Book Title: Vitragyoga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 5
________________ अर्चनार्चन Jain Education International पंचम खण्ड / २६ 1 अभीष्ट हैं। विचार करने पर ज्ञात होगा कि (१) सुख, (२) भ्रमरत्व (अविनाशीपन), (३) स्वाधीनता, (४) चिन्मयता, (५) सामर्थ्य, (६) पूर्णता आदि सभी को सदैव सर्वत्र सब प्रकार से प्रभीष्ट ( पसंद है। किसी को भी (१) दु:ख, (२) मृत्यु (विनाश), (३) पराधीनता, (४) जड़ता, (५) प्रसमर्थता, (६) प्रभाव मादि कभी भी, कहीं भी पसंद नहीं है। किसी से यह पूछा जाय कि तुम्हें सुख चाहिये या दु:ख, भ्रमरत्व चाहिये या मृत्यु, स्वाधीनता चाहिए या पराधीनता, सामर्थ्य चाहिये या असमर्थता, पूर्णता चाहिये या प्रभाव (कमी), तो कोई भी यह नहीं कहेगा कि "मैं" सोच-विचार कर पीछे जवाब दूंगा । प्रत्युत बिना किसी प्रकार ऊहापोह, तर्क-वितर्क किए तत्काल उत्तर देगा कि सुख चाहिए, अमरत्व चाहिए, स्वाधीनता चाहिए, सामर्थ्यं चाहिए, पूर्णता चाहिए। इसका कारण यह है कि ये गुण 'चेतन (जीव ) के स्वभाव हैं स्वभाव होने से स्वयंसिद्ध हैं जो स्वयंसिद्ध हैं उन्हें सिद्ध करने के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम आदि किसी भी अन्य प्रमाण की अपेक्षा या आवश्यकता नहीं होती है। न उनमें किसी तर्क को ही अवकाश (स्थान) होता है। इसीलिए स्वयंसिद्ध ज्ञान सहज ज्ञान है, निजज्ञान है, स्वाभाविक ज्ञान है। स्वाभाविक ज्ञान होने से अपरिवर्तनशील है, नित्य ज्ञान है, शाश्वत सनातन अनंत ज्ञान है। स्वाभाविक ज्ञान में तर्क की आवश्यकता नहीं होती। कहा भी है "स्वभावोऽतकंगोचरः ।" इससे यह भी फलितार्थं निकलता है कि जिसमें तर्क हो सकता है, वह स्वाभाविक ज्ञान या निजज्ञान नहीं है, प्रत्युत इन्द्रिय-मन-बुद्धिजन्य ज्ञान है, परोक्षज्ञान है उस ज्ञान का संबंध निज स्वरूप से न होकर परिवर्तनशील परपदार्थों से होता है अर्थात् शरीर और संसार तथा इनके पारस्परिक व पारम्परिक संबंध से होता है परपदार्थ शरीर और संसार व इनका संबंध परिवर्तनशील है, अनित्य है, अतः इनका ज्ञान भी परिवर्तनशील, विकारी व अनित्य है। इसे ग्रागम भाषा में क्षायोपशमिक ज्ञान कहा है । " तात्पर्य यह है कि जो सबको सदा अभीष्ट है, स्वयंसिद्ध है, स्वभाव है, स्वधर्म है, वह ही साध्य है। इस दृष्टि से विचारने पर ज्ञात होता है कि सुख, धमरत्व, अविनाशीपन, स्वाधीनता, पूर्णता, चिन्मयता, सामर्थ्य आदि मानव मात्र का साध्य है। यही नहीं इन सबका " परस्पर में घनिष्ट सम्बन्ध भी है जहाँ इनमें से कोई भी एक है, वहाँ अन्य भी सब हैं। उदाहरणार्थ सुख को ही लें तो किसी को भी विनाशी, पराधीन, प्रपूर्ण दुःखयुक्त सुख नहीं चाहिये सभी को अविनाशी (अक्षय), पूर्ण (प्रखंड), अनन्त, स्वाधीन (प्रव्याबाध) सुख चाहिये। अतः कहना होगा कि सभी का साध्य अक्षय, भव्याबाध, अनन्त सुख है, क्योंकि सभी को यह इष्ट (पसंद है | इसी प्रकार हम स्वाधीनता, सामर्थ्य आदि को भी ले सकते हैं । सुख, अमरत्व, चिन्मयता (पूर्ण ज्ञान व दर्शन), स्वाधीनता, पूर्णता रूप साध्य को प्राप्त करना ही सिद्धि प्राप्त करना है जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली है, वह ही सिद्ध है। इस दृष्टि से साध्य वही है जो सिद्ध पद के गुण हैं अर्थात् सिद्धत्व के गुण हैं । जैन व बौद्ध धर्म में सिद्ध पद में जिन गुणों का होना कहा है, वही साध्य का स्वरूप है । सिद्धों के गुण हैं अमर (अविनाशी), अजर, मुक्त (स्वाधीन), शिव, ध्रुव, अक्षय, श्रव्याबाधअनन्त सुख, अनिन्द्रिय, अनुपम, देहातीत, लोकातीत, भवातीत । जिनमें ये गुण हैं, वे ही सिद्ध हैं । अतः ये गुण सभी साधकों के साध्य भी हैं। ये ही गुण चेतन का स्वभाव है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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