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રસૂરિ
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ग
जैन
बाल- शिक्षा
उपाध्याय अमर मुनि
भाग
FOXTROTE
Jain Education Internationa
अलाड
सन्मति ज्ञा.न.पीठ, आगरा
For Pavale & Percha use only
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सन्मति साहित्य रत्नमाला का दूसरा रत्न
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जैन - बाल - शिक्षा
भाग - पहला
सम्पादक
उपाध्याय अमरमुनि
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
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* प्रकाशक :
सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी, आगरा-२८२००२
★ बारहवाँ संस्करण : अप्रैल, १६६६
* मूल्य : चार रुपये
★ मुद्रक :
रतन आर्ट्स आगरा, फोन : ५१९६२
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. दो शब्द
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शिक्षा मानव-जीवन की उन्नति का सबसे बड़ा साधन है । किसी भी देश, जाति और धर्म का अभ्युदय, उसकी अपनी ऊँची शिक्षा पर ही निर्भर है । हर्ष है कि जैन समाज अब इस ओर लक्ष्य देने लगा है । और हर जगह शिक्षण-संस्थाओं का आयोजन हो रहा है ।
परन्तु लौकिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा का, जैसा चाहिए वैसा, प्रबन्ध नहीं हो पाया है । जहाँ कहीं प्रबन्ध किया भी गया है, वहाँ धार्मिक शिक्षा का अभ्यास-क्रम अच्छा न होने से वह पनप नहीं पाया है । ___ हमारी बहुत दिनों से इच्छा थी कि यह कार्य किसी अच्छे विद्वान के हाथों से सम्पन्न हो । हमें लिखते हुए हर्ष होता है कि उपाध्याय कविरत्न श्री अमरचन्द्र जी महाराज के द्वारा यह कार्य प्रारम्भ किया है । बालकों की मनोवृत्ति को ध्यान में रखकर ही उनकी योग्यतानुसार यह धर्म-शिक्षा का पाठ्यक्रम आपके सामने है । आप देखेंगे, कि किस सुन्दर पद्धति से धार्मिक, सैद्धान्तिक, नैतिक और ऐतिहासिक विषयों का उचित संकलन किया गया है । आशा है, यह पाठयक्रम धार्मिक शिक्षा की पूर्ति करेगा ।
ओमप्रकाश जैन मन्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी, आगरा
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| विषय-सूची
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संख्या. अध्याय
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ॐ
वन्दना २. भगवान महावीर
जाग, उठो ! जैन-धर्म खुश रहो !
नवकार मंत्र ___ जैन कौन है ?
उपदेश महाराज श्रीकृष्ण खाना काम की बातें
अच्छा बच्चा १३. डरो मत १४. सन्तों का दान १५. विद्या १६. अच्छा बालक
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धन्दना
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जय जय सन्मति, वीर हितंकर, जय जय वीतराग, जय शंकर !
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धन्दना
हे प्रभु वीर ! दया के सागर ! सब गुण-आगर, ज्ञान-उजागर ! जब तक जीऊँ, हँस-हँस जीऊँ ! सत्य - अहिंसा का रस पीऊँ !! छोडूं लोभ, घमंड, बुराई ! चाहूँ सबकी नित्य भलाई !! जो करना, सो अच्छा करना ! फिर दुनिया में किससे डरना !! हे प्रभु ! मेरा मन हो सुन्दर ! वाणी सुन्दर, जीवन सुन्दर !!
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भगवान महावीर
१. भगवान् महावीर, दुनिया में बड़े दयालु महापुरुष हुए हैं । उन्होंने दुनिया की भलाई के लिए राजपाट छोड़ा, साधु बने और सूने वनों में बड़े लंबे-लंबे तप किए, साधना की ।
२. भगवान् महावीर, आजकल के बिहार प्रान्त की वैशाली (क्षत्रिय कुण्ड) नगरी के राजा सिद्धार्थ के लड़के थे । बचपन से ही दीन-दुःखी को देखते, तो दया से रो पड़ते थे । उनका दिल बड़ा ही नरम था ।
३. उस समय भारतवर्ष के लोग अहिंसा-धर्म को भूल गये थे । देवी-देवताओं को खुश करने के लिए पशुओं को मार कर आग में हवन करने लगे थे । भगवान् ने सब जगह घूम-घूम कर अहिंसा-धर्म का उपदेश दिया, सबको सचाई का सीधा रास्ता दिखाया ।
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४. भगवान् महावीर धर्म के प्रचार में किसी से डरते नहीं थे, सदा सच बोलते थे । लोगों को धर्म का असली उपदेश देते थे । और सब लोगों की भलाई करते थे ।
५. भगवान् ने सारे भारतवर्ष में धर्म का प्रचार किया । गौतम स्वामी जैसे चौदह हजार साधु और चन्दनबाला—जैसी छत्तीस हजार साध्वियाँ उनके शिष्य बने । अन्त में पावापुरी में पहुँचे । वहाँ दीवाली की रात को सदा के लिए शरीर को छोड़ कर मोक्ष प्राप्त की ।
भगवान् महावीर स्वामी की जय !|
जैन - धर्म की जय ! अहिंसा, सत्य की जय !
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३
जाग, उठो ! जागो, जागो हुआ सबेरा, उठो, उठो, अब नींद भगा दो ! जग जाएँ सब लोग खुशी से, ऐसा सुन्दर गाना गा दो ! खोज-खोज करके तुम जग की, बुराइयों के किले ढहा दो ! चमक उठे गुण अच्छे-अच्छे, ऐसा नया चिराग जला दो ! जगमग कर दो जन्म-भूमि को, ऐसा नया जमाना ला दो !
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४
प्रश्न- तुम कौन हो ?
उत्तर- हम जैन हैं ।
प्रश्न - तुम्हारा धर्म क्या है ?
उत्तर— हमारा धर्म जैन है ।
प्रश्न - जैन धर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर — जो जिन देवों ने बताया है, उसे जैन-धर्म कहते हैं ।
प्रश्न- जिन देवों ने क्या सिखाया ?
उत्तर - किसी को दुःख न दो । सदा सच बोलो ।
बड़ों का विनय करो ।
लोभ
जैन - धर्म
लालच में न पड़ो । प्रेम से सबकी सेवा करो ।
( १० )
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प्रश्न- जिन - देव कौन होते हैं ? उत्तर- जो मन की बुराइयों को जीतते हैं,
सदा दुनिया की भलाई करते हैं,
वे महान् आत्मा जिन कहलाते हैं । प्रश्न- ऐसे जिन कौन हुए हैं ? उत्तर- भगवान् ऋषभदेवजी,
भगवान् पार्श्वनाथजी, भगवान महावीर स्वामी आदि चौबीस तीर्थंकर जिन-अरहंत हुए हैं ।
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खुश रहो । भारत की तुम आन बनोगे, भारत की तुम शान बनोगे ।
फिर क्यों रोनी-धोनी सूरत ? बड़े-बड़े तुम काम करोगे, माता-पिता का नाम करोगे
फिर क्यों रोनी-धोनी सूरत ? काम देश का करना होगा, हँसते-हँसते जीना होगा ।
फिर क्यों रोनी-धोनी सूरत ?
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( १२ )
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नवकार मंत्र
नमो अरहंताणं ।
नमो सिद्धाणं । नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सब्व-साहूणं ।
एसो पंच-णमुक्कारो, सव्व-पाव-प्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥
यह महामंत्र नवकार है । इसमें संसार के सब त्यागी और ज्ञानी महापुरुषों को नमस्कार किया गया है।
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७
जैन वह है, जो मन के क्रोध, अहंकार आदि विकारों को जीतने की कोशिश करता है, जो सदा भले काम करता है ।
कौन से भले काम हैं ?
जैन कौन है है ?
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१. सबके दुःख दूर करना । २. किसी को दुःख न देना । ३. सदा सच बोलना ।
४. चोरी न करना ।
५. कभी गाली न देना ।
६. दुःख पड़ने पर न घबराना ।
७. गरीब या अपाहिज की कभी भी हँसी
न करना ।
सब के साथ अच्छा बरताव करना ।
( १४ )
८.
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जैन को क्या करना चाहिए ? १. सवेरे रोज सामायिक करना । २. नवकार मंत्र का जाप करना । ३. माता-पिता का आदर करना । ४. गुरु-देव की भक्ति करना । ५. धर्म की पुस्तकें पढ़ना । ६. भूखों को भोजन देना । ७. रोगी की सेवा करना ।
( १५ )
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उपदेश
समय पर पाठशाला जाओ ! जाते ही अपने अध्यापक और अध्यापिकाओं को बड़े आदर से हाथ जोड़कर 'जय जिनेन्द्र कहो !
पाठशाला के सब बच्चों के साथ प्रेम का भाव रखो ! किसी से भी न लड़ो ! और न किसी को गाली दो न कड़वी बात कहो ! सब से मीठा बोलो !
अपना पाठ मन लगा कर पढ़ो ! अपने कपड़े साफ रखो ! अपनी पुस्तक को इधर-उधर मत फेंको !
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1SRA
महाराज श्रीकृष्ण ' महाराज श्रीकृष्ण बड़े वीर पुरुष थे । लेकिन वीर होने पर भी उनके दिल में दया कूट-कूट कर भरी हुई थी ! जब वे किसी दीन-दुःखी को देखते थे, तो वे उसका दुःख दूर करने के लिए बाकुल हो जाते थे ! ___ उनकी दयालुता की प्रशंसा यहाँ धरती पर
तो हो ही रही थी, अब देवलोक में भी होने _ ! एक बार देवताओं का राजा इन्द्र देवताओं से कहने लगा-देवगण ! संसार में दयालु पुरुष तो बहुत हैं, किन्तु महाराज श्रीकृष्ण जैसा दयालु कोई नहीं हैं। ___ इन्द्र की यह बात सुनकर एक देवता ने मन में सोचा, कि श्रीकृष्ण कितने दयालु हैं, इसकी परीक्षा करनी चाहिए । वह कुत्ते का रूप
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बनाकर आया और द्वारकापुरी के एक आम रास्ते के किनारे पड़ गया ।
वह कुत्ता भूख के मारे बेचैन था । देह में सिर्फ हड्डियाँ ही दिखाई दे रही थी । दांत बाहर को निकल आए थे, सारी देह सड़ रही थी । वह दर्द के मारे बुरी तरह चिल्ला रहा था । सारी देह में खून और मवाद चू रहा था ओर इतनी भयंकर दुर्गन्ध फैल रही थी, कि लोगों ने उस रास्ते से आना-जाना तक बन्द कर दिया । तभी उधर से श्रीकृष्ण निकले । उन्होंने तड़पते हुए कुत्ते की आवाज सुनी । उनके मन में फौरन दया उपजी और दुर्गन्ध की परवाह न करके वे इस कुत्ते के पास पहुंचे उन्होंने बड़े प्यार से उसे पूचकारा और अपने कीमती दुपट्टे को फाड़ कर उससे उसका मवाद पोंछने लगे । इसी तरह वे विविध प्रकार से उस कुत्ते की सेवा बड़ी देर तक करते रहे !
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देव ने देखा—सचमुच ही श्रीकृष्ण जैसा दयालु दूसरा कोई नहीं है ! वह प्रकट होकर बोला - महाराज ! धन्य हैं आप और धन्य है आपकी दयालुता ! आप जैसा कौन दयालु होगा, जो कुत्ते जैसे जानवर की इस तरह सेवा करेगा ?
इस प्रकार प्रशंसा करता हुआ वह देव श्रीकृष्ण को नमस्कार करके अपने स्थान को चला गया !
बच्चो ! तुमको भी इसी प्रकार दयालु बनना चाहिए ! किसी भी दुःखी प्राणी को पीड़ा से, दर्द से कहराते देखो, तो तुरन्त उसके पास जाओ और अपनी शक्ति के अनुसार उसकी सेवा करो ! तुमको श्रीकृष्ण की तरह दुःखी व्यक्ति के दुःख को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए !
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खाना
भगवत - नाम सुमरकर खाना दीन-दुखी को देकर खाना कड़ी भूख लगने पर खाना भोजन खूब चबा कर खाना
मन प्रसन्न जब हो, तब खाना नियत समय आवे, तब खाना जैसा पचता, वैसा खाना
पच न सके, वह कैसा खाना बार-बार मत खाना खाना चलते नहीं चबाना बैठकर खाना लेटे हुए कभी मत खाना मेहनत कर जल्दी मत खाना
अधिक न मीठा-खट्टा खाना अपने जाने घर का खाना गन्दा और अभक्ष्य न खाना सुथरा सुखी सदा बन जाना
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काम की बातें
१. प्रातः काल सूर्य निकलने के कुछ काल पहले के समय को अमृत-वेला कहते हैं । यह बड़ा सुहावना समय होता है । इस समय चित्त बड़ा प्रसन्न होता है । जो काम करो, उसमें मन लग जाता है । इसलिए जल्दी उठो और अमृत-वेला में भगवान् का भजन करो ।
२. अपने माता-पिता तथा बड़ों का आदर करो, उनका कहना मानो, उनकी सेवा करो । दुनिया में माता-पिता का दर्जा भगवान् के बराबर माना गया है ।
३. घर में भाई-बहिनों के साथ प्रेम से रहो । खाने-पीने की जो भी वस्तु हो, सब बाँट कर खाओ । अकेले कभी न खाओ ।
४. किसी दूसरे की वस्तु बिना पूछे मत लो । यह चोरी है और चोरी करना बड़ा पाप है ।
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अगर कभी कोई गलती हो जाय, तो साफ-साफ कह दो, छिपाओ नहीं ।
५. सच्चे मन से भगवान की भक्ति करो । उनके नाम की माला फेरो, भजन गाओ । शीतला वगैरह देवी-देवताओं की पूजा से कोई लाभ नहीं है, ये जड़ मूर्तियाँ न देवी हैं, न देवता हैं । भगवान् महावीर ने इसे पाखंड बनाया है । माता, पिता, गुरु ही सच्चे देवता हैं । इनकी पूजा करो ।
६. सदा निर्भय रहो । मन में भूत, चुड़ैल, प्रेत आदि किसी भी तरह का भय न रखो ! किसी भूत में ताकत नहीं है, जो तुम्हें दुःख दे सके ।
७. कभी निकम्मे मत बैठो । मन में बुरे विचार मत करो । मेहनत करना, समय पर खाना और समय पर सोना, यह अच्छे बालक की निशानी है ।
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अच्छा बच्चा
जो न किसी का हृदय दुखाता,
वह अच्छा बच्चा कहलाता ।
जो झगड़ों में नहीं उलझता, झूठ बोलना पाप समझता । अपने मन में प्रभु से डरता, नहीं काम मन - माना करता,
सुख से विद्या पढ़ने जाता,
वह अच्छा बच्चा कहलाता !
दया दिखाने में सुख मानों माता-पिता की आज्ञा मानो ।
नहीं करेगा पाप कभी वह,
क्या देगा संताप कभी वह ?
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वीर प्रभु का जो गुण गाता,
वह अच्छा बच्चा कहलाता ॥ जो अपना काम हाथ से करता, तन और मन को साफ रखता । जैसा कहता, वैसा करता, छल-कपट मन में नहीं रखता ।
वृद्ध जनों का आदर करता । वह अच्छा बच्चा कहलाता ॥
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डरो मत
भगवान महावीर बचपन से ही बड़े बहादुर और साहसी थे । चाहे कितना ही बड़ा भय का कारण क्यों न हो, पर वे बिल्कुल नहीं घबराते थे और निडर रहते थे । ___ भगवान् महावीर बचपन में खेलने के बड़े शौकीन थे । एक बार की बात है, कि वे कुछ साथी लड़कों के साथ खेलने के लिए जंगल में पहुँचे, तो क्या देखते हैं, कि एक पेड़ के पास भयंकर काला साँप पड़ा है । लड़के देखते ही डर गए, और चिल्ला कर इधर-उधर भागने लगे।
महावीर जी ने कहा-डरते क्यों हो ? क्या है, साँप ही तो है । भागो मत ! लो मैं अभी उसे दूर फेंक देता हूँ ! यह बेचारा खुद ही डरा हुआ है, तुम्हें क्या कहता है ! ___ महावीर ने आगे बढ़कर साँप की पूंछ पकड़ी और फूल माला की तरह उठा कर दूर फेंक
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दिया ! सब लडके महावीर जी के साहस की तारीफ करने लगे ।।
तुम भी भगवान् महावीर की सन्तान हो । देखना, भूलकर भी कभी डरना नहीं । जैन-धर्म में तो बस बुराई और पाप से ही डरना बताया है, और किसी से नहीं । ___ इस कहानी का यह मतलब नहीं, कि तुम भी साँप पकड़ने की कोशिश करो । इसका मतलब सिर्फ इतना ही है, कि तुम्हें निडर रहना चाहिए। बहुत से लड़के बड़े डरपोक होते हैं, जरा-जरा सी बात से डर कर रोने लगते हैं । अंधेरे में उनको हर जगह भूत और चुडैल का डर रहता है । इस तरह डरना, एक तरह का पाप है !
वीर की सन्तान हो तुम,
वीर ही बनकर रहो ! शेर ही की भाँति हरदम,
तुम निडर बनकर रहो !!
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सन्तों का दान
किसी नगर का एक राजा था । उसने एक दिन सन्तों को सोने की मुहरों का दान करना चाहा । उसने एक विश्वासी सेवक को बुलाया । उसके हाथ में मुहरों की एक थैली दी और कहा - " नगर में जितने सन्त हैं, उनमें इस धन को बाँट आओ ।"
सेवक सन्त की खोज में सारे दिन नगर में घूमता रहा । मगर दान लेने वाला सन्त उसको कोई न मिला । आखिर में उसने वह थैली जैसी-की-तैसी लाकर राजा के चरणों में रख दी राजा ने पूछा – “क्यों, क्या हुआ ?"
सेवक ने हाथ जोड़कर कहा – “महाराज, आपकी आज्ञा से मैने सारे नगर की खाक छान डाली, मगर कोई भी दान लेने वाला सन्त नजर नहीं आया । "
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राजा ने गरज कर कहा - "कैसी बढव बात कर रहे हो ? अनेक सन्त इस नगर में रहते
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हैं ! फिर भी तुम्हें दान लेने वाला एक भी सन्त नहीं मिला ?"
सेवक ने कहा-"महाराज, आपकी जय हो ! मैं सन्त लोगों के पास गया और आपकी इच्छा जाहिर की ! जो सच्चे सन्त थे, उन्होंने धन लेने से इन्कार कर दिया, बाकी जो थे वे धन के लोभी । उन्हें सन्त माना भी कैसे जाय ? और उन्हें दान देना आपको भी कब मंजूर है ?
सेवक की बात सुनकर राजा चुप हो गया, मौन हो गया ।
दरअसल जो सच्चे सन्त हैं, वे धन नहीं रखते । वे धन के त्यागी होते हैं । ___ दरअसल साधुओं को धन की जरूरत नहीं होती । जैन साधु कौड़ी, पैसा, नोट आदि कुछ भी धन न अपने पास रखता है और न अपने लिए किसी दूसरे के पास रखवाता है ।
साधु है सो साधे काया, कौड़ी एक न राखे माया ।
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विद्या | जय जय, जय विद्या महारानी ! जय, जय, जय सब सुख की खानी !!
तू है एक अनोखी माया ! बड़े भाग्य से तुझको पाया !!
सभी धनों की तू है दाता ! ज्ञान-मान की तू है माता !!
जिसने जग में तुझको पाया ! चतुर और विद्वान कहाया !!
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सबसे ऊँचा पद वह पाता ! राजा भी सिर उसे नवाता !!
राजा तुझको छीन सके ना ! कोई तुझको बँटा सके ना !!
देने से तू घट ना सकती ! बाँटे से तू बँट ना सकती !!
तेरी करते सभी बड़ाई ! इसीलिए तू मुझको भाई !!
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१६
अच्छा बालक
अच्छा बालक वही कहलाता,
नित्य सवेरे उठा करे ।
करे काम जो सदा समय पर,
प्रभु का सुमरन किया करे ॥ दया करे जो दीन
जनों पर
कभी न आलस किया करे । कभी भूल कर झूठ न बोले, दुःख न किसी को दया करे ॥
माता-पिता और सभी बड़ों की, मन से सेवा किया करे । प्रेम बढ़ावे सभी जनों से, गुरु की आज्ञा किया करे ||
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बैठ खूब एकान्त जगह में, सदा पाठ निज पढ़ा करे । नहीं किसी की पुस्तक छीने,
नहीं किसी से लड़ा करे ॥ डरे कभी ना किसी तरह भी, सबसे मन में प्रेम करे । थोड़ा बोले, मीठा बोले, धर्म-कर्म नित-नेम करे ॥
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________________ राष्ट्रसन्त उपाध्याय कविश्री जी महाराज द्वारा लिखित जैन बाल-शिक्षा चार भाग बाल विद्यालयों में नन्न-मुन्ने बच्चों के लिए धार्मिक शिक्षा हेतु बहुत ही उपयोगी पुस्तकें हैं। भारत के अनेक प्रांतों के स्कूलों की कक्षाओं में इन पुस्तकों को नैतिक शिक्षा के साथ पढ़ाया जाता है। * आप भी अपने बच्चों के लिए एवं पाठशालाओं के लिए उपरोक्त पुस्तकों को मंगाकर अपने बच्चों के नैतिक जीवन का विकास करें। रामधन शर्मा (साहित्यरत्न) व्यवस्थापक 1. जैन बाल शिक्षा 2. जैन बाल शिक्षा 3. जैन बाल शिक्षा 4. जैन बाल शिक्षा भाग 1 भाग 2 भाग३ भाग 4 सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा