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हमारे उपदेशक वीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरि ही थे जो जिनदत्तसूरी के जन्म के १५०० वर्ष पूर्व हुए थे । जब चोरड़िया जाति उपकेश गच्छोपासक है तब चोरड़ियों से निकली हुई पारख, गोलेच्छा, गदइया, सावसखा, बुचा रायपुरिया, नाबरिया, चौधरी और दफ्तरी आदि तमाम जातिएं तो स्वयं आदित्यनाग गोत्र की शाखाएँ और उपकेशगच्छोपासक सिद्ध हो जाती हैं । इस विषय में हम यहाँ पर अधिक लिखना इस गरज से भीक नहीं समझते हैं कि थोड़े ही समय में हमने हमारी जाति की एक स्वतंत्र पुस्तक लिखने का निर्णय कर लिया है । यदि खरतरों के पास चोरड़िया जिनदत्तसूरी के बनाए को प्राचीन साबूती हो तो एक मास के अन्दर वे प्रगट करें कि जिससे चलती कलम में उसको भी सत्यता की कसौटी पर कस कर परीक्षा कर दी जाय ।
प्यारे खरतरों ! अब चार दीवारों के ( चहार दीवारी ) बीच बैठ बिचारी भोली भाली औरतों को या भद्रिक लोगों को बहकाने का जमाना नहीं है। अब तो आप दादाजी या आप के आस पास के समय का प्रमाणिक प्रमाण लेकर मैदान में आओ । बहुत अर्से तक आपकी उपेक्षा की गई है, पर अब काम बिना प्रमाण के चलने का नहीं है ।
कई अज्ञ खरतरे कहते हैं कि ओसवाल कौम ओसियाँ में रत्नप्रभसूरि ने नहीं बनाई है, पर ओसवालों को तो खरतराचार्यों ने ही बनाये हैं । यदि कोई प्रमाण पूछते हैं तब उत्तर मिलता है कि हम कहते हैं न ? - और अधिक पूछने पर खरतर यतियों के गप्प-पुराण बता देते हैं । बस ! खरतरों के लिये और प्रमाण ही क्या हो सकता है ? ये तो ठीक उसी कहावत को चरितार्थ करते हैं कि "मेरी मा सती है" प्रमाण ? लो मैं कहता हूँ - अधिक कहने पर कहा जाता हैकि : - गवाही लो मेरे भाई की । वाहरे ! खरतरों !! तुम्हारे प्रमाण की बलिहारी है ।
हमें न तो रत्नप्रभसूरि का पक्ष है और न खरतरों से किसी.
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