Book Title: Vitragyoga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 9
________________ पंचम खण्ड | ३० जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्य ते किंचित् सोऽस्तु तत्स्यैव विस्तारः॥ -इष्टोपदेश ५० अर्थात् जीव शारीरिक पुद्गल से भिन्न है और पुद्गल जीव से भिन्न है, यही ज्ञान का सार है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है, वह सब इसी का विस्तार है। अर्चनार्चन भेदाभ्यास जिस प्रकार जैनदर्शन में स्व-पर या जड़-चेतन के भेद को भेदविज्ञान कहा है, इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में संयुक्तनिकाय में आत्मा-अनात्मा के भेद को भेदाभ्यास कहा है। वहाँ स्व के स्थान पर आत्मा शब्द का और पर के स्थान पर अनात्मा शब्द का प्रयोग है। यह प्रात्माअनात्मा शब्द जैनदर्शन के स्व-पर शब्द के ही समानार्थक हैं। जिस प्रकार जैनसाधना में अजीव को जीव मानना मिथ्यात्व कहा है; अजीव अर्थात् पुद्गल निर्मित शरीर, धन, धाम, धरा प्रादि में जीवन बुद्धि का होना, उनके अक्तित्व से अपना अस्तित्व मानना मिथ्यात्व है और अजीव को जीव (स्व) से भिन्न समझना सम्यग्ज्ञान है। ठीक इसी प्रकार बौद्धदर्शन में अनात्म को स्व (प्रात्मा) से भिन्न समझना सम्यग्ज्ञान कहा है। जिस प्रकार जैन विचारकों ने तन, मन, इन्द्रिय, वर्ण, गंध, रस आदि को अनात्म कहा और उनमें प्रात्म-बुद्धि न रखने का निर्देश दिया, उसी प्रकार बौद्ध प्रागमों में भी इन सब को अनात्म कहा और उनमें आत्मबुद्धि न रखने पर जोर दिया। दोनों ही परम्पराओं में भेद-ज्ञान या भेदाभ्यास को साधना का सोपान माना है । इसको योगदर्शन में विवेकजज्ञान कहा जा सकता है। जिस प्रकार जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन व सम्यग्दष्टि शब्द का बड़ा महत्त्व है व इसका व्यापक रूप में प्रयोग हुअा है, इसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी सम्यग्दर्शन व समदृष्टि शब्द का साधना में बड़ा महत्त्व है तथा व्यापक रूप में प्रयोग हुमा है। योगदर्शन में सम्यग्दर्शन के अर्थ में विवेकख्याति शब्द का प्रयोग हुआ है और उसका महत्त्व जैन बौद्ध दर्शन के समान ही प्रात्मा, अनात्मा के भेदज्ञान व दर्शन के रूप में स्वीकार किया है। चारित्र-साधना : संयम-संवर यह नियम है कि व्यक्ति अपने ज्ञान और दर्शन अर्थात् विचार और विश्वास के अनुसार ही जीवन में विचरण या पाचरण करता है । आचरण या प्राचार से ही चारित्र-गठन होता है, अतः प्राचार को शास्त्रीयभाषा में चारित्र कहा गया है। अर्थात् ज्ञान-दर्शन का जीवन में आदर करना-पाचरण करना ही चारित्र है। चारित्र की आधारशिला या बीज विचार व विश्वास अर्थात् ज्ञान व दर्शन है। यदि ज्ञान-दर्शन सम्यक है तो चारित्र भी सम्यक होगा। सम्यक् चारित्र से ही शांति, मुक्ति की प्राप्ति रूप उद्देश्य की सिद्धि होती है, असम्यक् या मिथ्या चारित्र से नहीं। असम्यक चारित्र को ही पाप कहा जाता है। अतः पाप से विरत होकर पापत्याग का व्रत लेना सम्यकचारित्र है। सम्यकचारित्र को जैन व बौद्ध धर्म में संवर, संयम या शील कहा है, योग में यम से प्राणायाम तक कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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