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परिशिष्ट (छ)
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एकतइ श्रीजी भणी, गुरु ! कहइ धरमनी वात । कुमतमति जन मनथी रहरइ, घूहडनइरे, २ न सुहाइ परभात कि १२ श्रावण सुदि पडिवा दिनइ, श्रीजी यु(विन) व्या (?) सेख । साधु इसा तुम्ह को देख्या, जिण देख्या रे, २ जगमांहे रेख कि ॥१३ नरपतिसुं सेखजी भणइ, सुणि साहिब ! इक बोल ।
बहुत बहुत दरसण देखे, नांहि कोई रे, २ इनहीं कइ तोल कि ॥ १४
इम सुणी अकबर हरखीया, आवइ सुहगुरु पासि । आदरमान देई घणा, इम बोलई रे, २ मनकइ उल्लास कि ॥ १५ ॥ जु कछु चाह सु दीजीयइ, तव पभणइ गुरुराय ।
सब दुनियां हम तजि रहे, हम चाहूं रे, २ जीवदयाकर उपाय कि १६
करइ बगसीस ए गुरु भणी, श्री अकबर पतिसाहि । सात दिवस अमारिनउ, पडहउ दियउ रे, २ सवि पृथिवी मांहि कि
गुरुना गुण देखी घणा, श्री अकबर भूपाल ।
जुगप्रधान पदवी दीनी, जाणइ जगमई रे, २ सहु बाल गोपाल कि १८
सुहगुरुनइ उपदेशथ (की) इ, नयरि खंभा इतमांहि ।
जलचर जीव उगारीया, हुकुमइ करी रे, २ श्रीअकबर साहि कि १९
aras वानइ दिनदिनद्द, खरतर गच्छि अवतंस | तुम्हहिं बडे गुरु इणि जुगई, इम अकबर रे, २ जसु करइ प्रशंस कि मात सिरीयादे उरि धर्या, श्रीवंतसाह मल्हार ।
सिम को नहीं, जसु नामई रे, २ हुवइ जय जयकार कि ॥ रहड वंसइ अति भलउ, जिण सासणि सिणगार ।
ए गुरुना गुण अति घणा, कवियण जण रे, २ कुणं पामइ पार कि ॥
जां लगि मेरु महीधर, जां सायर जां चांद | 'सुमतिकल्लोल' सेवक भणइ, तां प्रतपड रे, २ गुरुआ जिणचंद कि इति श्रीजिन चंद सूरि - गीतं ।