Book Title: Yugpradhan Jinchandrasuri
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Paydhuni Mahavirswami Jain Derasar

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Page 421
________________ परिशिष्ट (छ) ૩૧૨ एकतइ श्रीजी भणी, गुरु ! कहइ धरमनी वात । कुमतमति जन मनथी रहरइ, घूहडनइरे, २ न सुहाइ परभात कि १२ श्रावण सुदि पडिवा दिनइ, श्रीजी यु(विन) व्या (?) सेख । साधु इसा तुम्ह को देख्या, जिण देख्या रे, २ जगमांहे रेख कि ॥१३ नरपतिसुं सेखजी भणइ, सुणि साहिब ! इक बोल । बहुत बहुत दरसण देखे, नांहि कोई रे, २ इनहीं कइ तोल कि ॥ १४ इम सुणी अकबर हरखीया, आवइ सुहगुरु पासि । आदरमान देई घणा, इम बोलई रे, २ मनकइ उल्लास कि ॥ १५ ॥ जु कछु चाह सु दीजीयइ, तव पभणइ गुरुराय । सब दुनियां हम तजि रहे, हम चाहूं रे, २ जीवदयाकर उपाय कि १६ करइ बगसीस ए गुरु भणी, श्री अकबर पतिसाहि । सात दिवस अमारिनउ, पडहउ दियउ रे, २ सवि पृथिवी मांहि कि गुरुना गुण देखी घणा, श्री अकबर भूपाल । जुगप्रधान पदवी दीनी, जाणइ जगमई रे, २ सहु बाल गोपाल कि १८ सुहगुरुनइ उपदेशथ (की) इ, नयरि खंभा इतमांहि । जलचर जीव उगारीया, हुकुमइ करी रे, २ श्रीअकबर साहि कि १९ aras वानइ दिनदिनद्द, खरतर गच्छि अवतंस | तुम्हहिं बडे गुरु इणि जुगई, इम अकबर रे, २ जसु करइ प्रशंस कि मात सिरीयादे उरि धर्या, श्रीवंतसाह मल्हार । सिम को नहीं, जसु नामई रे, २ हुवइ जय जयकार कि ॥ रहड वंसइ अति भलउ, जिण सासणि सिणगार । ए गुरुना गुण अति घणा, कवियण जण रे, २ कुणं पामइ पार कि ॥ जां लगि मेरु महीधर, जां सायर जां चांद | 'सुमतिकल्लोल' सेवक भणइ, तां प्रतपड रे, २ गुरुआ जिणचंद कि इति श्रीजिन चंद सूरि - गीतं ।

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