Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 03
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
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________________ ( 178 ) ढाल-तृतीय। देशी-सिद्धचक्रपद वंदो रे भविका. पंचमटोंके श्रीऋषभ जिनेश्वर, मेटे हम बहु भावे / चउविध संघसे जातरा कीनी, मनमें मोद न मावेहो भाविका सिद्धाचल सुखकार, ऊतारो भव पार हो भविका सिद्धा०१॥ ऊजमबाइ की टोंक में भारी, नन्दीश्वर की रचना / जाकर प्यारे भावे पूजो, शिवपुर सहेजे वसना हो भ० सि.२ शक्कर से भी मीठी अधिकी, शाकरवसही वखाणो। एकशत ऊपर चालीस प्रतिमा, तेज रवी सम जाणो हो भ०सि.३ छीपावसही टोंक के अन्दर, मंदिर शिखरी पाँच / बुद्धिबल से परीक्षा करके, रत्नखरा लोजाँच हो भवि० सि.४ षोडशशत पंचोत्तर अब्दे, जिर्णोद्धार सुमार। राज राजेन्द्रने वंदन करतां,यतीन्द्र अघ द्यो निवार हो भ.सि.५ ढाल-चतुर्थ / देशी-छोटी मोटी सुइयाँ रे, जालीका मेरे कातना / अहो प्रभु प्रियकार, फिर फिर से दर्श दिलावना ॥टेर // चउमुख टोंके बारह मंदिर-हाँ बारह / वाद करे आकाश, फिर फिर से दर्श दिलावना // 0 // 1 // जिन मूरतियाँ प्रेम की पतियाँ-हाँ प्रेमकी / सातसौ ऊपर तीन, फिर फिर से दर्श दिलावना // 0 // 2 //