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आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-४-प्रतिक्रमण सूत्र-१०-१
(नमस्कार मंत्र की) व्याख्या पूर्व-सूत्र-१ अनुसार जानना । सूत्र - ११
'करेमि भंते'' की व्याख्या - पूर्व सूत्र-२ समान जानना। सूत्र-१२
मंगल-यानि संसार से मुझे पार उतारे वो या जिससे हित की प्राप्ति हो वो या जो धर्म को दे वो (ऐसे 'मंगल' – चार हैं) अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलि प्ररूपित धर्म ।
(यहाँ और आगे के सूत्र - १३, १४ में साधु' शब्द के अर्थ में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणि आदि सबको समझ लेना। और फिर केवली प्ररूपित धर्म से श्रुत धर्म और चारित्र धर्म दोनों को सामिल समझना।) सूत्र - १३
क्षायोपशमिक आदि भाव रूप भावलोक' में चार को उत्तम बताया है । अहँत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म । [अर्हतो को सर्व शुभ प्रकृति का उदय है । यानि वो शुभ औदयिक भाव में रहते हैं । इसलिए वो भावलोक में उत्तम हैं । सिद्ध चौदह राजलोक को अन्त में मस्तक पर बिराजमान होते हैं । वो क्षेत्रलोक में उत्तम हैं। साधु श्रुतधर्म आराधक होने से क्षायोपशमिक भाव से और रत्नत्रय आराधना से भावलोक में उत्तम है । केवलि प्ररूपित धर्म में चारित्र धर्म अपेक्षा से क्षायिक और मिश्र भाव की उत्तमता रही है।] सूत्र-१४
शरण-यानि सांसारिक दुःख की अपेक्षा से रक्षण पाने के लिए आश्रय पाने की प्रवृत्ति । ऐसे चार शरण को मैं अंगीकार करता हूँ। मैं अरिहंत -सिद्ध -साधु और केवली भगवंत के बताए धर्म का शरण अंगीकार करता हूँ। सूत्र-१५
मैं दिवस सम्बन्धी अतिचार का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, यह अतिचार सेवन काया से- मन से - वचन से (किया गया हो), उत्सूत्र भाषण-उन्मार्ग सेवन से (किया हो), अकल्प्य या अकरणीय (प्रवृत्ति से किया हो) दुर्ध्यान या दुष्ट चिन्तवन से (किया हो) अनाचार सेवन से, अनीच्छनीय श्रमण को अनुचित (प्रवृत्ति से किया हो ।)
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रुत या सामायिक में (अतिक्रमण हुआ हो), तीन गुप्ति में प्रमाद करने से, चार कषाय के वश होने से, पाँच महाव्रत में प्रमाद से, छ जीवनिकाय की रक्षा न करने से, सात पिंड़ेषणा में दोष लगाने से, आँठ प्रवचन माता में दोष से, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति का पालन न करने से, दश तरह के क्षमा आदि श्रमण धर्म का सेवन न करने से (जो अतिचार-दोष हुए हो)और साधु के सामाचारी रूप कर्तव्य में प्रमाद आदि करने से जो खंडणा-विराधना की हो उसका मिच्छामि दुक्कडम् यानि वो मेरा पाप मिथ्या हो । सूत्र - १६
(मैं प्रतिक्रमण करने के यानि पाप से वापस मुड़ने के समान क्रिया करना) चाहता हूँ । ऐर्यापथिकी यानि गमनागमन की क्रिया के दौहरान हुई विराधना से (यह विराधना किस तरह होती है वो बताते हैं -)
आते-जाते, मुझसे किसी त्रसजीव, बीज, हरियाली, झाकल का पानी, चींटी का बिल, सेवाल, कच्चा पानी, कीचड़ या मंकड़े के झाले आदि चंपे गए हो; जो कोई एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय या पंचेन्द्रिय जीव की विराधना हुई हो । यह जीव मेरे द्वारा ठोकर लगने से मर गए हो, धूल से ढंक गए हो, जमीं के साथ घिसे गए हो, आपस में शरीर टकराए हो, थोड़ा सा स्पर्शित हुआ हो, दुःख उत्पन्न हुआ हो, खेद किया गया हो, त्रास दिया हो, एक स्थान से दूसरे स्थान गए हो या उनके प्राण का वियोग किया गया है - ऐसा करने से जो कुछ भी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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