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________________ हमारी धार्मिक आस्था तथा इतिहास-प्रामाणित परम्परा बनी रहे इस आर्थ दीपावली अर्थात कार्तिक कृष्ण अमावस्या को प्रातः काल श्री जिनेन्द्र भगवान की भक्ति भाव सहित पूजन कर निर्वाण लाडू चढावें। पश्चात अच्छे चौघडिये में अथवा सायंकाल सूर्यास्त पूर्व दुकानों, कारखानों संस्थानों एवं गृहों पर परिवारजन एकत्रित हो कर समुहिक रूप से पूजा, आर्ती, भक्ति, दीपोत्सव व परस्पर मिलने का क्रम बनाये रखें। यदि हम वही मुहूर्त कार्य 1 अप्रैल को करें तो दीपावली पर पूर्व की अपेक्षा सम्पूर्ण आओजन में मात्र बही-मुहूर्त कार्य कम हो जायेगा। दीपमालिकायें केवल ज्ञान की प्रतीक हैं। सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो, अन्धकार का नाश हो, इस भावना से दीपमालायें जलानी चाहिये। दीपावली के पूर्व कार्तिक त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर ने बाह्य समवसरण लक्ष्मी का त्याग कर मन-वचन और काय का निरोध किया। वीर प्रभु के योगों के निरोध से त्रयोदशी धन्य हो उठी, इसीलिये यह तिथि " धन्य-तेरस” के नाम से विख्यात हुई। यह पर्व देवस त्याग के महत्व को दर्शाता हुआ यह सन्देश देता है के हम मनवचन-काय से कुचेष्टाओं का त्याग करें और बाह्य लक्ष्य से हट कर अंतर के शाश्वत स्वर्ण-रत्नत्रय को प्राप्त करें। अगले दिवस चतुर्दशी को भगवान महावीर ने 18000 शीलों की पूर्णता को प्राप्त किया। वे रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर अयोगी अवस्था से निज स्वरूप में लीन हुए। अत एव इस पर्व दिवस “रूप-चौदस” के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए व्रतादि धारण कर स्वभाव में आने का प्रयास करना चाहिये। भगवान की दिव्यध्वनि स्यात, अस्ति-नास्ति. अवक्तव्य आदि सात रूपों में खिरी थी इसलिये यह दिन “गोवर्द्धन” के रूप में मनाया जाता है। “गो” अर्थात जिनवाणी तथा वर्द्धन का अर्थ प्रकटित वर्द्धित। इस दिन तीर्थंकर की देशना के पश्चात पुनः जिनवाणी का प्रकाश हुआ, वृद्धि हुई इसलिये जिनवाणी की पूजा करनी चाहिये। धन-तेरस के दिन और दीपावली के दिन लोग धन-संपत्ति, रुपये-पैसे को लक्ष्मी मान कर पूजा करते हैं जो सर्वथा अयुक्तियुक्त है। विवेकवान जनों को इस पावन-पर्व के दिनों में मोक्ष व ज्ञान लक्ष्मी तथा गौतम गणधर की पूजा करनी चाहिये जो कि समयानुकूल, शास्त्रानुकूल, प्रामाणिक तथा कल्याणकारी है। शुभ क्रियाओं तथा शुभ-भावों से अंतराय कर्म के उदय से होने वाले विघ्न दूर होए हैं अतः सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की पूजा-भक्ति करना ही उचित है। इनकी आराधना से अशुभ का क्षय होता है, पारलौकिक श्रेष्ठ सुखों की तो बात ही क्या शाश्वत सुख-सिद्धि की प्राप्ति होती है। पुण्यवान जनों को तो इह लौकिक लक्ष्मी धन-धान्य सम्पत्ति आदि का सुख अप्रयास ही सहज सुलभ हो जाते हैं। 14
SR No.009249
Book TitleJain Diwali Sampurna Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M015
File Size2 MB
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