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नागरीप्रचारिणी पत्रिका विक्रमादित्य के राज्य प्रारंभ का उल्लेख करके थेरा. वलीकार ने राज-प्रकरण को छोड़ दिया है और आर्य महागिरि से लेकर आर्य स्कंदिल तक के स्थविरों का गाथाओं से वंदन किया है। ये गाथाएँ नंदी थेरावली की "एलावञ्चसगुत्तं' इस गाथा से लेकर "जेसि इमो अणुअोगो" यहाँ तक की गाथाओं से अभिन्न होगी, ऐसा इसके भाषांतर से ज्ञात होता है। ___ आगे इन्हीं गाथाओं का सार गद्य में दिया है जैसा कि नन्दीचूर्णिकार ने दिया है, इसलिए इसकी चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है। इसमें जो विशेष हकीकत है उसका वर्णन थेरावली के ही शब्दों में नीचे दिया जाता है। ___"आर्य रेवती नक्षत्र के आर्य सिंह नामक शिष्य हुए, जो ब्रह्मद्वीपक सिंह के नाम से प्रसिद्ध थे। स्थविर प्रार्य सिंह के दो शिष्य हुए---मधुमित्र और आर्य स्कंदिल । आर्य मधुमित्र के प्रार्य गंधहस्ती नामक बड़े प्रभावक और विद्वान् शिष्य हुए। पूर्व काल में महास्थविर उमास्वाति वाचक ने जो तत्त्वार्थसत्र नामक शास्त्र रचा था उस पर आर्य गंधहस्ती ने ८०००० श्लोक प्रमाणवाला महाभाष्य बनाया। इतना ही नहीं, स्थविर आर्य स्कंदिलजी के आग्रह से गंधहस्तीजी ने ग्यारह अंगों पर टीका रूप विवरण भी लिखे, इस विषय में प्राचारांग के विवरण के अंत में लिखा है कि___"मधुमित्र नामक स्थविर के शिष्य तीन पूर्वो के ज्ञाता मुनियों के समूह से वंदित, रागादि-दोष-रहित ॥ १॥ और ब्रह्मद्वीपिक शाखा के मुकुट समान प्राचार्य गंधहस्ती ने
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