Book Title: Vitragyoga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 16
________________ वीतराग योग / ३७ उपर्युक्त छहों तप भोगों के राग को क्रमशः कृश करते हुए बाहर से भीतर की ओर, स्व की ओर लौटने की प्रक्रिया है, इसे प्रतिक्रम भी कहा जा सकता है। विषयों से विमुख होने व उन्हें कृश करने की इस प्रक्रिया को योगदर्शन में प्रत्याहार कहा है, यथा - स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । ततः परमावश्यतेन्द्रियाणाम् ।। – योगदर्शन ५४ - ५५॥ अर्थात् इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ संबंध न होने ( रहने) पर चित्त का स्वरूप के अनुकरण या अनुशरण करना प्रत्याहार है अथवा इन्द्रियों का अपने आहार - सुनाना, देखना आदि विषयों से वापिस मुड़कर विमुख होकर स्व में लौट श्राना प्रत्याहार है । उस प्रत्याहार से इन्द्रियों का उत्कृष्ट वशीकरण होता है । प्राशय यह है कि बाहर दौड़ती हुई इन्द्रियों की वृत्तियों को केन्द्राभिमुख करना, केन्द्र में समेटना प्रत्याहार है बौद्धदर्शन में इसे कायानुपश्यना में स्थान दिया जा सकता है। धारणा अंतर्मुखी अवस्था बाह्यतया प्रत्याहार से चित्त निज केन्द्र की ओर अभिमुख हो गया, स्व में स्थित रहने के योग्य हो गया। इससे आगे की साधना अंतर्मुखी भवस्था के विभिन्न स्तरों से सम्बन्धित है, जिसे जैनदर्शन में ग्राभ्यंतर तप कहा है। ग्राभ्यंतर तप छह है-प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान श्रीर कायोत्सर्ग । प्रायश्चित -पखंडागम की धवलाटीका में प्रायः शब्द को लोकवाची कहा है। मतः चित्त का अपने लोक में अर्थात् देह में स्थित होना, देह से बाहर न जाने देना, स्व में रमण करना प्रायश्चित है । - विनय - अपने भीतर रमण करते हुए परिक्रमा करते हुए संवेदनाओं के प्रति केवल द्रष्टा रहना, कर्तृत्व- भोक्तृत्व भाव रूप अहंभाव न आने देना विनय है । वैयावृत्य - भीतर में जहाँ कहीं भी चेतना पर प्रावरण हो, जड़ता हो, ग्रंथि हो, उसे वेध कर व धुन कर बिखेर देना, गला देना वैयावृत्य है। स्वाध्याय भीतर ही भीतर स्व का अवलोकन करना, स्व में उत्पन्न हुए दोषों को दूर करना स्वाध्याय है । उपर्युक्त प्रांतरिक स्थितियों को योगदर्शन में धारणा कहा जा सकता है। जैसा कि कहा है- देशबन्याश्चित्तस्य धारणा । योग ३-२ । चित्त को किसी देश (स्थान) विशेष में बांधना, अर्थात् अपनी देह के भीतर बाँधना ठहराना, रोकना धारणा है। मन को अपने में ही धारण किए रहना, देह से बाहर न जाने देना धारणा है । ध्यान- ध्यान पूर्णतः अंतर्मुखी होने की साधना है। इसमें अंतर्मुखी हो अपने अंतर में, देह के भीतर जहाँ चेतना व्याप्त है, वहाँ जो स्व-संवेदन रूप अनुभव हो रहा है उसे तटस्थ - भाव से, समभाव से देखना है, मनुकूल वेदना के प्रति राग और प्रतिकूल वेदना के प्रति द्वेष नहीं करना है । इस प्रकार राग-द्वेष रहित समभाव में रहते हुए केवलदर्शन, केवलज्ञान प्राप्त करना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम www.jainelibrary.org

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