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दो शब्द
आज बीसवीं शताब्दी संगठन युग कहलाती है। अन्यान्य जातियाँ चिरकालीन भेद भावों को भूल कर ऐक्यता के सूत्र में संगठित होने में ही अपनी उन्नति का मार्ग समझ रही हैं तब हमारा दुर्भाग्य है कि बिना ही कारण दिन दूणा और रात चौगुणा नये नये झगड़ा पैदा होते हैं ।
जैन समाज में त्यागी साधुओं की सब गच्छ वाले पूजा उपासना करते हैं । आहार पानी वस्त्र पात्र से सत्कार करते हैं । फिर समझ में नहीं आता है कि कई क्लेश प्रिय साधु पूर्वाचार्यों का अपमान और इतिहास का खून कर अपनी क्या उन्नति करना चाहते हैं ? जिन लोगों ने अन्य गच्छ वालों के साथ प्रेम एवं सहयोग रख कर यशः एवं नाम कमाया है ऐसे दूसरे गच्छ वालों से द्वेष रख कर नहीं कमाया है अतः सब साधुओं को चाहिये कि वे कोई भी गच्छ क्यों न हो पर सब के साथ मिल झुल कर रह कर दूसरे गच्छ वालों को भी अपनी ओर आकर्षित कर अपने और अपने पूर्वजों के गौरव को बढ़ावें । इस में ही समझदारी और विद्वत्ता है । वरना अखिल समाज को छोड़ एक गच्छ की ममत्व करना मानों एक समुद्र को छोड़ चिल्लर पानी का आश्रय लेना है।
हम और हमारी चोरडिया जाति किसी गच्छ का साधु क्यों न हो गुणी जनों की पजा करने को सदैव तैयार हैं पर हमारे २४०० वर्षों के प्राचीन इतिहास को ८०० वर्षों जितना अर्वाचीन मानने को हम किसी हालत में तैयार नहीं हैं । इतना ही क्यों पर इस ज्ञान के प्रकाश में कोई भी जाति ऐसा करने को तैयार नहीं पर वे अपनी जाति की उत्पत्ति का इतिहास जनता के सामने रखने को तैयार हैं। किमधिकम् ।
'केसरी' ___Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com