Book Title: Hum Choradiya Khartar Nahi Hai
Author(s): Kesarichand Choradia
Publisher: Kesarichand Choradia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ हम चोरडिया खर-तर नहीं हैं - 000000०००००००००००००००००००G०००००००००००००००००००००००० 10000000000000000000 ___ "हम चोरड़िया, गुलेच्छा, पारख, गदइया, साव सुखा, भटनेरा, बुचा, रामपुरिया, नाबरिया, चौधरी, दफतरी, आदि ८४ जातियाँ वाले खर-तर नहीं पर उपकेश (कमला) गच्छ के हैं । राजपूतों से ओसवाल हुओं को आज २३९३ वर्ष ४ हुए हैं। हमारे प्रतिबोधक आचार्य रत्नप्रभसूरि हैं।" ६.०००००००.grammerm.0-00D००Om 0000...06 00000000000000000000 -केसरीचंद चोरडिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द आज बीसवीं शताब्दी संगठन युग कहलाती है। अन्यान्य जातियाँ चिरकालीन भेद भावों को भूल कर ऐक्यता के सूत्र में संगठित होने में ही अपनी उन्नति का मार्ग समझ रही हैं तब हमारा दुर्भाग्य है कि बिना ही कारण दिन दूणा और रात चौगुणा नये नये झगड़ा पैदा होते हैं । जैन समाज में त्यागी साधुओं की सब गच्छ वाले पूजा उपासना करते हैं । आहार पानी वस्त्र पात्र से सत्कार करते हैं । फिर समझ में नहीं आता है कि कई क्लेश प्रिय साधु पूर्वाचार्यों का अपमान और इतिहास का खून कर अपनी क्या उन्नति करना चाहते हैं ? जिन लोगों ने अन्य गच्छ वालों के साथ प्रेम एवं सहयोग रख कर यशः एवं नाम कमाया है ऐसे दूसरे गच्छ वालों से द्वेष रख कर नहीं कमाया है अतः सब साधुओं को चाहिये कि वे कोई भी गच्छ क्यों न हो पर सब के साथ मिल झुल कर रह कर दूसरे गच्छ वालों को भी अपनी ओर आकर्षित कर अपने और अपने पूर्वजों के गौरव को बढ़ावें । इस में ही समझदारी और विद्वत्ता है । वरना अखिल समाज को छोड़ एक गच्छ की ममत्व करना मानों एक समुद्र को छोड़ चिल्लर पानी का आश्रय लेना है। हम और हमारी चोरडिया जाति किसी गच्छ का साधु क्यों न हो गुणी जनों की पजा करने को सदैव तैयार हैं पर हमारे २४०० वर्षों के प्राचीन इतिहास को ८०० वर्षों जितना अर्वाचीन मानने को हम किसी हालत में तैयार नहीं हैं । इतना ही क्यों पर इस ज्ञान के प्रकाश में कोई भी जाति ऐसा करने को तैयार नहीं पर वे अपनी जाति की उत्पत्ति का इतिहास जनता के सामने रखने को तैयार हैं। किमधिकम् । 'केसरी' ___Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम चोरडिया-खर-वर नहीं हैं लेखक-केसरीचन्द चौरहिया) नागोर में खरतरगच्छीय श्रीमान् हरिसागरजी कदाग्रह पूर्वक आग्रह करते हैं कि “चोरड़िया" दादाजी जिनदत्त सूरिजी ने बनाये हैं। और जैन पत्र ता० १-८--३७ के अंक में यह बात नागोर के समाचार में छपाई भी है, पर सागरजी को अभी तक इस साधारण बात का भी ज्ञान नहीं है कि-दादाजी कब हुए, और चोरड़िया गोत्र कब बना ? आपने तो केवल हमारे कई अज्ञात पारख, गोलेच्छा भाईयों को खरतरों की क्रिया करते देख या यतियों के गप्प पुराण पढ़के यह प्रवचनोच्चारण कर दिया कि चोरडिया खरतर हैं । यदि सागरजी पहिले इस विषय का थोड़ा सा अभ्यास कर लेते तो दादाजी के जन्म के १५०० वर्ष पूर्व बने हुए चोरड़ियों को खर-तर कहने की भूल नहीं करते ? सागरजी चोरड़िया जाति की मूल उत्पत्ति से बिलकुल अज्ञात ही मालम होते हैं, क्योंकि हमारी चोरडिया जाति स्वतंत्र गोत्र नहीं है। अर्थात् यह नाम अजैनों से जैन बनाये उस समय का नहीं है । पर यह किसी प्राचीन गोत्र की शाखा है। प्रमाण के लिए खास खरतरगच्छीय यति रामलालजी ने अपनी “महाजन वंश मुक्तावली" नामक पुस्तक के पृष्ठ १० पर आचार्य रत्नप्रभसूरि स्थापित १८ गोत्रों में ११ वाँ गोत्र "अइचगाग” अर्थात् आदित्यनाग गोत्र लिखा है। उसी आदित्य नाग गोत्र की एक श:खा चोरडिया है । · इस विषय में हम नमूने के तौर पर अधिक दूर के नहीं, पर पन्द्रहवी सोलहवीं शताब्दी के एक दो ऐसे सर्वमान्य शिलालेखों के उदाहरण यहाँ उद्धत कर देते हैं कि जिससे सागरजी अपनी भूल को स्वीकार कर चोरडिया जाति को खर-तर नहीं पर उपकेशगच्छोपासक होना ग्रेषित कर देंगे। लीजियेः - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) " सं० १४८० वर्षे ज्येष्ठ वदि ५ उपकेश ज्ञातीय इच्चणाग गोत्रे सा० आसा भा० वाष्टि पु० सा जुनाहू भा० रूपी पु० खेया ताल्हा साबड़ श्री नेमिनाथ बिंबं का० पूर्वत लि० पु० आत्मार्थ श्रे० उपकेश कुक० प्र० श्री सिद्ध सूरिभिः । " लेखांक ७७ "इस शिलालेख में जिस गोत्र का नाम भाइकचणागें' लिखा है उसी " भइच्चाणाग" का रूपान्तर आदिव्यनाग नाम लिखा हुआ 'मिलता है देखिये : -- “सं० १५२४ वर्ष मार्गशीर्ष सुद १० शुक्रे उपकेश ज्ञातौ आदित्यनाग गोत्र स० गुणधर पुत्र० स० डाला० भा० कपूरी पुत्र स० क्षेमपाल भा० जिण देवाइ पु० स० सोहिलेन भ्रातृ पास दत्त देवदत्त भार्या नानू युतेन पित्रोः पुण्यार्थ श्री चन्द्रप्रभ चतुर्वि - शति पट्टकारितः प्रतिष्ठतः श्री उपकेश गच्छे ककुदाचार्य संताने श्री कक्कसूरिभिः श्री भट्टनगरे ।” , बाबू पूर्ण सं० शि० प्र० पृ० १३ लेखांक ५० ऊपर जो आदित्यनाग गोत्र लिखा है उसी आदित्यनाग गोत्र की शाखा चोरड़िया है। लीजिये : " सं० १५६२ व० वै० सु० १० रवौ उकेश ज्ञातौ श्री आदित्यनाग गोत्रे चोरवेड़िया शाखायां व० डालण पुत्र रत्नपालेन सं० श्रीवत व० धधुमल युतेन मातृपितृ श्रे० श्री संभवनाथ बिं० का० प्र० उकेशगच्छे ककुदाचार्य श्री देवगुप्तसूरिभिः” - बाबू० पूर्ण० सं० शि० प्र० पृष्ट ११७ लेखांक ४९७ आगे यह चोरड़िया जाति किस गच्छोपासक है: -- " सं० १५१९ वर्षे ज्येष्ठ वदि ११ शुक्रे उपकेशज्ञातीय चोर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) ड़िया गोत्रे उएशगच्छे सा० सोमा भा० धनाई पु० साधू मुहागदे सुत ईसा सहितेन स्व श्रेय से श्री सुमतिनाथ बिम्बं कारितं प्रतिष्ठितं श्री कक्कसूरिभिः सोणिरा वास्तव्य" लेखाङ्क ५५८ भगवान महावीर के पश्चात ३७३ अर्थात् विक्रम संवत् ९७ वर्ष पूर्व उपकेशपुर नगर में वृहदस्नात्र पूजा हुई उस समय स्नात्रीय बने थे निम्न लिखित गौत्र वाले थे: "तप्तभटो बाप्पनाग, स्ततः कर्णाट गौत्रजः॥ २ ३ ४ तुर्य बलाभ्यो नामाऽपि, श्री श्रीमाल पञ्चम स्तथा ॥ १६९॥ कुलभद्रो मोरिषश्च, विरिहिया ह्वयोऽष्टमः। श्रेष्टि गोत्राण्य मून्यासन, पक्षे दक्षिण संज्ञके ॥१७॥ सुंचिंति ताऽऽदित्य नागौ, भूरि भाद्रोऽथचिंचटि ॥ कुमट कन्याकुब्जोऽथ, डिडु भाख्येष्टमोऽपिच ॥१७॥ तथाऽन्यः श्रेष्टि गौत्रीय, महावीरस्य वामतः" “ उपकेशगच्छ चरित्र" अर्थात् तातेड़ बाफना करणावट बलाह श्री श्रीमाल कुलभद्र मोरख वीरहट और श्रेष्टि इन नौ गोत्र वाले स्नात्रीय महावीर की मूर्ति के दक्षिण यानी जीमणे तरफ पूजापा ले कर खड़े थे। संचेति-अदित्यनाग भूरि भाद्र चिंचठ कुभट कन्याकुब्ज डिड और लघुष्टि इन नौ गोत्र वाले डावी ओर पूजापा लिये खड़े थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस लेख से स्पष्ट पाया जाता है कि हमारा आदित्यनाग गोत्र आचार्य रत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन वंश के गोत्र में एक गोत्र है। इन ऊपर लिखित शिलालेखों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि चोरड़िया जाति स्वतंत्र गोत्र नहीं पर आदित्यनाग गोत्र की एक शाखा है और इसके स्थापन करने वाले जिनदत्तसूरि नहीं पर जिनदत्तसूरि के जन्म के १५०० वर्ष पूर्व हुए आचार्य रत्नप्रभसूरि हैं। और चोरड़ियों का गच्छ उपकेशगच्छ है। दादाजी के जन्म पूर्व इस आदित्यनाग गोत्र में कई नामी पुरुष हो गुजरे हैं परन्तु इस छोटे से लेख में इतना स्थान नहीं है कि उन सब का नामोल्लेख कर सकूँ। पर केवल भैंसाशाह नाम के चार नररत्न इस गोत्र में हुए हैं, उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दे देता हूँ १-श्रीमान् चन्दनमलजी नागोरी ने ७४॥ शाह का इतिहास "जैन-पत्र” अखबार भावनगर में प्रकाशित करवाया । जिसमें दूसरे नंबर का शाह भैंसा था। आपका गोत्र नागोरीजी ने आदिनाथ लिखा है, पर यह गलती से लिखा गया है। गोत्र था "आदित्यनाग" और इसका समय वि० सं० २०९ का बताया है। नागोरीजी के लेख का कुछ भाग यहाँ उद्धृत कर दिया जाता है: १-रांका वांक सेडादि बलाह गोत्र की शाखाए हैं। २-पोकरणादि मोरख गोत्र की शाखाए हैं। ३-भूरंटादि वीरहट गोत्र की शाखाए हैं । ४-वैद्यमेहतादि श्रेष्टि गोत्र की शाखाए हैं। ५-चोरड़िया गुलेच्छा पारख गदइया वगैरह आदित्यनाग गोत्र की शाखाए हैं। ६-समदड़िया भांडावतादि भादगोत्र की शाखाए हैं। ७-देसरड़ादि चिंचटगोत्र की शाखाए है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "xxxxभैंसाशाह की कीर्ति सारे विश्व में फैल गई। बाद में आप यात्रा को पधारे। सारी यात्राएं करने के बाद जीमन किया। याने दो मरतबा जुग किया। जितने जीमण वाले उन सबको जिमाया । और नर-नारियों को अच्छे वस्त्राऽलंकार की पेहरावनी दी । दान पुण्य भी आपने बहुत सा किया । जिन मन्दिर बनवाये और संघ में नाम किया। आपने एक लाख घोड़े और एक लाख गायें दातारी दान में दिये । आपकी बनाई हुई घी तेल की बावड़िये खण्डहर रूप में अब तक माण्डवगढ़ में विद्यमान हैं। कोई देखना चाहे तो जाकर देख सकता है। आप विक्रम सं० २०९ दो सौ नव के समय हुए हैं। जैन समाज के साहित्य में आपका नाम सुवर्णाऽक्षरों से लिखा हुआ है।" जैनपत्र ता० २० नवम्बर २५ २-दूसरा भैंसाशाह विक्रम की छठी शताब्दी में हुआ है। जिसका वि० सं० ५०८ का शिलालेख पुरातत्व संशोधक इतिहासज्ञ मुन्शी देवीप्रसादजी जोधपुर वालों की शोध खोज से कोटा राज्य के अटारू नाम के ग्राम के भग्न मन्दिर में मिला है । जिसको मुन्शीजी ने 'राज पूताना की शोध खोज' नाम की पुस्तक में मुद्रित करवाया है। मुन्शीजी को शोध खोज करने पर यह भी पता मिला है कि इस भैंसाशाह और रोड़ा बिनजारा के आपस में व्यापार सम्बन्ध और गाढ़ी प्रीति भी थी। जिसको स्मृति के लिए भैंसा और रोड़ा दोनों के नाम भैंसरोड़ा नामक ग्राम बसाया था जो मेवाड़ में इस समय भी विद्यमान है। ३-तीसरा भैंसाशाह डीडवाना में हुआ। आपने डीडवाने में एक कुआ खुदवाया था, वह आज भी विद्यमान है। बाद में रोज-खटपट से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) वे डीडवाना छोड़ भिन्नमाल में जा बसे थे। इस विषय का पट्टावलि में भी उल्लेख मिलता है। ____ "५० तत्पट्टे संवत् ११८८ वर्षे देवगुप्तसूरिर्बभूव । भिन्नमाल नगरे शाह भइसाक्षेन पद महोत्सवे सप्तलक्ष धन व्ययो कृतः x x इत्यादि" इस भैंसाशाह से चोरड़िया जाति में गदइया शाखा की उत्पत्ति हुई थी। ____ जब सं० ११०८ में चोरडिया जाति से गदइया शाखा का प्रादुर्भाव हो गया था तब जिनदत्तसरि का जन्म ही सं० १९३२ में हुआ था, अब स्वयं सोचें कि चोरडिया या गदइया जाति के स्थापक जिनदत्तसूरि किस प्रकार से बन सकते हैं कि जिनका जन्म भी नहीं हुआ था। ४-चौथा भैंसाशाह नागोर में हुआ। आपके तीन बान्धव और भी थे, जिसमें बालाशाह ने नागौर में मन्दिर बनाया जो बड़ा मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। टीकुशाह ने टीकुनाड़ा बनाया, घीसुशाह ने गायों के लिये भूमि छोड़ाई और भैंसाशाह ने श्री शत्रुक्षय का वृहद् संघ निकाला इत्यादि । इनके अलावा भी इस आदित्यनाग गौत्र रूपी समुद्र में मनगिनती के नर-रत्न हुए हैं जोकि अपने गोत्र को २३९३ वर्ष जितना प्राचीन साबित करते हैं। खरतरों ने यह कोई नया बबण्डर नहीं उठाया है, पर पहिले भी चोरड़िया जाति के लिये इतर लोगों ने खींचातानी की थी, जिसका निर्णय जोधपुर के न्यायाऽवतार नरेशों की अदालत में हुआ था, और उन्होंने मय साबूती के निर्णय कर फैसला ही क्यों पर अपनी मुहर का फरमान भी कर दिया था कि चोरडिया जाति उपकेश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छोपासक है। उन फरमानों के अन्दर के एक परवाना की नकल मैं यहाँ दर्ज कर देता हूँ कि जिस पर खरतर लोग विचार करें। धनकल श्रीनाथजी मुहर ) श्रीजलन्धरनाथजी संघवीजी श्री फतराजजी लिखावतो गढ़ जोधपुर, जालोर, मेड़ता, नागोर, सोजत, जैतारण, बीलाड़ा, पाली, गोड़वाड़, सीवाना, फलोदी, डीडवाना, पर्वतसर वगैरह परगनों में ओसवाल अठारह खांपरी दिशा तथा थारे ठेठु गुरु कवलागच्छ रा भट्टारक सिद्धसूरिजी है जिणोंने तथा इणारा चेला हुवे जिणांने गुरु करी ने मान जो ने जिको नहीं मानसी तीको दरबार में रु० १०१) कपुर रा देशी ने परगना में सिकादर हुसी तीको उपर करसी। इणोंरा आगला परवाणा खास इणों कने हाजिर है। १-महाराजाजी श्री अजीतसिंहजी री सिलामती रो खास परवाणो सं० १७५७ रा आसोज सुद १४ रो। २-महाराज श्री अभयसिंहजी री खास सिलामती रो खास 'परवाणो सं० १७८१ रा जेठ सुद ६ रो। ३-महाराज बड़ा महाराज श्री विजयसिंहजी री सिलामती रो खास परवाणो सं० १८३५ रा आषाढ़ बद ३ रो। -इण मुजब आगला परवाणा श्री हजूर में मालूम हुआ तरे फेर श्री हजूर रे खास दस्तखतों रो परवाणो सं० १८७७ रा वैशाख बद ७ रो हुओ है तिण मुजब रहसी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगत खांप अठारेरी-तातेड़, बाफणा, वेद मुहता, चोरडिया, करणावट, संचेती, समदड़या, गदइया, लुणावत, कुमट, भटेवड़ा, छाजेड़, वरहट, श्रीश्रीमाल, लघुष्ठि, मोरख, पोकरणा, राका डिडू इतरी खांपा वाला सारा भट्टारक सिद्धसूरि ने और इणोंरा चेला हुवे जिणांने गुरु करने मान जो अने गच्छरी लाग हुवे तिका इणां ने दीजो। अबार इणारे ने लुकों रा जतियों रे चोरड़ियों री खाप रो असरचो पड़ियो। जद अदालत में न्याय हुवो ने जोधपुर, नागोर, मेड़ता, पीपाड़ रा चोरड़ियों री खबर मंगाई तरे उणोंने लिखायो के मारे ठेठु गुरु कवलागच्छ रा है । तिणा माफिक दरबार सुं निरधार कर परवाणो कर दियो है सो इण मुजब रहसी श्री हजूर रो हुकम है। सं० १८७८ पोस वद १४ । इस परवाना के पीछे लिखा है-( नकल हजूर के दफतर में लीधी छे) इन पाँच परवानों से यह सिद्ध होता है कि अठारा गोत्र वाले कवला ( उपकेश ) गच्छ के उपासक श्रावक हैं । यद्यपि इस परवाने में १८ गोत्रों के अन्दर से तीन गोत्र, कुलहट, चिंचट, ( देशरड़ा) कनोजिया इसमें नही आये हैं । उनके बदले गदइया, जो चोरड़ियों की शाखा है, लुनावत, और छाजेड़ जो उपकेश गच्छाचार्यों ने बाद में प्रतिबोध दे दोनों जातियाँ बनाई हैं इनके नाम दर्ज कर १८ की संख्या पूरी की है, पर मैं यहाँ केवल हमारी चोरडिया जाति के लिये ही लिख रहा हूँ। शेष जातियों के लिए देखो मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी की लिखी हुई “जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक। उपरोक्त प्रमाणों से डंके की चोट सिद्ध हो जाता है कि हमारी चोरदिया जाति स्वतंत्र गोत्र नहीं पर आदित्य नाग गोत्र की शाखा है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) हमारे उपदेशक वीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरि ही थे जो जिनदत्तसूरी के जन्म के १५०० वर्ष पूर्व हुए थे । जब चोरड़िया जाति उपकेश गच्छोपासक है तब चोरड़ियों से निकली हुई पारख, गोलेच्छा, गदइया, सावसखा, बुचा रायपुरिया, नाबरिया, चौधरी और दफ्तरी आदि तमाम जातिएं तो स्वयं आदित्यनाग गोत्र की शाखाएँ और उपकेशगच्छोपासक सिद्ध हो जाती हैं । इस विषय में हम यहाँ पर अधिक लिखना इस गरज से भीक नहीं समझते हैं कि थोड़े ही समय में हमने हमारी जाति की एक स्वतंत्र पुस्तक लिखने का निर्णय कर लिया है । यदि खरतरों के पास चोरड़िया जिनदत्तसूरी के बनाए को प्राचीन साबूती हो तो एक मास के अन्दर वे प्रगट करें कि जिससे चलती कलम में उसको भी सत्यता की कसौटी पर कस कर परीक्षा कर दी जाय । प्यारे खरतरों ! अब चार दीवारों के ( चहार दीवारी ) बीच बैठ बिचारी भोली भाली औरतों को या भद्रिक लोगों को बहकाने का जमाना नहीं है। अब तो आप दादाजी या आप के आस पास के समय का प्रमाणिक प्रमाण लेकर मैदान में आओ । बहुत अर्से तक आपकी उपेक्षा की गई है, पर अब काम बिना प्रमाण के चलने का नहीं है । कई अज्ञ खरतरे कहते हैं कि ओसवाल कौम ओसियाँ में रत्नप्रभसूरि ने नहीं बनाई है, पर ओसवालों को तो खरतराचार्यों ने ही बनाये हैं । यदि कोई प्रमाण पूछते हैं तब उत्तर मिलता है कि हम कहते हैं न ? - और अधिक पूछने पर खरतर यतियों के गप्प-पुराण बता देते हैं । बस ! खरतरों के लिये और प्रमाण ही क्या हो सकता है ? ये तो ठीक उसी कहावत को चरितार्थ करते हैं कि "मेरी मा सती है" प्रमाण ? लो मैं कहता हूँ - अधिक कहने पर कहा जाता हैकि : - गवाही लो मेरे भाई की । वाहरे ! खरतरों !! तुम्हारे प्रमाण की बलिहारी है । हमें न तो रत्नप्रभसूरि का पक्ष है और न खरतरों से किसी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) प्रकार का द्वेष ही है। हम तो सत्य के संशोधक हैं। यदि रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल नहीं बनाये और खरतरों ने ही ओसवाल बनाये यह बात सत्य है तो हमें मानने में किसी प्रकार का एतराज नहीं है क्योंकि आखिर खरतर भी तो जैन ही हैं। परन्तु इस कथन में खरतरों को कुछ प्रमाण देना चाहिये कि जैसे रत्नप्रभसूरि के लिए प्रमाण मिलते हैं । अब हम खरतरों से यह पूछना चाहते हैं कि: -ओसवाल जाति का वंश उपकेशवंश है जो हजारों शिलाखों से सिद्ध है और उपकेशवंश, उपकेशपुर एवं उपकेशगच्छ से संबन्ध रखता है या खरतरगच्छ से ? २-रत्नप्रभसूरि नहीं हुए और रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल नहीं बनाये तो आप यह बतलायें कि इस जाति का नाम ओसवाल क्यों हुआ है ? ३–यदि खरतरों ने ही ओसवाल बनाये हैं तो खरतर शब्द का जन्म तो विक्रम की बारहवीं तेरहवीं शताब्दी में हुआ, पर ओसाल तो उनके पूर्व भी थे ऐसा प्रमाणों से सिद्ध होता है देखिये ४-वीर निर्वाण संवत् और जैनकाल गणना नामक पुस्तक के पृष्ट १८० पर इतिहासवेत्ता मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज ने हेमवांत् पट्टावलिका उल्लेख करते हुए आप लिखते हैं किः___"मथुरा निवासी श्रोसवाल वंश शिरोमणि श्रावक पोलाक ने गन्धहस्ती विवरण सहित उन सर्व सूत्रों को ताड़पत्र आदि में लिखवा कर पठन पाठन के लिये निग्रन्थों को अर्पण किया। इस प्रकार जैन शासन की उन्नति करके स्थविर स्कंदिल विक्रम सं. २०२ में मथुरा में ही अनसन करके स्वर्गवासी हुये।" सुज्ञ पाठक इस लेख से इतना तो सहज ही में समझ सकते हैं कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) वि० सं० २०२ में ओसवंशी पोलाक श्रावक ने भागम लिखा कर जैन श्रमणों को अर्पण किया था फिर समझ में नहीं आता है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी में जन्मे हुए खरतरों ने ओसवाल कैसे बनाये होंगे ? ५- - इसी स्थविरावली के पृष्ठ १६५ पर मुनिश्री ने लिखा है कि"भगवान महावीर के निर्वाण से ७० वर्ष के बाद पार्श्वनाथ को परम्परा के छुट्टे पट्टधर आचार्य रत्नप्रभ ने उपकेश नगर में १८०००० क्षत्रिय पुत्रों को उपदेश देकर जैनधर्मी बनाया । वहां से उपकेश नामक वंश चला । " . - उपरोक्त दोनों प्रमाणों का आधार आर्यहेमवंतसूरी कृत स्थविरावली है । आर्यहेमवंत विक्रम की दूसरी शताब्दी में हुए हैं ! जब विक्रम की दूसरी शताब्दी का यह प्रमाण रत्नप्रभसुरि ने उपकेशवंश स्थापित किया और वि० २०२ वर्ष ओसवंश वाले विद्यमान थे वे भी ओसवंश शिरोमणी थे तो उस समय ओसवंश विशाल संख्या में होने में शका ही कौन कर सकता है । आगे चल कर आप श्री शत्रुञ्जयतीथं की यात्रा करिये आपको वहां भी एक सबल प्रमाण के दर्शन होंगे । I ६ – आचार्य बप्प भट्टसूरि विक्रम की नौवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुए, उन्होंने ग्वालियर के राजा आम को प्रतिबोध कर विशद ओसवंश में शामिल किया । जिसका उल्लेख श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ के शिलालेखों में मिलता है जैसे कि: - " एतश्च. गोपाहगिरौ गरिष्ठः श्री बप्पभट्टी प्रतिबोधितश्च । श्री आमराजोऽजनि तस्य पत्नी, काचित् बभूव व्यवहारि पुत्री || तत्कुक्षि जातः किल राज कोष्ठागाराह्नगोत्रे सुकृतैक पात्रः । श्री सवंशे विशदे विशाले तस्याऽन्वयेऽमी पुरुषाः ॥ "प्राचीन लेखसंग्रह भाग दूजा लेखांक १ ।” Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ । इस लेख से सिद्ध होता है कि विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी 'पूर्व ओसवंश विशद यानी विस्तृत संख्या में प्रसरा हुआ था। तब खरतरों का जन्म विक्रम को बारहवीं शताब्दी में हुभा है । समझ में नहीं आता है खरतरा इस प्रकार अडंग बडंग गप्पे मार कर अपने गच्छ की क्या उमति करना चाहते हैं ? ४-पुरातत्व संशोधक, ऐतिहासिक, मुन्शी देवीप्रसादजी ने राजपूताना की शोध खोज कर आपको जो प्राचीनता का मसाला मिला उस को "राजपूताना की शोध खोज” नामक पुस्तक में छपवा दिया । इसमें आप लिखते हैं कि कोटा के अटारू ग्राम में एक भग्न मन्दिर में वि० सं० ५०८ का भैंसाशाह का शिलालेख मिला है। विचारना चाहिये कि इस जैनेतर विद्वान के तो किसी प्रकार का पक्षपात नहीं था । उन्होंने तो आंखों से देख के ही छपाया है । जब ५०८ में आदित्यनाग गोत्र का भैंसाशाह विद्यमान था तब यह ओसवंश कितना प्राचीन है कि उस समय खरतर तो भावी के गर्भ में भी था ? फिर कहना कि ओसवाल जाति खरतराचार्यों ने ही बनाई, यह कैसी अज्ञानता है ? ५-श्रीमान् बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर कलकत्ता वालों ने अपनो 'जैन लेख संग्रह खण्ड तीसरा' नाम की पुस्तक में पृष्ठ २५ पर लिखा है किः___ "इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि ओसवाल में ओस शब्द ही प्रधान है। ओस शब्द भी उएश शब्द का रूपान्तर है और उएश उपकेश का प्राकृत है x x x इसी प्रकार मारवाड़ के अन्तर्गत “ओसियां" नामक स्थान भी उपकेशपुर नगर का रूपान्तर है x x x x जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिजी ने वहां के राजपूतों को जीवहिंसा छुड़ा कर उनको दीक्षित करने के पश्चात् वे राजपूत लोग उपकेश अर्थात् ओसवाल नाम से प्रसिद्ध हुए। x x x x " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् नाहरजी ऐतिहासिक साधनों का अभाव बतलाते हुए इस निर्णय पर आए हैं किः "संभव है कि वि० सं० ५०० के पश्चात् और वि० सं० १००० के पूर्व किसी समय उपकेश ( ओसवाल ) ज्ञाति की उत्पत्ति हुई होगी।" श्रीमान् नाहरजी स्वयं नागपुरिया तपागच्छ के होते हुए भी खरतरों के रंग में रंगे हुए हैं । यह बात आपकी लिखी हुई बाफनों की उत्पत्ति से विदित होती है। क्योंकि उपकेश वंश के तो काफी प्रमाण उपलब्ध होने पर भी आप अनुमान लगाते हैं । तब बाफना खरतर होने में कोई भी ऐतिहासिक साधन नहीं मिलता है । पर वाफना गोत्र रत्नप्रभसूरि स्थापित १८ गोत्रों में दूसरा गोत्र तथा शिला लेखों के आधार पर वह उपकेश गच्छीय होने परभी उसको जिनदत्त सूर प्रतिबोधित करार कर दिया है। पर दुःख इस बात का है कि नाहरजीने बाफनों की उत्पत्ति के विषय में न तो इतिहास की ओर ध्यान ही दिया है और न अपनी बात को प्रमाणित करने को कोई प्रमाण ही दिया है। जैसे खरतर यतियों ने बाफनों की उत्पत्ति का कल्पित ढांचा खड़ा किया था, उसीका अनुकरण कर आपने भी लिख दिया कि बाफनों के प्रतिबोधक जिनदत्त सूरि हैं । इस विषय में मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी की लिखी "जैन जाति निर्णय नामक" किताब देखनी चाहिए क्योंकि बाफना रत्नप्रभसूरि द्वारा ही प्रतिबोधित हुए हैं। उपकेशगच्छ में वीरात् ७० वर्ष से १००० वर्षों में रत्नप्रभसरि नाम के १० आचार्य हुये हैं। शायद नाहरजी का ख्याल वि० सं० ५०० वर्ष के पश्चात् और १००० वर्षों के अन्दर हुए किसी रत्नप्रभ सूरि के उपकेशपुर (ओसियां) में ओस वंश की स्थापना करने का होगा? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खैर ! इस विषय का खुलासा तो मैंने " ओसवालोत्पत्ति विषयक शङ्का समाधान" नामक पुस्तक में विस्तृत रूप से पढ़ लिया है / यहाँ तो सिर्फ इतना ही बतलाना है कि यदि नाहरजी की मान्यतानुसार ओसवंश की उत्पत्ति वि० सं० 500 और 1000 के बीचमें हुई हो तोभी उस समय खरतरों का तो जन्म भी नहीं हुआ था। फिर वे किस आधार पर यह कह सकते हैं कि ओसवाल खरतराचार्य ने बनाये ? अर्थात् यह केवल कल्पना मात्र और भोले भोंदू लोगों को बहका कर अपने जाल में फंसाने का ही प्रपंच मात्र है। 5-खरतर गच्छाचार्यों ने एक भी नया जैन बनाया हो ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है / हाँ, उस समय करोड़ों की संख्या में जैन समाज था, जिनमें कई भद्रिक लोगों को भगवान महावीर के पांच कल्याणक के बदले छः कल्याणक तथा स्त्रियों को प्रभु पूजा छुड़ा के लाख सवा लाख मनुष्यों को खरतर बनाया हो तो इसमें दादाजी का कुछ भी महत्त्व नहीं है। कारण यह कार्य तो ढूंढिया तेरहपंथियों ने भी कर बताया है। ____ यदि खरतराचार्यों ने किसी को प्रतिबोध देकर नया जैन बनाया हो तो खरतर लोग विश्वसनीय प्रमाण बतलावें / आज बीसवीं शताब्दी है। केवल चार दीवारों के बीच में बैठ अपने दृष्टि रागियों के सामने मनमानी बातें करने का ज़माना नहीं है। / मैं तो आज और भी डंके की चोट से कहता हूँ कि खरतरों के पास ऐसा कोई भी प्रमाण हो कि किसी खरतराचार्यों ने ओसवाल ज्ञाति तो क्या, पर एक भी नया ओसवाल बनाया हो तो वे बतलाने को कटिबद्ध हो मैदान में भावें / इत्यलम् / श्री. शंभूसिंह भाटी द्वारा आदर्श प्रेस, अजमेर में मुद्रित / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com