्धरय का पाटलिपुत्र में राज्या
भिषेक। २६३* संपति का स्वर्गवास !
२६३ उज्जयिनी में एक वर्ष तक अराजकता। ___ २६४ बलमित्र-भानुमिन का उज्जयिनी
में राज्यारोहण । " " ३०० भिक्खुराय ( खारवेल ) का राज्या
भिषेक। ___" ३०४ वृद्धरथ की हत्या।
३०४ पाटलिपुत्र पर पुष्यमित्र का अधिकार " " ३३० भिक्खुराय का स्वर्गवास । " " ३३० वक्रराय का राज्याभिषेक । " " ३५४ बल मित्र-भानुमित्र का मरण । " " ३५४ नभोवाहन की राज्यप्राप्ति ।
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१०४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका वीर-ताब्द ३६२ वक्रराय का स्वर्गवास । " " ३६२ विदहराय का राज्याधिकार । " " ३६४ नभावाहन का स्वर्गगमन । " " ३६४ गर्दभिल्ल का राज्याधिकार । " " ३६५ विदहराय का परलोकवास । " " ४१० विक्रमाके का उज्जयिनी में राज्या
भिषेक । विक्रम-गतान्द १५३ आर्य स्कंदिल की प्रमुखता में जैन
श्रमणों की मथुरा में सभा हुई। " " २०० गंधहस्ती ने आचारांग का विवरण
रचा।
" " २०२ स्कंदिलाचार्य का मथुरा में स्वर्ग:
वाल ।
उपसंहार हिमवंत थेरावली की खास ज्ञातव्य बातों का दिग्दर्शन करा दिया। इनमें कई बाते ऐसी हैं जो अधिक खेाज और विवेचन की अपेक्षा रखती हैं। यदि मूल थेरावली उप. लब्ध हो गई और अपेक्षित समय मिला तो इसके संबंध में स्वतंत्र निबंध लिखेंगे-इस विचार के साथ यह लेख यहीं पूरा किया जाता है।
१ इस घटनावली में जिस जिस घटना का समय इस चिह्न से चिह्नित है उसका पट्टावली, थेरावली आदि अन्य ग्रंथों से भी समर्थन होता है, पर जिस घटनाकाल के आगे उक्त चिह्न नहीं है उसका सिर्फ इसी थेरावली में उल्लेख है-ऐसा समझना चाहिए।
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