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जैन दिवाली सम्पूर्ण पूजा
जिनवाणी संग्रह
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अहिंसा
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
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1. परिचय जैन धर्म.
2. जैन चौघड़िया.
3. जैन कौन ?.
4. जैन ध्वज
5. णमोकार मंत्र.
विषय सूची ( जय जिनेन्द्र )
6. नवकार मंत्र ही महामंत्र
7. दिवाली की पूजा .
8. मंदिर जी में दीपावली की पूजन विधि .
9. घर में दीपावली पूजन की विधि.
10.दिवाली सम्पूर्ण पूजा
11. दीपमालिका पर्व
12. नवीन बही मुहूर्त.
13.पूजा प्रारम्भ ..
14. श्री महावीर जिनपूजा .
15. पंच कल्याणक..
16. श्री सरस्वती पूजा
17. श्री गौतम गणधर पूजा.
18. महावीराष्टक स्तोत्रम
19. जिनवाणी माता की आरती.
20. श्री महावीर स्वामी की आरती.
21. दिवाली पर जलाओ दीप.
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परिचय जैन धर्म
'जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म। जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं।।
अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।
धन दे के तन राखिए, तन दे रखिए लाज धन दे, तन दे, लाज दे, एक धर्म के काज। धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण धर्म ग्रंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान।
जिन शासन में कहा है कि वस्त्रधारी पुरुष सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। भले ही वह तीर्थंकर ही क्यों न हो, नग्नवेश ही मोक्ष मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है- मिथ्या मार्ग है।
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दिन का चौघडिया
सं
रवि
6:00 AM 7:30 AM
उद्वेग
7:30 AM 9:00 AM
चर
9:00 AM 10:30 AM
लाभ
10:30 AM 12:00 PM अमृत
12:00 PM 1:30 PM
काल
1:30 PM 3:00 PM
शुभ
| 3:00 PM 4:30PM
रोग
| 4:30PM 6:00PM उद्वेग
तक
रात का चौघडिया
स
6:00 PM 7:30 PM 7:30 PM 9:00 PM 9:00 PM 10:30 PM 10:30 PM 12:00 AM 12:00 AM 1:30 AM 1:30 AM 3:00 AM
3:00 AM 4:30 AM
4:30 AM 6:00 AM
तक
रवि
शुभ
अमृत
चर
रोग
काल
लाभ
उद्वेग
शुभ
जैन चौघड़िया
सोम
अमृत
काल
शुभ
रोग
उद्वेग
चर
लाभ
अमृत
- शुभ
सोम
चर
रोग
काल
लाभ
उद्वेग
शुभ
अमृत
चर
- शुभ
मंगल
रोग
उद्वेग
चर
लाभ
अमृत
काल
शुभ
रोग
मंगल
काल
लाभ
उद्वेग
शुभ
अमृत
चर
रोग
काल
रात का चौघड़िया देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
शनि
काल
शुभ
रोग
बुध
लाभ
अमृत
काल
शुभ
रोग
उद्वेग
चर
लाभ
- अमृत
बुध
उद्वेग
गुरु
शुभ
रोग
उद्वेग
चर
लाभ
अमृत
काल
शुभ
- लाभ
अमृत
दिन का चौघड़िया देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
शनि
लाभ
उद्वेग
गुरु
अमृत
चर
रोग
शुभ
अमृत
चर
रोग
काल
लाभ शुभ
उद्वेग
काल
लाभ
उद्वेग
अमृत
बुक्र
चर
लाभ
अमृत
काल
लाभ
शुभ
रोग
उद्वेग
चर
शुक्र
रोग
काल
लाभ
उद्वेग
उद्वेग
चर
लाभ
अमृत
काल
शुभ
अमृत
चर
रोग
शुभ
अमृत
चर
रोग
काल
लाभ
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जैन कौन ?
जो स्वयं को अनर्थ हिंसा से बचाता है।
जो सदा सत्य का समर्थन करता है। जो न्याय के मूल्य को समझता है। जो संस्कृति और संस्कारों को जीता है। जो भाग्य को पुरुषार्थ में बदल देता है। जो अनाग्रही और अल्प परिग्रही होता है। जो पर्यावरण सुरक्षा में जागरुक रहता है। जो त्याग-प्रत्याख्यान में विश्वास रखता है। जो खुद
को ही सुख - दःख का कर्ता मानता है।
संक्षिप्त सूत्र- व्यक्ति जाति या धर्म से नहीं अपितु, आचरण एवं व्यवहार से जैन कहलाता है।
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जैन ध्वज
लाल रंग हमारी आंतरिक दृष्टियों को जागृत करता है। पीला रंग हमारे मन को सक्रिय करता है। श्वेत रंग हमारी आंतरिक शक्तियों को जागृत करता है। हरा रंग शांति देता है तथा आत्म साक्षात्कार में सहायक होता है। नीला रंग अवशोषक होता है। वह बाहर के प्रभाव को भीतर नहीं जाने देता है।
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जैन शासन का पंचरंगी ध्वज
विश्व में प्रत्येक देश का अपना एक राष्ट्रीय ध्वज होता है तथा प्रत्येक नागरिक उसका सम्मान करता है क्योंकि ध्वज राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक माना जाता है। राष्ट्र ध्वज की तरह प्रत्येक धर्म का भी अपना ध्वज होता है, वह ध्वज उस धर्म के विशेष गुणों को परिलक्षित करता है। भगवान महावीर के 2500वें निर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में परम पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्दजी मुनिराज ने भगवान महावीर को मानने वाले समस्त जैन साधु/सन्त/श्रेष्ठीयों के प्रतिनिधियों से विचार विमर्श कर पूर्वाचार्यों द्वारा रचित आगम के मार्गदर्शनानुसार जैन शासन का पंचरंगी ध्वज कैसा हो का निर्णय लिया जिसे सभी ने मान्य किया। जैनागम में पंचरंगी ध्वज का वर्णन :
"ता महुरहे बाहिरे थिउ सिमिरू, सेहंतु पंचवण्णेहिं सुकेउ। पडमंडनदूससमग्धविउ णं धरणिहे मंडण णिम्मविउ।"
–णायकुमार चरिउ, महाकवि पुष्पदंत, 5.1.1 मथुरा के बाहर स्थापित नागकुमार का शिविर षटमण्डपों और तम्बुओं से समृद्ध तथा पंचरंगी ध्वजाओं से ऐसा शोभायमान हुआ मानों पृथ्वी का अलंकार ही बनाया हो।
'पंचबण्णा पवित्ता विचिता धया।'
-पुष्पदन्त महाकवि, महापुराण, 24.12.2, पृष्ठ 122 पंचरंगी पवित्र विचित्र ध्वज है। वैदिक वास्तुशास्त्र में भी पंचपरमेष्ठी को पाँच रंग के प्रतीक माना है। यथा
'स्फटिक श्वेत-रक्तं च पीत-श्याम-निभं तथा। एतत्पंचपरमेष्ठी पंचवर्ण-यथाक्रमम्।।
-मानसार. 55/44 अर्थ- स्फटिक के समान श्वेत, लाल, पीत, श्याम (हरा) और नीला (काला)- ये पाँच वर्ण क्रमशः पंचपरमेष्ठी के सूचक हैं। पंचवर्ण का फल
'शान्तौ श्वेत जये श्याम, भद्रे रक्तमभये हरित् । पीतं धनादिसंलाभे, पंचवर्ण तु सिद्धये।।
-उमास्वामि-श्रावकाचार, 138, पृष्ठ 55 1. श्वेतवर्ण शांति का प्रतीक है। 2. श्याम वर्ण विजय का सूचक है। 3. रक्तवर्ण कल्याण का कारक है। 4. हरितवर्ण अभय को दर्शाता है।
5. पीतवर्ण धनादि के लाभ का दर्शक है। इस प्रकार पाँचों वर्ण सिद्धि के कारण है। पंचवर्णी ध्वजा को विजय का प्रतीक माना है
विजयापंचवर्णभा पंचवर्णमिदं ध्वजम्' -प्रतिष्ठातिलक, 5-10 एवं आशाधरसूरि, प्रतिष्ठा साराद्वार, 3-209 अर्थ-पाँच वर्णों की आभा से युक्त विजयादेवी पाँच वर्णों से युक्त ध्वजा को हाथ में धारण करती है।
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जैनध्वज का माप:-यह ध्वज आकार में आयताकार है तथा इसकी लंबाई व चौडाई का अनुपात 3-2 है। इस ध्वज में पाँच रंग हैं। लाल, पीला, सफेद, हरा और नीला (काला)। लाल, पीले, हरे, नीले रंग की पट्टियाँ चौडाई में समान है तथा सफेद रंग की पट्टी अन्य रंगो की पट्टी से चौडाई में दुगुनी होती है। (श्रावकों को तथा ध्वज बनाने वाले को जानकारी नहीं होने से वे पाँचौरंग की पट्टी की चौडाई एक समान कर देते है जो आगम के प्रतिकुल है।) ध्वज के बीच में जो स्वस्तिक है, उसका रंग केसरिया है। जैन समाज के इस सर्वमान्य ध्वज में पाँच रंगों को अपनाया गया है जो पंचपरमेष्ठी के प्रतीक है। ध्वज के श्वेत रंग-अर्हन्त परमेष्ठी (घातिया कर्म का नाश करने पर शुद्ध निर्मलता का प्रतीक) । लाल रंग-सिद्ध परमेष्ठी (अघातिया कर्म की निर्जरा का प्रतीक), पीला रंग- आचार्य परमेष्ठी (शिष्यों के प्रति वात्सल्य का प्रतीक)। हरा रंग-उपाध्याय परमेष्ठी (प्रेम-विश्वास-आप्तता का प्रतीक)। नीला रंग-साधु परमेष्ठी (साधना में लीन होने का और मुक्ति की ओर कदम बढ़ाने का प्रतीक)। ये पाँच रंग, पंच अणुव्रत एवं पंच महाव्रतों के प्रतीक रूप भी सफेद रंग अहिंसा, लाल रंग सत्य, पीला रंग अचौर्य, हरा रंग ब्रह्मचर्य और नीला रंग अपरिग्रह का द्योतक माना जाता है। ध्वज के मध्य में स्वस्तिक को अपनाया गया है जो चतुर्गति का प्रतीक है। यथा
'नरसुरतिर्यडनारकयोनिषु परिभ्रमति जीवलोकोयम्
कुशला स्वस्तिकरचनेतीव निदर्शयति धीरणाम्।। "अर्थात् यह जीव इस लोक में मनुष्य देव, तिर्यंच तथा नारक योनियों (चतुर्गति) में परिभ्रमण करता रहता है, मानो इसी को स्वस्तिक की कुशल रचना व्यक्त करती है।
स्वस्तिक चिन्ह जैन धर्म का आदि चिन्ह है जिसे सदा मागलिक कार्यों में प्रयोग किया जाता है। इतिहास की दृष्टि से मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में स्थित तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति पर बने ये सात सर्प-फणों में से एक पर अंकित है। स्वस्तिक का चिन्ह मोहन-जो-दडों के उत्खनन में भी अनेक मुहरों पर प्राप्त हुआ है। विद्वानों का मत है कि पाँच हजार वर्ष पूर्व को सिन्धु सभ्यता में स्वस्तिक-पूजा प्रचलित थी। जो कि प्राचीनता का द्योतक है।
स्वास्तिक के ऊपर तीन बिन्दू हैं, जो सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र को दति हैं। यथा'सम्यग्दर्शनज्ञाानचारित्राणि मोक्षमार्गः।।
-आचार्य उमास्वामी, तत्वार्थसूत्र. 1/1 तीन रत्न के ऊपर अर्धचन्द्र-जीव के मोक्ष या निर्वाण की कल्पना की गई है अर्थात सिद्धशिला को लक्षित करता है। जीव स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल लोक सर्वत्र व्याप्त है। नारकी जीय धर्भ से देवता बन सकता है और रत्नत्रय को धारण कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। अर्द्धचन्द्र के ऊपर जो बिन्दु है वह उत्तम सुख का प्रतीक है।
-(जैन शासन ध्वज के सहयोग से)
-अभय बाकलीवाल. 1818, सुदामा नगर, इन्दौर मोबाइल : 8989276818
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णमोकार मंत्र मंत्र जपो नवकार मनवा मंत्र जपो नवकार मंत्र जपो नवकार मनवा, मंत्र जपो नवकार पाँच पदों के पैंतीस अक्षर, हैं सुख के आधार हैं सुख के आधार मनवा, हैं सुख के आधार मंत्र जपो नवकार मनवा, मंत्र जपो नवकार णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं, णमो अव्वझायाणम्, णमो लोए सव्वेसाहूणं...
नवकार मंत्र ही महामंत्र नवकार मंत्र ही महामंत्र, निज पद का ज्ञान कराता है। निज जपो शुद्ध मन बच तन से, मनवांछित फल का दाता है। 1॥ नवकार... पहला पद श्री अरिहंताणां, यह आतम ज्योति जगाता है। यह समोसरण की रचना की भव्यों को याद दिलाता है॥2॥ नवकार... दूजा पद श्री सिद्धाणं है, यह आतम शक्ति बढ़ाता है। इससे मन होता है निर्मल, अनुभव का ज्ञान कराता है।।3॥ नवकार.... तीजा पद श्री आयरियाणां, दीक्षा में भाव जगाता है। दुःख से छुटकारा शीघ्र मिले, जिनमत का ज्ञान बढ़ाता है॥4॥ नवकार... चौथा पद श्री उवज्ज्ञायणं, यह जैन धर्म चमकता है। कर्मास्त्रव को ढीला करता, यह सम्यक् ज्ञान कराता है।।5। नवकार... पंचमपद श्री सव्वसाहणं, यह जैन तत्व सिखलाता है। दिलवाता है ऊंचा पद, संकट से शीघ्र बचाता है।6।। नवकार... तुम जपो भविक जन महामंत्र, अनुपम वैराग्य बढ़ाता है। नित श्रद्धामन से जपने से, मन को अतिशांत बनाता है।।7॥ नवकार... संपूर्ण रोग को शीघ्र हरे, जो मंत्र रुचि से ध्याता है। जो भव्य सीख नित ग्रहण करे, वो जामन मरण मिटाता है।।8॥ नवकार...
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दिवाली की पूजा
जैन समाज में दीपावली का पावन पर्व अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति एवं उन्हीं के शिष्य प्रथम गणधर गौतम स्वामी को संध्याकाल में केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी की प्राप्ति के उपलक्ष्य में मनाते हैं। अतः अन्य सम्प्रदायों से हमारी दीपावली की पूजन विधि पूर्णतः भिन्न है। समस्त जैन श्रावकों को जैनागम के अनुसार ही महोत्सव मनाना चाहिए, अन्यथा मिथ्या क्रिया कहलायेगी। जैन धर्मानुसार जिनालय में एवं शाम को घरों में दीपावली मनाने की विधि इस प्रकार है:
मंदिर जी में दीपावली की पूजन विधि कार्तिक कृष्ण चौदस की रात एवं अमावस्या की प्रातः कालीन बेला में श्रावक सामायिक जाप करें, फिर 5 बजे दैनिदिनि चर्या से निवृत हो कर शुद्ध सोला के वस्त्र धारण करें और लाडू सहित अष्ट द्रव्य ले कर जिनालय जायें। वहाँ सभी एक साथ उत्साह पूर्वक 6 बजे अभिषेक और नित्य पूजन के उपरांत महावीर पूजा और निर्वाण कल्याण की पूजन करें। महावीर स्वामी की पूजा करते समय जब केवल ज्ञान कल्याण का अर्घ चढावें तब केवल ज्ञान के प्रतीक स्वरूप शुद्ध घी के 16 दीपकों में 4-4 ज्योति जलायें। निर्वाण कल्याणक की पूजा के समय जब महावीर स्वामी के निर्वाण कल्याणक का अर्घ चढायें तब निर्वाण कल्याणक पाठ पढकर अर्घ सहित निर्वाण लाडू चढायें तदोपरांत शांतिपाठ एवं विसर्जन करें।
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घर में दीपावली पूजन की विधि सायंकाल लगभग 4 बजे पूजन के शुद्ध वस्त्र धारण कर के शुद्ध प्रासुक जल से पूजन की जल फलादि द्रव्य तैयार करें। मंगलाष्टक पढकर सकलीकरण, तिलक एवं रक्षा सूत्र बन्धन करें। रक्षा मंत्र एवं शांति मंत्र पढते हुए पुष्प क्षेपण करें (इसके सभी पूजन पाठ की पुस्तक में है) . गाय का घी मिलाकर सिंदूर से पूजन स्थल की दीवाल पर इस प्रकार लिखें
श्री
ॐ श्री वीतरागाय नमः
श्री महावीराय नमः श्री गौतम गणधराय नमः श्री केवलज्ञान महालक्ष्म्यै नमः
श्री शुभ
श्री लाभ
श्री
श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री
फोटो
दक्षिण दिशा
जिनवाणी
उत्तर दिशा
श्री कार पर्वत के नीचे दीवाल से सटाकर एक अच्छी चौकी रखें उस पर बीचों बीच किसी क्षेत्र या जिनालय में स्थित प्रतिष्ठित प्रतिमा की फोटो रखें उसी के सामने आचार्य प्रणीत ग्रंथ चौकी पर बीचों बीच स्थापित करें। ईशान कोण की
ओर हल्दी, सुपाडी, सवा रुपये या अधिक 3,5,7 आदि रुपये के सिक्के डालकर पूरा सरसों से भर कर श्रीफल सहित कलश स्थापित करें। आग्नेय दिशा में शुद्ध घी का जलता दीपक स्थापित करें।
यह क्रिया पूर्ण करने के उपरांत श्रद्धा भक्ति के साथ विनय पाठ, पूजन पीठिका, स्वस्ति पाठ, देवशास्त्र गुरु, चौबीसी, आदिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी एवं सरस्वती का अर्घ चढाकर गौतम स्वामी की पूजा करें। चौंसठ ऋद्धि के मंत्र बोलते हुए अर्घ्य चढायें। और फिर शांति विसर्जन कर के 16 दीपों में तेल भर कर 4-4 बाती डालकर चौंसठ ज्योति जलायें, तदुपरांत सामूहिक महावीराष्टक पाठ, आरती करें और "'ओं ही चतुः षष्टि ऋद्धिभ्यो नमः' इस मंत्र का 108 बार जाप करें।
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दिवाली सम्पूर्ण पूजा
पिण्यशोधस्मा/
अरहतेतरण
मिपाऊमामि
श्री विनायकयंत्र
"दीपावली जैन संस्कृति का महान पर्व है। आज से 2522 वर्ष पूर्व कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के समापन होते ही अमावस्या के प्रारम्भ में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का पावापुरी से विर्वाण हुआ था। उस दिन ठीक निर्वाण के समय पावापुरी (बिहार-प्रांत) में भगवान महावीर के चरण चिन्ह के स्थान के ऊपर एक छत्र ता है। उस निर्वाण वेला में देवों द्वारा दिव्य दीपों को आलोकित कर निर्वाण
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स्वयमेव
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महोत्सव मनाया गया। मानव समुदाय ने भी जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर निर्वाण लाडू (नैवेद्य) चढा कर पावन दिव को समारोहित किया।
इसी दिवस शुभ-बेला में अंतिम तिर्थंकर भगवान महावीर के प्रथम प्रमुख गणधर गौतम स्वामी को केवल लक्ष्मी की प्राप्ति हुई, जिसके उल्लास में ज्ञान के प्रतीक निर्मल प्रकाश से समस्त लोक को प्रकाशित करती हुई दीप मालिकायें प्रज्वलित कर भव्य-दिव्य उत्सव मनाया गया।
यह अवसर्पिणी के चतुर्थ काल का समापन तथा पंचम काल का सन्धि काल था, जब कार्तिक शुक्ल एकम से नवीन संवत्सर का शुभारम्भ कर यह श्री वीर निर्वाण संवत के नाम से प्रचलित हुआ। विश्व में ज्ञात, प्रचलित- अप्रचलित शताधिक संवत्सरों में यह सर्वाधिक प्राचीन है। भारतीय संस्कृति के आस्थावान अनुयायी इस देन व्यावसायिक संस्थानों में हिसाब बहियों का शुभ मुहुर्त कर्ते हैं, इसी दिन से नवीन लेखा वर्ष का परम्परानुसार शुभारम्भ माना जाता
है।
भारत सरकार ने वर्ष 1989 में एक विधेयक पारित कर लेखा वर्ष की गणना ईसवी सन की 1 अप्रैल से प्रारम्भ कर 31 मार्च तक की जाने की अनिवार्यता लागू कर हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक मान्याओं से परे अपनाने को सभी को बाध्य एवं विवश कर दिया है। यद्यपि शासकीय नियम के परिवर्तन को 19 वर्ष हो चुके हैं किंतु अब भी अधिकांश जन लेखा बहियाँ दीपावली के देन ही खरीद कर लाते हैं। दीपावली के मंगल दिवस पर विधिविधान अनुसार श्री महावीर स्वामी की पूजा एवं अन्य मांगलिक क्रियायें सम्पन्न कर शुभ बेला में स्वस्तिक मांड कर रख देते हैं, तथा इन्हें लगभग पाँच माह उपरांत 1 अप्रैल से प्रारंभ करते है ।
अनेक लोग इन परिस्थितिवश दुविधाग्रस्त हैं के बहियाँ खरीद कर दीपावली पर पूर्वानुसार लाना ही उचित है अथव एक अप्रैल या उसके पूर्ववर्ती देवस को । इस सन्दर्भ मे जान लेना परम आवश्यक है कि दीपोत्सव पर्व को मनाने का कारण श्री वीर प्रभु का निर्वाण तथा गणधर श्री गौतम स्वामी को कैवल्य लक्ष्मी की प्राप्ति होना है जबकि पूर्व काल में लेखावर्ष का शुभारंभ तथा संवत्सरी भी इससे सम्बद्ध होने से इसी अवसर पर नवीन बहियाँ खरीद कर लाना एवम उनका शुभ मुहूर्त आदि प्रासंगिक एवं युक्तियुक्त था। अब चूँकि लेखा वर्ष का शुभारम्भ 1 अप्रैल से होता है अतः 31 मार्च अथवा 1-2 दिन पूर्व शुभ-दिवस, चौघडिया एवं मुहूर्त में बहियाँ ला कर 31 मार्च को भी विधि अनुसार पूजन कर नवीन बहियों का शुभ मुहूर्त किया जा सकता है। जो लोग दीपावली के दिन बहियाँ ला कर रख देते हैं, उन्हे असुविधा ना हो तो वे परम्परानुसार कर्ते रहें। यह सभी सुविधाओं पर निर्भर है। वैसे भी बही मुहूर्त तथा लेखा शुभारम्भ दोनो अलग अलग क्रियायें हैं। बही मुहूर्त दीपावली को कर उनका शुभारम्भ 1 अप्रैल से किया जा सकता
है।
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हमारी धार्मिक आस्था तथा इतिहास-प्रामाणित परम्परा बनी रहे इस आर्थ दीपावली अर्थात कार्तिक कृष्ण अमावस्या को प्रातः काल श्री जिनेन्द्र भगवान की भक्ति भाव सहित पूजन कर निर्वाण लाडू चढावें। पश्चात अच्छे चौघडिये में अथवा सायंकाल सूर्यास्त पूर्व दुकानों, कारखानों संस्थानों एवं गृहों पर परिवारजन एकत्रित हो कर समुहिक रूप से पूजा, आर्ती, भक्ति, दीपोत्सव व परस्पर मिलने का क्रम बनाये रखें। यदि हम वही मुहूर्त कार्य 1 अप्रैल को करें तो दीपावली पर पूर्व की अपेक्षा सम्पूर्ण आओजन में मात्र बही-मुहूर्त कार्य कम हो जायेगा।
दीपमालिकायें केवल ज्ञान की प्रतीक हैं। सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो, अन्धकार का नाश हो, इस भावना से दीपमालायें जलानी चाहिये। दीपावली के पूर्व कार्तिक त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर ने बाह्य समवसरण लक्ष्मी का त्याग कर मन-वचन और काय का निरोध किया। वीर प्रभु के योगों के निरोध से त्रयोदशी धन्य हो उठी, इसीलिये यह तिथि " धन्य-तेरस” के नाम से विख्यात हुई। यह पर्व देवस त्याग के महत्व को दर्शाता हुआ यह सन्देश देता है के हम मनवचन-काय से कुचेष्टाओं का त्याग करें और बाह्य लक्ष्य से हट कर अंतर के शाश्वत स्वर्ण-रत्नत्रय को प्राप्त करें।
अगले दिवस चतुर्दशी को भगवान महावीर ने 18000 शीलों की पूर्णता को प्राप्त किया। वे रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर अयोगी अवस्था से निज स्वरूप में लीन हुए।
अत एव इस पर्व दिवस “रूप-चौदस” के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए व्रतादि धारण कर स्वभाव में आने का प्रयास करना चाहिये। भगवान की दिव्यध्वनि स्यात, अस्ति-नास्ति. अवक्तव्य आदि सात रूपों में खिरी थी इसलिये यह दिन “गोवर्द्धन” के रूप में मनाया जाता है। “गो” अर्थात जिनवाणी तथा वर्द्धन का अर्थ प्रकटित वर्द्धित। इस दिन तीर्थंकर की देशना के पश्चात पुनः जिनवाणी का प्रकाश हुआ, वृद्धि हुई इसलिये जिनवाणी की पूजा करनी चाहिये।
धन-तेरस के दिन और दीपावली के दिन लोग धन-संपत्ति, रुपये-पैसे को लक्ष्मी मान कर पूजा करते हैं जो सर्वथा अयुक्तियुक्त है। विवेकवान जनों को इस पावन-पर्व के दिनों में मोक्ष व ज्ञान लक्ष्मी तथा गौतम गणधर की पूजा करनी चाहिये जो कि समयानुकूल, शास्त्रानुकूल, प्रामाणिक तथा कल्याणकारी है।
शुभ क्रियाओं तथा शुभ-भावों से अंतराय कर्म के उदय से होने वाले विघ्न दूर होए हैं अतः सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की पूजा-भक्ति करना ही उचित है। इनकी आराधना से अशुभ का क्षय होता है, पारलौकिक श्रेष्ठ सुखों की तो बात ही क्या शाश्वत सुख-सिद्धि की प्राप्ति होती है। पुण्यवान जनों को तो इह लौकिक लक्ष्मी धन-धान्य सम्पत्ति आदि का सुख अप्रयास ही सहज सुलभ हो जाते हैं।
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दीपमालिका पर्व
प्रातःकाल श्री जिनेन्द्र भगवान के दर्शन पूजन करने मन्दिर जाने के पहले मन्दिर से आने के पश्चात अपने घर पर “ऊँ ह्रीं अहँ अ दि आ उ सा श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः” मंत्र की एक माला तथा महावीराष्टक स्त्रोत का पाठ करना चाहिये। सायंकाल को उत्तम गौधूलोक लग्न में अथवा दिन के समय भी अपनी दुकान के पवित्र स्थान में ऊँची चौकी पर रकाबी में विनायक यंत्र
शिका
मोगतमा
alममा
Rier me
ICSERIAL
श्री. विनायक यंत्र
का आकार मांड कर ठोणे में रख कर विराजमान करें। उसी चौकी के आगे दूसरी चौकी पर शास्त्रजी (जिनवाणी) विराजमान करना चाहिये। इन दोनो चौकियों के आगे एक छोटी चौकी पर पूजा की सामग्री तैयार कर रखें और उसी के पास एक दसरी चौकी पर थाल में स्वस्तिक मांड कर पूजा की सामग्री चढाने के लिये रखें। बहियाँ, दावात-कलम आदि पास में रख लें। घी का दीपक दाहिनी ओर तथा बाँई ओर धूपदान करना चाहिए। दीपक में घृत इस प्रमाण से डालें के रात्रि भर वह दीपक जलता रहे। पूजा करने वाले को पूर्व या उत्तर दिशा में मुख कर के पूजा करना चाहिये। जो परिवार में बडा हो या दुकान का मालिक हो वह चित्त एकाग्र कर पूजा करे और उपस्थित सभी लिग पूजा बोलें तथा शांति से सुनें। पूजा प्रारम्भ करने से पहले उपस्थित सब सज्जनों को तिलक लगाना चाहिये तथा दाहिने हाथ में कंकण बाँधना चाहिये। तिलक करते समय नीचे लिखा श्लोक पढे।
मंगलम भगवान वीरो, मंगलम गौतमो गणी।
मंगलम कुन्द कुन्दार्यो, जैन धर्मोस्तु मंगलम्।। तिलक करने के बाद नित्य-नियम-पूजा करके श्री महावीर स्वामी श्री गौतम गणधर स्वामी तथा श्री सरस्वती देवी की पूजा करनी चाहिये।
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नई बही मुहूर्त की सामग्री अष्ट द्रव्य धुले हुए, धूपदान 1, दीपक 2, लालचोल 1 मीटर, सरसों 50 ग्राम, थाली 1, श्रीफल1, लोटा जल का1, लच्छा, शाख 1, धूप 50ग्राम, अगरबत्ती, पाटे 2, चौकी 1, कुंकुम 50ग्राम, केसर पिसी हुई, कोरे पान, दवात, कलम (या लीड)2
सिन्दूर घी मिलाकर (श्री महावीरायनमः और लाभ शुभ दुकान की दीवाल पर लिखने को) फूलमालायें, नई बहियाँ, माचिस, कपूर देशी सुपारी आदि।
नवीन बही मुहूर्त
पूजा के पश्चात हर बही में केशर से साथिय मांड कर निम्न प्रकार लिखें तथा एक- एक कोरा पान रखे।
लाभ
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शुभ
श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री
श्री ऋषभ देवाय नमः।। श्री महावीराय नमः।। श्री गौतम-गणधरायनमः।। केवलज्ञान लक्ष्म्यै नमः।। श्री जिन सरस्वत्यै नमः।। श्री शुभ मिति कार्तिक बदी 30........॥ ..........वार।। दिनांक .../.../19ई. को शुभ बेला में दुकान श्री की बही का मुहूर्त किया
यह विधि हो जाने के बाद विधि करनेवाले, दुकान के मुख्य सजन को बही में लच्छ बान्ध कर हाथ में बही देवें और पुश्प क्षेपे।
इसके बाद घर के प्रमुख महाशय नीचे लिखा हुआ पद्य व मंत्र पढकर शुभकामना करें और फूलमाला पहिनाकर पुष्प क्षेपण करें।
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पद्या
आरोग्य बुद्धि धन धान्य समृद्धि पावें। भय रोग शोक परिताप सुदर जावें। सद्धर्म शास्त्र गुरु भक्ति सुशांति होवे। व्यापार लाभ कुल वृद्धि सुकीर्ती होवे।।
श्री वर्द्धमान भगवान सुबुद्धि देवें। सन्मान सत्यगुण संयम शील देवें।। नव वर्ष हो यह सद सुख शांति दाई। कल्याण हो शुभ तथा अति लाभ होवे।।
पूजा प्रारम्भ अहँतो भग्वंत इन्द्रमहिताः सिद्धीश्वराः। आचार्या जिन शासनोन्नतिकरा:पूज्या उपाध्यायकाः।।
श्रीसिद्धांतसुपाठ का मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः। पंचैते परमेष्ठि नः प्रतिदिनं कुर्वंतु नः मंगलम्।।
ओं जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु। णमो अरहंताणं, ण्मो सिद्धाणं, णमो आइरियणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। चतत्तारि मंगलम, अरिहंता
मंगलम, सिद्धा मंगलम, साहू मंगलम्। केवलि पण्णत्तोधम्मो मंगलम्। चत्तारि लोगुत्तम, अरिहंतालोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तम। केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा, चत्तारिसरणं पव्वज्जामि , सहूशरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तं
धम्मं सरणं पव्वज्जामि। ऊँअनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः
(यह पढ कर पुष्पांजलि क्षेपित करें)
बिनायक यंत्र पूजा अर्ध्य अच्छाम्भः शुचि चन्दनाक्षत सुमै-नैवेद्य कैश्चारुभिः।
दीपैखूप फलोत्तमैः समुदितैरेभिः सुपात्रस्थितैः।। अर्हत्सिद्ध सुसूरिपाठक मुनीन लोकोत्तमान मंगलान्।
प्रत्यूहौधनिवृत्तये शुभकृतः, सेवे शरण्यानहम्।। ऊँ ह्रीं श्री शरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यः अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
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देव शास्त्र-गुरु पूजा का अर्ध्य जल परम उज्जवल गन्ध अक्षत- पुष्प चरु धरूँ। वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ।। इह भाँति अर्ध्य चढाय नित भवि करत शिव पंकति मचूँ।
अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निग्रंथ नित पूजा रचूँ।। वसुविधि अर्ध्य संजोय कै, अति उछाहमन कीन्।
जासों पूजों परम पद, देवशास्त्र-गुरु तीन्।। ऊँ श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो अनर्थ्यपद प्राप्तये अर्ध्यम निर्मामीति स्वाहा।
बीस महाराज का अर्ध्य जल फल आठों द्रव्य संभार, रत्न जवाहर भर भर था।
नमूं कर जोड, नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।। पाँचों मेरु विदेह सुथान, तीर्थंकर जिन बीस महान।
नमूं कर जोड नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।। ऊँ ह्रीं श्री विदेहक्षेत्रस्य सीमन्धरादि विद्यमांविर्शति तीर्थंकरेभ्यो अर्घ्यम निर्वामीति स्वाहा नमूं कर जोड,
नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।
सिद्ध पर्मेष्ठी का अर्ध्य जल फल वसु वृन्दा, अरघ अमन्दा, जजत अनन्दा के कन्दा।
मेटे भवफन्दा, सब दुःख दन्दा, हीराचन्दा तुम बन्दा।। त्रिभुवन के स्वामी, त्रिभुवन, नामी, अंतरजामी अभिरामी।
शिवपुर विश्रामी, निज निधिपामी सिद्धजजामी सिरनामी।। ऊँ ह्रीं श्री अनाहत परक्रमाय सर्वकर्म विनिर्मुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीस महाराज का अर्ध्य फलफल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों। तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोक्ष वरों।। चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द कन्द सही। पदजजत हरत भव फन्द, पावक मोक्षमही।।
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अंतरायकर्म नाशार्थ अर्ध्य लाभ की अंतराय के वस जीवसु न लहै। जो करै कष्ट उत्पात सगरे कर्मवस विरथा रहै।। नहीं जोर वाको चले इक छिन दीन सौ जग में फिरै।
अरिहंत सिद्ध अधर धरिकै लाभ यौ कर्म को हरै।। ऊँ ह्रीं लाभांतरायकर्म रहिताभ्याम अहर्तसिद्ध परमेष्ठिभ्याम अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पांजलिं क्षिपेत
श्री महावीर जिनपूजा
(कविवर वृन्दावन कृत) श्रीमतवीर हरै भवपीर सुखसीर अनाकुलताई। के हरि अंक अरीकर दंक नये हरि पंकति मौलिसुहाई।। मैं तुमको इत थापत हों प्रभु भक्ति समेत हिये हरखाई। हे करुणाधन धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहिं आई।।
ऊँ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय पुष्पांजलिः।
क्षीरोदधि सम शुचि नीर, कंचन भृग भरों।
प्रभुवेग हरो भव्पीर, या धार करों। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।। ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिर चन्दन सार, केसर संग धसों। प्रभु भव आताप निवार, पूजत हिय हुलसों।। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो। ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय चन्दनम निर्वपामीति स्वाहा।
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तन्दुलसित शशिसम शुद्ध लीनों थार भरी। तसु पुंज धरों अविरुद्ध, पावों शिव नगरी।। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।। ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा।
सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे।
सो मंथन भंजन हेत, पूजों पद थारे।। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।। ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
रस रज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी। पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी।। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।। ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।
तम खन्डित मन्डित नेह, दीपक जोवत हों। तुम पदतर हे सुख गेह, भ्रमतम खोवत हों।। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।। ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय दीपम निर्वपामीति स्वाहा।
हरि चन्दन अगर कपूर चूर सुगन्ध करा। तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा।। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।। ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय धूपम निर्वपामीति स्वाहा।
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रितुफल कल वर्जित लाय, कंचन थार भरों। शिवफलहित हे जिनराय, तुम ढिग भेंट धरों।। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गणधीर, सन्मतिदायक हो।। ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय फलम निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल वसु सजि हिम थार, तनमन मोद धरों।
गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरों। श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।। ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अद्यम निर्वपामीति स्वाहा।
पंच कल्याणक
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्द्धमान जिनराय जी मोहि रखो हो सरना। गरम साढ सित छट्ठ लिओ तिथि, त्रिशला उर अघहरना।
सुर सुरपति तित सेव करीनित, मैं पूजौं भव तरना।।
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्द्धमान जिनराय जी मोहि राखो ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय आषाढ शुक्लषष्ठयां गर्म मन्गल मण्डिताय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जनम चैतसित तेरस के दिन कुन्डलपुर कनवरना।
सुरगिर सुर गुरु पूज रचायो मैं पूजों भवहारना।। मोहि.।। ऊँ ह्रीं जैव शुक्ल त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर असित मनोहर दश्मी, ता दिन तप आचरना।
नृप कुमार घर पारन कीनो, मैं पूजो तुम चरना।। मोहि.।। ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपो मंगल मंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्ल दशै बैशाख दिवस अरि घाति चतुक छय करना।
केवल लहि भवि भवसरतारेम जजों चरन सुख भरना।। मोहि.॥ ऊँ ह्रीं बैसाख शुक्ल दश्म्याम ज्ञान कल्याण प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
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कातिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुर तें बरना।
गनफनिवन्द जजें तित बहविधि, मैं पूजौं भवहरना।। मोहि।। ऊँ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
गनधर, असनिधर, चक्रधर, हरधर गदाधर वरवदा।
अरु चापधर विद्यासुधर तिरसूलधर सेवहिं सदा।। दुख हरन आनन्द भरन तारन तरन चरन रसाल है। सुकुमाल गुनमनिमाल उन्नत, भाल की जयमाल है।। जय त्रिशला नन्दन, हरिकृत वन्दन, जगदानन्द, चन्दवरं। भव तापनिकन्दन तन कन मन्दन, रहितसपन्दन, नयनधरं।। जय केवल भानु कला सदन। भविकोक विकाशन कंजवनं। __जगजीत महारिपु मोहहरं। रजज्ञानदृगांबर चूरकरं।।। गर्वादिक मंगल मंडित हो। दुख दारिद्र को नित खन्डित हो। जगमांहि तुम्ही सत्पंडित हो। दुख दारिद्र को नित खंडित हो। हरिवंश सरोजन को रवि हो। बल्वन्त महंत तुम्हीं कवि हो।। लहि केवल धर्म प्रकाश कियो। अबलों सोई मारगराजतियो।
पुनि आपतने गुनमांहि सही। सुर मग्न रहै जितने सबहीं।। तिनकी बनिता गुणगावत हैं। लय माननि सों मन भवत हैं। पुनि नाचत रंग उमंग भरी। तुम भक्ति विषै पग एम धरी।।
झननं झननं झननं झननं। सुर लेत तहां तननं तननं।
घननं घननं घन घंट बजै। दृमदं दृमदं मिरदंग सजै। गगनांगनगर्भगता सुगता। ततता ततता अतता वितता।। धृगतां धृगतां गति बाजत है। सुरताल रसाल जु छाजत है।
सननं सननं सननं नभमें। इक रूप अनेक जुधारि भ्रमैं।। कै नारि सुबीन बजावति हैं। तुमरो जस उज्ज्वल गावति हैं। करताल विषै करताल धरै। सुरताल विशाल जुनाद करै।। इन आदि अनेक उछाह भरी। सुर भक्ति करें प्रभुजी तुमरी। तुमही जगजीवन के पितु हो। तुमही बिन कारन के हितु हो। तुमही सब विघ्न विनाशन हो। तुमही निज आनन्द भासन हो। तुम ही चितचिंतितदायक हो। जगमांहि तुम्हीं सब लायक हो।। तुम्हरे पन मंगलमांहि सहि। जिय उत्तम पुन्य लियो सबही।।
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हमको तुमरी सरनागत है। तुमरे गुन में मन पागत है।। प्रभु मो हिय आप सदा बसिये। जबलों वसु कर्म नहीं नसिये।। तबलों तुम ध्यान हिये वरतो। तबलों श्रुतचिंतन चित्त रतो।। तबलों व्रत चारित चाहतु हों। तबलों शुभभाव सुगाहतु हों।। तबलोंसत संगति नित्य रहो। तबलों मम संजम चित्त गहों।। जबलों नहिं नाश करों अरिकों। शिवनारि वरों समताधरिको।। यह द्यो तबलों हम्को जिनजी। हम जाचतु हैं इतनी सुनजी।।
श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा नागनरेशा भगति भरा।।
वृन्दावन ध्यावें विघ्न नशावै। वांछित पावे शर्मवरा।। ऊँ ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्राय महाग्रंम निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सन्मते के जुगलपद, जो पूजै धरि प्रीत। वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत।।
श्री सरस्वती पूजा
दोहा
जनम जरा मृतु क्षय करै, हरै कुनय जड रीति।
भवसागरसौं ले तिरे, पूजै जिंवच प्रीति।। ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वत्यै पुष्पांजलः।
छीरोदधिगंगा विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखगंगा। भरि कंचन झारी, धार निकारी तृषा निवारी हित चंगा।। तीर्थंकर की ध्वनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्य भई।। ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मंगाया चन्दन आया, केशर लाया रंग भरी। शारदपद वन्दों, मन अभिनन्दों,पाप निकन्दों दाह हरी।।तीर्थः ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै चन्दनम निर्वपामीति स्वाहा।
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सुखदासक मोदं, धारक मोदं अति अनुमोदं चन्दसमं।
बहु भक्ति बढाई, कीरति गाई,होहु सहाई, मात ममं । हरी || तीर्थः ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा।
बहु फूल सुवासं, विमल प्रकाशं, आनन्दरासं लाय धरे। मम काम मिटायो, शील बढायो, सुख उपजायो दोष हरे । तीर्थः ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
पकवान बनाया, बहुघृत लाया, सब विध भाया मिष्ट महा पूजूं थुति गाऊं, प्रीति बढाऊँ, क्शुधा नशाऊं हर्ष लहा॥ तीर्थः ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।तीर्थः ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
कर दीपक - जोतं, तमक्षय होतं, ज्योति उदोतं तुमहि चढै । तुम हो प्रकाशक, भरमविनाशक, हम घट भासक ज्ञानबढै। तीर्थः ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभगन्ध दशोंकर, पावक में धर, धूप मनोहर खेवत हैं। सब पाप जलावे, पुण्य कमावे, दास कहावेसेवत हैं। तीर्थः ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै धूपम निर्वपामीति स्वाहा।
बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी ल्यावत हैं। मन वांछित दाता, मेट असाता, तुम गुन माता, ध्यावत हैं।तीर्थः ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै फलम निर्वपामीति स्वाहा।
नयनन सुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्ज्वला, मोलधरै । शुभगन्धसम्हारा, वसननिहारा, तुम अन धारा ज्ञान करै। तीर्थः ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
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जलचन्दन अक्षत, फूल चरु, चत, दीप धूप अति फल लावै।
पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुखपावै।। ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्रभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।।
जयमाला
सोरठा ओंकार ध्वनिसार, द्वादशांगवाणी विमल।
नमों भक्ति उर धार, ज्ञान करै जडता हरै।। पहलो आचारांग बखानो, पद अष्टादश सहस प्रमानो। दूजो सुत्रकृतं अभिलाषं, पद छत्तीस सहस बयालिस पदसरधानम्।
तीजो ठानाअंग सुजानं, सहस बयालिस पदसरधानम्।
चौथो समवायांग निहारं, चौसठ सहस लाख इकधारम पंचम व्याख्याप्रज्ञप्ति विसतारं, दोय लाख अट्ठाइस सहसं।
छट्ठो ज्ञातृकथा विसतारं, पाँच लाख छप्पन हज्जारं।। सप्तम उपासकाध्ययनंगं, सत्तर सहस ग्यारलख भंग। अष्टम अंतकृत दस ईसं, सहस अट्ठाइस लाख तेइस।। नवमअनुत्तरदश सुविशालं, लाख बानवै सहस चवालं। दशम प्नव्याकरण विचारं, लाख तिरानव सोल हजारं।। ग्यारम सूत्रविपाक सुभाखं, एक कोड चौरासी लाखं। चारकोडि अरु पंद्रह लाखं, दो हजार सब पद गुरु शाख।।
द्वादश दृष्टि वाद पनभेदं, इकसौ आठ कोडि पंवेदं। अडसठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पंचपद मिथ्या हन हैं।। इक सौ बारह कोडि बखानो, लाख तिरासी उपर जानो। ठावन सहस पंच अधिकाने, द्वादश अंग सर्वपद माने।। कोडि इकावन आठ ही लाखं, सहस चुरासी छहसौ भाखं।
साढे इकीस श्लोक बताये, एक एक पद के ये गाये।।
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धत्ता । जा बानी के ज्ञात तै, सूझे लोक अलोक। ___ “द्यानत” जग जयवंत हो, सदा देत हों धोक।। ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्रभवसरस्वतीदेव्यै महाय॑म निर्वपामीति स्वाहा।
श्री गौतम गणधर पूजा श्री गौतम गणईश शीष यह तुम्हे नमा कर आव्हानन अब करूँ आय तिष्ठो मानस पर। पाके केवल ज्योति ज्ञाननिधि हुए गुणाकर। निज लक्ष्मी का दान करो मेरे घट आ कर। श्री गौतम गण ईश जी तिष्ठो मम उर आय।
ज्ञान-लक्ष्मी पति बने, मेरी मानव काय। ॐ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्त श्री गौतमगणधराय पुष्पांजलिः।
वसंतिका छन्द गांगेय वारि शुचि प्रासुक दिव्य ज्योति। जन्मादि कष्ट निज वारण को लिया ये।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर युक्त मलयागिर को घिसाया संसार ताप शमनार्थ इसे बनाया संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय सुगन्धं निर्वपामीति स्वाहा।
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मुक्ताभ अक्षत सुगन्धि चुना चुना के, व्याधिन अक्षत-पदार्थ सजा सजा के।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ॐ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कन्दर्प दर्प दलनार्थ नवीन ताजे, बेला गुलाब मच्कुन्द सु पार्जाती। संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बज –में चढाता। ॐ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरादि मिश्रित अमीघ बल प्रदाता, पक्कान्न थाल यह भूख निवारने को। संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नादि दीप नवज्योति कपूर वर्ती, उद्दाम-मोह-तम- तोम सभी हटाने। संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ॐ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय दीपम निर्वपामीति स्वाहा।
अज्ञान मोह मद से भव में भ्रमाता, ये दुष्ट कर्म, तिस नाशन को दशांगी। संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय धूपम निर्वपामीति स्वाहा।
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केला अनार सह्कार सुपक्क जामू, ये सिद्धमिष्ठ फल मोक्षफलाप्ति को मैं। संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय फलम निर्वपामीति स्वाहा।
पानीय आदि वसु द्रव्य सुगन्धयुक्त, लाया प्रशांत मन से निज रूप पाने। संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
वीर जिनेश्वर के प्रथम गणधर-गौतम-पाय। नमन करूँ कर जोडकर स्वर्ग मोक्ष फल दाय।।
हरिगीत्तिका जय देव श्रीगौतम गणेश्वर। प्रार्थना तुमसे करूँ।
सब हटा दो कष्ट मेरे अर्ध्य ले आरती करूँ। हे गणेश। कृपा करो, अब आत्म ज्योति पसार दो।
हम हैं तुम्हारे सदय हो दुर्वासनायें मार दो। वीर प्रभुनिर्वाण-क्षण में था सम्हाला आपने। अब चोड तुमको जाउँ कहँ घेरा चहँ दिशि पाप ने। है दिवस वह ही नाथ। स्वामीवीर के निर्वाण का। जग के हितैषी बिज्ञ गौतम ईष केवल ज्ञान का। नाथ। अब कर के कृपा हम्को सहारा दीजिये। दीपमाला-आरती पूजा गृहम मम कीजिये।
दीपमाला-आरती पूजा गृहण मम कीजिये। ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
ज्योति पुंज गणपति प्रभो। दर करो अज्ञान समता रस से सिक्त हो नया उगे उर भानु।।
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महावीराष्टक-स्तोत्रम
(कविवर भागचन्द्र)
शिखरिणी छन्द यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः, समंभांतिध्रौव्य-व्यय-जनि-लसंतोंत-रहिताः। जगत-साक्षी-मार्ग-प्राकटन-परो भानुरिव यो,
महावीरस्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।। अतानं यच्चक्षुः कमल-युगलं-स्पन्द-रहितम, जनान कोपापायं प्रकटयति वाभ्यंतरमपि। स्फुटं मूर्ति-य॑स्य प्रशमितमयी वातिविमला,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे। नमन नाकेन्द्राली-मुकुट-मनि-भा-जाल-जटि-लम
लसत पादाम्भोज-द्वयमिह यदीयं तनुभृताम्। भवज्जवाला-शांत्यैप्रभवति जलम वा स्मृतमपि, महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
यदर्चा-भावेन प्रमुदित-मना दर्दुर इह, क्षणादासीत स्वर्गी गुण-गणसमृद्धः सुखनिधिः। लभंते सद्भक्ताः शिव-सुख-समाजं किमु तदा,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे। कनत स्वर्णाभासोप्यपगत-तनु-ज्ञान-निवहो, विचित्रात्माप्येकोनृपति-वर-सिद्धार्थ-तनयः। अजन्मापि श्रीमान विगत-भव-रागोद्भुत-गतिः,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे। यदीया वागंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला, बृहज्ज्ञानाम्भोभि-गति जनतां या स्नपयति। इदानी-मप्येषा बुध-जन-मरालैः परिचिता, महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
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अनिर्वारोद्रेक-स्त्रिभुवन-जयी काम-सुभटः कुमारावस्थायामपि निज-बलाद्येन विजितः । स्फुरन नित्यानन्द-प्रशम-पद- राज्याय सजिनः, महावीर स्वामी नयनपथ - गामी भवतु मे । महा-मोहांतक-प्रशमन-पराकस्मिक भिषग, निरापेक्षो बन्धु-विर्दित-महिमा मंगल-करः । शरण्यः साधूनां भव-भय-भूआ-मुत्तम-गुणो,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे । महावीराष्टकं स्त्रोत्रं भक्त या 'भागेन्दु' ना कृतम्। यः पठेच्छृणुयाच्चापि, स याति परमां गतिम्।।
जिनवाणी माता की आरती
जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बे वाणी । सुर नर मुनि ज्ञानी ॥
श्री जिन गिरते निकसी, गुर गौतम वाणी । जीवन भ्रम तुम नाशदीपक दरशाणी।। जय....
कुमत कुलाचल चूरण, वज्रसु सरधानी । नय नियोग निक्षेपण देखन, दरशाणी ॥ जय.... पातक पंक पखालन, पुण्य पाणी।
मोह महार्णव डूबत, तारण नौकाणी ॥ जय.... लोकालोक निहारण, दिव्य नेत्र स्थानी। निज पर भेद दिखावन, सूरज किरणानी।। जय.... श्रावक मुनिगण जननी, तुमही गुणखानी । सेवक लख दुखदायक, पावन परमाणी।। जय ....
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श्री महावीर स्वामी की आरती
जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो । कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानन्द विभो ।। ऊँ जय महावीर. सिद्धार्थ घर जन्मे, वैभवथा भारी ।
बाल ब्रह्मचारी व्रत पाल्यौ, तपधारी ।। ऊँ जय महावीर.... आतम ज्ञान विरागी, समदृष्टिधा ।
मायामोह विनाशक, ज्ञान ज्योतिजारी ।। ऊँ जय महावीर..... जग में पाठ अहिंसा, आपहि विस्तार्यौ ।
हिंसा पाप मिटा कर, सुधर्म परचारयौ ।। ऊँ जय महावीर .. यहि विधि चाँदनपुर में,अतिशय दर्शायौ ।
ग्वाल मनोरथ पूर्यो, गाय पायौ ।। ऊँ जय महावीर.. प्राणदान मंत्री को, तुमने प्रभु दीना।
मन्दिर तीन शिखर का निर्मित है कीना ।। ऊँ जय महावीर ... जयपुर नृप भी तेरे, अतिशय के सेवी ।
एक ग्राम तिन दीनों, सेवा हित यह भी ।। ऊँ जय महावीर. जो कोइ तेरे दर पर इच्छा कर आवे ।
धन, सुत सब कुछ पावे संकट मिट जावे।। ऊँ जय महावीर.... निशदिन प्रभु मन्दिर में जगमग ज्योति करै ।
हरिप्रसाद चरणों में, आनन्द मोद भरें ।। ऊँ जय महावीर.
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दिवाली पर जलाओ दीप
जलाओ तो दीप जलाओ, मत जलाओ किसी को, करो तो अन्धकार दूर करो, मत करो अन्धा किसी को, हंसाओ तो सभी को हंसाओ,
मत रुलाओ किसी को, बनाओ तो, शुभमय बनाओ अशुभ मत बनाओ,
दिवाली को। श्री सुधासागर जी महाराज का आशीर्वाद
जो बम फोडे, मनुष्यों को मारे वह आतंकवादी है,
जो पटाखे फोडे जीवों को मारे वह- है? पटाखे के धुएँ से प्रदुषण होता है, स्वास्थ्य खराब होता है,
रोगीजनों को बहुत कष्ट होता है। पटाखों की आवाज से मनुष्य,
पशुपक्षी भयभीत होते हैं। उनकी बद्दुआओं से क्यों अपना जीवन दुःखी करते हो।
हे मानव! देवता तुम तो दयालु हो, समझदार हो, फिर दिवाली पवित्र त्योहार पर पटाखे से हिंसा क्यों करते हो?
___ पटाखे फोड प्रदुषण करने वाले की अपेक्षा, प्रदुषण नहीं करने वाले श्रेष्ठ लोगों की नकल कर महान बनना
श्रेष्ठ है। क्या आप अपने शौक को पूरा करने के लिये मुँह में या हाथों की मुट्ठियों में रखकर पटाखे फोड सकते हैं? नहीं ना क्योंकि जल जायेंगे। फिर छोटे-छोटे जीवों के साथ अन्याय
क्यों? हम पशु होकर के भी मनोरंजन के लिये किसी प्राणी को मारते
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नहीं हैं।
पूर्व के पुण्य कर्म से स्वस्थ शरीर मिला है पटाखों से यदि कोई अंग खराब हो गया तो? क्या पुनः मिल सकेगा ?
पटाखे से मेहनत की कमाई बर्बाद होती है, उन पैसें से किसी गरीब का इलाज, गरीब को शिक्षा, त्योहार पर मिठाई का वितरण कर, एक अच्छे इंसान क्यों नहीं बनते ? हर वर्ष पटाखों से कई जगह पर अग्नि लग जाती है, कई जन मर जाते हैं। क्या आपको पता है इस वर्ष किसका नम्बर है? आतिशबाजी से पर्यावरण, धन, जन, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शांति, धर्म, श्रद्धा, समर्पण, विवेक, बुद्धि की हानि कौन समझदार करेगा ? सच्चा श्रद्धालु वही है जो अपने भगवान, गुरु की आज्ञा पूर्णतः पालन करता है।
जब तुम किसी मरे को जिन्दा नहीं कर सकते, तो मारने का क्या अधिकार है?
प्रभु महावीर का सन्देश जियो और जीने दो, आतिशबाजी कहती है, मरो और मारने दो।
अपने नगर, प्रदेश, देश, विश्व को स्वच्छ सुन्दर, अच्छे से अच्छा के लिये हमे सबके साथ मिलकर कार्य करना होगा । भगवान उनसे प्रेम करता है जो उनके उपदेशों का पालन करता है।
क्या भगवान ने पटाखे फोडने का उपदेश दिया है?
जो गलती कर न सुधरे वह हैवान कहलाता है, जो गलती पर गलती करे वह शैतान और जो गलती कर सुधर जावे वह इंसान कहलाता है और जो गलती ही न करे वह महान कहलाता है।
दीपावली एक पवित्र त्योहार है,
पटाखे फोडकर इसे अपवित्र मत करो।
यह पृथ्वी सूक्ष्म और बडे जीवों के कारण बनी हुई है, अतः प्रत्येक प्राणी को जीने का अधिकार है।
यदि
तुम स्वस्थ, सुन्दर आनन्दमय सुखी जीवन जीना चाहते हो, तो अपने कार्यों
से किसी भी जीव का घात न हो, ध्यान रखो।
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________________ प्रत्येक जीवात्मा शक्तिरूप से समान है, इस प्रकृति में सभी का सहयोग, सभी जीव जीना चाहते हैं और मरने से डरते हैं। मैं मानता हूँ तुम समझदार हो, पटाखे फ़ोडकर भगवान को नाराज नहीं करोगे। प्रातःकाल महावीर स्वामी मोक्ष गये शिष्य गौतम गणधर ने प्रभुवाणी पर विचार किया शुभकामनाओं से नहीं शुभ शुद्ध पुण्य कार्य करने से जीवन मंगलमय कल्याणमय बनता है तब प्रभु आज्ञापालन में ऐसे दत्तचित्त हुए कि सायंकाल केवलज्ञान ज्योति प्रगट हुई प्रकाशित हुआ जग मग सर्वत्र हर्षित देव मनुष्यों ने सर्वज्ञ द्वय प्रभु की केवलज्ञान ज्योति के उपकारों के प्रति श्रद्धा भक्ति समर्पण में दीप मालिका प्रकाशित कर बताया जगत को ऐसा ज्ञान प्रकाश प्रगट करो जो मिटाये सभी के अज्ञान अन्धकार जो बताये सत्य अहिंसा से सुखी बने सारा संसार 34