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आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-५-कायोत्सर्ग सूत्र-३७ ___करेमि भंते' – पूर्व सूत्र २ में बताए अनुसार अर्थ समझना । सूत्र-३८
मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होना चाहता हूँ। मैंने दिन के सम्बन्धी किसी भी अतिचार का सेवन किया हो । (यह अतिचार सेवन किस तरह से ? देखो सूत्र-१५) सूत्र - ३९
वो (ईयापथिकी विराधना के परिणाम से उत्पन्न होनेवाला) पापकर्म का पूरी तरह से नाश करने के लिए, प्रायश्चित्त करने से, विशुद्धि करने के द्वारा, शल्य रहित करने के द्वारा और तद् रूप उत्तरक्रिया करने के लिए यानि आलोचना-प्रतिक्रमण आदि से पुनः संस्करण करने के लिए मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होता हूँ।
'अन्नत्थ'' के अलावा (इस पद से कायोत्सर्ग की स्थिरता विषयक अपवाद को बताते हैं। वो इस प्रकार-) श्वासोच्छ्वास लेने से, साँस छोड़ने से, खाँसी आने से, छींक आने से, बगासा आने से, डकार आने से, वा छूट होने से, वाय आने से, पित्त से, मर्ज़ा आने से, शरीर का सक्ष्म स्फूरण होने से, शरीर में कफ आदि का सक्षम संचार होने से. स्थिर रखी दोष्ट सूक्ष्म तरीक स फरकन स, एव आग्नस
हे सूक्ष्म तरीके से फरकने से, एवं अग्नि स्पर्श, देह छेदन आदि अन्य कारण से जो काय प्रवृत्ति होती है उसके द्वारा मेरे कायोत्सर्ग का भंग न हो या विराधित न हो... जब तक- अरिहंत परमात्मा को नमस्कार करके मैं कायोत्सर्ग पारूँ नहीं (पूरा न करूँ) तब तक स्थान में स्थिर होकर 'मौन'' वाणी के द्वारा स्थिर होकर 'ध्यान' – मन के द्वारा स्थिर होकर मेरी काया को वोसिराता हूँ । (मेरे बहिरात्मा या देहभाव का त्याग करता हूँ।) सूत्र - ४०-४६
'लोगस्स उज्जोअगरे' – इन सात गाथा का अर्थ पूर्व सूत्र ३ से ९ अनुसार समझना। सूत्र-४७
लोक में रहे सर्व अर्हत् चैत्य का यानि अर्हत् प्रतिमा का आलम्बन लेकर या उसका आराधन करने के द्वारा मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।
बढ़ती हुई श्रद्धा, बुद्धि, धृति या स्थिरता, धारणा या स्मृति और तत्त्व चिन्तन पूर्वक-वंदन की - पूजन की - सत्कार की- सम्मान की- बोधिलाभ की और मोक्ष की भावना या आशय से मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होता हूँ। सूत्र - ४८
अर्ध पुष्करवरद्वीप, घातकी खंड़ और जम्बूद्वीप में उन ढाई द्वीप में आए हुए भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में श्रुतधर्म की आदि करनेवाले को यानि तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूँ। सूत्र-४९
अज्ञान समान अंधेरे के समूह को नष्ट करनेवाले, देव और नरेन्द्र के समूह से पूजनीय और मोहनीय कर्म के सर्व बन्धन को तोड देनेवाले ऐसे मर्यादावंत यानि आगम युक्त श्रुतधर्म को मैं वंदन करता हूँ। सूत्र-५०
जन्म, बुढ़ापा, मरण और शोक समान सांसारिक दुःख को नष्ट करनेवाले, ज्यादा कल्याण और विशाल सुख देनेवाले, देव-दानव और राजा के समूह से पूजनीय श्रुतधर्म का सार जानने के बाद कौन धर्म आराधना में प्रमाद कर सकता है ? सूत्र-५१ __ हे मानव ! सिद्ध ऐसे जिनमत को मैं पुनः नमस्कार करता हूँ कि जो देव - नागकुमार – सुवर्णकुमार -
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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