Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 8
________________ पाठ५ | कर्म इसीप्रकार ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि ही निश्चय से गुरुउपासना है और गुरु का सच्चा स्वरूप समझकर उनकी उपासना करना ही व्यवहार-गुरु उपासना है। __ तुम्हें पहिले बताया जा चुका है कि अरहंत और सिद्ध भगवान देव कहलाते हैं और आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु कहलाते हैं। ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि ही निश्चय से स्वाध्याय है तथा जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये तत्त्व का निरूपण करनेवाले शास्त्रों का अध्ययन, मनन करना व्यवहार-स्वाध्याय है। श्रोता-यह तो तीन हए। प्रवचनकार – सुनो ! ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि ही निश्चय से संयम है और उसके साथ होनेवाले भूमिकानुसार हिंसादि से विरति एवं इन्द्रियनिग्रह व्यवहार-संयम है। ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि अर्थात् शुभाशुभ इच्छाओं का निरोध (उत्पन्न नहीं होना) निश्चय-तप है तथा उसके साथ होनेवाले अनशनादि संबंधी शुभभाव व्यवहार-तप है। ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि, वह निश्चय से अपने को शुद्धता का दान है तथा स्व और पर के अनुग्रह के लिए धनादि देना व्यवहार-दान है। वह चार प्रकार का होता है - १. आहारदान २. ज्ञानदान ३. औषधिदान ४. अभयदान। श्रोता - निश्चय और व्यवहार आवश्यक में क्या अंतर है? प्रवचनकार - निश्चय आवश्यक तो शुद्ध धर्म-परिणति है, अत: बंध के अभाव का कारण है तथा व्यवहार आवश्यक पुण्य-बंध का कारण है। सच्चे आवश्यक ज्ञानी जीव के ही होते हैं। पर देव-पूजनादि करने का भाव अज्ञानी के भी होता है तथा मंद कषाय और शुभ भावानुसार पुण्य बंध भी होता है, पर वे सच्चे धर्म नहीं कहे जा सकते। श्रोता - यदि आप ऐसा कहोगे तो अज्ञानी जीव देवपूजनादि आवश्यक कर्मों को छोड़ देंगे। प्रवचनकार - भाई ! उपदेश तो ऊँचा चढने को दिया जाता है। देवपूजनादि के शुभ भाव छोड़कर यदि अशुभ भाव में जावेंगे तो पाप बंध करेंगे। अत: देवपूजनादि छोड़ना ठीक नहीं है। प्रश्न १. छह आवश्यकों के नाम लिखकर उनकी परिभाषायें दीजिए। (१५) सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य (व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व) जह चक्केण य चक्की, छक्खंडं साहियं अविग्घेण। तह मइ चक्केण मया, छक्खंड साहियं सम्मं ।।' "जिसप्रकार सुदर्शनचक्र के द्वारा चक्रवर्ती छह खंडों को साधता (जीत लेता) है, उसीप्रकार मैंने (नेमिचन्द्र ने) अपने बुद्धिरूपी चक्र से षट्खण्डागमरूप महान सिद्धान्त को साधा है।" अत: वे 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' कहलाए। ये प्रसिद्ध जैन राजा चामुण्डराय के समकालीन थे और चामुण्डराय का समय ग्यारहवीं सदी का पूर्वार्ध है, अत: आचार्य नेमिचन्द्र भी इसी समय भारत-भूमि को अलंकृत कर रहे थे। ये कोई साधारण विद्वान् नहीं थे; इनके द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि उपलब्ध ग्रन्थ उनकी असाधारण विद्वत्ता और 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' पदवी को सार्थक सिद्ध कर रहे हैं। । इन्होंने चामुण्डराय के आग्रह पर सिद्धान्त ग्रन्थों का सार लेकर गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना की है, जिसके जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नामक दो महा अधिकार हैं। इनका दूसरा नाम पंचसंग्रह भी है। इस ग्रन्थ पर मुख्यत: चार टीकाएँ उपलब्ध हैं - (१) अभयचंद्राचार्य की संस्कृत टीका ‘मंदप्रबोधिका। (२) केशववर्णी की संस्कृत कन्नड़ी टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका । १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३९७ (१६)

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