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वीतराग-योग / ४१
सम्प्रजन्य युक्त उपेक्षा स्मृति सुखबिहारी (४) सुख-दुख एवं सौमनस्य-दौर्मनस्य से रहित असुख-दुःखात्मक उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त ।
उपयुक्त ध्यान के विषय में जैन, योग और बौद्ध इन तीनों परम्परानों के भेदों में थोड़े से शाब्दिक अंतर के साथ अत्यधिक साम्य है। विस्तार भय से इसका यहां विवेचन नहीं किया जा रहा है।
ध्यान के विघ्न व उनका निवारण
ध्यान की इस प्रक्रिया में कार्मण शरीर या अवचेतन चित्त में स्थित भुक्तभोग और अभुक्तकामनाओं के जो संस्कार अंकित हैं, वे ध्यान के समय अंतर्मुखी होने पर उभर-उभर कर (उदीरणा होकर) उदय होते हैं, प्रकट होते हैं। साधक इन्हें देखकर घबरा जाता है और मेरा चित्त अशांत हो गया, ऐसा समझकर चित्त को कोसने लगता है, बुरा-भला कहने लगता है। उसे बलपूर्वक दबाने या रोकने का प्रयत्न करता है । परिणाम यह होता है कि वह चित्त से युद्ध करने में ही उलझ जाता है, अटक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता है, अपनी शक्ति का व्यर्थ अपव्यय करने लगता है।
उपर्युक्त स्थिति में साधक को समझना चाहिये कि चित्त में जो सिनेमा की रील की तरह चित्र चल रहे हैं, वे अवचेतन में अंकित पुराने संस्कार (कर्म) हैं, जो नष्ट होने के लिए उदय (प्रकट) हो रहे हैं। यदि साधक उनके प्रति उपेक्षा भाव बरते, असहयोग रखे, चित्त में उदित चित्रों की पूर्ति न करे, उनका समर्थन व विरोध न करे, उन्हें बुरा न माने, उनके प्रति द्वेष न करे, उन्हें साहस और धैर्य के साथ केवल देखता रहे, साथ ही संवेदनाओं का अनुभव भी करता रहे (संवेदनामों का अनुभव न करना द्रष्टाभाव का द्योतक है) तो चित्त के इन चित्रों का दिखाई देना धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। कारण कि संस्कार या कर्म अनन्त नहीं है, सान्त है । अतः धैर्य और गंभीरतापूर्वक देखते चले जायें तो बड़ी द्रुत व त्वरित गति से पूर्व में अंकित सबल संस्कारों के चित्र चित्त पर प्रकट होकर नष्ट हो जाते हैं और शेष रहे संस्कार क्षीण (अपवर्तित) होकर स्वत: नष्ट हो जाते हैं।
ध्यान की उपर्यक्त प्रक्रिया में चक्रभेदन, कंडलिनीजागति, दिव्यज्योति, दिव्यध्वनि, अपने इष्टदेव का दर्शन आदि अनेक विलक्षण विभूतियों का प्रकट होना संभव है। ये विभूतियां बड़ी आकर्षक होती हैं । अतः साधक इनके सुखों का भोग करने लगता है, इन्हें छोड़ना नहीं चाहता है । साधक असावधानी से इन्हें ही परमात्म-दर्शन, प्रभु-साक्षात्कार मानने लगता है। फलस्वरूप वह इन्हीं में रमण करने लगता है और वहीं अटक जाता है, उसकी प्रगति रुक जाती है। यदि साधक इनमें अटके नहीं, विभूतियों के प्रवाह में बहकर भटके नहीं, तटस्थ भाव से इनका द्रष्टा रहे. इनके सुख का भोग नहीं करे तो इन विभूतियों-अनुभूतियों को पार कर इनसे परे पहुँच जाता है। - अंतर्यात्रा के पथिक साधक को मार्ग में रमणीय स्थल मिलें, इसमें कोनसी विचित्र बात है। पर साधक इनके साथ अहंभाव जोड़कर जुड़ जाता है, उन्हें अपनी उपलब्धि मान लेता है
और समझने लगता है कि मुझे गुरु के दर्शन हुए, भगवान् के दर्शन हुए, मैं सौभाग्यशाली हूँ, यह अनुभूति सदैव बनी रहनी चाहिए तो वह अतीन्द्रिय विभूति परिग्रह बन जाती है। परिग्रह
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन
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