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प्रकार का द्वेष ही है। हम तो सत्य के संशोधक हैं। यदि रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल नहीं बनाये और खरतरों ने ही ओसवाल बनाये यह बात सत्य है तो हमें मानने में किसी प्रकार का एतराज नहीं है क्योंकि आखिर खरतर भी तो जैन ही हैं। परन्तु इस कथन में खरतरों को कुछ प्रमाण देना चाहिये कि जैसे रत्नप्रभसूरि के लिए प्रमाण मिलते हैं । अब हम खरतरों से यह पूछना चाहते हैं कि:
-ओसवाल जाति का वंश उपकेशवंश है जो हजारों शिलाखों से सिद्ध है और उपकेशवंश, उपकेशपुर एवं उपकेशगच्छ से संबन्ध रखता है या खरतरगच्छ से ?
२-रत्नप्रभसूरि नहीं हुए और रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल नहीं बनाये तो आप यह बतलायें कि इस जाति का नाम ओसवाल क्यों हुआ है ?
३–यदि खरतरों ने ही ओसवाल बनाये हैं तो खरतर शब्द का जन्म तो विक्रम की बारहवीं तेरहवीं शताब्दी में हुआ, पर ओसाल तो उनके पूर्व भी थे ऐसा प्रमाणों से सिद्ध होता है देखिये
४-वीर निर्वाण संवत् और जैनकाल गणना नामक पुस्तक के पृष्ट १८० पर इतिहासवेत्ता मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज ने हेमवांत् पट्टावलिका उल्लेख करते हुए आप लिखते हैं किः___"मथुरा निवासी श्रोसवाल वंश शिरोमणि श्रावक पोलाक ने गन्धहस्ती विवरण सहित उन सर्व सूत्रों को ताड़पत्र आदि में लिखवा कर पठन पाठन के लिये निग्रन्थों को अर्पण किया। इस प्रकार जैन शासन की उन्नति करके स्थविर स्कंदिल विक्रम सं. २०२ में मथुरा में ही अनसन करके स्वर्गवासी हुये।"
सुज्ञ पाठक इस लेख से इतना तो सहज ही में समझ सकते हैं कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com