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યુગપ્રધાન જિનચંદ્રસૂરિ
श्रीमत्सुमतिकल्लोल रचित जिनचंदसूरि-गीत
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सारद पय पणमी करी, गाइसुं श्रीजिणचंद | भावभगति भोलीम करी, मनि आणि रे, २ अधिकड आणंद कि ॥ १ ॥ वंदउ रे गछराया गच्छराया रे, २ श्रीजिणचंदसूरि कि । आंकडी । संवत सोल सडतालीसा ( १६४७ ), गुरु विहरइ गुजराति । अकबर गुरुना गुण सुणी, गुरुदरसण रे, २ चाहत दिनराति कि ॥२ अकबर कहइ कर्मचंद भणी, कहां तुम्हचे गुरु होइ ? |
मंत्रि कहइ साहिब ! सुणउ, गुजरात रे, २ विचरइ अब सोइ कि ॥३ दे फरमाण बोलावीया, श्रीजिणचंद मुणिंद |
वात सुणी गुरु पांगुर्या, साथइ भला रे, २ मुनिवरना वृंद कि ॥४॥
श्रीसीरोही आवीया, तिहां राजा सुरतान |
गुरुनइ लाभ दिया घणा, पूनिम दिन रे, २ जीव अभयदान कि ॥५॥ गुरु जालउरि पधारीया, तिहां किणी रह्या चउमासि । श्रीजीनइ वचनइ करी, पूरइ भवियण रे, २ मन केरी आसि कि ॥६॥ तिहांथी पारणइ पांगुर्या, गुरु करइ साधुविहार ।
अबूझ जीव प्रतिबूझवइ, कलिजुगमइ रे, २ गोतम अवतार कि ॥७॥ फागुण सुदि बारसि दिनइ, सुभ योगई सुचंग । श्रीलाहोरि पधारिया, भवियण जण रे, २ हुया उछरंग कि ॥ ८ ॥ तिणही दिन अकबर भणी; सहि गुरु मिलिवा जाइ ।
दूरथकी देखी करी, अकबरजी रे, २ जसु सन्मुख आइ कि ॥ ९ ॥ गुरु दरसण देखी करी, करइ निज मुखि गुणगान । तेह सुणी सवि ऊंबरा, मनमोहे रे, २ हूया हयरान कि ॥ १० ॥
गुरुनs हुकुम दिया इसा, नित नित तुम्ह इहां आउ । धरमकी वात का मुझे, इतनउ गुरु ! रे, २ करउ उ (सु) पसाउ कि