Book Title: Vitragyoga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 13
________________ पंचम खण्ड / ३४ अर्चनार्चन शारीरिक स्थिरता के लिए प्रासन एवं मानसिक शांति के लिए प्राणायाम उपयुक्त उपाय हैं । अतः साधना में प्रासन और प्रणायाम को भी स्थान दिया गया है। आसन : तन की स्थिरता जब तक तन अस्थिर है तब तक चित्त का स्थिर होना कठिन ही है। अत: चित्त को स्थिर करने के लिए तन का स्थिर होना आवश्यक है। तन की स्थिरता है बिना हिले-डुले स्थिरता व सुखपूर्वक बैठना। इसी को प्रासन कहा गया है, यथा-'स्थिरसुखासनम्' (योग २-४६)। ध्यान-साधना के लिए पद्मासन, सिद्धासन अथवा अन्य कोई प्रासन-विशेष आवश्यक हो, ऐसा जैन, बौद्ध एवं योग इन तीनों साधना-पद्धतियों में कहीं नहीं कहा गया है। तीनों ही में स्थिर सुखासन को महत्त्व दिया गया है। यह अलग बात है कि शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से विविध प्रासनों का भी अपना महत्त्व है। परन्तु ध्यान-साधना के लिए विविध प्रासनों को जानना व करना आवश्यक नहीं है। 'स्थिरसुखासनम्' सूत्र में 'स्थिर' का अर्थ है शरीर हिले-डुले नहीं और सुखपूर्वक बैठने का अभिप्राय है शरीर में कहीं तनाव न रहे, ऋजु रहे, सारा शरीर शिथिल-ढीला रहे। इसके साथ यह भी ध्यान रहना आवश्यक है कि रीढ की हड्डी सीधी रहे । जिससे निरन्तर चार-पांच घंटे या अधिक लम्बे समय तक ध्यान में स्थिरतापूर्वक बैठने में कठिनाई न हो। मौन आसन है तन की स्थिरता, तन का मौन । इसके साथ वचन की स्थिरता अर्थात् वचन का मौन व मन का मौन भी आवश्यक है । मन की मौन अर्थात् मन की स्थिरता के लिए आगे के प्रकरण में 'प्राणायाम' का विधान किया गया है । ध्यान-साधक के लिए मन, वचन, तन इन तीनों का मौन अनिवार्य है। बौद्धधर्म में इसे प्रार्य मौन कहा है। मौन 'संवर' का ही द्योतक है। प्राणायाम : चित्त की स्थिरता प्राणी का जीवन प्राणशक्ति पर निर्भर है। अतः प्राणी को अपनी प्राण शक्ति व्यर्थ व्यय नहीं करना चाहिये। जनदर्शन में प्राण दस कहे हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण (२) चक्षुरिन्द्रियबलप्राण (३) घ्राणेन्द्रियबलप्राण (४) रसनेन्द्रियबलप्राण (५) स्पर्शनेन्द्रियबलप्राण (६) मनोबलप्राण (७) वचनबलप्राण (८) कायबलप्राण (९) श्वासोच्छ्वासबलप्राण और (१०) आयुष्य (जीवनशक्ति) बलप्राण। इन दशों में बल को अर्थात् शक्ति को प्राण कहा है। उक्त इन दस प्राणों की शक्ति का ह्रास न होने देना, ह्रास रोकना प्राणों की रक्षा है, वही प्राणायाम है। प्राणशक्ति का ह्रास होता है प्रवत्ति से। इसलिए इन सब की प्रवृत्ति या गति पर नियंत्रण रखना है, यही प्राणायाम है । प्राणों की प्रवृत्ति से हल-चल, चंचलता अस्थिरता होती है, जिससे चित्त की शांति भंग होती है। साधक को अंतर्मुखी होकर पर से स्व तक पहुँचना होता है और अंतर्मुखी होने के लिए चित्त का शान्त होना आवश्यक है। अतः साधक के लिए अंतर्मखी होने की साधना करते समय इन प्राणों की प्रवत्ति रोकना आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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