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आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय'
अध्ययन/सूत्रांक विराधना हुई हो उसके सम्बन्धी मेरा तमाम दुष्कृत मिथ्या बने । सूत्र-१७
मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । (लेकिन किसका ?) दिन के प्रकामशय्या गहरी नींद लेने से (यहाँ प्रकाम यानि गहरा या संथारा उत्तरपट्टा से या तीन कपड़े से ज्यादा उपकरण का इस्तमाल करने से, शय्या यानि निद्रा या संथारीया आदि) हररोज ऐसी नींद लेने से, संथारा में बगल बदलने से और पुनः वही बगल बदलने से, शरीर के अवयव सिकुड़ने से या फैलावा करने से, (आदि जीव को अविधि से छूने से,) खाँसते समय मुखवस्त्रिका न रखने से, नाराजगी से वसति के लिए बकवास करने से, छींक या बगासा खाते समय मुख वस्त्रिका से जयणा न करने से. किसी भी चीज को प्रमार्जन किए बिना छने से, सचित्त रजवाली चीज को छूने से, नींद में आकुल-व्याकुलता से कुस्वप्न या दुस्वप्न आने से, स्त्री के साथ अब्रह्म सेवन सम्बन्धी रूप को देखने के अनुराग से - मनोविकार से - आहार पानी इस्तमाल करने के समान व्यवहार से जो आकुल-व्याकुलता हुई हो - उस तरह से दिन के सम्बन्धी जो कोई अतिचार लगे हो वो मेरा पाप मिथ्या हो । सूत्र - १८ ___मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । (किसका ?) भिक्षा के लिए गोचरी घूमने में, लगे हुए अतिचार का (किस तरह से?) सांकल लगाए हुए या सामान्य से बन्ध किए दरवाजे-जाली आदि खोलने से कूत्ते-बछड़े या छोटे बच्चे का (केवल तिर्यंच का) संघट्टा-स्पर्श करने से, किसी बरतन आदि में अलग नीकालकर दिया गया आहार लेने से, अन्य धर्मी मूल भाजन में से चार दिशा में जो बली फेंके वैसा करके वापस देने से, अन्य भिक्षु के लिए स्थापित किए गए आहार में से देते, आधाकर्म आदि दोष की शंकावाले आहार से, शीघ्रता से ग्रहण करने से अकल्पनीय चीज आ जानेसे, योग्य गवेषणा न करने से, दोष का सर्व तरीके से न सोचने से, जीववाली चीज का भोजन करने से, सचित्त बीज या लीलोतरी वाला भोजन करने से, भिक्षा लेने से पहले या बाद में गृहस्थ हाथ-बरतन आदि साफ करे उस प्रकार से लेने से, सचित्त ऐसा पानी या रज के स्पर्शवाली चीज लेने से, जमीं पर गिरते हुए भिक्षा दे उसे लेने से, बरतन का दूसरा द्रव्य खाली करके उसके द्वारा दी जाती भिक्षा लेने से, विशिष्ट द्रव्य माँगकर लेने से जो "उद्गम'' "उत्पादन'', ''एषणा'' अपरिशुद्ध होने के बावजूद भी ले और लेकर न परठवे यानि उपभोग करे ऐसा करने से लगे अतिचार समान मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । सूत्र-१९
मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । (लेकिन किसका ?) दिन और रात के पहले और अन्तिम दो प्रहर ऐसे चार काल स्वाध्याय न करने के समान अतिचार का, दिन की पहली-अन्तिम पोरिसी रूप उभयकाल से पात्र-उपकरण आदि की प्रतिलेखना (दृष्टि के द्वारा देखना) न की या अविधि से की, सर्वथा प्रमार्जना न की या अविधि से प्रमार्जना की और फिर अतिक्रम-व्यतिक्रम, अतिचार-अनाचार का सेवन किया उस तरह से मैने दिवस सम्बन्धी जो अतिचार सेवन किया हो वो मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो। सूत्र- २०-२१
मैं प्रतिक्रमण करता हूँ (लेकिन किसका ?) एक, दो, तीन आदि भेदभाव के द्वारा बताते हैं । (यहाँ मिच्छामि दुक्कडम् यानि मेरा वो पाप मिथ्या हो वो बात एकविध आदि हरएक दोष के साथ जुड़ना ।)
वेरति रूप एक असंयम से (अब के सभी पद असंयम का विस्तार समझना) दो बन्धन से राग और द्वेष समान बन्धन से, मन, वचन, काया, दंड़ सेवन से, मन, वचन, काया, गुप्ति का पालन न करने से, माया-नियाण, मिथ्यात्व शल्य के सेवन से ऋद्धि रस-शाता का अभिमान या लालच समान अशुभ भाव से, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विराधना थकी, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार कषाय के सेवन से, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह की इच्छा से स्त्री, दशे, भोजन, राज सम्बन्धी विकथा करने से आर्त-रौद्र ध्यान करने और धर्म, शुक्ल ध्यान न करने से।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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