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आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-२२-२४
कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी उन पाँच में से किसी क्रिया या प्रवृत्ति करने से, शब्द-रूप, गंध, रस, स्पर्श उन पाँच कामगुण से, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह उन पाँच के विरमण यानि न रूकने से, इर्या, भाषा, एषणा, वस्त्र, पात्र लेना, रखना, मल, मूत्र, कफ, मैल, नाक का मैल को निर्जीव भूमि से परिष्ठापन न करने से, पृथ्वी, अप्, तेऊ, वायु, वनस्पति, त्रस उन छ काय की विराधना करने से, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या का सेवन करने से और तेजो, पद्म, शुक्ल लेश्यामें प्रवृत्ति न करने से सूत्र - २५-२६
इहलोक-परलोक आदि सात भय स्थान के कारण से, जातिमद-कुलमद आदि आँठ मद का सेवन करने से, वसति-शुद्धि आदि ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ का पालन न करने से, क्षमा आदि दशविध धर्म का पालन न करने से, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा में अश्रद्धा करने से, बारह तरह की भिक्षु प्रतिमा धारण न करने से या उसके विषय में अश्रद्धा करने से, अर्थाय-अनर्थाय हिंसा आदि तेरह तरह की क्रिया के सेवन से, चौदह भूतग्राम अर्थात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय आदि पर्याप्ता-अपर्याप्ता चौदह भेद से जो जीव बताए हैं उसकी अश्रद्धा-विपरीत प्ररूपणा या हत्या आदि करने से, पंद्रह परमाधामी देव के लिए अश्रद्धा करने से, सूयगड़ांग में 'गाथा' नामक अध्ययन पर्यन्त के सोलह अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, पाँच आश्रव के विरमण आदि सतरह प्रकार के संयम का उचित पालन न करने से, अठारह तरह के अब्रह्म के आचरण से, ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, अजयणा से चलना आदि बीश असमाधि स्थान में स्थिरता या दृढ़ता की कमी हो वैसे इस बीस स्थान का सेवन करने से, हस्तक्रिया आदि चारित्र को मलिन करनेवाले इक्कीस शबल दोष का सेवन करने से, बाइस प्रकार के परिषह सहेते हुए, सूयगड़ांग सूत्र के दोनों श्रुतस्कंध मिलकर कुल मिलाके तेईस अध्ययन हैं । इन तेईस अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर परमात्मा की विराधना से या १० भवनपति, ८ व्यंतर, ५ ज्योतिष्क और एक तरह से वैमानिक ऐसे २४ देव के लिए अश्रद्धादि करने से,
पाँच महाव्रत के रक्षण के लिए हर एक व्रत विषयक पाँच-पाँच भावना दी गई है उन २५ भावना का पालन न करने से, दशा, कल्प, व्यवहार उन तीनों अलग आगम हैं । उसमें दशाश्रुतस्कंध के १०, कल्प के ६ और व्यवहार के १०, कुल मिलाके २६ अध्ययन होते हैं। उसके उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा के लिए वंदन-कायोत्सर्ग आदि क्रिया न करने या अविधि से करने से, छह तरीके से व्रत, पाँच तरीके से इन्द्रिय जय आदि २७ साधु के गुण का पालन न करने से, आचार प्रकल्प यानि आचार और प्रकल्प - निसीह सूत्र उसमें आचार के २५ अध्ययन और निसीह के उद् घातिम-अनुद्घातिम आरोपणा वो तीन विषय मिलकर २८ के लिए अश्रद्धा आदि करने से, निमित्त शास्त्र आदि पाप के कारण समान २९ तरह के श्रुत के लिए प्रवृत्ति करने से, मोहनीय कर्म बाँधने के तीस कारण का सेवन करने से, सिद्ध के इकत्तीस गुण के लिए अश्रद्धा-अबहुमान आदि करने से, मन, वचन, काय के प्रशस्त योग संग्रह के लिए निमित्त भूत 'आलोचना' आदि योगसंग्रह के बत्तीस भेद उसमें से जिस अतिचार का सेवन किया गया होसूत्र - २७-२९
तैंतीस प्रकार की आशातना जो यहाँ सूत्र में ही बताई गई है उसके द्वारा लगे अतिचार, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी का अवर्णवाद से अबहुमान करने से, श्रावक-श्राविका की निंदा आदि से, देवदेवी के लिए कुछ भी बोलने से, आलोक-परलोक के लिए असत् प्ररूपणा से, केवली प्रणित श्रुत या चारित्र धर्म की आशातना के द्वारा, ऊर्ध्व, अधो, तिर्छा रूप चौदह राजलोक की विपरीत प्ररूपणा आदि करने से, सभी स्थावर, विकलेन्द्रिय संसारी आदि जीव के लिए अश्रद्धा विपरीत प्ररूपणा आदि करने से, काल, श्रुत, श्रुतदेवता के लिए अश्रद्धादि करने से, वाचनाचार्य के लिए अबहुमानादि से, ऐसी १९ तरह की आशातना एवं
___ अब फिर श्रुत के लिए बतानेवाले १४ पद में से की हुई आशातना वो इस प्रकार-सूत्र का क्रम ध्यान में न
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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