Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 3
________________ मैं अपनी ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर अपने आप ही संसार में भ्रमण कर रहा हूँ और मैंने कर्मों के फल पुण्य और पाप को अपना लिया है। अपने को पर का कर्ता मान लिया है और अपना कर्ता पर को मान लिया है और पर-पदार्थों में से ही कुछ को इष्ट मान लिया है और कुछ को अनिष्ट मान लिया है। परिणामस्वरूप अज्ञान को धारण करके स्वयं ही आकुलित हुआ हूँ, जिसप्रकार कि हिरण मृगतृष्णावश बालू को पानी समझकर अपने अज्ञान से ही दुःखी होता है। शरीर की दशा को ही अपनी दशा मानकर अपने पद (आत्म-स्वभाव) का अनुभव नहीं किया ।।९-१०।। हे जिनेश ! आपको पहिचाने बिना जो दुःख मैंने पाये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। तिर्यंच गति, नरक गति, मनुष्य गति और देव गति में उत्पन्न होकर अनन्त बार मरण किया है ।।११।। अब काललब्धि के आने पर आपके दर्शन प्राप्त हुए हैं, इससे मुझे बहुत ही प्रसन्नता है। मेरा अन्तर्द्वन्द्व समाप्त हो गया है और मेरा मन शान्त हो गया है और मैंने दुःखों को नाश करनेवाली आत्मानुभूति को प्राप्त कर लिया है ।।१२।। ___ अत: हे नाथ! अब ऐसा करो जिससे आपके चरणों के साथ का वियोग न हो। तात्पर्य यह है कि जिस मार्ग (आचरण) द्वारा आप पूर्ण सुखी हुए हैं, मैं भी वही प्राप्त करूँ। हे देव ! आपके गुणों का तो कोई अन्त नहीं है और संसार से पार उतारने का तो मानो आपका विरद (यश) ही है।।१३।। ___पाँचों इन्द्रियों के विषयों में लीनता और कषायें आत्मा का अहित करनेवाली हैं। हे प्रभो ! मैं चाहता हूँ कि इनकी ओर मेरा झुकाव न हो। मैं तो अपने में ही लीन रहूँ, जिससे मैं पूर्ण स्वाधीन हो जाऊँ।।१४।। शशि शांतिकरन तपहरन हेत । स्वयमेव तथा तुम कुशल देत ।। पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय । ___त्यों तुम अनुभवतै भव नशाय ।।१६।। त्रिभुवन तिहुँकाल मँझार कोय । नहिं तुम बिन निजसुखदाय होय।। मो उर यह निश्चय भयो आज । दुख-जलधि उतारन तुम जहाज ॥१७॥ (दोहा) तुम गुणगणमणि गणपति, गणत न पावहिं पार। 'दौल' स्वल्पमति किम कहै, न| त्रियोग संभार ।।१८।। जैसे चन्द्रमा स्वयमेव गर्मी कम करके शीतलता प्रदान करता है, उसीप्रकार आपकी स्तुति करने से स्वयमेव ही आनन्द प्राप्त होता है। जैसे अमृत के पीने से रोग चला जाता है, उसीप्रकार आपका अनुभव करने से संसार-रूपी रोग चला जाता है ।।१६।।। तीनों लोकों में और तीनों कालों में आपसे सुखदायक (सन्मार्गदर्शक) और कोई नहीं है। आज मुझे ऐसा निश्चय हो गया है कि आपही दुःखरूपी समुद्र से पार उतारनेवाले जहाज हो ।।१७।। आपके गुणों-रूपी मणियों को गिनाने में गणधर देव भी समर्थ नहीं हैं, तो फिर मैं (दौलतराम) अल्पबुद्धि उनका वर्णन किसप्रकार कर सकता हूँ। अत: मैं आपको मन, वचन और काय को संभाल कर बारबार नमस्कार करता हूँ।।१८।। प्रश्न उक्त स्तुति में से कोई २ छंद जो आपको रुचिकर लगे हों, लिखिये तथा रुचिकर होने का कारण भी बताइये। ----- मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है, बस एक रत्नत्रय निधि ही पाना चाहता हूँ। मेरे हित रूपी कार्य के निमित्त कारण आप ही हो । मेरा मोह-ताप नष्ट होकर कल्याण हो, यही भावना है।।१५।।

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