Book Title: Yashodhar Charitam Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Sanmati Research Institute of IndologyPage 12
________________ न तत्र चौरारिभयं न चाशुभं न तत्र दुर्भिक्षग्रहादिपीडितं । अकालमृत्युनं च तत्र दुष्टता प्रपद्यते यत्र यशोधरी कथां ॥ २ ॥ संवत्सरे वसुवसुमुनींदुमिते संवत् १७८८ आसोज-मासे शुक्ल पक्ष दशम्यां तिथौ बुधवासरे वृंदावननगर्याम् श्री आदिनाथ-चैत्यालये श्री मूलसंघे. नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकजी श्री सुरेन्द्रकीर्तिदेवा तत्पट्टोदयाद्रिदिनमणितुल्यो भट्टारकजी श्रीजगतकीर्तिजीदेवा तत्प? सार्वभौमचक्रवर्ती तुल्यो भट्टारकजी श्री १०८ देवेंद्रकीर्तिजी तदाम्नाये खंडेलवालान्वये अजमेरागोत्रे साहजी श्रीशिवजी तद्भार्या सुहागदे तत्पुत्रौ द्वौ प्र. साहजी श्री थानसिंहजी तद्भार्या थनसूपदे तत्पुत्राश्चत्वारः प्रथम पुत्र चिरंजीवि, श्री रायचंदस्तद्भार्या रायवदे तत्पुत्र चिरंजीवि श्री गिरधरलाल द्वितीय पुत्र चिरंजीवि श्री मयारामस्तद्भार्या लहोमी तृतीयपुत्र चिरंजीवि श्री मोतीरामस्तद्भार्या मुत्कादे तत्पुत्र चिरंजीवि श्री नंदलाल जी। चतुर्थपुत्र चिरंजीवि श्री पेमाशिव द्वितीय पुत्र सा. नाथूरामजी तद्भार्या नोलादे तत्पुत्र द्वौ प्र.चि. श्री भागचंद तद्भार्या भक्तादे द्वि. पु. चि. रोम्र तद्भार्या परिणांदे एतेषां मध्ये चिरंजीवि श्री रायचंद जी तेनेदं यशोधरचरित्रं निजज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थं भट्टारक जी श्री जगत्कीति जी तत्शिष्य विद्वन्मंडली-मंडित पंडितजी श्री खीवसीजी लच्छिष्य पंडित लूणकरणाय घटायितं । वाचकानां पाठकानां मंगलावली भवतु। ___यह प्रति सं. १७८८ के आसोज मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि बुधवार को वृन्दावन नगरी के आदिनाथ चैत्यालय में लिखी गयी। इसके लेखक हैं पं. खीवसीजी के शिष्य पं. लूणकरण जी। और लिखाने वाले हैं श्री रायचन्द । इस प्रशस्ति के अनुसार गुरुपरम्परा इस प्रकार है - मूलसंघ-नंद्याम्नाय-बलात्कारगण-सरस्वतीगच्छ कुन्दकुन्दाचार्यान्वय भट्टारक सुरेन्द्रकीति भट्टारक जगत्कीति भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिPage Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 184