Book Title: Vitragyoga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 14
________________ वीतराग-योग | ३५ इन प्राणों की प्रवृत्ति का श्वास की गति से सीधा सम्बन्ध है। जैसे ही श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय आदि इन्द्रियां, मन, वचन, काय भोग के लिए प्रवृत्ति करते हैं, वैसे ही श्वास की गति तीव्र हो जाती है । श्वास की गति की तीव्रता-मंदता भोगप्रवृत्ति की तीव्रता-मंदता की द्योतक है। श्वास इनका मापकयंत्र (थर्मामीटर) है । जैसे-जैसे अंत:करण में भोग प्रवृत्ति घटती जाती है, चित्त शांत हो जाता है वैसे-वैसे श्वास स्वतः धीमा-मंद व सूक्ष्म होता जाता है । अतः श्वास इन प्राणों में प्रमुख है तथा प्राणी का जीवन श्वास पर निर्भर करता है, श्वास रुकने पर कुछ क्षणों में मृत्यु हो जाती है, अतः जैनदर्शन ने और साथ ही बौद्ध व योगदर्शन ने भी श्वास को प्राण कहा है और श्वासोच्छ्वास को प्राकृत व पाली भाषा में 'पानापान' कहा है। योगदर्शन में प्राणायाम का वर्णन करते हुए कहा है-तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः। -योगदर्शन २-४९ । अर्थात् श्वास-प्रश्वास की गति का विच्छेद प्राणायाम है। यहाँ 'श्वास-प्रश्वास की गति के विच्छेद' का अभिधा में अर्थ करें तो 'श्वास का रोकना' अर्थ होगा। श्वास को रोकना मृत्यु को आमंत्रण देना है। अतः 'श्वास रोकना' अर्थ उपयुक्त नहीं है। यहाँ इस सूत्र का लक्षणा में अर्थ करना उपयुक्त होगा अर्थात् श्वास-प्रश्वास की गति के विच्छेद का अनुभव प्राणायाम है, जैसा कि इसके अगले सूत्र में स्पष्ट कहा है 'बाह्याभ्यन्तर स्तम्भवृतिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घः सूक्ष्मः।-योगदर्शन २-५० । अर्थात बाह्य-प्राभ्यंतर और स्तम्भ रूप किस देश (क्षेत्र या स्थान) और किस काल अर्थात् कहाँ पर और कब दीर्घ और सूक्ष्म श्वास का अनुभव होता है, यह प्राणायाम है। योगदर्शन के इन सूत्रों में व अन्यत्र कहीं भी भीतर या बाहर श्वास को रोकने रूप कभक करने का निर्देश या विधान का उल्लेख नहीं है। योगदर्शन के इन सूत्रों के अनुभूतिपरक वास्तविक अर्थों को समझने के लिए बौद्धदर्शन के दीर्घनिकाय ग्रंथ के सतिपट्टान सूत्र में पाए 'आनापानसति' प्रकरण को देखना अधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकरण में कहा गया है कि 'पानापान साधना' करता हुअा साधक हर आने वाले और जाने वाले श्वास की स्मृति, जानकारी बनाए रखता है। स्वाभाविक श्वास दीर्घ हो तो दीर्घ, ह्रस्व, हो तो ह्रस्व, स्थूल हो तो स्थूल, सूक्ष्म हो तो सूक्ष्म जानता हुअा वह श्वास लेता है, छोड़ता है तथा बाहर जा रहा है तो बाहर जा रहा है, भीतर आ रहा है तो भीतर पा रहा है, जानता है। नासिका के भीतर व बाहर जाता-प्राता हुमा श्वास जिसे विषय कर रहा है, छ रहा है, स्पर्श कर रहा है, उस स्थान पर होने वाले अनुभव (संवेदन) का अवलोकन करना आनापान का अंतिम चरण है । इसे ही योगदर्शन में चतुर्थ प्राणायाम कहा है बाह्याभ्यंतरविषयाक्षेपी चतुर्थः। योगदर्शन २-५१ । अर्थात् बाह्य और आभ्यंतर-भीतर के विषय का अवलोकन करने वाला चतुर्थ प्राणायाम है। इस प्रकार देखा जाता है कि योगदर्शन के प्राणायाम सूत्रों और सतिपट्टान के 'पानापान आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jatelibrary.org

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