Book Title: Agam 40 Avashyak Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नम: पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नम: आगम-४० आवश्यक आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद अनुवादक एवं सम्पादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-४० - Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन/सूत्रांक आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' आगमसूत्र-४०- "आवश्यक' मूलसूत्र-१- हिन्दी अनुवाद कहां क्या देखे? पृष्ठ | क्रम क्रम विषय विषय पृष्ठ ०५ ४ ०८ | सामायिक चतुर्विंशति स्तव वंदनक प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग प्रत्याख्यान मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक ४५ आगम वर्गीकरण सूत्र क्रम क्रम आगम का नाम आगम का नाम सूत्र ०१ | आचार अंगसूत्र-१ - ०२ | सूत्रकृत् अंगसूत्र-२ ०३ | स्थान अंगसूत्र-३ । ०४ | समवाय पयन्नासूत्र-२ पयन्नासूत्र-३ पयन्नासूत्र-४ पयन्नासूत्र-५ पयन्नासूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-८ भगवती | ज्ञाताधर्मकथा २५ । आतुरप्रत्याख्यान २६ महाप्रत्याख्यान २७ भक्तपरिज्ञा २८ | तंदुलवैचारिक २९ । संस्तारक ३०.१ गच्छाचार ३०.२ चन्द्रवेध्यक ३१ |गणिविद्या ३२ देवेन्द्रस्तव ३३ । | वीरस्तव निशीथ उपासकदशा अंगसूत्र-४ अंगसूत्र-५ अंगसूत्र-६ । अंगसूत्र-७ अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९ अंगसूत्र-१० अंगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१ उपांगसूत्र-२ उपांगसूत्र-३ ०८ अंतकृत् दशा ०९ अनुत्तरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरणदशा ११ । विपाकश्रुत | औपपातिक राजप्रश्चिय जीवाजीवाभिगम पयन्नासूत्र-९ ३४ १२ ३५ बृहत्कल्प ३६ व्यवहार उपांगसूत्र-४ ३८ उपागसूत्र-५ उपांगसूत्र-६ पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ छेदसूत्र-२ छेदसूत्र-३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६ मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२ ३७ दशाश्रुतस्कन्ध जीतकल्प ३९ महानिशीथ | आवश्यक ४१.१ ओघनियुक्ति ४१.२ पिंडनियुक्ति ४२ | दशवैकालिक ४० उपांगसूत्र-७ प्रज्ञापना सूर्यप्रज्ञप्ति १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति १८ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति निरयावलिका | कल्पवतंसिका २१ पुष्पिका पुष्पचूलिका २३ | वृष्णिदशा २४ | चतु:शरण १९ उपांगसूत्र-८ २० उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ ४३ | उत्तराध्ययन ४४ । नन्दी ४५ । अनुयोगद्वार उपांगसूत्र-१२ पयन्नासूत्र-१ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक 10 06 13 मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य आगम साहित्य साहित्य नाम बुक्स क्रम साहित्य नाम बक्स मूल आगम साहित्य: 1476 | आगम अन्य साहित्य:|-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print [49] -1-माराम थानुयोग -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net [45]] -2- आगम संबंधी साहित्य 02 -3-आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] -3-ऋषिभाषित सूत्राणि 01 आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली 01 -1- मागमसूत्र ४४राती मनुवाह [47] आगम साहित्य- कुल पुस्तक 516 |-2-आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net: [47] -3- Aagam Sootra English Trans. [11] -4- આગમસૂત્ર સટીક ગુજરાતી અનુવાદ -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print | [12] अन्य साहित्य:3 आगम विवेचन साहित्य: 171 1तत्वाभ्यास साहित्य-1- आगमसूत्र सटीकं [46] 2 संत्राल्यास साहित्य 06 -2-आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-17 [51]| 3 વ્યાકરણ સાહિત્ય 05 | -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार- 21 [09] 4 व्याज्यान साहित्य 04 -4- आगम चूर्णि साहित्य [09] 5 उनलत साहित्य 09 |-5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 विध साहित्य 04 -6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 माराधना साहित्य 03 -7-सचूर्णिक आगमसुत्ताणि | [08] 81Bाहा 04 आगम कोष साहित्य: 14 | ५४न साहित्य-1- आगम सद्दकोसो [04] 10 तीर्थर संवितर्शन 25 | -2- आगम कहाकोसो [01] | 11 ही साहित्य 05 -3- आगम-सागर-कोष: । [05] 12ीपरत्नसागरना वधुशोधनिबंध -4-आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) - [04]] આગમ સિવાયનું સાહિત્ય ફૂલ પુસ્તક 85 आगम अनुक्रम साहित्य: -09 -1- माराम विषयानुभ- (1) 02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) | 516 -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक) 2-आगमेतर साहित्य (कुल 085 -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम 03 दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन | 601 ARROमुनिटीपरत्नसागरनुं साहित्य 1 मुनि दीपरत्नसागरनु आगम साहित्य [हुत पुस्त8 516] तेनास पाना [98,300] 2 | भुनिटीपरत्नसागरनुं सन्य साहित्य [हुत पुस्त। 85] तेनाल पाना [09,270] | 3 भुमिहीपरत्नसागर संलित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तना सा पाना [27,930] | अभा। प्राशनोस ०१ + विशिष्ट DVDS पाना 1,35,5000 02 05 04 मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 4 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक [४०] आवस्सयं मूलसूत्र-१- हिन्दी अनुवाद अध्ययन-१-सामायिक सूत्र-१ अरिहंत को नमस्कार हो, सिद्ध को नमस्कार हो, आचार्य को नमस्कार हो, उपाध्याय को नमस्कार हो, लोक में रहे सर्व साधु को नमस्कार हो, इस पाँच (परमेष्ठि) को किया गया नमस्कार सर्व पाप का नाशक है । सर्व मंगल में प्रथम (उत्कृष्ट) मंगल है।। ___ अरिहंत शब्द के लिए तीन पाठ हैं । अरहंत, अरिहंत और अरूहंत । यहाँ अरहंत शब्द का अर्थ है - जो वंदन नमस्कार को, अष्ट महाप्रातिहार्थ पूजा और सत्कार को और सिद्धि गमन के योग्य हैं इसलिए 'अरहंत' हैं। अरिहंत -अप्रशस्त भाव में प्रवृत्त इन्द्रिय काम-भोग की ईच्छा, क्रोध आदि कषाय, बाईस तरह के परिषह, शारीरिक-मानसिक वेदना और उपसर्ग समान भाव शत्रु पर विजय पानेवाला होने से अरिहंत' है। अरूहंत -कर्म रूपी बीज जल जाने से जिन्हे फिर से जन्म लेने समान अंकुर फूटते नहीं इसलिए अरूहंत सिद्ध - सर्व दुःख से सर्वथा पार हो गए, जन्म, जरा, मरण और कर्म के बन्धन से अलग हुए हो और किसी भी तरह के अंतराय रहित ऐसे शाश्वत सुख का अहेसास करनेवाले होने से सिद्ध कहलाते हैं। आचार्य -ज्ञानावरणीय आदि पाँच प्रकार के आचार का खुद आचरण करनेवाले, दूसरों के सामने उस आचार को प्रकाशनेवाले और शेक्ष आदि को उस पाँच तरह के आचार दिखानेवाले होने से आचार्य कहलाते हैं। उपाध्याय -जिनेश्वर भगवंत उपदिष्ट द्वादशांगी अर्थात स्वाध्याय के उपदेशक होने से उपाध्याय कहलाते साधु - मानव लोकमें रहे सभी 'साधु' यानि जो आत्महित को और परहित को या मोक्ष के अनुष्ठान की साधना करे या निर्वाण साधक योग से साधना करे वो साधु । इस पाँच के समूह को किया गया नमस्कार । सर्व पाप यानि सभी अशुभ कर्म का प्रकृष्ट नाशक है। सभी जीव के हित के लिए प्रवर्ते वो मंगल ऐसे द्रव्य और भाव, लौकिक और लोकोत्तर आदि सभी तरीके के मंगल के लिए सर्वोत्तम या उत्कृष्ट मंगल है। सूत्र-२ हे भगवंत ! (हे पूज्य !) में (आपकी साक्षी में) सामायिक का स्वीकार करता हूँ यानि समभाव की साधना करता हूँ। जिन्दा हूँ तब तक सर्व सावध (पाप) योग का प्रत्याख्यान करता हूँ। यानि मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति न करने का नियम करता हूँ। (जावज्जीव के लिए) मन से, वचन से, काया से (उस तरह से तीन योग से पाप व्यापार) मैं खुद न करूँ, दूसरों के पास न करवाऊं या उसकी अनुमोदना न करूँ | हे भगवंत (पूज्य) मैं उस पाप का (मैंने सेवन की हुई अशुभ प्रवृत्ति का) प्रतिक्रमण करता हूँ (यानि उससे निवृत्त होता हूँ 1) मेरे आत्मा की साक्षी में निंदा करता हूँ । (यानि उस अशुभ प्रवृत्ति को झूठी मानता हूँ ।) और आपके सामने 'वो पाप है' इस बात का एकरार करता हूँ | गर्दा करता हूँ। (और फिर वो पाप-अशुभ प्रवृत्ति करनेवाले मेरे-भूतकालिन पर्याय समान) आत्मा को वोसिराता हूँ । सर्वथा त्याग करता हूँ। (यहाँ पडिक्कमामि' आदि शब्द से भूतकाल के करेमि शब्द से वर्तमान काल के और ‘पच्चक्खामि शब्द से भविष्यकाल के ऐसे तीन समय के पाप व्यापार का त्याग होता है।) अध्ययन-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२-चतुर्विंशतिस्तव सूत्र-३ लोक में उद्योत करनेवाले (चौदह राजलोक में रही सर्व वस्तु का स्वरूप यथार्थ तरीके से प्रकाशनेवाले) धर्मरूपी तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले, रागदेश को जीतनेवाले, केवली चोबीस तीर्थंकर का और अन्य तीर्थंकर का मैं कीर्तन करूँगा। सूत्र-४ __ ऋषभ और अजीत को, संभव अभिनन्दन और सुमति को, पद्मप्रभु, सुपार्श्व (और) चन्द्रप्रभु सभी जिन को मैं वंदन करता हूँ। सूत्र-५ सुविधि या पुष्पदंत को, शीतल श्रेयांस और वासुपूज्य को, विमल और अनन्त (एवं) धर्म और शान्ति जिन को वंदन करता हूँ। सूत्र-६ कुंथु, अर और मल्लि, मुनिसुव्रत और नमि को, अरिष्टनेमि पार्श्व और वर्धमान (उन सभी) जिन को मैं वंदन करता हूँ। (इस तरह से ४-५-६ तीन गाथा द्वारा ऋषभ आदि चौबीस जिन की वंदना की गई है।) सूत्र - ७ इस प्रकार मेरे द्वारा स्तवना किये हुए कर्मरूपी कूड़े से मुक्त और विशेष तरह से जिनके जन्म-मरण नष्ट हए हैं यानि फिर से अवतार न लेनेवाले चौबीस एवं अन्य जिनवर-तीर्थंकर मुझ पर कृपा करे । सूत्र-८ जो (तीर्थंकर) लोगों द्वारा स्तवना किए गए, वंदन किए गए और पूजे गए हैं । लोगों में उत्तमसिद्ध हैं । वो मुझे आरोग्य (रोग का अभाव), बोधि (ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ) तथा सर्वोत्कृष्ट समाधि प्रदान करे। सूत्र-९ चन्द्र से ज्यादा निर्मल, सूरज से ज्यादा प्रकाश करनेवाले और स्वयंभूरमण समुद्र से ज्यादा गम्भीर ऐसे सिद्ध (भगवंत) मुझे सिद्धि (मोक्ष) दो । अध्ययन-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३-वंदन सूत्र-१० ___ (शिष्य कहता है) हे क्षमा (आदि दशविध धर्मयुक्त) श्रमण, (हे गुरुदेव !) आपको मैं इन्द्रिय और मन की विषय विकार के उपघात रहित निर्विकारी और निष्पाप प्राणातिपात आदि पापकारी प्रवृत्ति रहित काया से वंदन करना चाहता हूँ। मुझे आपकी मर्यादित भमि में (यानि साडे तीन हाथ अवग्रह रूप-मर्यादा के भीतर) नजदीक आने की (प्रवेश करने की) अनुज्ञा दो। निसीही (यानि सर्व अशुभ व्यापार के त्यागपूर्वक) (यह शब्द बोलकर अवग्रह में प्रवेश करके फिर शिष्य बोल) ___ अधोकाय यानि कि आपके चरण को मैं अपनी काया से स्पर्श करता हूँ । इसलिए आपको जो कुछ भी तकलीफ हो उसकी क्षमा देना । अल्प ग्लानीवाले आपके दिन सुख-शान्ति से व्यतीत हुआ है ? आपको संयमयात्रा वर्तती है ? आपको इन्द्रिय और कषाय उपघात रहित वर्तते हैं ? हे क्षमाश्रमण ! दिन के दोहरान किए गए अपराध को मैं खमाता हूँ । आवश्यक क्रिया के लिए अब मैं अवग्रह के बाहर जाता हूँ । (ऐसा बोलकर शिष्य अवग्रह के बाहर नीकलता है।) ___ दिन के दौरान आप क्षमाश्रमण की कोई भी आशातना की हो उससे मैं वापस लौटता हूँ । मिथ्याभाव से हुई आशातना के द्वारा मन, वचन, काया की दुष्ट प्रवृत्ति के द्वारा की गई आशातना से, क्रोध, मान, माया, लोभ की वृत्ति से होनेवाली आशातना से, सर्वकाल सम्बन्धी - सभी तरह के मिथ्या उपचार के द्वारा उन सभी तरह के धर्म के अतिक्रमण से होनेवाली आशातना से जो कुछ अतिचार हुआ हो उससे वो क्षमाश्रमण मैं वापस लौटता हूँ । उस अतिचरण की निन्दा करता हूँ। आप के सामने उस अतिचार की गर्दा करता हूँ। और उस अशुभ योग में प्रवर्ते मेरे भूतकालीन आत्म पर्याय का त्याग करता हूँ। अध्ययन-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 7 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-४-प्रतिक्रमण सूत्र-१०-१ (नमस्कार मंत्र की) व्याख्या पूर्व-सूत्र-१ अनुसार जानना । सूत्र - ११ 'करेमि भंते'' की व्याख्या - पूर्व सूत्र-२ समान जानना। सूत्र-१२ मंगल-यानि संसार से मुझे पार उतारे वो या जिससे हित की प्राप्ति हो वो या जो धर्म को दे वो (ऐसे 'मंगल' – चार हैं) अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलि प्ररूपित धर्म । (यहाँ और आगे के सूत्र - १३, १४ में साधु' शब्द के अर्थ में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणि आदि सबको समझ लेना। और फिर केवली प्ररूपित धर्म से श्रुत धर्म और चारित्र धर्म दोनों को सामिल समझना।) सूत्र - १३ क्षायोपशमिक आदि भाव रूप भावलोक' में चार को उत्तम बताया है । अहँत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म । [अर्हतो को सर्व शुभ प्रकृति का उदय है । यानि वो शुभ औदयिक भाव में रहते हैं । इसलिए वो भावलोक में उत्तम हैं । सिद्ध चौदह राजलोक को अन्त में मस्तक पर बिराजमान होते हैं । वो क्षेत्रलोक में उत्तम हैं। साधु श्रुतधर्म आराधक होने से क्षायोपशमिक भाव से और रत्नत्रय आराधना से भावलोक में उत्तम है । केवलि प्ररूपित धर्म में चारित्र धर्म अपेक्षा से क्षायिक और मिश्र भाव की उत्तमता रही है।] सूत्र-१४ शरण-यानि सांसारिक दुःख की अपेक्षा से रक्षण पाने के लिए आश्रय पाने की प्रवृत्ति । ऐसे चार शरण को मैं अंगीकार करता हूँ। मैं अरिहंत -सिद्ध -साधु और केवली भगवंत के बताए धर्म का शरण अंगीकार करता हूँ। सूत्र-१५ मैं दिवस सम्बन्धी अतिचार का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, यह अतिचार सेवन काया से- मन से - वचन से (किया गया हो), उत्सूत्र भाषण-उन्मार्ग सेवन से (किया हो), अकल्प्य या अकरणीय (प्रवृत्ति से किया हो) दुर्ध्यान या दुष्ट चिन्तवन से (किया हो) अनाचार सेवन से, अनीच्छनीय श्रमण को अनुचित (प्रवृत्ति से किया हो ।) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रुत या सामायिक में (अतिक्रमण हुआ हो), तीन गुप्ति में प्रमाद करने से, चार कषाय के वश होने से, पाँच महाव्रत में प्रमाद से, छ जीवनिकाय की रक्षा न करने से, सात पिंड़ेषणा में दोष लगाने से, आँठ प्रवचन माता में दोष से, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति का पालन न करने से, दश तरह के क्षमा आदि श्रमण धर्म का सेवन न करने से (जो अतिचार-दोष हुए हो)और साधु के सामाचारी रूप कर्तव्य में प्रमाद आदि करने से जो खंडणा-विराधना की हो उसका मिच्छामि दुक्कडम् यानि वो मेरा पाप मिथ्या हो । सूत्र - १६ (मैं प्रतिक्रमण करने के यानि पाप से वापस मुड़ने के समान क्रिया करना) चाहता हूँ । ऐर्यापथिकी यानि गमनागमन की क्रिया के दौहरान हुई विराधना से (यह विराधना किस तरह होती है वो बताते हैं -) आते-जाते, मुझसे किसी त्रसजीव, बीज, हरियाली, झाकल का पानी, चींटी का बिल, सेवाल, कच्चा पानी, कीचड़ या मंकड़े के झाले आदि चंपे गए हो; जो कोई एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय या पंचेन्द्रिय जीव की विराधना हुई हो । यह जीव मेरे द्वारा ठोकर लगने से मर गए हो, धूल से ढंक गए हो, जमीं के साथ घिसे गए हो, आपस में शरीर टकराए हो, थोड़ा सा स्पर्शित हुआ हो, दुःख उत्पन्न हुआ हो, खेद किया गया हो, त्रास दिया हो, एक स्थान से दूसरे स्थान गए हो या उनके प्राण का वियोग किया गया है - ऐसा करने से जो कुछ भी मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 8 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक विराधना हुई हो उसके सम्बन्धी मेरा तमाम दुष्कृत मिथ्या बने । सूत्र-१७ मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । (लेकिन किसका ?) दिन के प्रकामशय्या गहरी नींद लेने से (यहाँ प्रकाम यानि गहरा या संथारा उत्तरपट्टा से या तीन कपड़े से ज्यादा उपकरण का इस्तमाल करने से, शय्या यानि निद्रा या संथारीया आदि) हररोज ऐसी नींद लेने से, संथारा में बगल बदलने से और पुनः वही बगल बदलने से, शरीर के अवयव सिकुड़ने से या फैलावा करने से, (आदि जीव को अविधि से छूने से,) खाँसते समय मुखवस्त्रिका न रखने से, नाराजगी से वसति के लिए बकवास करने से, छींक या बगासा खाते समय मुख वस्त्रिका से जयणा न करने से. किसी भी चीज को प्रमार्जन किए बिना छने से, सचित्त रजवाली चीज को छूने से, नींद में आकुल-व्याकुलता से कुस्वप्न या दुस्वप्न आने से, स्त्री के साथ अब्रह्म सेवन सम्बन्धी रूप को देखने के अनुराग से - मनोविकार से - आहार पानी इस्तमाल करने के समान व्यवहार से जो आकुल-व्याकुलता हुई हो - उस तरह से दिन के सम्बन्धी जो कोई अतिचार लगे हो वो मेरा पाप मिथ्या हो । सूत्र - १८ ___मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । (किसका ?) भिक्षा के लिए गोचरी घूमने में, लगे हुए अतिचार का (किस तरह से?) सांकल लगाए हुए या सामान्य से बन्ध किए दरवाजे-जाली आदि खोलने से कूत्ते-बछड़े या छोटे बच्चे का (केवल तिर्यंच का) संघट्टा-स्पर्श करने से, किसी बरतन आदि में अलग नीकालकर दिया गया आहार लेने से, अन्य धर्मी मूल भाजन में से चार दिशा में जो बली फेंके वैसा करके वापस देने से, अन्य भिक्षु के लिए स्थापित किए गए आहार में से देते, आधाकर्म आदि दोष की शंकावाले आहार से, शीघ्रता से ग्रहण करने से अकल्पनीय चीज आ जानेसे, योग्य गवेषणा न करने से, दोष का सर्व तरीके से न सोचने से, जीववाली चीज का भोजन करने से, सचित्त बीज या लीलोतरी वाला भोजन करने से, भिक्षा लेने से पहले या बाद में गृहस्थ हाथ-बरतन आदि साफ करे उस प्रकार से लेने से, सचित्त ऐसा पानी या रज के स्पर्शवाली चीज लेने से, जमीं पर गिरते हुए भिक्षा दे उसे लेने से, बरतन का दूसरा द्रव्य खाली करके उसके द्वारा दी जाती भिक्षा लेने से, विशिष्ट द्रव्य माँगकर लेने से जो "उद्गम'' "उत्पादन'', ''एषणा'' अपरिशुद्ध होने के बावजूद भी ले और लेकर न परठवे यानि उपभोग करे ऐसा करने से लगे अतिचार समान मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । सूत्र-१९ मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । (लेकिन किसका ?) दिन और रात के पहले और अन्तिम दो प्रहर ऐसे चार काल स्वाध्याय न करने के समान अतिचार का, दिन की पहली-अन्तिम पोरिसी रूप उभयकाल से पात्र-उपकरण आदि की प्रतिलेखना (दृष्टि के द्वारा देखना) न की या अविधि से की, सर्वथा प्रमार्जना न की या अविधि से प्रमार्जना की और फिर अतिक्रम-व्यतिक्रम, अतिचार-अनाचार का सेवन किया उस तरह से मैने दिवस सम्बन्धी जो अतिचार सेवन किया हो वो मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो। सूत्र- २०-२१ मैं प्रतिक्रमण करता हूँ (लेकिन किसका ?) एक, दो, तीन आदि भेदभाव के द्वारा बताते हैं । (यहाँ मिच्छामि दुक्कडम् यानि मेरा वो पाप मिथ्या हो वो बात एकविध आदि हरएक दोष के साथ जुड़ना ।) वेरति रूप एक असंयम से (अब के सभी पद असंयम का विस्तार समझना) दो बन्धन से राग और द्वेष समान बन्धन से, मन, वचन, काया, दंड़ सेवन से, मन, वचन, काया, गुप्ति का पालन न करने से, माया-नियाण, मिथ्यात्व शल्य के सेवन से ऋद्धि रस-शाता का अभिमान या लालच समान अशुभ भाव से, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विराधना थकी, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार कषाय के सेवन से, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह की इच्छा से स्त्री, दशे, भोजन, राज सम्बन्धी विकथा करने से आर्त-रौद्र ध्यान करने और धर्म, शुक्ल ध्यान न करने से। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-२२-२४ कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी उन पाँच में से किसी क्रिया या प्रवृत्ति करने से, शब्द-रूप, गंध, रस, स्पर्श उन पाँच कामगुण से, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह उन पाँच के विरमण यानि न रूकने से, इर्या, भाषा, एषणा, वस्त्र, पात्र लेना, रखना, मल, मूत्र, कफ, मैल, नाक का मैल को निर्जीव भूमि से परिष्ठापन न करने से, पृथ्वी, अप्, तेऊ, वायु, वनस्पति, त्रस उन छ काय की विराधना करने से, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या का सेवन करने से और तेजो, पद्म, शुक्ल लेश्यामें प्रवृत्ति न करने से सूत्र - २५-२६ इहलोक-परलोक आदि सात भय स्थान के कारण से, जातिमद-कुलमद आदि आँठ मद का सेवन करने से, वसति-शुद्धि आदि ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ का पालन न करने से, क्षमा आदि दशविध धर्म का पालन न करने से, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा में अश्रद्धा करने से, बारह तरह की भिक्षु प्रतिमा धारण न करने से या उसके विषय में अश्रद्धा करने से, अर्थाय-अनर्थाय हिंसा आदि तेरह तरह की क्रिया के सेवन से, चौदह भूतग्राम अर्थात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय आदि पर्याप्ता-अपर्याप्ता चौदह भेद से जो जीव बताए हैं उसकी अश्रद्धा-विपरीत प्ररूपणा या हत्या आदि करने से, पंद्रह परमाधामी देव के लिए अश्रद्धा करने से, सूयगड़ांग में 'गाथा' नामक अध्ययन पर्यन्त के सोलह अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, पाँच आश्रव के विरमण आदि सतरह प्रकार के संयम का उचित पालन न करने से, अठारह तरह के अब्रह्म के आचरण से, ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, अजयणा से चलना आदि बीश असमाधि स्थान में स्थिरता या दृढ़ता की कमी हो वैसे इस बीस स्थान का सेवन करने से, हस्तक्रिया आदि चारित्र को मलिन करनेवाले इक्कीस शबल दोष का सेवन करने से, बाइस प्रकार के परिषह सहेते हुए, सूयगड़ांग सूत्र के दोनों श्रुतस्कंध मिलकर कुल मिलाके तेईस अध्ययन हैं । इन तेईस अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर परमात्मा की विराधना से या १० भवनपति, ८ व्यंतर, ५ ज्योतिष्क और एक तरह से वैमानिक ऐसे २४ देव के लिए अश्रद्धादि करने से, पाँच महाव्रत के रक्षण के लिए हर एक व्रत विषयक पाँच-पाँच भावना दी गई है उन २५ भावना का पालन न करने से, दशा, कल्प, व्यवहार उन तीनों अलग आगम हैं । उसमें दशाश्रुतस्कंध के १०, कल्प के ६ और व्यवहार के १०, कुल मिलाके २६ अध्ययन होते हैं। उसके उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा के लिए वंदन-कायोत्सर्ग आदि क्रिया न करने या अविधि से करने से, छह तरीके से व्रत, पाँच तरीके से इन्द्रिय जय आदि २७ साधु के गुण का पालन न करने से, आचार प्रकल्प यानि आचार और प्रकल्प - निसीह सूत्र उसमें आचार के २५ अध्ययन और निसीह के उद् घातिम-अनुद्घातिम आरोपणा वो तीन विषय मिलकर २८ के लिए अश्रद्धा आदि करने से, निमित्त शास्त्र आदि पाप के कारण समान २९ तरह के श्रुत के लिए प्रवृत्ति करने से, मोहनीय कर्म बाँधने के तीस कारण का सेवन करने से, सिद्ध के इकत्तीस गुण के लिए अश्रद्धा-अबहुमान आदि करने से, मन, वचन, काय के प्रशस्त योग संग्रह के लिए निमित्त भूत 'आलोचना' आदि योगसंग्रह के बत्तीस भेद उसमें से जिस अतिचार का सेवन किया गया होसूत्र - २७-२९ तैंतीस प्रकार की आशातना जो यहाँ सूत्र में ही बताई गई है उसके द्वारा लगे अतिचार, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी का अवर्णवाद से अबहुमान करने से, श्रावक-श्राविका की निंदा आदि से, देवदेवी के लिए कुछ भी बोलने से, आलोक-परलोक के लिए असत् प्ररूपणा से, केवली प्रणित श्रुत या चारित्र धर्म की आशातना के द्वारा, ऊर्ध्व, अधो, तिर्छा रूप चौदह राजलोक की विपरीत प्ररूपणा आदि करने से, सभी स्थावर, विकलेन्द्रिय संसारी आदि जीव के लिए अश्रद्धा विपरीत प्ररूपणा आदि करने से, काल, श्रुत, श्रुतदेवता के लिए अश्रद्धादि करने से, वाचनाचार्य के लिए अबहुमानादि से, ऐसी १९ तरह की आशातना एवं ___ अब फिर श्रुत के लिए बतानेवाले १४ पद में से की हुई आशातना वो इस प्रकार-सूत्र का क्रम ध्यान में न मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक रखना, या आड़ा-टेढ़ा बोलना, अलग-अलग पाठ मिलाकर मूल शास्त्र का क्रम बदलना, अक्षर कम करना-बढ़ाना, पद कम करना, योग्य विनय न करना, उदात्त-अनुदात्त आदि दोष न सँभालना, योग्यता रहित को श्रुत पढ़ाना, कलुषित चित्त से पढ़ाना, बिना समय के स्वाध्याय करना, स्वाध्याय के समय स्वाध्याय न करना, असज्झाय के समय स्वाध्याय करना, सज्झाय के समय स्वाध्याय न करना । इस तरह के एक से तीस दोष या अतिचार का सेवन हुआ हो वो मेरा सब कुछ दुष्कृत मिथ्या हो । सूत्र-३० ऋषभदेव से महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थंकर परमात्मा को मेरा नमस्कार । सूत्र - ३१ यह निर्ग्रन्थ प्रवचन (जिन आगम या श्रुत) सज्जन को हितकारक, श्रेष्ठ, अद्वितीय, परिपूर्ण, न्याययुक्त, सर्वथा शुद्ध, शल्य को काट डालनेवाला सिद्धि के मार्ग समान, मोक्ष के मुक्तात्माओं के स्थान के और सकल कर्मक्षय समान, निर्वाण के मार्ग समान हैं । सत्य है, पूजायुक्त है, नाशरहित यानि शाश्वत, सर्व दुःख सर्वथा क्षीण हुए हैं जहाँ वैसा यानि कि मोक्ष के मार्ग समान है । इस प्रकार से निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव, सिद्धि प्राप्त करते हैं । बोध पाते हैं। भवोपग्राही कर्म से मुक्त होत हैं। सभी प्रकार से निर्वाण पाते हैं । सारे दुःखों का विनाश करते हैं सूत्र-३२ उस धर्म की मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रीति के रूप से स्वीकार करता हूँ, उस धर्म को ज्यादा सेवन की रुचि - अभिलाषा करता हूँ। उस धर्म की पालना-स्पर्शना करता हूँ । अतिचार से रक्षा करता हूँ । पुनः पुनः रक्षा करता हूँ। उस धर्म की श्रद्धा, प्रीति, रुचि, स्पर्शना, पालन, अनुपालन करते हुए मैं केवलि कथित धर्म की आराधना करने के लिए उद्यत हुआ हूँ और विराधना से अटका हुआ हूँ (उसी के लिए) प्राणातिपात रूपी असंयम का - अब्रह्म का - अकृत्य का - अज्ञान का - अक्रिया का - मिथ्यात्व का - अबोधि का और अमार्ग को पहचानकर-समझकर मैं त्याग करता हूँ। और संयम, ब्रह्मचर्य, कल्प, ज्ञान-क्रिया, सम्यक्त्व बोधि और मार्ग का स्वीकार करता हूँ। सूत्र-३३ (सभी दोष की शुद्धि के लिए कहा है) जो कुछ थोड़ा सा भी मेरी स्मृतिमें है, छद्मस्थपन से स्मृतिमें नहीं है, ज्ञात वस्तु का प्रतिक्रमण किया और सूक्ष्म का प्रतिक्रमण न किया उस अनुसार जो अतिचार लगा हो वो सभी दिन सम्बन्धी अतिचार का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । इस प्रकार अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करके मैं तप-संयम रत साधु हूँ। समस्त प्रकार से जयणावाला हूँ, पाप से विरमित हूँ, वर्तमान में भी अकरणीय रूप से, पापकर्म के पच्चक्खाण पूर्वक त्याग किया है । नियाणा रहित हुआ हूँ, सम्यग् दर्शनवाला हुआ हूँ और माया मृषावाद से रहित हुआ हूँ। सूत्र-३४ ढाई द्वीप में यानि दो द्वीप, दो समुद्र और अर्ध पुष्करावर्त द्वीप के लिए जो ५-भारत, ५-ऐरावत, ५-महा विदेह रूप १५ कर्मभूमि में जो किसी साधु रजोहरण, गुच्छा और पात्र आदि को धारण करनेवाले, पाँच महाव्रत में परिणाम की बढ़ती हुई धारावाले, अठ्ठारह हजार शीलांग को धारण करनेवाले, अतिचार से जिसका स्वरूप दुषित नहीं हुआ है ऐसे निर्मल चारित्रवाले उन सबको मस्तक से, अंतःकरण से, मस्तक झुकाने के पूर्वक वंदन करता हूँ। सूत्र - ३५,३६ सभी जीव को मैं खमाता हूँ | सर्व जीव मुझे क्षमा करो और सर्व जीव के साथ मेरी मैत्री है । मुझे किसी के साथ वैर नहीं है । उस अनुसार मैंने अतिचार की निन्दा की है आत्मसाक्षी से उस पाप पर्याय की निंदा - गर्दा की है. उस पाप प्रवृत्ति की दुगंछा की है, इस प्रकार से किए गए - हुए पाप व्यापार को सम्यक्, मन, वचन, काया से प्रतिक्रमता हुआ मैं चौबीस जिनवर को वंदन करता हूँ। अध्ययन-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-५-कायोत्सर्ग सूत्र-३७ ___करेमि भंते' – पूर्व सूत्र २ में बताए अनुसार अर्थ समझना । सूत्र-३८ मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होना चाहता हूँ। मैंने दिन के सम्बन्धी किसी भी अतिचार का सेवन किया हो । (यह अतिचार सेवन किस तरह से ? देखो सूत्र-१५) सूत्र - ३९ वो (ईयापथिकी विराधना के परिणाम से उत्पन्न होनेवाला) पापकर्म का पूरी तरह से नाश करने के लिए, प्रायश्चित्त करने से, विशुद्धि करने के द्वारा, शल्य रहित करने के द्वारा और तद् रूप उत्तरक्रिया करने के लिए यानि आलोचना-प्रतिक्रमण आदि से पुनः संस्करण करने के लिए मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होता हूँ। 'अन्नत्थ'' के अलावा (इस पद से कायोत्सर्ग की स्थिरता विषयक अपवाद को बताते हैं। वो इस प्रकार-) श्वासोच्छ्वास लेने से, साँस छोड़ने से, खाँसी आने से, छींक आने से, बगासा आने से, डकार आने से, वा छूट होने से, वाय आने से, पित्त से, मर्ज़ा आने से, शरीर का सक्ष्म स्फूरण होने से, शरीर में कफ आदि का सक्षम संचार होने से. स्थिर रखी दोष्ट सूक्ष्म तरीक स फरकन स, एव आग्नस हे सूक्ष्म तरीके से फरकने से, एवं अग्नि स्पर्श, देह छेदन आदि अन्य कारण से जो काय प्रवृत्ति होती है उसके द्वारा मेरे कायोत्सर्ग का भंग न हो या विराधित न हो... जब तक- अरिहंत परमात्मा को नमस्कार करके मैं कायोत्सर्ग पारूँ नहीं (पूरा न करूँ) तब तक स्थान में स्थिर होकर 'मौन'' वाणी के द्वारा स्थिर होकर 'ध्यान' – मन के द्वारा स्थिर होकर मेरी काया को वोसिराता हूँ । (मेरे बहिरात्मा या देहभाव का त्याग करता हूँ।) सूत्र - ४०-४६ 'लोगस्स उज्जोअगरे' – इन सात गाथा का अर्थ पूर्व सूत्र ३ से ९ अनुसार समझना। सूत्र-४७ लोक में रहे सर्व अर्हत् चैत्य का यानि अर्हत् प्रतिमा का आलम्बन लेकर या उसका आराधन करने के द्वारा मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। बढ़ती हुई श्रद्धा, बुद्धि, धृति या स्थिरता, धारणा या स्मृति और तत्त्व चिन्तन पूर्वक-वंदन की - पूजन की - सत्कार की- सम्मान की- बोधिलाभ की और मोक्ष की भावना या आशय से मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होता हूँ। सूत्र - ४८ अर्ध पुष्करवरद्वीप, घातकी खंड़ और जम्बूद्वीप में उन ढाई द्वीप में आए हुए भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में श्रुतधर्म की आदि करनेवाले को यानि तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूँ। सूत्र-४९ अज्ञान समान अंधेरे के समूह को नष्ट करनेवाले, देव और नरेन्द्र के समूह से पूजनीय और मोहनीय कर्म के सर्व बन्धन को तोड देनेवाले ऐसे मर्यादावंत यानि आगम युक्त श्रुतधर्म को मैं वंदन करता हूँ। सूत्र-५० जन्म, बुढ़ापा, मरण और शोक समान सांसारिक दुःख को नष्ट करनेवाले, ज्यादा कल्याण और विशाल सुख देनेवाले, देव-दानव और राजा के समूह से पूजनीय श्रुतधर्म का सार जानने के बाद कौन धर्म आराधना में प्रमाद कर सकता है ? सूत्र-५१ __ हे मानव ! सिद्ध ऐसे जिनमत को मैं पुनः नमस्कार करता हूँ कि जो देव - नागकुमार – सुवर्णकुमार - मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक किन्नर के समूह से सच्चे भाव से पूजनीय हैं। जिसमें तीन लोक के मानव सुर और असुरादिक स्वरूप के सहारे के समान संसार का वर्णन किया गया है ऐसे संयम पोषक और ज्ञान समृद्ध दर्शन के द्वारा प्रवृत्त होनेवाला शाश्वत धर्म की वृद्धि हो और विजय की परम्परा के द्वारा चारित्र धर्म की भी हमेशा वृद्धि हो । सूत्र-५२ श्रुत-भगवान आराधना निमित्त से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। "वंदण वत्तियाए'' इन पद का अर्थ पूर्व सूत्र४७ में बताया है। सूत्र-५३ सिद्धिपद को पाए हुए, सर्वज्ञ, फिर से जन्म न लेना पड़े उस तरह से संसार का पार पाए हुए, परम्पर सिद्ध हए और लोक के अग्र हिस्से को पाए हए यानि सिद्ध शीला पर बिराजमान ऐसे सर्व सिद्ध भगवंत को सदा नमस्कार हो। सूत्र-५४ जो देवों के भी देव हैं, जिनको देव अंजलिपूर्वक नमस्कार करते हैं । और जो इन्द्र से भी पूजे गए हैं ऐसे श्री महावीर प्रभु को मैं सिर झुकाकर वंदन करता हूँ। सूत्र-५५ जिनेश्वर में उत्तम ऐसे श्री महावीर प्रभु को (सर्व सामर्थ्य से) किया गया एक नमस्कार भी नर या नारी को संसार समुद्र से बचाते हैं। सूत्र - ५६ जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण (वो तीनों कल्याणक) उज्जयंत पर्वत के शिखर पर हुए हैं वो धर्म चक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि को मैं - नमस्कार करता हूँ। सूत्र-५७ चार, आँठ, दश और दो ऐसे वंदन किए गए चौबीस तीर्थंकर और जिन्होंने परमार्थ (मोक्ष) को सम्पूर्ण सिद्ध किया है वैसे सिद्ध मुझे सिद्धि दो। सूत्र -५८ हे क्षमाश्रमण ! मैं इच्छा रखता हूँ। (क्या ईच्छा रखता है वो बताते हैं) पाक्षिक के भीतर हुए अतिचार की क्षमा माँगने के लिए उसके सम्बन्धी निवेदन करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। (गुरु कहते हैं खमाओ तब शिष्य बोले) 'ईच्छं'' | मैं पाक्षिक के भीतर हुए अतिचार को खमाता हूँ | पंद्रह दिन और पंद्रह रात में, आहार-पानी में, विनय में, वैयावच्च में, बोलने में, बातचीत करने में, ऊंचा या समान आसन रखने में, बीच में बोलने से, गुरु की ऊपरवट जाकर बोलने में, गुरु वचन पर टीका करने में (आपको) जो कुछ भी अप्रीति या विशेष अप्रीति उत्पन्न हो ऐसा कार्य किया हो और मुझसे कोई सूक्ष्म या स्थूल कम या ज्यादा विनय रहित व्यवहार हुआ हो जो तुम जानते हो और मैं नहीं जानता, ऐसा कोई अपराध हुआ हो, उसके सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । सूत्र- ५९ हे क्षमाश्रमण (पूज्य) ! मैं ईच्छा रखता हूँ। (क्या चाहता है वो बताता है) - और मझे प्रिय या मंजर भी है। जो आपका (ज्ञानादि - आराधना पर्वक पक्ष शुरू हआ और पूर्ण हआ वो मुझे प्रिय है) निरोगी ऐसे आपका, चित्त की प्रसन्नतावाले, आतंक से, सर्वथा रहित, अखंड संयम व्यापारवाले, अठारह हजार शीलांग पंच महाव्रत धारक, दूसरे भी अनुयोग आदि आचार्य उपाध्याय सहित, ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप के द्वारा आत्मा को विशुद्ध करनेवाले ऐसा आपका हे भगवंत ! पर्व दिन और अति शुभ कार्य करने के रूप में पूर्ण हुआ। और दूसरा पक्ष भी कल्याणकारी शुरु हुआ तो मुझे प्रिय है । मैं आपको मस्तक के द्वारा-मन से सर्वभाव से वंदन करता हूँ। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक तब आचार्य कहते हैं - तुम्हारे सर्व के साथ यानि आप सबके साथ सुन्दर आराधना हुई। सूत्र - ६० ___ हे क्षमाश्रमण (पूज्य) ! मैं (आपको चैत्यवंदना एवं साधुवंदना) करवाने की ईच्छा रखता हूँ । विहार करने से पहले आपके साथ था तब मैं यह चैत्यवंदना - साधु वंदना श्रीसंघ के बदले में करता हूँ ऐसे अध्यवसाय के साथ श्री जिन प्रतिमा को वंदन नमस्कार करके और अन्यत्र विचरण करते हुए, दूसरे क्षेत्र में जो कोई काफी दिन के पर्यायवाले स्थिरवासवाले या नवकल्पी विहारवाले एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हए साधुओं को देखा । उस गुणवान् आचार्यादिक को भी वंदना की, आपकी ओर से भी वंदन किए, जो लघुपर्यायवाले थे उन्होंने भी आपको वंदना की। सामान्य साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका मिले उन्होंने भी आपको वंदना की । शल्य रहित और कषाय मुक्त ऐसे मैंने भी मस्तक से और मन से वंदना की उस आशय से आप पूज्य भी उनको वंदन करो । तब पूज्य श्री कहते हैं कि - मैं भी वो तुमने किए हुए चैत्य को वंदन करता हूँ। सूत्र-६१ हे क्षमा-श्रमण (पूज्य) ! मैं भी उपस्थित होकर मेरा निवेदन करना चाहता हूँ। आपका दिया हुआ यह सब कुछ जो मेरे लिए जरुरी है वस्त्र, पात्र, कँबल, रजोहरण एवं अक्षर, पद, गाथा, श्लोक, अर्थ, हेतु, प्रश्न, व्याकरण आदि स्थविर कल्प को योग्य और बिना माँगे आपने मुझे प्रीतिपूर्वक दिया फिर भी मैंने अविनय से ग्रहण किया वो मेरा पाप मिथ्या हो। तब पूज्यश्री कहते हैं - यह सब पूर्वाचार्य का दिया हुआ है यानि मेरा कुछ भी नहीं । सूत्र - ६२ हे क्षमा-श्रमण (पूज्य) ! मैं भावि में भी कृतिकर्म-वंदन करना चाहता हूँ | मैंने भूतकाल में जो वंदन किए उन वंदन में किसी ज्ञानादि आचार बिना किए हो, अविनय से किए हो आपने खुद मुझे वो आचार - विनय से शीखाए हो या उपाध्याय आदि अन्य साधु ने मुझे उसमें कुशल बनाया हो, आपने मुझे शिष्य की तरह सहारा दिया हो, ज्ञानादि - वस्त्रादि देकर संयम के लिए सहारा दिया । मुझे हितमार्ग बताया, अहित प्रवृत्ति करने से रोका, संयम आदि में स्खलना करते हुए मुझे आपने मधुर शब्द से रोका, बार-बार बचाया, प्रेरणा देकर आपने बार-बार प्रेरणा की वो मुझे प्रीतिकर बनी है । अब मैं वो गलती सुधारने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। आपके तप और तेज समान लक्ष्मी के द्वारा इस चार गति समान संसार अटवी में घूमते हुए मेरे आत्मा का संहरण करके उस संसार अटवी का पार पाऊंगा । उस आशय से मैं आपको मस्तक और मन के द्वारा वंदन पूज्यश्री कहते हैं - तुम संसार समुद्र से पार पानेवाले बनो। अध्ययन-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-६-पच्चक्खाण सूत्र - ६३ वहाँ (श्रमणोपासकों) - श्रावक पूर्वे यानि श्रावक बनने से पहले मिथ्यात्व छोड़ दे और सम्यक्त्व अंगीकार करे । उनको न कल्पे । (क्या न कल्पे वो बताते हैं) आजपर्यन्त अन्यतीर्थिक के देव, अन्य तीर्थिक की ग्रहण की हुई अरिहंत प्रतिमा को वंदन नमस्कार करना न कल्पे । पहले भले ही ग्रहण न की हो लेकिन अब वो (प्रतिमा) अन्यतीर्थिक ने ग्रहण की है । इसलिए उसके साथ आलाप-संलाप का अवसर बनता है । ऐसा करने से या अन्यतीर्थिक को अशन, पान, खादिम, स्वादिम देने का या पुनः पुनः जो देना पड़े, वो न कल्पे। जो कि राजा-बलात्कार – देव के अभियोग यानि कारण से या गुरु निग्रह से, कांतार वृत्ति से इस पाँच कारण से अशन-आदि दे तो धर्म का अतिक्रमण नहीं होता। यह सम्यक्त्व प्रशस्त है । वो सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का क्षय और उपशम से प्राप्त होता है। प्रशम, संवेग, निर्वेद अनुकंपा और आस्तिक्य उन पाँच निशानी से युक्त हैं । उससे शुभ आत्म परिणाम उत्पन्न होता हे ऐसा कहा है। श्रावक को सम्यक्त्व में यह पाँच अतिचार समझना, लेकिन आचरण न करना - वो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाखंडप्रशंसा, परपाखंडसंस्तव । सूत्र-६४ श्रावक स्थूल प्राणातिपात का पच्चक्खाण (त्याग) करे । वो प्राणातिपात दो तरह से बताया है। वो इस प्रकार - संकल्प से और आरम्भ से । श्रावक को संकल्प हत्या का जावज्जीव के लिए पच्चक्खाण (त्याग) करे लेकिन आरम्भ हत्या का त्याग न करे । स्थूल प्राणातिपात विरमण के इस पाँच अतिचार समझना वो इस प्रकार - वध, बंध, छविच्छेद, अतिभार और भोजन, पान का व्यवच्छेद करे । सूत्र - ६५ श्रावक स्थूल मृषावाद का पच्चक्खाण (त्याग) करे | वो मृषावाद पाँच तरीके से बताया है । कन्या सम्बन्धी झूठ, गो (चार पाँववाले) सम्बन्धी झूठ, भूमि सम्बन्धी झूठ, न्यासापहार यानि थापण पाना, झूठी गँवाही देना, स्थूल मृषावाद से विरमित श्रमणोपासक यह पाँच अतिचार जानना । वो इस प्रकार - सहसा अभ्याख्यान, रहस्य उद्घाटन, स्वपत्नी के मर्म प्रकाशित करना, झूठा उपदेश देना और झूठे लेख लिखना। सूत्र - ६६ श्रमणोपासक स्थूल अदत्तादान का पच्चक्खाण करे यानि त्याग करे । वो अदत्तादान दो तरह से बताया है वो इस प्रकार - सचित्त और अचित्त । स्थूल अदत्तादान से विरमित श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानना । चोर या चोरी से लाए हुए माल-सामान का अनुमोदन, तस्कर प्रयोग, विरुद्ध राज्यातिक्रम झूठे तोल-नाप करना । सूत्र-६७ श्रमणोपासक को परदारागमन का त्याग करना या स्वपत्नी में संतोष रखे यानि अपनी पत्नी के साथ अब्रह्म आचरण में नियम रखे, परदारा गमन दो तरह से बताया है वो इस प्रकार - औदारिक और वैक्रिय । स्वदारा संतोष का नियम करनेवाले श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानने चाहिए ।- अपरिगृहिता गमन, दूसरे के द्वारा परिगृहित के साथ गमन, अनंगक्रीड़ा, पराया विवाह करना और कामभोग के लिए तीव्र अभिलाष करना । सूत्र - ६८ श्रमणोपासक अपरिमित परिग्रह का त्याग करे यानि परिग्रह का परिमाण करे । वो परिग्रह दो तरीके से हैं। सचित्त और अचित्त । ईच्छा (परिग्रह) का परिमाण करनेवाले श्रावक को यह पाँच अतिचार जानने चाहिए । १. घण और धन के प्रमाण में, २. क्षेत्रवस्तु के प्रमाण में, ३. सोने-चाँदी के प्रमाण में, ४.द्वीपद-चतुष्पद के प्रमाण में और ५. कुप्य-धातु आदि के प्रमाण में अतिक्रम हो वो। मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-६९ दिशाव्रत तीन तरह से जानना चाहिए । ऊर्ध्व-अधो-तिर्यक - दिशाव्रतधारी श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानना चाहिए । १. ऊर्ध्व, २. अधो, ३. तिर्यक दिशा के प्रमाण का अतिक्रमण । क्षेत्र, वृद्धि और स्मृति गलती से कितना अंतर हुआ उसका खयाल न रहे वो । सूत्र - ७०-७१ उपभोग-परिभोग व्रत दो प्रकार से - भोजनविषयक परिमाण और कर्मादानविषयक परिमाण, भोजन सम्बन्धी परिमाण करनेवाले श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानने चाहिए | अचित्त आहार करे, सचित्त प्रतिबद्ध आहार करे, अपक्व दुष्पक्व आहार करे, तुच्छ वनस्पति का भक्षण करे । कर्मादान सम्बन्धी नियम करनेवाले को यह पंद्रह कर्मादान जानने चाहिए । अंगार, वन, शकट, भाटक, स्फोटक वो पाँच कर्म, दाँत, लाख, रस, केश, विष वो पाँच वाणिज्य, यंत्र पीलण - निलांछन-दवदान-जलशोषण और असत्ति पोषण । सूत्र-७२ अनर्थदंड चार प्रकार से बताया है वो इस प्रकार - अपध्यान-प्रमादाचरण-हत्याप्रदान और पापकर्मोपदेश। अनर्थदंड विरमण व्रत धारक श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानने चाहिए वो इस प्रकार - काम विकार सम्बन्ध से हुआ अतिचार, कुत्सित चेष्टा, मौखर्य, वाचालता, हत्या अधिकरण का इस्तमाल, भोग का अतिरेक । सूत्र-७३-७७ सामायिक यानि सावध योग का वर्जन और निरवद्य योग का सेवन ऐसे शिक्षा अध्ययन दो तरीके से बताया है । उपपातस्थिति, उपपात, गति, कषायसेवन, कर्मबंध और कर्मवेदन इन पाँच अतिक्रमण का वर्जन करना चाहिए - सभी जगह विरति की बात बताई गई है । वाकई सर्वत्र विरति नहीं होती । इसलिए सर्व विरति कहनेवाले ने सर्व से और देश से (सामायिक) बताई है । सामायिक व्रतधारी श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानना चाहिए । १. मन, २. वचन, ३. काया का दुष्प्रणिधान, ४. सामायिक में अस्थिरता और ५. सामायिक में विस्मृतिकरण। सूत्र-७८ दिव्रत ग्रहणकर्ता के, प्रतिदिन दिशा का परिमाण करना वो देशावकासिक व्रत । देशावकासिक व्रतधारी श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानने चाहिए । वो इस प्रकार - बाहर से किसी चीज लाना, बाहर किसी चीज भेजना, शब्द करके मोजूदगी बताना, रूप से मोजूदगी बताना और बाहर कंकर आदि फेंकना। सूत्र - ७९ पौषधोपवास चार तरह से बताया है वो इस प्रकार - आहार पौषध, देह सत्कार पौषध, ब्रह्मचर्य पौषध और अव्यापार पौषध । पौषधोपवास, व्रतधारी श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानने चाहिए, वो इस प्रकार - अप्रतिलेखित दुष्प्रतिलेखित, शय्या संथारो, अप्रमार्जित, दुष्प्रमार्जित मल-मूत्र त्याग भूमि, पौषधोपवास की सम्यक् परिपालना न करना । सूत्र-८० ___ अतिथि संविभाग यानि साधु-साध्वी को कल्पनीय अन्न-पानी देना, देश, काल, श्रद्धा, सत्कार युक्त श्रेष्ठ भक्तिपूर्वक अनुग्रह बुद्धि से संयतो को दान देना । वो अतिथि संविभाग व्रतयुक्त श्रमणोपासक को यह पाँच अतिचार जानने चाहिए । वो इस प्रकार - अचित्त निक्षेप, सचित्त के द्वारा ढूँढ़ना, भोजनकाल बीतने के बाद दान देना, अपनी चीजको परायी कहना, दूसरों के सुख का द्वेष करना । सूत्र-८१ इस प्रकार श्रमणोपासक धर्म में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और यावत्कथिक या इत्वरकथिक यानि मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक चिरकाल या अल्पकाल के चार शिक्षाव्रत बताए हैं । इन सबसे पहले श्रमणोपासक धर्म में मूल वस्तु सम्यक्त्व है। वो निसर्ग से और अभिमान से दो प्रकार से है । पाँच अतिचार रहित विशुद्ध अणुव्रत और गुणव्रत की प्रतिज्ञा के सिवा दूसरी भी पड़िमा आदि विशेष से करने लायक है। अन्तिम मरण सम्बन्धी संलेखना आराधना का आराधन करना चाहिए | आम तोर पर कहा जाए तो श्रावक को व्रत और पडिमा (प्रतिज्ञा)के अलावा मरण के समय योग्य समाधि और स्थिरता के लिए मरण पर्यन्त का अनशन अपनाना चाहिए । श्रमणोपासक को इस सम्बन्ध से पाँच अतिचार बताए हैं वो इस प्रकार - १. इस लोक के सम्बन्धी या - २. परलोक सम्बन्धी ईच्छा करना, ३. जीवित या ४. मरण सम्बन्धी ईच्छा रखना और ५. काम-भोग सम्बन्धी ईच्छा रखना। सूत्र-८२ सूर्य नीकलने से आरम्भ होकर नमस्कार सहित अशन, पान, खादिम, स्वादिम से पच्चक्खाण करते हैं । सिवा कि अनाभोग, सहसाकार से (नियम का) त्याग करे । सूत्र - ८३ सूर्योदय से पोरिसी (यानि एक प्रहर पर्यन्त) चार तरह का - अशन, पान, खादिम, स्वादिम का पच्चक्खाण करते हैं । सिवा कि अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल से, दिशा-मोह से, साधु वचन से, सर्व समाधि के हेतुरूप आगार से (पच्चक्खाण) छोड़े। सूत्र - ८४ सूर्य ऊपर आए तब तक पुरिमड्ड (सूर्य मध्याह्न में आए तब तक) अशन आदि चार आहार का पच्चक्खाण (- नियम) करता है । सिवाय कि अनाभोग, सहसाकार, काल की प्रच्छन्नता, दिशामोह, साधुवचन, महत्तरवजह या सर्व समाधि के हेतुरूप आगार से नियम छोड दे। सूत्र-८५ एकासणा का पच्चक्खाण करता है । (एक बार के अलावा) अशन आदि चार आहार का त्याग करता है। सिवा कि अनाभोग, सहसाकार, सागारिक कारण से, आकुंचन प्रसारण से, गुरु अभ्युत्थान पारिष्ठापनिका कारण से, महत् कारण से या सर्व समाधि के हेतु रूप आगार से (पच्चक्खाण) छोड़ दे। सूत्र-८६ एकलठाणा का पच्चक्खाण करता है (बाकी का अर्थ सूत्र-८५ अनुसार केवल उसमें 'महत्तर कारण न आए) सूत्र-८७ आयंबिल का पच्चक्खाण करता है । (उसमें आयंबिल के लिए एकबार बैठने के अलावा) अशन आदि चार आहार का त्याग करता है । सिवा कि अनाभोग से, सहसाकार से, लेपालेप से, उत्क्षिप्त विवेक से, गृहस्थ संसृष्ट से, पारिष्ठापन कारण से, महत्तर कारण से या सर्व समाधि के लिए (पच्चक्खाण) छोड़ दे। सूत्र -८८ सूर्य उगने तक भोजन न करने का पच्चक्खाण करता है (अशन आदि चार आहार का त्याग करता है।) सिवा कि अनाभोग सहसाकार, पारिष्ठापनिका और महत्तर कारण से, सर्व समाधि के लिए (पच्चक्खाण) छोड़ दे । सूत्र - ८९ दिन के अन्त में अशन आदि चार प्रकार के आहार का पच्चक्खाण करता है | सिवा कि अनाभोग सहसाकार, महत्तर कारण, सर्व समाधि के हेतु से छोड़ दे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ९० भवचरिम यानि जीवन का अन्त दिखते ही (अशन आदि चार आहार का पच्चक्खाण करता है ।) (शेष पूर्व सूत्र ८९ अनुसार जानना ।) सूत्र - ९१ अभिग्रह पूर्वक अशनादि चार आहार का पच्चक्खाण करता है । (शेष पूर्व सूत्र ८९ अनुसार जानना ।) सूत्र- ९२ विगई का पच्चक्खाण करता है । सिवा कि अनाभोग सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थ संसृष्ट, उत्क्षिप्त विवेक, प्रतीत्यम्रक्षित, परिष्ठापन, महत्तर, सर्व समाधि हेतु । इतने कारण से पच्चक्खाण छोड दे। सूत्र-८२ से ९२ के महत्त्व के शब्द की व्याख्या । पच्चक्खाण यानि नियम या गुण धारणा। नमस्कार सहित - जिसमें मुहूर्त (दो प्रहर) प्रमाण काल मान है। अन्नत्थ - सिवा कि दिए गए कारण के अलावा । अनाभोग भूल जाने से - सहसाकार - अचानक महत्तराकार - बड़ा प्रयोजन या कारण उपस्थित होने से सव्वसमाहि-तीव्र बिमारी आदि कारण से चित्त की समाधि टिकाए रखने के लिए। पच्छन्नकाल - समय को न जानने से दिशामोह - दिशा के लिए भ्रम हो और काल का पता न चले । साधुवचन - साधु जोरो से किसी शब्द बोले और विपरीत समझे। लेपालेप - न कल्पती चीज का संस्पर्श हो गया हो । गृहस्थ संसृष्ट – गृहस्थ से मिश्र हुआ हो वो । उत्क्षिप्त विवेक - जिन पर विगई रखकर उठा लिया हो । प्रतीत्यम्रक्षित - सहज घी आदि लगाया हो वैसी चीज । गुरु अभ्युत्थान - गुरु या वडील आने से खड़ा होना पड़े। ---x---x---x---x---x---x---x---x---x---x-- [४०] आवश्यक-मूलसूत्र-१-हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 18 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र 40, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાદ શ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: XXXXXXX 40 XXXXXXXXXXXXXXXXXXX COMX आवश्यक / आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक]। आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] A 21182:- (1) (2) deepratnasagar.in भेल भेड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोपाल 09825967397 ......................................................... .................. मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 19