Book Title: Vitragyoga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ वीतराग-योग - कन्हैयालाल लोढा अर्चनार्चन पशु, पक्षी आदि प्राणियों का जीवन प्रकृति पर निर्भर करता है। उन्हें प्रकृति से जब जो भोग की सामग्री मिल गयी और उसकी उस समय आवश्यकता हुई तो उसका भोग कर लेंगे, आवश्यकता नहीं हुई तो उसका भोग नहीं करेंगे । जैसे खाने को घास या अनाज मिला तो भूख होगी तो ही खायेंगे, भूख नहीं हो तो नहीं खायेंगे। उनकी भोग की यह प्रकृति प्राकृतिक है। उनकी प्रकृति (आदत) प्रकृति-निसर्ग Nature के आधीन होती है। इस दृष्टि से वे अपनी आदत या प्रकृति के प्राधीन हैं, पराधीन हैं। वे भोगयोनि जीव हैं। भोग के प्राधीन हैं। भोग से मुक्ति पाना उनके लिए संभव नहीं है। परन्तु मानव में यह बात नहीं है। उसके सामने भोजन आ जाय तो उसे भूख होने पर भी वह अपने को खाने से रोक सकता है, भूख न हो तब भी खा लेता है। अतः मानव में यह विशेषता है कि वह भोग वृत्ति व प्रवृत्ति को घटा या बढ़ा सकता है तथा भोग का पूर्ण त्याग भी कर सकता है अर्थात् वह भोग के प्राधीन नहीं है तथा भोग से सर्वथा मुक्ति भी पा सकता है । भोग के प्राधीन नहीं होने से प्रकृति के आधीन नहीं है, प्रकृति से मुक्ति पा सकता है। जो अपनी भोग की प्रकृति (प्रादत) तथा प्रकृति (Nature) के आधीन नहीं है वह पराधीन नहीं है, स्वाधीन है, मुक्त है । मुक्त होने में ही मानव-जीवन की सफलता है, मुक्त होने की प्रक्रिया ही साधना है। साधना-जगत् में स्वभाव, साधक, साध्य, साधना, साधन, सिद्धि, आदि तत्त्वों का बड़ा महत्त्व है। प्रस्तुत लेख में इन्हीं तत्त्वों पर वीतराग के परिप्रेक्ष्य में जैन, बौद्ध, योग दर्शन को परिप्रेक्ष्य में रखते हुए स्वयं-सिद्ध निजज्ञान के प्राधार पर प्रकाश डाला जायेगा। स्वभाव-वस्तु में जो गुण स्वतः सदा के लिए विद्यमान है, वह स्वभाव है । स्वभाव वस्तु में सदा, सर्वत्र विद्यमान रहता है, उसकी कभी उत्पत्ति व नाश नहीं होता है। स्वभाव और प्रकृति में अन्तर है। स्वभाव प्रकृति के प्राधीन नहीं होता। प्रकृति (प्रादत) प्रकृति के प्राधीन होती है, प्रकृति में पर की प्राधीनता होती है, अतः प्रकृति पराधीनता की द्योतक है। प्रकृति का संबंध कर्म से होता है, स्वभाव से नहीं । प्रकृति कर्म का ही अंग है । साधक-साधक वह है जिसका कोई साध्य है और उस साध्य की प्राप्ति के लिए जो प्रयत्नशील है। साध्यसाधक का लक्ष्य ध्येय या उद्देश्य साध्य है। साध्य साधक का स्वभाव होने से सभी साधकों का एक होता है व सभी को अभीष्ट होता है। साधना-साधक द्वारा साध्य की प्राप्ति के लिए किया गया पुरुषार्थ साधना है। यह प्रत्येक साधक की अपनी-अपनी होती है। साधन-साधना का सहयोगी अंग साधन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 ... 24