Book Title: Yugpradhan Jinchandrasuri
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Paydhuni Mahavirswami Jain Derasar

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Page 433
________________ ३२४ परिशिष्ट (७) ११-अष्ट मद चौपइ प्रथम ऋषभ नमुं जिनराज, जसु सेवइ सवि सीझइ काज । अष्टमद चउपइ सुचंग, रचि (सुं) सि भाव भगति मनरंगि ॥१॥ परहित परउपकार मुणिंद, पूछइ गोयम वीर जिणिंद । कहि प्रभु ! कर्म विपाक विचार, किम जीव रुलइ ? मदइ संसार॥२॥ . जाति न अम्ह सम उत्तम कोइ, इसइ गरवि मरइ सो क्रमि होइ । पूरव भव जातिमद कियउ, मरी चंडाल 'हरिकेसीबली' हुअउ ॥३॥ जे कुलमद करइ बोलइ आल, ते परभवि हुइ ससउ सियाल । कुलमद 'मरीचि' लगाइ खोडि, भमिउ सागर कोडाकोडी ॥४॥ हम सम रूपि न इसि मदि नडिउ, निरखत सयल अचल (चलत) आखडीउ। विणसत रूप न लागी वार, हुओसु ऊंट योनि अवतार ॥५॥ षटखंड पृथिवी ऋद्धि अपार, चउद रतन नवनिधि भंडार । रूप गर्व कियउ 'सनत्कुमार', विणठउ तन धिगधिग संसार ॥६॥ कहइ न बलवंत हम सम कोई, मरि पतंग सो निश्चय होई। गति यौवन वलि थिर न रहेइ, तु'बाहुबलि' दीक्षा लहेइ ॥७॥ मति बुद्धिनउ फल परतखि जोइ, मरि मूरख मृग छालउ होइ । पढत पाठ गरविउ अयाण, हुं जगि पंडित अवर न जाण ॥ ८ ॥ ज्ञानमदिइ बलदिउ सु होइ, रथ जूतइ दुख सहसिइ सोइ । धण कण कंचण ऋद्धि मद कीउ, धिग धनु जिसु लगइ कूकर हुउ ॥९॥ राति(दि)हि घरि घरि भमतउ रहइ, हडकत रांक न खुरचनि लहइ। नवइ नंदि मम्मणि लोभीयउ, धन न धर्म दुख आगल थयउ॥ १० ॥ भोजन करि वेयावञ्च करइ, निंदइ तसु तपु गरव मनि धरइ । 'कूरगडू' नी परि दुख सहइ, तृपति आहार करत नवि लहइ ॥११॥ मुझ न गमइ इहु दोभागियउ, हुं जगि वल्लभ सोभागियउ। इसा वचन गरब मनि धरइ, साप काग होइ अवतरइ ॥ १२ ॥

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