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( १४ । इस लेख से सिद्ध होता है कि विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी 'पूर्व ओसवंश विशद यानी विस्तृत संख्या में प्रसरा हुआ था। तब खरतरों का जन्म विक्रम को बारहवीं शताब्दी में हुभा है । समझ में नहीं आता है खरतरा इस प्रकार अडंग बडंग गप्पे मार कर अपने गच्छ की क्या उमति करना चाहते हैं ?
४-पुरातत्व संशोधक, ऐतिहासिक, मुन्शी देवीप्रसादजी ने राजपूताना की शोध खोज कर आपको जो प्राचीनता का मसाला मिला उस को "राजपूताना की शोध खोज” नामक पुस्तक में छपवा दिया । इसमें आप लिखते हैं कि कोटा के अटारू ग्राम में एक भग्न मन्दिर में वि० सं० ५०८ का भैंसाशाह का शिलालेख मिला है। विचारना चाहिये कि इस जैनेतर विद्वान के तो किसी प्रकार का पक्षपात नहीं था । उन्होंने तो आंखों से देख के ही छपाया है । जब ५०८ में आदित्यनाग गोत्र का भैंसाशाह विद्यमान था तब यह ओसवंश कितना प्राचीन है कि उस समय खरतर तो भावी के गर्भ में भी था ? फिर कहना कि ओसवाल जाति खरतराचार्यों ने ही बनाई, यह कैसी अज्ञानता है ?
५-श्रीमान् बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर कलकत्ता वालों ने अपनो 'जैन लेख संग्रह खण्ड तीसरा' नाम की पुस्तक में पृष्ठ २५ पर लिखा है किः___ "इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि ओसवाल में ओस शब्द ही प्रधान है। ओस शब्द भी उएश शब्द का रूपान्तर है और उएश उपकेश का प्राकृत है x x x इसी प्रकार मारवाड़ के अन्तर्गत “ओसियां" नामक स्थान भी उपकेशपुर नगर का रूपान्तर है x x x x जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिजी ने वहां के राजपूतों को जीवहिंसा छुड़ा कर उनको दीक्षित करने के पश्चात् वे राजपूत लोग उपकेश अर्थात् ओसवाल नाम से
प्रसिद्ध हुए। x x x x " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com